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वर्ष 1995 के क्योटो प्रोटोकॉल ने जलवायु कार्रवाई (climate action) की बुनियाद के तौर पर "समान लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों" के सिद्धांत को स्थापित किया था. जलवायु कार्रवाई की बात करें, तो वर्तमान में ग्लोबल कॉमन्स के पतन को रोकना बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है. ज़ाहिर है कि पेरिस एग्रीमेंट की 193 पार्टीज ने जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित लक्ष्यों को प्रस्तुत कर अपनी इस गंभीरता को प्रदर्शित किया है, इनमें से 151 पार्टीज ने वर्ष 2021 में अपने लक्ष्यों को बढ़ाकर पेश किया है. वैश्विक जलवायु कार्रवाई के लिहाज़ से देखा जाए तो मौज़ूदा दौर बेहद परिवर्तनकारी है. ख़ास तौर पर जिस प्रकार से ग्लोबल साउथ द्वारा विकसित अर्थव्यवस्थाओं यानी विकसित देशों की ओर से क्लाइमेट एक्शन को लेकर किए गए वादों एवं बड़ी-बड़ी बातों पर, आंख बंद करके विश्वास (कुछ लोग इसे अनुचित कहेंगे) जताया गया है, उसके लिहाज़ से तो निश्चित तौर पर यह एक परिवर्तनकारी दौर है.
इस आबादी के दो-तिहाई लोग विकसित देशों में रहते हैं." इससे साफ पता चलता है कि ग़रीबी में घिरे लोग सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वालों में शामिल नहीं हैं, बल्कि यह संपन्न लोग ही हैं, जो सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं.
लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि विकसित देशों द्वारा इस भरोसे को क़ायम नहीं रखा गया है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) 2023 की रिपोर्ट से भी यह स्पष्ट होता है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ "उच्चतम आय वाली 10 प्रतिशत आबादी (वर्ष 2022 में) वैश्विक स्तर पर लगभग आधे (48 प्रतिशत) उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है, इस आबादी के दो-तिहाई लोग विकसित देशों में रहते हैं." इससे साफ पता चलता है कि ग़रीबी में घिरे लोग सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वालों में शामिल नहीं हैं, बल्कि यह संपन्न लोग ही हैं, जो सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं.
पेरिस समझौते के अंतर्गत जो जलवायु कार्रवाइयां की गई हैं और उनके जो संभावित नतीज़े (2020 से 2025) देखने को मिले हैं, उनके मुताबिक़ यूरोपियन यूनियन के अलावा दूसरी विकसित अर्थव्यवस्थाएं मौज़ूदा कार्बन उत्सर्जन को कम करने के अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई हैं. यूरोपियन यूनियन, जहां कुल वैश्विक आबादी का 6 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, वर्तमान (2022) वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में आनुपातिक रूप से उसकी लगभग 7 प्रतिशत की हिस्सेदारी है. इसके उलट, देखा जाए तो अमेरिका में कुल वैश्विक आबादी का सिर्फ़ 4 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, लेकिन वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन में उसका योगदान 11 प्रतिशत है. चीन की बात करें, तो वो दुनिया में सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है, लेकिन आबादी से इसकी तुलना की जाए तो, उसकी स्थिति इतनी चिंताजनक नहीं है. चीन में वैश्विक आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है और कुल वैश्विक उत्सर्जन में इसकी हिस्सेदारी 30 प्रतिशत है. इस प्रकार से देखा जाए तो भारत की स्थिति बेहद संतोषजनक है. भारत में भी चीन के ही बराबर आबादी है, लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत का योगदान केवल 7 प्रतिशत है. हालांकि, भारत में कार्बन उत्सर्जन फिलहाल लगातार बढ़ रहा है, जो कि चीन के विपरीत है, क्यों कि चीन शायद अपने चरम उत्सर्जन को पार कर चुका है. भारत वर्ष 2035-2045 के बीच अपने कार्बन उत्सर्जन के शीर्ष पर पहुंचने वाला है. हालांकि, भारत ने वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया है. जबकि चीन का लक्ष्य वर्ष 2060 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने का है और दूसरे विकसित देशों का लक्ष्य वर्ष 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का है.
