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Published on Apr 21, 2025 Updated 0 Hours ago

नेपाल में राजशाही समर्थक आंदोलन आंतरिक विभाजन और लोगों की बढ़ती हताशा के बीच मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के प्रति गहराते असंतोष को दिखाता है.

राजशाही समर्थक या गणतंत्र विरोधी: नेपाल में बढ़ती जा रही हताशा?

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जिस समय नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र कई वर्षों तक राजनीतिक चुप्पी के बाद एक बार फिर लोगों के सामने आए हैं, उस समय काठमांडू की सड़कों पर एक बार फिर से हलचल है. 1951 की क्रांति की सालगिरह के बीच 19 फरवरी को उन्होंने घोषणा की थी, “हम देश के लोगों से समर्थन की अपील करते हैं.” उनकी ये घोषणा केवल पुरानी याद से बढ़कर है, ये सोच-समझकर लोगों से इकट्ठा होने की अपील है. इस संदेश की गूंज राजधानी काठमांडु में सुनाई दी जिसका अंत 9 मार्च को उनके समर्थन में एक भारी प्रदर्शन से हुआ जब पोखरा से काठमांडू आने पर राजा ज्ञानेंद्र का स्वागत करने के लिए हज़ारों लोग त्रिभुवन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उमड़ पड़े. एक चिंगारी सुलग चुकी है, ये ऐसी चिंगारी है जिसने गणतांत्रिक व्यवस्था की बुनियादी को ही चुनौती देने की चेतावनी दे दी है.   

इस संदेश की गूंज राजधानी काठमांडु में सुनाई दी जिसका अंत 9 मार्च को उनके समर्थन में एक भारी प्रदर्शन से हुआ जब पोखरा से काठमांडू आने पर राजा ज्ञानेंद्र का स्वागत करने के लिए हज़ारों लोग त्रिभुवन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उमड़ पड़े. 

लेकिन बदलाव की लहर जल्द ही हिंसा में बदल गई. 28 मार्च को काठमांडू में उस समय भीषण झड़प हुई जब राजशाही समर्थक प्रदर्शनकारियों ने संसद के नज़दीक पुलिस की नाकेबंदी को पार करने की कोशिश की. सरकार ने आंसू गैस, पानी की बौछार और लाठियों से जवाबी कार्रवाई की. इसकी वजह से अराजकता फैल गई. गाड़ियों और इमारतों को जलाया गया, दुकानों को लूटा गया और 100 से ज़्यादा लोग घायल हुए. एक पत्रकार समेत दो लोगों की जान चली गई. इसके जवाब में सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया और व्यवस्था बहाल करने के लिए नेपाली सेना तैनात की.

राजशाही समर्थक आंदोलन के एक प्रमुख और विवादित चेहरे दुर्गा प्रसाई पर अशांति को बढ़ावा देने का आरोप है और वो अब गिरफ्तारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार ने कार्रवाई करते हुए राजशाही समर्थक कई नेताओं को हिरासत में ले लिया. इस बीच राजा ज्ञानेंद्र ने एक बार फिर चुप्पी साध ली है लेकिन जिस आंदोलन को उन्होंने प्रेरित किया वो पुनरुत्थान और पतन के बीच झूल रहा है. पुराने सपनों से परेशान और नई अनिश्चितताओं से घिरा नेपाल एक बार फिर ऐतिहासिक गर्त के मुहाने पर खड़ा है. 

युवा और पुरानी यादें: नई पीढ़ी ने की राजा की वापसी की मांग? 

