Authors : Kriti Kapur | Shoba Suri

Published on Sep 16, 2021 Updated 17 Days ago
कुपोषण मुक्त भारत – ‘पोषण’ अभियान के बेहतरीन प्रयोग और नई संभावनाएं

आज भारत में कुपोषण की दर चौंकाने वाली हद तक घट चुकी है. इसके बावजूद, हमारा देश दुनिया में अविकसित और कमज़ोर बच्चों का सबसे बड़ा ठिकाना बना हुआ है. राज्यों के बीच बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक और भौगलिक विविधताएं हैं. इनके चलते कुपोषण के खिलाफ जंग में जीत हासिल करने के लिए पोषण अभियान जैसी कोशिशों की ज़रूरत पड़ रही है. 2017 में राष्ट्रीय पोषण अभियान को सरकार ने कुपोषण के खिलाफ़ एक एकजुट व्यवस्था के तौर पर शुरु किया. ये ख़ास रिपोर्ट भारत में पोषाहार के लिए पहले किए गए प्रयासों और मौजूदा वक्त में जारी क़वायद का एक खाका पेश करती है. इसके साथ ही ये रिपोर्ट, उनकी कामयाबियों और नाकामियों की भी पड़ताल करती है. साथ ही ये उत्तर भारत में पोषण अभियान के अब तक के अनुभवों पर खास रौशनी डालती है, जिसका मक़सद राज्यों द्वारा अपनाए गए इनोवेटिव तरीक़ों और आधुनिक तकनीकों को और आगे बढ़ाना है. रिपोर्ट का निष्कर्ष उन विशिष्ट सुझावों के साथ होगा जिनके ज़रिए सन 2030 तक कुपोषण की समस्या से स्थायी तौर पर निजात मिल सके.


एट्रिब्यूशन: कृति कपूर और शोभा सूरी, टुवर्ड्स अ मैलन्यूट्रिशन फ्री इंडिया: बेस्ट प्रैक्टिसेज़ ऐंड इनोवेशन फ्रॉम पोषण अभियान, ओआरएफ स्पेशल रिपोर्ट नंबर 103. मार्च 2020. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन


प्रस्तावना

कुपोषण भारत की गम्भीरतम समस्याओं में एक है मगर फिर भी इस पर सबसे कम ध्यान दिया गया है. नतीजा ये कि केवल इसी की वजह से देश पर बीमारियों का बोझ बहुत ज्यादा है. हालांकि राष्ट्रीय परिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (NFHS-4) के आंकड़े बताते है कि देश में कुपोषण की दर घटी है. लेकिन न्यूनतम आमदनी वर्ग वाले परिवारों में आज भी आधे से ज्यादा बच्चे (51%) अविकसित, और सामान्य से कम वजन (49%) के हैं. [1]

आज भारत में दुनिया के सबसे अधिक अविकसित (4.66 करोड़) और कमजोर (2.55 करोड़) बच्चे मौजूद हैं. [2]

2017 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय पोषण मिशन के तहत बड़े जोर-शोर से पोषण अभियान की शुरुआत की थी. इसका मकसद बच्चों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के खान-पान में सुधार लाना था.

2019 में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ( ORF) ने महिला और बाल विकास मंत्रालय के सहयोग से एक वर्कशॉप आयोजित की. इसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि, संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां, वर्ल्ड बैंक जैसे बहुआयामी संगठन, मशहूर विद्वान और सामाजिक संगठनों के सदस्य शामिल हुए और पोषण अभियान से जुड़े अपने अनुभवों को साझा किया. 

