Published on Jun 17, 2017 Updated 1 Hours ago

भारतीय अर्थव्यवस्था को दरकार इस बात की है कि वाणिज्यिक बैंकों के फंसे कर्ज (एनपीए) कम हो जाएं, पर कृषि ऋण माफी से क्या यह संभव हो पाएगा।

100,000 करोड़ हो चुके, अब तो कृषि ऋण माफ न करें

देश के आर्थिक‍ हालात पर नजरें दौड़ाने पर कई बातें न्‍यायसंगत या वाजिब प्रतीत होती हैं। मसलन, भारतीय अर्थव्यवस्था को दरकार इस बात की है कि वाणिज्यिक बैंकों के फंसे कर्ज (एनपीए) कम हो जाएं, बल्कि यहां तक कि खत्‍म ही हो जाएं, यही कारण है कि बैंकरों पर अपने खाता-बही को दुरुस्‍त रखने का भारी दबाव है। इसी तरह हम उन अमीर प्रमोटर्स को गिरफ्तार करके उन पर आपराधि‍क कार्रवाई किए जाने के पक्ष में हैं, जो ऋणों एवं इक्विटी के रूप में आम जनता के पैसे का इस्तेमाल कर अपनी कंपनियां धड़ल्‍ले से चला रहे हैं। यही नहीं, हम रियल एस्टेट के उन बड़े कारोबारियों को जेल भेजना चाहते हैं, जो बैंकों से कर्ज लेने और उपभोक्ताओं से अग्रिम राशि लेने के बावजूद उन्‍हें मकान डिलीवर नहीं कर रहे हैं। चाहे कारण आर्थिक हो या व्यावसायिक अथवा महज भ्रष्टाचार, भारतवासी यही चाहते हैं कि सूट पहनने वाले, लक्जरी कारें चलाने वाले, विशाल फार्मों में रहने वाले, निजी जेट विमान में उड़ने वाले, अपने बच्चों को आईवी लीग के स्‍कूलों में शिक्षाएं दिलवाने वाले लोगों का वित्तीय चाल-चलन सर्वोत्तम वैश्विक प्रथाओं के अनुरूप रहे। एक और बात। भारतवासी उन परिवारों से सर्वश्रेष्‍ठ नैतिक एवं भौतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं जिन्‍हें दो वक्‍त की रोटी के लिए भी काफी मशक्‍कत करनी पड़ती है और जिन्‍हें घर एवं उपभोक्ता वस्तुएं खरीदने के लिए लोन लेना पड़ता है। बेशक, ये सभी न्‍यायसंगत या उचित बातें हैं।

वहीं, दूसरी ओर महाराष्ट्र ने 12 जून को अपने 31 लाख किसानों में से प्रत्येक किसान के एक लाख रुपये तक के कृषि ऋण को माफ कर दिया है, जिस वजह से 30,000 करोड़ रुपये तक का बोझ राज्‍य के अन्य नागरिकों पर डाल दिया गया है। दरअसल, यह ऋण माफी उनके द्वारा अदा किए जाने वाले करों में से ही तो होगी — क्‍या यह न्‍यायसंगत या उचित है? महाराष्ट्र ने उत्तर प्रदेश (यूपी) के मॉडल का अनुसरण किया है, जिसने गत 4 अप्रैल को 86 लाख किसानों को लाभान्वित करने के लिए उनके 36,000 करोड़ रुपये के कृषि ऋण को माफ कर दिया था — क्‍या यह उचित है? वहीं, उत्‍तर प्रदेश ने तमिलनाडु के मॉडल का अनुसरण किया है, जिसने अपने 17 लाख किसानों के 5,780 करोड़ रुपये के कृषि ऋण को माफ कर दिया है और जिसे मद्रास उच्च न्यायालय ने और भी बढ़ाकर 7,760 करोड़ रुपये कर दिया – क्‍या यह उचित या जायज है? यही नहीं, अब पंजाब भी ऋण माफी की घोषणा करने वाला है। इन चार राज्‍य सरकारों में से तीन अर्थात तमिलनाडु, यूपी और पंजाब ने चुनाव में किसानों से ऋण माफी का वादा किया था जिसके बल पर संबंधित राजनीतिक दलों को वर्ष 2016 में तमिलनाडु और वर्ष 2017 में यूपी एवं पंजाब की सत्ता की बागडोर मिल गई- क्‍या यह उचित है? ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि किसान कुछ भी आयकर या अपनी कृषि आय में से कुछ भी राशि का भुगतान सरकार को नहीं करते हैं — क्‍या यह जायज है? तीन राज्य अभी तक किसानों के 73,760 करोड़ रुपये के कृषि ऋण माफ कर चुके हैं। जल्‍द ही पंजाब सरकार द्वारा भी अपने इस वादे को पूरा करते ही कृषि ऋण माफी का यह आंकड़ा इसी महीने 100,000 करोड़ रुपये के स्‍तर को छू लेगा।

