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2024 का साल विकास के लिए आधिकारिक वित्तीय मदद के मामले में धुरी बन सकता है क्योंकि इस साल ये देखने को मिल सकता है कि देश अपने ODA के आवंटन का जलवायु संबंधी संकटों के साथ कैसे तालमेल बनाते हैं.
महामारी के बाद वित्तीय संकट की चुनौती को देखते हुए दुनिया की अर्थव्यवस्था ने महंगाई के लगातार हमलों के बीच, अपने लचीलेपन की शक्ति को दिखाया है. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के मुताबिक़, पिछले साल की 2.9 प्रतिशत की तुलना में 2024 में GDP विकास दर में 2.7 प्रतिशत की मामूली सुस्ती देखने को मिल सकती है. हालांकि, टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) के लिए वित्त की कमी को पूरा करने के लिए बढ़ती मांग के बीच, विकास के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की तस्वीर भयावह दिख रही है. आज दुनिया बिखरी हुई, कमज़ोर और टुकड़ों में बंटी हुई है. जलवायु परिवर्तन के साफ़ दिख रहे परिणामों के साथ दुनिया में बढ़ते संघर्षों, नई अस्थिरताओं और विकास की कम गति की भविष्यवाणी को देखते हुए विकास में मददगारों को अपने आधिकारिक विकास सहायता (ODA) की रणनीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. वैसे तो विकास में सहायता देने वाले ग्लोबल नॉर्थ के देशों की जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रतिबद्धता तो बढ़ी है. लेकिन, जलवायु वित्तीय सहायता अभी भी ज़रूरत से काफ़ी कम मिल रही है. 2022 में ODA की कुल रक़म 204 अरब डॉलर के शीर्ष पर पहुंच गई थी. फिर भी, स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के लिए ये, 2000 अरब डॉलर की सालाना ज़रूरत से बहुत कम है. OECD द्वारा 2023 में जारी आंकड़ों के मुताबिक़, 2021 में आवंटन योग्य द्विपक्षीय ODA का लगभग 27.6 प्रतिशत हिस्सा, जलवायु परिवर्तन से निपटने के क्षेत्र में दिया गया था. जो 2020 के 33.7 प्रतिशत के आंकड़े (Figure 1) से कुछ कम है. इन आंकड़ों पर बारीक़ी से नज़र डालें तो ये भी पता चलता है कि ODA के एक बड़े हिस्से के तहत जलवायु परिवर्तन से निपटने (मिटिगेशन और ऐडेप्टेशन दोनों) में व्यय किया गया. लेकिन, आवंटन के पीछे ये प्रमुख वजह नहीं थी. 2021 में लगभग 14 अरब डॉलर की मदद के पीछे प्रमुख लक्ष्य जलवायु था. इसकी तुलना में 23 अरब डॉलर की सहायता की पहलों में जलवायु एक महत्वपूर्ण लक्ष्य था.
जलवायु परिवर्तन के साफ़ दिख रहे परिणामों के साथ दुनिया में बढ़ते संघर्षों, नई अस्थिरताओं और विकास की कम गति की भविष्यवाणी को देखते हुए विकास में मददगारों को अपने आधिकारिक विकास सहायता (ODA) की रणनीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है.
Figure 1: जलवायु संबंधी द्विपक्षीय ODA की एक झलक (2013-2021)
Source: OECD
यही नहीं, एजेंडा 2030 अपनाए जाने के बाद से वैसे तो, OECD के सदस्य देशों की विकास सहायता समिति (DAC) द्वारा दी जाने वाली विकास संबंधी वित्तीय सहायता में जलवायु परिवर्तन से जुड़ा हिस्सा लगभग 65 प्रतिशत बढ़ गया है. लेकिन, इस सहायता का बहुत कम हिस्सा ही उन देशों को मिला, जिनको इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है- यानी पर्यावरण के लिहाज़ से कमज़ोर देश. जैसा कि सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट ने बताया था कि दानदाताओं द्वारा तमाम विश्व बैंक के बैनर तले जुटाए जाने वाले जलवायु संबंधी फंडों जैसे कि ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF), ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी (GEF) और क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट फंड्स (CIF) के ज़रिए जुटाई गई 50 अरब डॉलर की रक़म का केवल 5.37 प्रतिशत हिस्सा ही, जलवायु के मामले में सबसे कमज़ोर 10 अर्थव्यवस्थाओं को दिया गया. ये तथ्य ‘जलवायु वित्त की व्यवस्था की परतों में छुपी ख़राबी’ है, जिसे कम आमदनी वाले और कमज़ोर क्षेत्रों के लिए समझ पाना मुश्किल है. इसके अतिरिक्त जब बात ODA को जलवायु एडेप्टेशन की तुलना में मिटिगेशन के लिए आवंटित रक़म की आती है, तो अंतर साफ़ नज़र आता है. इसकी कई वजहें हैं- a) जोखिम का आकलन और उसका बोझ उठाने की कमी; b) प्रोत्साहन की कमी, ख़ास तौर से एडेप्टेशन के लिए निजी क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली मदद; c) फंड को इस्तेमाल करने और उसे ख़र्च करने के मामले में स्थानीय स्तर पर क्षमता का अभाव, वग़ैरह.