2019 में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ( ORF) ने महिला और बाल विकास मंत्रालय के सहयोग से एक वर्कशॉप आयोजित की. इसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि, संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां, वर्ल्ड बैंक जैसे बहुआयामी संगठन, मशहूर विद्वान और सामाजिक संगठनों के सदस्य शामिल हुए और पोषण अभियान से जुड़े अपने अनुभवों को साझा किया. इस वर्कशॉप का मक़सद इन लोगों के लिए एक ऐसा मंच मुहैया कराना था जहां, देश के उत्तर भारतीय इलाकों में अभियान की कामयाबी के क़िस्से साझा किए जाएं और उन्नत पोषण की बेहतर संभावनाओं की तलाश की जाए. ये रिपोर्ट ORF की उसी वर्कशॉप के ज़रिए सामने आए विचारों के आधार पर तैयार की गयी है. रिपोर्ट का ढांचा कुछ इस तरह से तैयार किया गया है:

रिपोर्ट के अगले हिस्से में हम भारत में मौजूद पोषण की तमाम चुनौतियों को जानने समझने की कोशिश करेंगे. उसके बाद पोषण से जुड़े कार्यक्रमों, उनकी सफलता और उपलब्धियों को समझेंगे. इसके बाद रिपोर्ट पोषाहार से जुड़े सरकार के फ्लैगशिप प्रोगाम पोषण अभियान के मकसद पर रौशनी डालती है, और उत्तर भारत में इससे जुड़े खास अनुभवों के बारे में ख़ास तौर से बताती है. रिपोर्ट का समापन पोषण अभियान की कामयाबी तय करने वाले सुझावों के साथ किया गया है, जिनमें अलग-अलग राज्यों द्वारा अपनाए गए इनोवेश और कोशिशों में और सुधार लाना भी शामिल है.

भारत में पोषण की चुनौतियां: एक नज़र

बीते 40 साल के दौरान भारत में बहुत से पोषण कार्यक्रम चलाए गए. इनमें एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (ICDS) बनाना और देशव्यापी मिड डे मील योजनाओं को लागू किया जाना शामिल है. मगर कुपोषण और कमज़ोरी देश की विकास प्रक्रिया में बाधा बने हुए हैं. शारीरिक कमज़ोरी का तो मानव संसाधन विकास, गरीबी उन्मूलन और सामाजिक न्याय से जुड़े कार्यक्रमों पर व्यापक दुष्प्रभाव दिखता है. इसकी वजह से पढ़ाई लिखाई की संभावनाओं पर भी बुरा असर पड़ा और नतीजा ये कि आगे चलकर पेशेवर कामयाबी की संभावनाएं भी कम हुईं. भारत में कुपोषण और बच्चों के विकास की कमी में निवेश पर कई गुना रिटर्न मिलने की संभावनाएं हैं. [3]  हर एक डॉलर के निवेश पर 18 डॉलर तक का रिटर्न मिलने की संभावना होती है. आज भी दुनिया की कुपोषित आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा भारत में रहता है, और 2019 के ग्लोबल हंगर इन्डेक्स [4]  (GHI) में भारत 117 देशों में 102 वें नंबर पर था.

सर्वे के आंकड़ों पर गौर करें, तो पता चलता है कि शारीरिक विकास की चुनौती का सीधा ताल्लुक़ उम्र से दिखता है. ये समस्या 18 से 23 महीने के बच्चों के बीच सबसे ज़्यादा होती है. सही समय पर शुरु हुआ स्तनपान, उम्र के मुताबिक पूरक भोजन, टीकाकरण और विटामिन ए सप्लीमेंट्स, पोषण के लिहाज से बेहद ज़रूरी हैं. 