महाराष्ट्र, यूपी, तमिलनाडु और पंजाब भयावह माली हालत वाले ऐसे चार राज्‍य हैं, जिनमें से तीन राज्‍यों में तो राजकोषीय घाटा भारी-भरकम है। वर्ष 2016-17 में और कृषि ऋण माफी की घोषणा से पहले यूपी के बजट में राजकोषीय घाटा 3.9 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया था। इसी तरह राजकोषीय घाटा तमिलनाडु में 3.0 फीसदी, पंजाब में 2.9 फीसदी और महाराष्ट्र में 1.6 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया था। यदि अन्‍य बातें सामान्‍य रहीं तो यूपी का मौजूदा 49,960 करोड़ रुपये का राजकोषीय घाटा कृषि ऋण की माफी के बाद 72 फीसदी बढ़ जाएगा और इसके साथ ही यह बढ़कर राज्य की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 6.7 फीसदी के स्‍तर पर पहुंच जाएगा। महाराष्ट्र में राजकोषीय घाटा (35,030 करोड़ रुपये) आज अपेक्षाकृत संतोषजनक स्थिति में है, लेकिन यह कृषि ऋण की माफी के बाद 86 फीसदी बढ़ जाएगा और इसका राजकोषीय घाटा बढ़कर 3.0 फीसदी के करीब पहुंच जाएगा। इसी तरह तमिलनाडु में 40,530 करोड़ रुपये का राजकोषीय घाटा है जो कृषि ऋण की माफी के बाद 19 फीसदी बढ़ने के कारण जीडीपी का 3.5 फीसदी हो जाएगा। राजकोषीय घाटे के अंतिम आंकड़े इन अनुमानों के मुकाबले कम भी रह सकते हैं, क्योंकि हमने इन राज्यों की जीडीपी में होने वाली वृद्धि को ध्यान में नहीं रखा है।

इस तरह की अनावश्‍यक ऋण माफी का आर्थिक निहितार्थ यह है कि राजनीतिक नेतृत्व अपने राज्य की माली हालत पर राजकोषीय जोखिम डालने को तैयार है। बेशक यह एक लोकतांत्रिक विरासत है, लेकिन इसके बिना हम रह सकते हैं। आर्थिक नैतिक खतरा तो एक तरफ है, दरअसल यह एक राजनीतिक खतरा भी है। इस तरह की खैरात के जरिए चुनावी फैसलों की प्रोत्साहन प्रणालियां बदल रही हैं। लोग राजनीतिक दलों को वोट नहीं दे रहे हैं, बल्कि ऋण माफ करने वालों को वोट दे रहे हैं। लोग नेताओं को वोट नहीं दे रहे हैं, बल्कि लोगों ने तो उनके साथ नापाक डील कर ली है। वे किसी भी सियासी विचारधारा के पक्ष में मतदान नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपने क्षुद्र हितों को साध रहे हैं। हालांकि, महाराष्ट्र का मामला थोड़ा अलग है क्‍योंकि कृषि संकट ने चुनाव के आसपास सियासी आंदोलन का रूप अख्तियार नहीं किया था और इसलिए कोई भी चुनाव पूर्व वादा नहीं किया गया था। किसानों द्वारा जताए जा रहे व्‍यापक विरोध के तहत भले ही राज्य की सड़कों पर दूध की नदियां बहाई जा रही हों, लेकिन इस पर हाय-तौबा मचाने की कोई जरूरत नहीं है। महाराष्ट्र में कृषि ऋण की माफी दरअसल किसानों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों का नतीजा है।

दरअसल, कृषि ऋण माफी की सियासत खुद राजनीति के ही स्‍वरूप को बदलती जा रही है। यह मतदाताओं को इस हद तक अराजनीतिक कर रही है कि राजनीतिक दल अब खेतों के मॉल में मात्र लेबल और ब्रांड बन कर रह गए हैं। यह मतदाताओं को डील करने वाले लोगों में बदल रही है। यह अर्थशास्त्र की मुद्रा का विमुद्रीकरण कर रही है और इसे राजनीति की मुद्रा में बदल रही है। यह नैतिक खतरे का आगाज भी कर रही है, क्‍योंकि किसान ऋण माफी की उम्मीद में जानबूझकर ऋण अदायगी में डिफॉल्‍ट कर रहे हैं। य‍दि कुछ अशोभनीय अंदाज में कहें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक दल सत्‍ता खरीदने के लिए आर्थिक रिश्वतखोरी का उपयोग कर रहे हैं। सभी की निगाहें अब पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह पर हैं, जो निश्चित तौर पर महाराष्‍ट्र के भाजपाई मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का अनुसरण करेंगे, जिन्‍होंने यूपी के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का अनुसरण किया, जिन्होंने किसानों के ऋण माफ करने के लिए तमिलनाडु में अण्णा द्रमुक के मुख्यमंत्री ई. के. पलानीस्वामी का अनुसरण किया। समस्‍त राजनीतिक दलों के साथ-साथ सभी विचारधाराओं के अंतर्गत भी भारतीय राजनीति एक ऐसी प्रथा को जारी रखना चाहती है जो 21वीं सदी के भारत के अनुरूप कतई नहीं है।