भारत वर्ष 2035-2045 के बीच अपने कार्बन उत्सर्जन के शीर्ष पर पहुंचने वाला है. हालांकि, भारत ने वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया है.
मौज़ूदा कार्बन उत्सर्जन को कम करना, तो इस समस्या का आधा हिस्सा है. जबकि दूसरा आधा हिस्सा, जिस पर किसी का ध्यान नहीं है, वो वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का भंडार है. वर्ष 1890 से वातावरण में 1 ट्रिलियन टन ग्रीन हाउस गैस (GHG) का उत्सर्जन (जिसमें CO2 की हिस्सेदारी 75 प्रतिशत है) हुआ है. ग्रीन हाउस गैसों के इस उत्सर्जन में अमेरिका की ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ी 19 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जबकि यूरोपीय संघ और चीन की 13-13 प्रतिशत हिस्सेदारी है और भारत की केवल 4 प्रतिशत हिस्सेदारी है. वहीं विश्व के बाक़ी देशों की हिस्सेदारी 47 प्रतिशत है.
ग्रीन हाउस गैसों के अपार भंडार का कोई समाधान निकलाने से पहले वर्ष 2015 में साल-दर-साल कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिश किया जाना एक समझदारी भरा क़दम था. ज़ाहिर है कि अगर वैश्विक स्तर पर हर साल 54 बिलियन टन GHG उत्सर्जन बढ़ता है, तो वायुमंडल के क्षेत्र (stratosphere) के भंडार में GHG की मात्रा 5.4 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ती है. अनुमान है कि वर्ष 2035 तक GHG का भंडार दोगुना होकर 2 Gt हो जाएगा. यही वजह है कि वातावरण के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस (जिसकी अपेक्षा है) और 2 डिग्री सेल्सियस (उस समय हासिल किया जा सकता है) तक अधिकतम बढ़ोतरी के बीच चरम स्तर से बचने के लिए नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना बेहद अहम था. हालांकि, देखा जाए तो यह अवसर अब बचा नहीं है और ज़ाहिर है कि तय समय पर इस लक्ष्य को हासिल करना बेहद मुश्किल हो गया है.
उल्लेखनीय है कि व्यापक स्तर पर किसी भी जन आंदोलन को शुरू करने के लिए एक पुख्ता वजह की ज़रूरत होती है. ग्लासगो में आयोजित COP26 बैठक के दौरान कार्बन उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से कोयले को ज़िम्मेदार ठहराया गया और "कोयले के खात्मे" का विषय चुना गया. ज़ाहिर है कि यह एक ऐसा मुद्दा था, जिसने कहीं न कहीं विकसित अर्थव्यवस्थाओं को राहत प्रदान की. देखा जाए तो तेल की जीवाश्म ईंधन के रूप में खपत एवं उत्पादन में वैश्विक स्तर पर 35 प्रतिशत हिस्सेदारी है और तेल का तमाम विकसित देशों एवं मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं द्वारा अत्यधिक उपयोग किया जाता है. COP26 में तेल का उपयोग करने वाले देशों को एक हिसाब से बचा लिया गया. कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए कोयले को प्रमुखता के साथ ज़िम्मेदार ठहराना इसलिए भी बेहद आसान और सुविधाजनक था, क्योंकि ज़्यादातर विकसित अर्थव्यवस्थाओं की प्राकृतिक गैस या तरलीकृत प्राकृतिक गैस (liquified natural gas) जैसे अधिक महंगे विकल्प तक बेहतर पहुंच थी. अधिकतर विकसित देशों में या तो प्राकृतिक गैस का घरेलू स्तर पर उत्पादन किया जाता है, या फिर इसका उत्तरी अमेरिका, पश्चिम एशिया, नॉर्वे, रूस, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और इंडोनेशिया से आयात किया जाता है. चीन द्वारा रूस से गैस का आयात किया जाता है और इस तरह से उसके द्वारा अपर्याप्त घरेलू आपूर्ति को बढ़ावा दिया जाता है. इसके उलट, ग्लोबल साउथ के देशों के लिए सस्ते (लेकिन अधिक प्रदूषण फैलाने वाले) कोयले को छोड़कर महंगी (लेकिन अपेक्षाकृत स्वच्छ और पर्यावरण अनुकूल) नेचुरल गैस के विकल्प को चुनना बेहद दुष्कर है. इसकी एक वजह तो यह है कि नेचुरल गैस का दूसरे देशों से आयात करना पड़ता है और दूसरी वजह यह है कि उनकी आर्थिक हालत भी ऐसी नहीं है कि आयातित गैस का विदेशी मुद्रा में भुगतान किया जा सके. इसके साथ ही उच्च ब्याज दरों एवं रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से पैदा हुई मुद्रास्फ़ीति के कारण भी ग्लोबल साउथ के लिए ऐसा करना बेहद मुश्किल है.
परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की अपनी तमाम समस्याएं हैं, जैसे कि इसके उत्पादन में समय बहुत लगता है और इसको लेकर कई सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी हैं, जो कि इसकी व्यापक स्वीकार्यता में बड़ी बाधा हैं.
अगर "समान लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों" वाले क्योटो सिद्धांतों को सभी देशों को मिलजुल कर लागू करना है, तो दुबई में COP28 को कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए परिस्थितियों के हिसाब से अनुकूल विकल्पों को आगे बढ़ाने के लिए देशों के अधिकार का पुरज़ोर समर्थन करना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं है कि "अपने फायदे" की रणनीति, जो तेल के उपयोग का बचाव करती है पर कोयले के उपयोग का विरोध करती है, किसी भी लिहाज़ से स्वीकार नहीं होगी. कार्बन कैप्चर यूज एंड स्टोरेज (CCUS) टेक्नोलॉजी कोयले के इस्तेमाल के विकल्प के रूप में उभरी ग्रीन हाइड्रोजन (GH2) की नई तकनीक़ों की तुलना में कहीं अधिक विकसित भी है और इसकी प्रासंगिकता भी साबित हो चुकी है. निसंदेह तौर पर GH2 टेक्नोलॉजी बेहतर हो सकती है और व्यावसायिक लिहाज़ से फायदेमंद हो सकती है, लेकिन सवाल यह उठता है कि वर्ष 2045 तक के दौरान जो दो दशक हैं, उनका क्या होगा? वो भी ऐसी परिस्थितियों में जबकि हाइड्रोजन के भंडारण एवं परिवहन को लेकर तमाम सारी दिक़्क़तें हैं, ख़ास तौर पर सुरक्षा से संबंधित दिक़्क़तें, जो कि इस कार्य को न केवल महंगा बना देती हैं, बल्कि अभी यह परीक्षण के चरण में हैं?
औद्योगिक सेक्टर की बिजली की मांग को पूरा करने के लिए ट्रांजिशन फ्यूल की तलाश की जानी चाहिए, साथ ही बिजली की न्यूनतम मांग को पूरा किया जाना चाहिए, ताकि ग्रिड में नवीकरणीय ऊर्जा के एकीकरण में मदद की जा सके. निसंदेह रूप से इसका एक विकल्प परमाणु ऊर्जा है. हालांकि परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की अपनी तमाम समस्याएं हैं, जैसे कि इसके उत्पादन में समय बहुत लगता है और इसको लेकर कई सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी हैं, जो कि इसकी व्यापक स्वीकार्यता में बड़ी बाधा हैं. जहां तक पनबिजली यानी हाइड्रोपावर की बात है, तो मौसम की अनिश्चितता , खाद्यान्न उत्पादन की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पानी की आवश्यकता और CO2 की रीसाइक्लिंग के लिए वनों का विस्तार करने की ज़रूरत जैसी बातें इसके आड़े आती हैं. ऐसे में कोयला ही एक ऐसा ऊर्जा स्रोत है, जो व्यापक स्तर पर उपलब्ध है और इससे बिजली उत्पादन की टेक्नोलॉजी भी काफ़ी विकसित है, लेकिन इससे उत्सर्जन बहुत अधिक होता है. ऐसे में परिस्थितियों के अनुकूल कार्बन कैप्चर तकनीक़ का उपयोग यानी कार्बन डाइऑक्साइड को एकत्र कर उसका भंडारण करने की प्रौद्योगिकी का विकास ही एक रास्ता बचता है. ज़ाहिर है कि अगर इस दिशा में गंभीरता के साथ कार्य किया जाता है और संसाधनों को ख़र्च किया जाता है, तो निश्चित तौर पर वर्ष 2035 से पहले उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है.