157 देशों वाले मानव पूंजी के सूचकांक [5] में भारत का नंबर 115वां है. स्वास्थ और शिक्षा के क्षेत्र में लम्बे समय से जरूरी निवेश न होने के चलते आर्थिक विकास की रफ़्तार धीमी रही. विश्व बैंक [6] के मुताबिक ‘बचपन की शारीरिक कमजोर के चलते वयस्कों के कद में 1% की कमी दर्ज की गयी है जो आर्थिक उत्पादन में 1.4 फीसदी के नुक़सान का कारण बनती है‘. शारीरिक विकास में कमी आने वाली पीढ़ियो पर भी दूगामी असर डालती है. इससे भी ज़्यादा चिंता की बात ये है कि महिलाओं में ख़ून की कमी ( जो 2015-16 में 53.1% थी ) [7] का नकारात्मक असर भविष्य में उनके गर्भधारण पर पड़ता है. ऐसी महिलाओं के बच्चे भी ख़ून की भारी कमी के साथ पैदा होते हैं. हद तो तब हो जाती है जब इन बच्चों को भोजन भी अपर्याप्त मिलता है.

भारत में शारीरिक विकास और कम वजन की समस्या

भारत में दुनिया के सबसे अधिक अविकसित (4.66 करोड़) और कम वज़न ( 2.55 करोड़) वाले बच्चे हैं [8]  15 से 49 साल उम्र की 23 फ़ीसद महिलाएं और बीस प्रतिशत मर्द कम वज़न के हैं, और लगभग इतने ही अनुपात में (21 प्रतिशत महिलाएं और 19 फ़ीसद पुरुष) मर्द और औरत औसत से ज़्यादा वज़न और मोटापे  के शिकार हैं.

2015-16 के राष्ट्रीय परिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 [9] के मुताबिक़ भारत में थोड़े बहुत सुधार के बावजूद शारीरिक विकास की हालत अभी भी चिंताजनक है (फिगर 1). 1980 में भारत में अविकसित बच्चों की 66.2 प्रतिशत तादाद लगभग आधी घटकर 38.4 फ़ीसद पर आ गई है. 5 साल से कम के अविकसित बच्चों का आंकड़ा एक दशक पहले के 48 प्रतिशत से घट कर 38.4 फीसदी हो गया है. अगर पुडुचेरी, दिल्ली, केरल और लक्षद्वीप को छोड़ दें, तो बाक़ी सभी राज्यों के शहरी इलाक़ों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्र में शारीरिक रुप से कमज़ोर बच्चों की संख्या अधिक है. इस बीच, बीते 10 सालों में 5 साल से कम उम्र के कम वजन वाले बच्चों की संख्या बढी है. अगर 2005-06 में ऐसे बच्चों की संख्या, बच्चों की कुल आबादी की 19.8 फ़ीसद थी तो 2015-16 में ये बढ़ कर 21 प्रतिशत हो गयी है. इसी तरह वज़न की गंभीर कमी की समस्या से जूझते बच्चों का अनुपात 2005-06 में 6.4 प्रतिशत की तुलना में 2015-16 में बढ़ कर 7.5 फ़ीसद हो गया.

सर्वे के आंकड़ों पर गौर करें, तो पता चलता है कि शारीरिक विकास की चुनौती का सीधा ताल्लुक़ उम्र से दिखता है. ये समस्या 18 से 23 महीने के बच्चों के बीच सबसे ज़्यादा होती है. सही समय पर शुरु हुआ स्तनपान, उम्र के मुताबिक पूरक भोजन, टीकाकरण और विटामिन ए सप्लीमेंट्स, पोषण के लिहाज से बेहद ज़रूरी हैं. [10] हालांकि, आंकड़े गवाह हैं कि केवल 41.6 प्रतिशत बच्चे ही पैदाइश के घंटे भर के भीतर स्तनपान शुरु कर पाते हैं. 54.9 फ़ीसद बच्चों को ही 6 महीने तक स्तनपान कराया जाता है, और 2 साल से कम उम्र के केवल 9.6 फीसदी बच्चे ही सही खान-पान पाते हैं. [11] विटामिन ए की समस्या बच्चों में खसरे और डायरिया के मर्ज़ का ख़तरा बढ़ा देती है. ये नतीजा उस चिंताजनक स्टडीन में सामने आया है, जिसके मुताबिक़ 40 प्रतिशत बच्चों को न तो पूरे टीके लग पाते हैं और न ही उन्हें विटामिन ए सप्लीमेंट मिल पाते हैं. [12]

असल में भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में हर इलाक़े की ख़ास ज़रूरतों के हिसाब से अलग व्यवस्था की दरकार है, न कि सब जगह एक ही पैमाने पर बने कार्यक्रम को लागू करना. पिछले कई बरस से यही तरीक़ा अपनाया जाता रहा है.