हाल के महीनों में नेपाल राजशाही समर्थक प्रदर्शनों की बढ़ती लहर की चपेट में है जो न सिर्फ़ पुरानी यादों को बल्कि मौजूदा व्यवस्था से बहुत ज़्यादा हताशा को भी दिखाता है. 2008 में राजशाही ख़त्म होने के बाद से गणतांत्रिक व्यवस्था लोगों की उम्मीदों को पूरा करने में नाकाम रही है. 16 वर्षों में 14 सरकारों का नतीजा घोर अस्थिरता, विकास में ठहराव और व्यापक भ्रष्टाचार के रूप में निकला है. लोगों का मोहभंग तेज़ी से हो रहा है क्योंकि उन्हें बहुत बड़ा, अकुशल संघीय ढांचा दिखता है जो मुख्यमंत्री, प्रांतीय विधायक, VIP और नौकरशाह जैसे अनावश्यक पदों से भरा है. ये लोग कोई सार्थक बदलाव लाए बिना राष्ट्रीय संसाधनों की खपत करते हैं. सरकार को लोगों तक ले जाने के बदले संघवाद एक अभिजात वर्ग द्वारा संचालित परियोजना का प्रतीक बन गया है जो राजनीतिक किरदारों को सशक्त बनाता है जबकि आम नागरिकों को अलग-थलग करता है. धर्मनिरपेक्षता की दिशा में देश के बदलाव ने असंतोष को और बढ़ा दिया है, विशेष रूप से उन लोगों के बीच जिन्हें महसूस होता है कि नेपाल की हिंदू पहचान और सांस्कृतिक विरासत ख़तरे में है

पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने लोगों के सामने संयमित रवैया अपनाते हुए ख़ामोशी से लोकप्रिय भावना के साथ ख़ुद को जोड़ा है. उन्होंने देश में एकता की कमी और नैतिक पतन को लेकर चिंता जताई है. इसके साथ-साथ अपने संयुक्त जन आंदोलन के ज़रिए दुर्गा प्रसाई की लोक-लुभावनकारी और ध्रुवीकरण वाली बयानबाज़ी ने निराश नागरिकों के एक बड़े हिस्से पर छाप छोड़ी है. भ्रष्टाचार, युवाओं के पलायन और आर्थिक निर्भता के लिए गणतांत्रिक सरकार पर आरोप लगाते हुए उन्होंने वित्तीय संस्थानों, व्यावसायिक समूहों और मीडिया के अभिजात वर्ग पर अपने फायदे के लिए देश को हाईजैक करने का भी आरोप लगाया है. जैसे-जैसे उनकी रैलियों में तेज़ी आई, वैसे-वैसे वर्तमान राजनीतिक नेताओं की आलोचना करने वाले बैनर जगह-जगह दिखने लगे. कई प्रदर्शनकारियों ने तो न केवल राजशाही की वापसी बल्कि उन लोगों को हटाने की मांग भी की जिन्हें वो देश की उम्मीदों से विश्वासघात का दोषी मानते हैं. 

प्रदर्शन में तेज़ी आने से महज़ कुछ दिन पहले के.पी.ओली के नेतृत्व वाली सरकार के द्वारा नेपाल विद्युत प्राधिकरण के बेहद सम्मानित प्रमुख कुलमान घिसिंग को अचानक हटाने से लोगों का गुस्सा और भड़का. नेपाल में बिजली की कटौती के संकट को ख़त्म करने के लिए घिसिंग की प्रशंसा की जाती है और वो सक्षम शासन व्यवस्था के दुर्लभ प्रतीक बन गए थे. उनको पद से हटाने को राजनीति से प्रेरित बताया गया जिसकी वजह से व्यापक नाराज़गी भड़की और आम लोगों का असंतोष पीएम ओली के नेतृत्व के ख़िलाफ गुस्से में बदल गया. कई लोगों को लगता है कि ये फैसला योग्यता की कमज़ोरी का उदाहरण है. इसने लोगों के इस डर को बढ़ा दिया कि देश के कमज़ोर संस्थानों को राजनीतिक सुविधा के लिए ध्वस्त किया जा रहा है. राजशाही के समर्थन में जिस प्रदर्शन की शुरुआत हुई, वो जल्द ही एक व्यापक सरकार विरोधी आंदोलन में बदल गया. इसमें घिसिंग की बर्खास्तगी विश्वासघात के एक शक्तिशाली प्रतीक और बड़े बदलाव के लिए एक अपील बन गई. 

