Published on Jun 14, 2021 Updated 0 Hours ago

हमारी परेशानी को बाहर करना मुमकिन है लेकिन सीमित आधार मुद्दा है.

दूसरी लहर: भारत के ग़रीबों के लिए “अभी नहीं तो शायद कभी नहीं” का क्षण

जिस वक़्त भारत एक विकट, कभी-कभी साफ तौर पर सर्वनाश की तरह दिखने वाली दूसरी लहर से लड़ाई लड़ रहा है, उसी वक़्त एक और भयानक (लेकिन नज़र से दूर) युद्ध आम तौर पर बिना लड़े ही हार रहा है. ये युद्ध ध्वस्त आमदनी का है जिसने मोहलत की उम्मीद के बदले (मार्च 2021 तक जहां हालात बेहतर हो रहे थे) तेज़ी से अनिश्चितता और डर को बढ़ाया है. 2021 के लिए वृद्धि के अनुमान- जीडीपी और प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर के लिए कमाई का अनुमान- में तेज़ी से फेरबदल किया जा रहा है जो ज़्यादातर नीचे की ओर है. 

इस गिरावट की कई वजह हैं. कोविड-19 ने पूरी दुनिया को बड़ा झटका दिया है. कोई भी देश बचा हुआ नहीं है. लेकिन अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों- घरेलू, प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर और सरकार के बीच- ने इस दर्द को अलग-अलग रूप में महसूस किया है. 

जैसा कि ऊपर के चार्ट में देखा जा सकता है, कोविड-19 की वजह से भारत में परिवारों की आमदनी में 61 प्रतिशत की भारी कमी आई है जो दुनिया में सबसे ज़्यादा कमी में से एक है (इस मामले में दक्षिण अफ्रीका के बाद दूसरा नंबर). दूसरी तरफ़ सरकार को आमदनी में अपेक्षाकृत सबसे कम यानी 20 प्रतिशत कमी का सामना करना पड़ा. ये कई मामलों में चौंका देने वाला है. सबसे कम संसाधनों तक पहुंच रखने वाले अर्थव्यवस्था के क्षेत्र को सबसे ज़्यादा मुसीबत का बोझ ढोना पड़ रहा है. कुछ देशों में इसके ठीक विपरीत हालात हैं. सबसे ज़्यादा मुसीबत सरकार ने उठाई (किसी-किसी देश में बड़े पैमाने पर कर्ज़ के कार्यक्रम के ज़रिए भविष्य की मुसीबत) जबकि घरेलू क्षेत्र और प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर ने वास्तव में अपनी आमदनी की स्थिति बेहतर की. 

भारत की राष्ट्रीय मुसीबत का फैलाव उम्मीदों के विपरीत नहीं था- भारत में सरकार की तरफ़ से वित्तीय समर्थन दुनिया भर के देशों में सबसे कम में से एक था. 

केंद्रीय बैंकों द्वारा (जैसे भारत में आरबीआई) नकद समर्थन को छोड़ दें तो 2020 में भारत द्वारा मुहैया कराया गया प्रत्यक्ष वित्तीय समर्थन, जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर जिसे व्यक्त किया जाता है, दुनिया में सबसे कम में से है. इसका नतीजा ये हुआ कि राष्ट्रीय (और राज्य स्तर पर) लॉकडाउन की वजह से उत्पन्न आर्थिक मुसीबत का सामना ज़्यादातर घरेलू क्षेत्र को करना पड़ा है. 

केंद्रीय बैंकों द्वारा (जैसे भारत में आरबीआई) नकद समर्थन को छोड़ दें तो 2020 में भारत द्वारा मुहैया कराया गया प्रत्यक्ष वित्तीय समर्थन, जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर जिसे व्यक्त किया जाता है, दुनिया में सबसे कम में से है. 

अतीत का अन्याय और वर्तमान की चिंताएं 

पिछले साल जिस वक़्त वायरस ने हमारे ऊपर हमला किया, उसी वक़्त भारत बड़ी मंदी से बाहर निकल रहा था. घरों की आमदनी पर दबाव था, कई ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की नाकामी के कारण उपभोक्ताओं की खपत कम हो गई थी और प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर का निवेश पहले से ही कमज़ोर था. कमज़ोर शुरुआती बैलेंस शीट और उत्साहहीन वित्तीय समर्थन के साथ दूसरी लहर कारोबार और आमदनी में रुकावट के मामले में बाधा बन गई है. इस परेशानी में ग्रामीण भारत में संक्रमण के फैलाव को जोड़िए, जो पहली लहर के दौरान अपेक्षाकृत कम था, और ऊपर से सेंटीमेंट का भी मामला है. ये सेंटीमेंट का मुद्दा देश भर में बड़ी आबादी को टीक लगने के साथ ही हल होगा- फिलहाल टीकाकरण की रफ़्तार धीमी है और इसकी रफ़्तार के अनुमान को लेकर कई अनिश्चित मान्यताएं हैं. टीकाकरण के पात्र लोगों में से 16 प्रतिशत को पहली डोज़ और 3 प्रतिशत को दोनों डोज़ के साथ भारत अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए ज़रूरी वैक्सीनेशन के मामले में काफ़ी पीछे है. 