रिसर्च  [13] में पता चला है कि 2006 से 2016 के बीच 5 साल से कम उम्र के 46 लाख बच्चों को शारीरिक विकास की समस्या को कई तरह के उपायों से रोका जा सकता था (फिगर 2). इस रिसर्च के लिए इस्तेमाल किए गए मॉडल के विश्लेषण से पता चलता है कि बचपन में साफ़-सफ़ाई और शुद्ध पानी के साथ दिए गए पूरक आहार शारीरिक विकास की समस्या को 86.5 फ़ीसद तक कम कर सकते हैं.

हालांकि इस दौरान, वज़न की कमी की समस्या में कोई सुधार नहीं देखा जा रहा है, और वो 3 दशक पहले के 21 फ़ीसद के स्तर पर ही रुकी हुई है. भारत में ये समस्या बहुत व्यापक है, (फिगर 3) और तमाम कोशिशों के बावजूद, पिछले दस सालों में ये 20 से 21 प्रतिशत पर टिकी हुई है. भारत में कम वज़न वाले बच्चों का आंकड़ा दुनिया में सबसे ज्यादा 2.55 करोड़ है – ये दुनिया भर में कम वज़न वाले बच्चों की कुल संख्या 4.95 करोड़ का लगभग आधा है. वज़न की समस्या पर ग़ौर करें, तो इसमें न तो शहर और गांवों के बच्चों में कोई ख़ास अंतर दिखता है और न ही लड़के लड़कियों के बीच. हालांकि, आदिवासी समुदायों में इसकी दर सबसे ज्यादा 27.4 फ़ीसद है, तो ‘अन्य दर्जा’ धार्मिक अंतर का है, जहां ये 29.16 प्रतिशत है. सबसे ज़्यादा ग़रीब आबादी में वज़न की कमी की समस्या सबसे ज़्यादा यानी 23.5 फ़ीसद है, जो राष्ट्रीय औसत से दो प्रतिशत ज्यादा है।

जहां तक कम वज़न का सवाल है, तो एक तिहाई से ज़्यादा यानी 35.7 प्रतिशत बच्चे इसी दर्जे में आते हैं. बीते दशक में जो सर्वे 2015 में सामने आया, इसमें थोड़ी कमी आती देखी जा रही है जो 2005 में 42.5 फीसदी थी।

बच्चों और गर्भधारण कर सकने की उम्र वाली महिलाओं में खून की कमी भी एक बड़ी समस्या है. हालांकि 2005 से 2015 के बीच भारत में ख़ून की कमी के शिकार बच्चों का अनुपात 11.1 प्रतिशत और गर्भवती महिलाओं में 8.5 फ़ीसद तक घटा है. महिलाओं में एनीमिया का दायरा 9 फीसदी से लेकर 83.2 फीसदी तक है. आंकड़े बताते हैं कि 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से 13 में खून की कमी वाले बच्चों की तादाद 60 फ़ीसद से ज़्यादा है. वहीं 14 राज्यों में पचास प्रतिशत से ज़्यादा गर्भवती महिलाओं में ख़ून की कमी देखी गई है.