अच्‍छी आर्थिक दलील वाली सभी आवाजों को उन सियासी दलों द्वारा बड़ी बेरहमी से दबाया जा रहा है जिसे आम जनता का जनादेश हासिल है। भारतीय स्टेट बैंक की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य ने कहा, ‘हमें ऐसा प्रतीत होता है कि (कृषि) ऋण माफी से सदा ही ऋण संबंधी अनुशासन बिगड़ता है, क्योंकि रियायत पाने वाले लोगों को भविष्य में भी छूट मिलने की उम्मीद रहती हैं। ऐसे सभी भावी ऋणों को भी अक्सर अदा नहीं किया जाता है।’ इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई : कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना ने विरोध प्रदर्शन किए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने कहा, ‘वर्ष 2008 में (यूपीए1 सरकार द्वारा) ऋण माफ किए जाने के बाद वर्ष 2014 तक 16,000 किसानों ने आत्महत्या की थी। इसलिए अब यह साबित हो गया है कि महज ऋण माफ करके आप आत्महत्या नहीं रोक सकते हैं। आपको एक ऐसा तंत्र बनाने की ज़रूरत है जो किसानों की भरपूर मदद करे।’ इस पर भी तीखी प्रतिक्रिया हुई: विपक्ष ने महाराष्ट्र विधान परिषद में भारी हंगामा किया। प्रतिस्पर्धी राजनीति के इस माहौल में तर्कसंगत या उचित नीति निर्माण की कोई गुंजाइश नहीं है।

इसे ध्‍यान में रखते हुए राजनीतिक नेतृत्व को अब खैरात बांटने एवं नैतिक खतरों के बजाय बाजारों और अवसरों पर फोकस करना चाहिए। उसे छोटे और सीमांत किसानों को सहकारी समितियों के जरिए कृषि में अधिक उत्पादकता हासिल करने में सक्षम बनाने की आवश्यकता है, ताकि वे अधिक-से-अधिक सौदेबाजी कर सकें। इसके साथ ही उसे पैदावार बढ़ाने के लिए कम लागत वाली तकनीकों और कम पानी के उपयोग वाले ठोस एवं कारगर कृषि समाधान पेश करने पर अपना ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए। सरकार को वित्त का उपयोग करके बाजार तक किसानों की पहुंच बढ़ाने के लिए आवश्‍यक स्‍थल एवं रास्‍ते तैयार करने चाहिए। यही नहीं, सरकार को डिजिटल तकनीकों का उपयोग करके इन सभी पहलों को उत्प्रेरित करने के साथ-साथ नई गति प्रदान करनी चाहिए। सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि सरकार को उन उपलब्‍ध अवसरों से फायदा उठाने पर अपना ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए जिससे कि सीमांत किसानों एवं खेतिहर मजदूरों को संगठित विनिर्माण और सेवाओं के ज्‍यादा रिटर्न वाले क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जा सके।

राजनीति का ध्यान मतदाताओं को आकर्षित करने, पोषण और उनमें निवेश करने की खातिर ऋण माफी का उपयोग करने की ओर भटकाया जा रहा है। बड़े पैमाने पर कर्ज अदायगी में डिफॉल्‍ट करना अब सबसे अच्‍छा तरीका बनता जा रहा है। नैतिक पतन के फल का स्‍वाद चखने के लिए हमें किसानों की छवि धूमिल नहीं करनी चाहिए: आखिरकार ऐसा कौन होगा जो यह जानते हुए भी कर्ज अदा करेगा कि ऋण माफी तो महज एक ही चुनाव दूर है? सिर्फ इसलिए कि किसान राजनीतिक दृष्टि से कहीं बेहतर ढंग से संगठित हैं। दरअसल, इस गलत वित्तीय आचरण को वैध स्‍वरूप प्रदान किया जा रहा है। एक खास बात यह है कि सियासी दलों को सत्‍ता दिलाने में यह तरीका कारगर साबित हुआ है। हालांकि, यदि कर्ज अदायगी में डिफॉल्‍ट करना ही नई राजनीति है और संगठन इसकी नई अभिव्यक्ति है, तो मध्यमवर्गीय परिवारों को लामबंद होने और होम लोन, कार लोन, पर्सनल लोन, शिक्षा ऋण की अदायगी में डिफॉल्‍ट करने से उन्‍हें कौन रोक रहा है? यदि एक बार यह ज्ञात हो जाता है कि कुछ दिनों तक धरना देने, कपड़े उतार कर अर्द्धनग्‍न प्रदर्शन करने, कुछ शोरगुल मचाने, सोशल मीडिया हैशटैग पर कुछ हद तक सक्रियता दिखाने से वित्तीय लाभ अवश्‍य ही होंगे तो आज की तारीख में संगठित होना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। अत: कृषि ऋण माफी की वर्तमान खामोशी के आगे चलकर व्‍यापक कर्ज डिफॉल्‍ट के आर्थिक तूफान में बदलने से पहले भारत के राजनीतिक नेतृत्‍व को इस दिशा में जल्‍द-से-जल्‍द ठोस कदम उठाना चाहिए। कृषि ऋणों को माफ करने की प्रवृत्ति पर विराम लगाने की सख्‍त जरूरत है।

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