हमारी परेशानी को बाहर करना मुमकिन है लेकिन सीमित आधार मुद्दा है

ज़्यादातर दुनिया, ख़ास तौर पर बड़ी अर्थव्यवस्थाएं जैसे अमेरिका, चीन और यूरोप के कुछ देश तेज़ी से लॉकडाउन की पाबंदियां हटा रहे हैं. इन देशों में वी-शेप की आर्थिक बहाली के दम पर वैश्विक व्यापार में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है. दूसरी लहर के दौरान व्यापार के रास्तों और लॉजिस्टिक के तौर-तरीक़ों के काफ़ी हद तक खुले रहने के साथ निर्यात विश्वसनीय ढंग से भारतीय अर्थव्यवस्था को सहारा मुहैया करा सकता है. व्यापार के आंकड़ों से भी कुछ हद तक इसका पता चलता है. लेकिन गहराई और फैलाव- दोनों ही मामलों में इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्या का समाधान नहीं होगा. सबसे पहले, संरक्षणवाद यहां रहने वाला है, और व्यापारिक संघर्ष (अगर युद्ध नहीं तो) हर जगह मौजूद रहने वाला है. दूसरा, जैसे-जैसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं लॉकडाउन से मुक्त हो रही हैं, वैसे-वैसे व्यापारिक सामानों की जगह ग़ैर-व्यापारिक चीज़ों की खपत बढ़ेगी. इससे निर्यात की रफ़्तार में कुछ हद तक कमी आएगी. आख़िर में (और सबसे महत्वपूर्ण), हमारे निर्यात के सामानों को देखते हुए (जिसमें श्रम आधारित सामानों की जगह ज़्यादातर पूंजीगत सेक्टर है) भारत के लिए निर्यात का प्रसार स्वाभाविक रूप से काफ़ी कम होगा. 

इतिहास ने हमें दिखाया है कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था की बुनियाद में स्थिरता के लिए एकमात्र क़ीमत बाह्य खाता स्थिरता रही है- ये बेहद दुर्लभ है कि घरेलू स्तर पर फंड किए गए सॉवरेन से नुक़सान होता है.

पूंजी बाज़ार- गुमराह करने वाला 

पूंजी बाज़ार की रफ़्तार को देखकर आसानी से गुमराह हुआ जा सकता है- चुनिंदा कंपनियां काफ़ी अच्छा कर रही हैं और भारतीय स्टार्टअप्स बड़ी संख्या में यूनिकॉर्न (1 अरब डॉलर से ज़्यादा वैल्यू) में तब्दील हो रही हैं. भारत में पिछले कुछ समय से अर्थव्यवस्था की बुनियाद और पूंजी बाज़ार के प्रदर्शन के बीच पारस्परिक संबंध तेज़ी से कमज़ोर हो रहे हैं और कोविड-19 ने आर्थिक विभाजन को और गहरा किया है. अर्थव्यवस्था की बुनियाद और पूंजी बाज़ार के प्रदर्शन में अंतर ने एक और गंभीर जोखिम को बढ़ाया है- ये जोखिम है भारत में विरासत में मिले धन पर मुनाफ़े का प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि से ज़्यादा होना. ऐसा आम तौर पर विकसित देशों में होता है जहां वृद्धि कम होती है और औसत आमदनी का स्तर ज़्यादा होता है. जनसंख्या में अच्छी बढ़ोतरी और उत्पादकता में काफ़ी शिथिलता वाले विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आमदनी के मुक़ाबले विरासत में मिले धन पर कम मुनाफ़े का गंभीर सामाजिक-राजनीतिक नतीजा हो सकता है जो मौजूदा संकट से बढ़कर भी हो सकता है. 

सरकार को बोझ उठाने की ज़रूरत है

अभी “ख़ुद करो” के बेहद कम विकल्प मौजूद हैं. एक बड़े वित्तीय समर्थन का कार्यक्रम अब (ये कभी भी अगर-मगर की बात नहीं थी) बेहद ज़रूरी है. खपत को बढ़ाने के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और निवेश का चक्र शुरू करने के लिए सार्वजनिक पूंजी व्यय ज़रूरी है ताकि भारत विरासत में मिले धन पर मुनाफ़े के प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि से ज़्यादा होने के ढांचागत जाल में फंस न जाए और इसकी वजह से असमानता नहीं बढ़े. 