 मां और बच्चे की सेहत और पोषण सुधारने के मक़सद से बनाई गईं तमाम योजनाएं होने के बावजूद, इनका फ़ायदा लेने वालों की तादाद बहुत कम रही है. राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (NFHS-4) के आंकड़ों के मुताबिक केवल 51 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं ही बच्चे की पैदाइश से पहले जागरूकता के चार कार्यक्रमों में शामिल हुईं 

पोषण अभियान के सबक़:  कल और आज

पिछले एक दशक में, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वर्ष 2025 [14] के लिए तय किए गए पोषाहार का लक्ष्य और साथ ही टिकाऊ विकास के लक्ष्य-2 (SDG-2) [15] करने की रणनीति तैयार करने पर बहुत गम्भीरता से काम हुआ है, जिससे 2030 तक देश में हर तरह के कुपोषण की  समस्या को पूरी तरह ख़त्म किया जा सके. हालांकि, भारत ने कुपोषण की समस्या घटाने में बहुत कामयाबी हासिल की है. लेकिन, वैश्विक स्तर पर तय लक्ष्य हासिल करने के लिए अब भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है.

भारत की मुख्य पोषण और बाल विकास योजना, एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (ICDS), पिछले 45 वर्षों में देश के तमाम क्षेत्रों में लागू की जा चुकी है. इस योजना की शुरुआत 1975 में हुई थी, और आज ये लगभग हर ज़िले के हर ब्लॉक तक पहुंच चुकी है. इस योजना के तहत कुपोषण के सभी मुख्य वजहों का हल तलाशने की कोशिश की गई है. आंगनबाड़ी केन्द्र जैसे सामुदायिक नेटवर्क के जरिए इस योजना ने बच्चों की सेहत, पढ़ाई और पोषण की बेहतरी के लिए अलग-अलग कार्यक्रमों को एक साथ लाने की कोशिश की है. इन उपायों में पूरक पोषाहार योजना, विकास और प्रगति की निगरानी, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, अस्पताल में सेहत की जांच और दूसरों को जांच के लिए भेजने और स्कूल से पहले की शिक्षा देना शामिल हैं. इस योजना से सबसे ज़्यादा फ़ायदा छह साल से कम उम्र के बच्चे और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को हुआ है. 2006 में कुपोषण के खिलाफ जंग में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने एकीकृत बाल विकास योजना को अपना प्रमुख कार्यक्रम बनाया था. आज देश में आंगनबाड़ी सेवा योजना  [16] को 7075 पूरी तरह से सक्रिय परियोजनाओं और 13.7 लाख केंद्रों के ज़रिए चलाया जा रहा है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2006 से 2016 के बीच ICDS के विस्तार और उसके योगदान में समानता पर एक अध्ययन [17] किया था. इसमें पता चला था कि 2006 से 2016 के दौरान जिन गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और उनके नवजात से 59 महीने के बच्चों ने इस योजना का लाभ लिया था, उनका अनुपात बढ़ा है. ICDS के तहत पूरक आहार के इस्तेमाल में 9.6 फ़ीसद से लेकर 37.9 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी हुई है; स्वास्थ्य और पोषण से जुड़ी शिक्षा 3.2 प्रतिशत से बढ़कर 21.0 फ़ीसद हुई है: सेहत की पड़ताल 4.5 प्रतिशत से बढ़कर 28 फ़ीसद हो गया है; और बच्चों पर केंद्रित सेवाएं (जैसे कि टीकाकरण और उनके विकास की निगरानी) 10.4 फ़ीसद से बढ़कर 24.2 प्रतिशत हो गई हैं. [18] देश की भौगोलिक बनावाट और आबादी की विविधता को देखते हुए, ICDS के काम के इतने बड़े स्तर पर विस्तार की तारीफ़ तो बनती है. हालांकि इस रिसर्च में भौगोलिक और सामाजिक व आबादी के पैमानों पर सुविधा उपलब्ध कराने में बड़े अंतर भी दिखे हैं. [19]