राजशाही के समर्थन में जिस प्रदर्शन की शुरुआत हुई, वो जल्द ही एक व्यापक सरकार विरोधी आंदोलन में बदल गया. इसमें घिसिंग की बर्खास्तगी विश्वासघात के एक शक्तिशाली प्रतीक और बड़े बदलाव के लिए एक अपील बन गई. 

नेपाल में मौजूदा समय में केवल राजशाही का पुनरुत्थान नहीं हो रहा है बल्कि ये गुस्सा, निराशा और लालसा का मिलन है. आर्थिक बदहाली, बेरोज़गारी और बेकाबू राजनीतिक लड़ाई ने गणतांत्रिक वादों में लोगों के भरोसे को तोड़ दिया है. अधिक केंद्रीकृत और कई लोगों के अनुसार ज़्यादा जवाबदेह सरकार की पुरानी यादों का मुकाबला अब लोगों के लिए कुछ कर पाने में जूझ रहे लोकतांत्रिक नेताओं की नाकामी से है. जैसे-जैसे भीड़ राजा की वापसी के लिए नारेबाज़ी और मौजूदा व्यवस्था की निंदा कर रही है, वैसे-वैसे नेपाल एक अस्थिर चौराहे पर नज़र आ रहा है. उसके सामने विकल्प है कि या तो वो गणराज्य के भीतर सार्थक सुधार को अपनाए या फिर एक नाटकीय राजनीतिक उलटफेर की बढ़ती संभावना का सामना करे.  

विदेशी प्रभाव और षडयंत्र के सिद्धांत: क्या विदेशी ताकतें नेपाल में राजशाही पर बहस को तय कर रही हैं? 

नेपाल में पिछले दिनों राजशाही के समर्थन में हुए प्रदर्शनों ने बाहरी असर को लेकर षडयंत्र के सिद्धांतों को हवा दी है जिसमें भारत, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के मुख्यमत्री योगी आदित्यनाथ, की भूमिका पर ध्यान दिया गया है. काठमांडू में पूर्व नरेश के स्वागत में आयोजित रैली के दौरान ज्ञानेंद्र की तस्वीरों के साथ प्रमुखता से आदित्यनाथ की तस्वीरें दिखीं. इससे नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत की भागीदारी को लेकर अटकलें तेज़ हो गईं. हिंदू विचारधारा के प्रति अपने ज़ोरदार समर्थन के लिए प्रसिद्ध आदित्यनाथ का संबंध गोरखनाथ मठ के माध्यम से नेपाल के शाही परिवार से है. इस धार्मिक संस्थान का शाह वंश के साथ पुराना संपर्क है. योगी, जिन्हें BJP के एक प्रभावी नेता के रूप में देखा जाता है, ने अतीत में नेपाल में राजशाही की वापसी और देश को हिंदू साम्राज्य बनाने का खुलकर समर्थन किया था. आलोचक दलील देते हैं कि इस तरह के प्रदर्शन नेपाल के धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करने का एक सुनियोजित प्रयास है. लेकिन भारत की सीधी भागीदारी का निश्चित प्रमाण अभी तक नहीं मिल पाया है. 

वैसे तो भारत की भूमिका को लेकर संदेह बना हुआ है लेकिन नेपाल में राजशाही के समर्थन में प्रदर्शनों के बीच चीन की चुप्पी को लेकर मिली-जुली व्याख्या सामने आई है. चीन की चुप्पी को रणनीतिक संयम या अपने हितों को सुरक्षित रखने को लेकर ऐहतियाती उपाय बताया जा रहा है. इस बीच राजशाही समर्थकों में पश्चिमी देश विरोधी भावना बढ़ती जा रही है. राजशाही समर्थक पश्चिमी देशों, विशेष रूप से यूरोप, पर धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक सुधार को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहे हैं जो नेपाल की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को नष्ट कर रहे हैं. षडयंत्र के सिद्धांतों से पता चलता है कि पश्चिमी देशों ने राजशाही की वापसी को दबाने और हिंदू देश बनने से रोकने के प्रयास किए हैं. इस नैरेटिव ने लोगों का अविश्वास और बढ़ाया है जिससे नेपाल के पहले से कमज़ोर राजनीतिक विमर्श में जटिलता बढ़ गई है. 