एक बेहद गहरा और काफ़ी हद तक अतार्किक डर महंगाई और बॉन्ड मार्केट की प्रतिक्रिया का है. अर्थव्यवस्था की कमज़ोर बुनियाद और आमदनी में काफ़ी नुक़सान की बात सिद्ध तथ्य हैं. ऐस में महंगाई को लेकर एकमात्र दबाव आयातित सामानों के दाम को लेकर है और ये वैसे भी ऐसी चीज़ नहीं है जिससे मौद्रिक नीति के ज़रिए निपटा जा सकता है. महंगाई को लेकर कुछ प्वाइंट का डर (आरबीआई की ताज़ा मौद्रिक नीति में जिसके लिए “क्षणिक” शब्द का इस्तेमाल किया गया है) और इसकी वजह से आमदनी ध्वस्त होने के बड़े संकट से निपटने को छोड़ने का न तो राजनीतिक कारण है, न ही आर्थिक. 

इतिहास ने हमें दिखाया है कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था की बुनियाद में स्थिरता के लिए एकमात्र क़ीमत बाह्य खाता स्थिरता रही है- ये बेहद दुर्लभ है कि घरेलू स्तर पर फंड किए गए सॉवरेन से नुक़सान होता है. 

भारत के सॉवरेन कर्ज़ के क़रीब-क़रीब 100 प्रतिशत स्थानीय होने की वजह से सरकार बाज़ार से ऋण और आरबीआई के द्वारा सीधा पैसा लगाकर एक काफ़ी बड़ा खर्च का कार्यक्रम चला सकती है. 

इतिहास ने हमें दिखाया है कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था की बुनियाद में स्थिरता के लिए एकमात्र क़ीमत बाह्य खाता स्थिरता रही है- ये बेहद दुर्लभ है कि घरेलू स्तर पर फंड किए गए सॉवरेन से नुक़सान होता है. उदाहरण के लिए, 1990 में संकट राजकोषीय घाटा बढ़ने की वजह से नहीं बल्कि फंड के स्रोत की वजह से आया. 1985 और 1990 के बीच बाहरी कर्ज़, जिसके एक बड़े हिस्से का इस्तेमाल राजकोषीय घाटे को रोकने के लिए किया गया, दोगुना हो गया था. इसका नतीजा ये हुआ कि जब खाड़ी युद्ध के बाद एक अस्थायी चालू खाते के मसले ने हमें परेशान किया तो पर्याप्त विदेशी मुद्रा जुटाने का “संकट” हो गया. भारत में आगे भी इसी तरह चलता रहा. यहां तक कि उसके बाद के वर्षों में बड़े राजकोषीय घाटे को भी बड़े “संकट” में बदलने नहीं दिया गया. 

तेल की क़ीमतों में बढ़ोतरी (जो कि बाह्य खाते की सेहत का एक परंपरागत सूचक है) के बावजूद भारत का बाह्य खाता आज अच्छी स्थिति में है. एक कमज़ोर बुनियादी वाली अर्थव्यवस्था आम तौर पर ग़ैर-तेल आयात को हतोत्साहित करती है और मज़बूत बुनियाद वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था से निर्यात में वाजिब बढ़ोतरी को बरकरार रखने की उम्मीद है- चालू खाते के घाटे को अनुकूल स्तर पर बरकरार रखने के लिए दोनों ही स्थितियां ठीक हैं. इसमें रिकॉर्ड 600 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा के भंडार और वैश्विक स्तर पर तरलता को लेकर केंद्रीय बैंकों के नज़रिए को जोड़िए और “विदेशी मुद्रा की मजबूरी” कोई आर्थिक नीति की परिस्थिति नहीं है. 

देश को किसी गंभीर संकट में लाए बिना ज़्यादा बड़े स्तर के ऋण कार्यक्रम को संभालने के लिए आरबीआई के पास पर्याप्त तौर-तरीक़े हैं. 

भारत सरकार अभी तक राजकोषीय नीति को लेकर काफ़ी चौकन्नी रही है. लेकिन भारत के ग़रीबों के लिए समय तेज़ी से बीत रहा है. देर (या अनुपस्थित) से दिया गया दख़ल वायरस से मरने वालों के मुक़ाबले ग़रीबी की वजह से ज़्यादा लोगों की मौत की वजह बनेगा. क़दम उठाने का वक़्त अभी है. 

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