ऐतिहासिक रूप से, सबसे ग़रीब राज्य जहां कुपोषण की समस्या भी बहुत अधिक है, वहां पर ICDS की पहुंच सबसे कम है. प्रति बच्चा बजट आवंटन भी अपर्याप्त है. [20] ग़रीब राज्यों में सर्विस डिलिवरी सिस्टम की खामियों के चलते सबसे कम आमदनी वाला तबक़ा इसके फ़ायदों से महरूम है. उससे भी बड़ी समस्या ये है कि ICDS को कुपोषण के तमाम कारणों के निदान के लिहाज़ से बनाया गया था. खास तौर पर खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ सेवाएं- मगर ज़मीनी तौर पर इसको लागू करने की वास्तविकता मे बड़ा फ़र्क़ है. ये कायर्क्रम मुख्य रूप से कुपोषित बच्चों और महिलाओं को पूरक आहार उपलब्ध कराने पर केंद्रित है. लेकिन, इस चक्कर में स्वास्थ्य सेवा और अभिभावकों की काउंसलिंग को शामिल करने के अहम काम की अनदेखी होती है. [21]

असल में भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में हर इलाक़े की ख़ास ज़रूरतों के हिसाब से अलग व्यवस्था की दरकार है, न कि सब जगह एक ही पैमाने पर बने कार्यक्रम को लागू करना. पिछले कई बरस से यही तरीक़ा अपनाया जाता रहा है.

ICDS के व्यापक दायरे में कई योजनाएं जैसे कि आंगनबाड़ी सेवाएं, किशोर लड़कियो के लिए योजनाएं और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजनाएं (PMMVY) शुरु की गई हैं. इनके अलावा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने बच्चों में कुपोषण की भीषण समस्या से निपटने के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र भी स्थापित किए हैं.

तीसरा और आखिरी स्तंभ, कुपोषण के पीढ़ियों से चले आ रहेचक्र को तोड़ना है. इसकी लंबे समय से अनदेखी होती रही है. नयी नीतियों और कार्यक्रमों से इसमें बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है. पीढ़ीगत प्रभाव का मतलब ‘वो परिस्थितियां, मजबूरियां और माहौल हैं जिनका असर दूसरी पीढ़ी की सेहत और शारीरिक विकास पर दिखाई देता है

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून 2013 के तहत आने वाली प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना [22] में गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को आंशिक मज़दूरी दी जाती है. ये योजना 2016 में शुरु की गयी थी. इसके तहत गर्भवती महिलाओं की सुरक्षित डिलिवरी कराने और स्तनपान कराने वाली को अच्छा पोषण देने के लिए कुछ शर्तों के साथ पांच हज़ार रुपए दिए जाते हैं. शुरुआत में तो ये योजना केवल देश के 52 ज़िलों में लागू की गई थी. लेकिन, बाद में इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया. आज देश के 650 ज़िलों में इस योजना का फ़ायदा उठाने वाली महिलाओं की तादाद 51.7 लाख तक पहुंच गई है. वहीं, जननी सुरक्षा योजना के तहत अस्पतालों में डिलीवरी कराने वाली महिलाओं को मिलने वाले अतिरिक्त लाभ के साथ मदद की रक़म बढ़कर 6000 रुपए हो जाती है. हालांकि, इन योजनाओं के चलते जागरूकता बढ़ी है. लेकिन, शर्तों की बाध्यता के चलते योजना का फ़ायदा उठाने वालों की संख्या अभी सीमित ही है. इस योजना का फ़ायदा 19 साल से ऊपर की गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को उनके पहले बच्चे के जन्म तक इसके योग्य मानी गयीं. किशोर उम्र की माएं, या फिर वो ग़रीब महिलाएं जिनके एक से अधिक बच्चे हैं, वो इस योजना के दायरे से बाहर रहीं. इसके चलते कुपोषण का पीढ़ियों से चला आ रहा दुष्चक्र बरक़रार है.