टिप्पणीकार और विश्लेषक राजशाही समर्थक आंदोलन में भारत की संभावित भूमिका को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं. कुछ मीडिया संस्थानों ने जहां दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को उजागर किया है, वहीं अन्य मीडिया संस्थानों ने प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप को लेकर सावधान किया है.

नेपाल में राजनीतिक प्रदर्शन के दौरान भारतीय मीडिया की कवरेज ने इस विमर्श में एक नया आयाम जोड़ा है. टिप्पणीकार और विश्लेषक राजशाही समर्थक आंदोलन में भारत की संभावित भूमिका को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं. कुछ मीडिया संस्थानों ने जहां दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को उजागर किया है, वहीं अन्य मीडिया संस्थानों ने प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप को लेकर सावधान किया है. उन्होंने नेपाल की संप्रभुता का सम्मान करने के महत्व पर ज़ोर दिया है. मीडिया के नैरेटिव में ये विरोधाभास नेपाल की राजनीतिक दिशा को निर्धारित करने में भारत के असर की सीमा और प्रकृति पर व्यापक बहस को दिखाता है. नेपाल में राजशाही समर्थक प्रदर्शनों ने विदेशी प्रभाव को लेकर साज़िश के सिद्धांतों को जन्म दिया है. इससे नेपाल के राजनीतिक भविष्य को आकार देने में आंतरिक अशांति और बाहरी दबाव के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण हो गया है. 

राजशाही समर्थक आंदोलन में असंतोष: नेतृत्व और वैधता के लिए संघर्ष 

राजशाही समर्थक आंदोलन के दौरान आंतरिक बंटवारा दिखाई दिया क्योंकि अलग-अलग गुट- राजशाही समर्थक, धार्मिक राष्ट्रवादी और असंतुष्ट राजनीतिक अभिजात वर्ग- वर्चस्व बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं जिससे नेतृत्व को लेकर संघर्ष और रणनीतिक कलह की स्थिति बन गई है. ध्यान देने की बात है कि राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP) के नेता राजेंद्र लिंगडेन को आंदोलन के भीतर नेतृत्व की भूमिका के लिए अनदेखा किया गया जिससे राजशाही समर्थक राजनीतिक नेताओं में मतभेद पैदा हो गया. इसी तरह RPP-नेपाल के नेता कमल थापा ने आंदोलन की दिशा को लेकर असंतोष व्यक्त किया जो एकजुट नेतृत्व के तहत राजशाही समर्थक अलग-अलग भावनाओं को एक करने में चुनौतियों को उजागर करता है. 

आंदोलन के भीतर एक प्रमुख चेहरे दुर्गा प्रसाई प्रभावी होने के साथ-साथ ध्रुवीकरण करने वाले भी हैं. उनके आक्रामक, लोक-लुभावन रवैये ने कई लोगों का ध्यान खींचा है लेकिन पारंपरिक राजशाही समर्थकों ने संदेह भी जताया है जो उनके तौर-तरीकों और मक़सद को लेकर सवाल उठाते हैं. प्रदर्शन के दौरान लोगों के तथाकथित कमांडर दुर्गा प्रसाई भीड़ को कथित रूप से भड़काने और घटनास्थल से भागने के बाद छिपे हुए हैं. प्रदर्शन के हिंसक होने के बाद पंचायत युग के पूर्व नेता जैसे कि नबराज सुबेदी, जो प्रदर्शन के संयोजक थे, अब घर में नज़रबंद हैं. इसकी वजह से नेतृत्व का सवाल जटिल बन गया है. जगमान गुरुंग को आंदोलन का नया कार्यकारी संयोजक नियुक्त किया गया है. इसके अलावा आंदोलन में हिंदू धार्मिक नेताओं की भागीदारी की सीमा अनिश्चित बनी हुई है जिससे आंदोलन के नेतृत्व की गतिशीलता में जटिलता बढ़ रही है.  