जब बात ODA को जलवायु एडेप्टेशन की तुलना में मिटिगेशन के लिए आवंटित रक़म की आती है, तो अंतर साफ़ नज़र आता है. इसकी कई वजहें हैं- a) जोखिम का आकलन और उसका बोझ उठाने की कमी; b) प्रोत्साहन की कमी, ख़ास तौर से एडेप्टेशन के लिए निजी क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली मदद
यही नहीं, न केवल जलवायु वित्त बल्कि मानवीय मदद भी, 2023 में वित्तीय सहायता की परिचर्चाओं में जगह पाती रही है.संयुक्त राष्ट्र के मानवीय मदद के समन्वय के कार्यालय (UNOCHA) द्वारा जारी ग्लोबल ह्यूमैनिटैरियन ओवरव्यू 2024 रिपोर्ट के मुताबिक़, इस साल मानवीय संकटों से निपटने के लिए पूंजी की अनुमानित ज़रूरत लगभग 46.4 अरब डॉलर आंकी गई है. यही नहीं, 2023 में दानदाता, संयुक्त राष्ट्र की कुल ज़रूरत 56.7 अरब डॉलर में से केवल 35 प्रतिशत यानी 19.9 अरब डॉलर की सहायता ही दे पाए थे. निश्चित रूप से पूरी दुनिया में संकटों में अभूतपूर्व ढंग से बढ़ोत्तरी- यूक्रेन, इज़राइल और ग़ज़ा, सूडान और अफ़ग़ानिस्तान- ने क़ुदरती तौर पर विकास में सहायता देने वालों पर बोझ बढ़ा दिया है. आंकड़ों की बात करें, तो विकास में आधिकारिक सहायता (ODA) में निश्चित रूप से बढ़ोत्तरी हुई है. लेकिन, ये बढ़ती ज़रूरतों के साथ क़दम-ताल बिठा पाने में नाकाम साबित हुई है. क्या ODA दुनिया की राह में आने वाली बाधाओं से निपटने के मामले में नाकारा है? इसका जवाब शायद ‘न्यायोचित वित्तीय मदद’ के व्यवहार का सम्मान करने में छुपा है, जिसका हवाला मिस्र की अंतरराष्ट्रीय सहयोग मंत्री रनिया अल-मशात ने दिया था. ज़रूरतमंद देशों को न केवल पर्याप्त मात्रा में पूंजी हासिल करने की स्थिति में होना चाहिए, बल्कि आवश्यक गुणवत्ता वाली सहायता भी मिलनी चाहिए- यानी ऐसी वित्तीय सहायता जो स्थायित्व का निर्माण करे. शायद विकास में मदद देने के मामले में एक दूसरे से होड़ लगाने वाले देशों के बीच आपसी सहयोग ही इस बंटी हुई दुनिया में एक नई राह दिखा सकता है. यही नहीं, जानकार सुझाव देते हैं कि, ‘प्रतिद्वंदी सहयोग’ (coopetition) यानी विकास में मदद के लिए होड़ लगाने वालों का एक जैसे लक्ष्यों के लिए मिलकर काम करने से फ़ायदों का वितरण हो सकता है, जिससे वित्तीय सहायता के नए मॉडल, कम क़ीमतें और जनहित में सुधार संभव है. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, ये माना जाता है कि वैश्विक निजी निवेशकों के पास 410 ख़रब डॉलर की वित्तीय संपत्तियां हैं, जिनमें से 2.5 ट्रिलियन डॉलर की संपत्तियां निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों में हैं. विशेषज्ञों का सुझाव है कि पूंजी का ये निजी भंडार, दुनिया में सबसे कम इस्तेमाल किए गए संसाधनों में से एक है. इस संदर्भ में मिली-जुली पूंजी- यानी रियायती दरों पर सरकारों द्वारा दी जाने वाली मदद को निजी क्षेत्र द्वारा कल्याण हेतु दिए जाने वाले दान के साथ मिलाकर मुहैया कराने और निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के विकल्प को भी प्रभावी ढंग से आज़माया जा सकता है. हालांकि, समावेशी विकास आसानी से हासिल नहीं होता. हां ये सच है कि इस बात को ग्लोबल साउथ के देशों की नज़र से देखने की ज़रूरत है, जो ‘सहायता के औपनिवेशीकरण’ और मदद देने के ‘उद्योग’ की वजह से ग्लोबल नॉर्थ के अपने समकक्षों के साथ मिलकर काम करने को लेकर लगातार आशंकित रहते हैं. वैसे तो न्यायोचित वित्तीय सहायता को सुनिश्चित करने के लिए किए जाने वाले उपायों की कोई व्यापक सूची तो नहीं है. लेकिन, जानकार ये मानते हैं कि ODA को नए सिरे से ढालने का काम तीन प्राथमिक तत्वों पर केंद्रित होना चाहिए- a) उत्तर दक्षिण के विभाजन से आगे बढ़कर कमज़ोर भौगोलिक क्षेत्रों तक पहुंच बनाना; b) आपसी हितों, एकजुटता के साथ जवाबदेही और बोझ को मिलकर उठाने जैसे मूल्यों को शामिल करके नए सिद्धांत तैयार करना; और, c) नई आवाज़ों, किरदारों और संस्थाओं को आगे लाकर वित्त की कमी को पूरा करके नए गठबंधन बनाना. इस मामले में 2024 का साल विकास में वित्तीय मदद के क्षेत्र में संभवत: एक निर्णायक मोड़ बन सकता है. ये देखना दिलचस्प होगा कि तमाम देश किस तरह अपने ODA के आवंटन को जलवायु संकटों के साथ तालमेल बिठाते हैं और इस सहायता का क्रियान्वयन कैसे करते हैं.
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Dr Swati Prabhu is Associate Fellow with the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. Her research explores the interlinkages between development ...
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