मां और बच्चे की सेहत और पोषण सुधारने के मक़सद से बनाई गईं तमाम योजनाएं होने के बावजूद, इनका फ़ायदा लेने वालों की तादाद बहुत कम रही है. राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (NFHS-4) [23] के आंकड़ों के मुताबिक केवल 51 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं ही बच्चे की पैदाइश से पहले जागरूकता के चार कार्यक्रमों में शामिल हुईं. वहीं, केवल 30 प्रतिशत महिलाओं ने आयरन और फॉलिक एसिड (IFA) फूड सप्लीमेंट लिए. पूरक पोषण अभियान के तहत मिलने वाला राशन लेने वाले बच्चों की संख्या 14 से 75 प्रतिशत तक रही है. वहीं, इस योजना का लाभ लेने वाली गर्भवती महिलाओं की संख्या 51 प्रतिशत रही है. हालांकि, पिछले कुछ दशकों में शौचालय की सुविधा में खासा सुधार आया है. फिर भी 50 प्रतिशत से भी कम परिवार इनका इस्तेमाल करते हैं. मातृत्व लाभ योजनाओं का फ़ायदा लेने के लिए सभी राज्यों नाम दर्ज कराने वाली महिलाओं की तादाद 50 फ़ीसद ही है. बच्चों की 79 फ़ीसद डिलिवरी अस्पताल या क्लिनिक में होने के बावजूद, केवल 42 फ़ीसद महिलाएं ही तुरंत अपने बच्चों को दूध पिलाना शुरू करती हैं, और बच्चे को सिर्फ़ एक बार स्तनपान कराने वाली महिलाओं की तादाद 55 प्रतिशत है.

बच्चों को ऊपर के खाने के साथ साथ दूध पिलाने वाली महिलाओं की संख्या पिछले एक दशक में 52.6 से घटकर 42.7 हो गई. आज भी केवल 9.6 प्रतिशत बच्चों को ही तय मानक के तहत खाना मिल पा रहा है.

एक ही चुनौती: कुपोषण के पीढ़ीगत चक्र को कैसे तोड़ा जाये 

देश से कुपोषण की समस्या जड़ से खत्म करने के लिए नए सिरे से हो रहे प्रयास तीन अहम बातों पर आधारित हैं- बर्ताव में बदलाव, संक्रमण रोकने का प्रबंधन और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले कुपोषण के चक्र को तोड़ना. (फिगर 5)

हालांकि बहुत से कार्यक्रम शुरु किए गए, मगर इनकी कामयाबी बच्चों मां और परिवार पर टिकी है. इसलिए कुपोषण की समस्या और भविष्य पर इसके बुरे असर को समझना जरूरी है. दूसरा है, संक्रमण रोकने का ठोस प्रयास. ये पीने के साफ़ और सुरक्षित पानी की कमी के चलते होने वाले संक्रमण को रोकने पर केंद्रित है. इसके साथ नियमित टीकाकरण की कमी भी एक फ़िक्र की बात है.

लम्बे समय से कुपोषण की मार झेल रहे राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों का मूल्यांकन बताता है कि उनके बीच पोषण के स्तर में बहुत अंतर है. ये फ़र्क़ साबित करता है कि हर इलाक़े के ख़ास हालात के मुताबिक़ योजनाएं बनाई जाएं, न कि एक राष्ट्रीय नीति से सबको हांका जाए.

2014 में सरकार ने गर्भवती महिलाओं और दो साल तक के सभी बच्चों के टीकाकरण के मक़सद से मिशन इंद्रधनुष की शुरुआत की थी. इस मिशन की शुरुआत से पहले पूर्ण टीकाकरण केवल एक फ़ीसद तक ही सीमित था. लेकिन, इस अभियान के दो चरण पूरे होने के बाद पूर्ण टीकाकरण का स्तर 6.7 प्रतिशत पहुंच गया. [24] इस टीकाकरण का कवरेज और बढ़ाने के लिए हाल ही में इंद्रधनुष 2.0 को ज़्यादा जोर-शोर के साथ शुरु किया गया है. इसका लक्ष्य 27 राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े राज्यों के 272 जिलों में ब्लॉक स्तर पर पूर्ण टीकाकरण करना था. इनमें उन आदिवासी समुदायों तक पहुंच बनाने पर ख़ास ज़ोर था, जिन तक पहुंच पाना मुश्किल होता है. [25]