इन आंतरिक संघर्षों के बीच ध्यान देने की बात है कि पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह प्रदर्शन के हिंसक होने के बाद चुप्पी साधे हुए हैं. उनकी फिर से बहाली की लोगों की अपील और राजशाही समर्थक आंदोलन के बढ़ते ज़ोर के बावजूद ज्ञानेंद्र ने सीधे राजनीतिक जुड़ाव से परेहज़ किया है.

इन आंतरिक संघर्षों के बीच ध्यान देने की बात है कि पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह प्रदर्शन के हिंसक होने के बाद चुप्पी साधे हुए हैं. उनकी फिर से बहाली की लोगों की अपील और राजशाही समर्थक आंदोलन के बढ़ते ज़ोर के बावजूद ज्ञानेंद्र ने सीधे राजनीतिक जुड़ाव से परेहज़ किया है. उनकी चुप्पी राजशाही की छवि को सुरक्षित रखने का एक तरीका हो सकता है या आंदोलन की ताकत का आकलन करने की रणनीति हो सकती है लेकिन इसने दुर्गा प्रसाई जैसे चेहरों को नेतृत्व करने और आंतरिक विभाजन को गहरा करने की अनुमति दी है. वैकल्पिक रूप से ये नेतृत्व की भूमिका का वादा करने से पहले आंदोलन की मज़बूती का आकलन करने के लिए एक रणनीति दिखाता है. 

निष्कर्ष 

नेपाल में राजशाही समर्थक आंदोलन आंतरिक विभाजन और लोगों की बढ़ती हताशा के बीच मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के प्रति गहराते असंतोष को दिखाता है. राजशाही समर्थक, धार्मिक राष्ट्रवादी और असंतुष्ट राजनीतिक अभिजात वर्ग प्रभाव के लिए होड़ में लगे हैं जबकि दुर्गा प्रसाई जैसे लोकप्रिय चेहरे सुर्खियों में छाए हैं जिससे पारंपरिक राजशाही समर्थकों के साथ मतभेद पैदा होता है. हिंसा के बाद राजा ज्ञानेंद्र के चुप्पी वाले रवैये और एकजुट नेतृत्व की अनुपस्थिति ने राजशाही समर्थक प्रदर्शन की रणनीतिक दिशा को कमज़ोर किया है. दूसरी तरफ भ्रष्टाचार, शासन व्यवस्था की नाकामी और कुलमान घिसिंग को हटाने जैसे अलोकप्रिय फैसलों ने लोगों के गुस्से को भड़काया है. धर्मनिरपेक्षता और संघवाद, जिन्हें अतिशयोक्तिपूर्ण और अप्रभावी माना जाता है, से असंतोष के कारण कुछ लोग राजशाही को खो चुकी राष्ट्रीय पहचान और स्थिरता के प्रतीक के रूप में देखने लगे हैं. इस बीच भारत के हस्तक्षेप के संदेह और पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ बढ़ती भावना ने आंदोलन के भावनात्मक ज़ोर को तेज़ कर दिया है. 28 मार्च के हिंसक प्रदर्शन और कर्फ्यू से आंदोलन की अस्थिरता और सरकार के प्रतिरोध का पता चलता है. इसने नेपाल को एक राजनीतिक चौराहे पर खड़ा कर दिया है जहां उसके गणतांत्रिक और संघीय भविष्य को लेकर अनसुलझे सवाल हैं. 


सरोज कुमार आर्यल पोलैंड की वॉरसॉ यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. 

मनीष जंग पुलामी जापान की ओसाका यूनिवर्सिटी में PhD रिसर्चर हैं. 

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Authors

Saroj Kumar Aryal

Saroj Kumar Aryal

Saroj Kumar Aryal is an Assistant Professor at the University of Warsaw, Poland. His areas of expertise include South Asian geopolitics, India's foreign policy, Nepal's ...

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Manish Jung Pulami

Manish Jung Pulami

Manish Jung Pulami is a PhD researcher at Osaka University, Japan. His areas of expertise include Nepal's foreign policy, Indo-Pacific, small states in IR, and ...

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