प्राथमिकता: वार्षिक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के साथ ही GHG के भंडार को कम करना
वातावरण में लगभग 1 ट्रिलियन टन (1 Gt) ग्रीन हाउस गैसों का भंडार है, जिस प्रकार से इन गैसों का उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है, उससे इनके भंडारण की जगह कभी भी समाप्त हो सकती है. जिस तरह से वर्ष 2050 तक 2 डिग्री सेल्सियस का तापमान पहुंचने की संभावना 66 प्रतिशत बनी हुई है, उससे यह स्थिति और भी बिगड़ सकती है. ऐसे हालातों में GHG के भंडारण को कम करने के लिए तत्काल प्रभाव से क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है, ताकि वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन कम करने के असंभव से लक्ष्य की भरपाई की जा सके, यानी जो GHG उत्सर्जन हो रहा है उसके भंडारण के लिए जगह बनाई जा सके. उल्लेखनीय है कि धरती पर वन क्षेत्र को बढ़ाने या फिर चावल की खेती से होने वाले मीथेन गैस के उत्सर्जन को कम करने जैसी पारंपरिक तकनीक़ों के सहारे तो इसे हासिल नहीं किया जा सकता है.
एक सच्चाई यह भी है, जो रास्ता या तकनीक़ आज बहुत ही सहज दिखाई दे रही है, ऐसा नहीं है कि उसकी तलाश करने में कोई मेहनत नहीं की गई होगी, यानी उसे हासिल करने में कठिन परिश्रम ज़रूर किया गया होगा.
इसके लिए डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) तकनीक़ कारगर सिद्ध हो सकती है. इस तकनीक़ के माध्यम से हवा से सीधे CO2 को सोख लिया जाता है या फिर पानी में घुली CO2 को अलग कर लिया जाता है. इस तकनीक़ को औद्योगिक इनपुट के रूप में उपयोग करने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ाया जाना चाहिए. इतना ही नहीं, कोयले और तेल के दहन से पैदा होने वाले कार्बन को कैप्चर करने, उसका उपयोग करने या भंडारण करने की टेक्नोलॉजी को भी बहुउद्देश्यीय DAC/CCUS इन्फ्रास्ट्रक्चर से लाभ हासिल हो सकता है.
ग्रीन हाइड्रोजन या ग्रिड-स्केल बैटरी स्टोरेज जैसी उन्नत और नई प्रौद्योगिकियों में निवेश करने की तुलना में यह नज़रिया भले ही बेकार और अधिक "पिछड़ा" सा दिखाई देता है, लेकिन वास्तविकता में यह दृष्टिकोण एक नए औद्योगिक युग की शुरुआत करने वाला है. एक सच्चाई यह भी है, जो रास्ता या तकनीक़ आज बहुत ही सहज दिखाई दे रही है, ऐसा नहीं है कि उसकी तलाश करने में कोई मेहनत नहीं की गई होगी, यानी उसे हासिल करने में कठिन परिश्रम ज़रूर किया गया होगा. अक्सर, कम से कम ख़र्च वाले विकल्प, जो कहीं न कहीं समय की मांग भी होते हैं, वो मौज़ूदा जानकारी का मिलाजुला रूप होते हैं, अर्थात पहले से उपलब्ध जानकारी का ही उन्नत रूप होते हैं, जिन्हें विकसित करने में समय के साथ-साथ धन भी ख़र्च किया गया होता है. ज़ाहिर है कि ऐसी टेक्नोलॉजियों को प्रोत्साहित करना और उनका उपयोग करना सरकारों के लिए भी उपयुक्त होता है.
संजीव अहलूवालिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एडवाइजर हैं.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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