तीसरा और आखिरी स्तंभ, कुपोषण के पीढ़ियों से चले आ रहेचक्र को तोड़ना है. इसकी लंबे समय से अनदेखी होती रही है. नयी नीतियों और कार्यक्रमों से इसमें बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है. पीढ़ीगत प्रभाव का मतलब ‘वो परिस्थितियां, मजबूरियां और माहौल हैं जिनका असर दूसरी पीढ़ी की सेहत और शारीरिक विकास पर दिखाई देता है.’ [26] हालांकि, वज़न में कमी के मामले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के 43 प्रतिशत के मुकाबले NFHS-4 [27]में घटकर 36 प्रतिशत तक आ गए. लेकिन ये दर भी बहुत ज़्यादा है.

24.3 करोड़ से ज़्यादा [28] की किशोर उम्र आबादी होने के चलते, एक तरफ़ जहां भारत के सामने जनसंख्या की अनूठी चुनौतियां हैं, वहीं उसके सामने कई संभावनाओं के दरवाज़े भी खुले हैं. हालांकि इस बड़ी किशोर उम्र आबादी से भविष्य में आर्थिक लाभ लिया जा सकता है. लेकिन, तमाम अध्ययन ये इशारा करते हैं कि किशोर उम्र आबादी की सेहत और विकास से जुड़ी कई चुनौतियां भी हैं. इनमें पोषक आहार की कमी, रोज़ी-रोटी के विकल्पों, सामाजिक भागीदारी, स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रहना और घर के भीतर और बाहर पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव शामिल हैं. [29]  किशोर उम्र लोगों पर निवेश का न सिर्फ़ लागत से ज़्यादा मुनाफ़ा मिलता है. बल्कि इससे, मौजूदा और आने वाली पीढियों की सेहत और बेहतरी का तिगुना लाभ भी होता है. 

देश में पोषण की समस्या की एक अहम वजह जल्द शादी और जल्द बच्चे पैदा करना भी है. इसका बुरा असर आने वाली पीढ़ियों की सेहत, पढ़ाई और रोजगार पर भी पड़ता है. [31] हालांकि, भारत ने 18 साल से कम उम्र के बच्चों की शादी कम करने में काफ़ी कामयाबी हासिल की है और इस तरक़्क़ी का बड़ा सेहरा सामाजिक आर्थिक विकास के सिर बंधता है. वर्ष 2000 से देश में बाल विवाह के मामलों में 51 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है. वहीं, 1990 की तुलना में बाल विवाह 63 फ़ीसद कम हो गए हैं. [32]  इसका श्रेय शिक्षा के प्रसार और महिला सशक्तिकरण को दिया जाना चाहिए. इसमें यौन और बच्चों की जचगी से जुड़ी स्वास्थ्य सेवा में सुधार ने भी काफ़ी योगदान दिया है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक़ [33], 2016 में भारत में 27 प्रतिशत बाल विवाह हो रहे थे. इससे कई और समस्याएं भी पैदा होती हैं. जैसे कि कम उम्र में मां बनना, ज़्यादा बच्चे पैदा करना वग़ैरह. फिर इनसे बच्चे पैदा होने के वक़्त जटिलताएं आती हैं. नवजात बच्चे का वज़न कम होता है. यहां तक कि मां और बच्चों की मौत की दर भी बढ़ जाती है. [34]  मौजूदा सुबूत इशारा करते हैं कि अगर उन इलाकों पर ध्यान दिया जाए, जहां कम उम्र में शादियां और जल्दी बच्चे पैदा करने का चलन है, तो लड़कियों के बेहद कम उम्र में मां बनने की चुनौती और उससे जुड़े कुपोषण की समस्या से काफ़ी हद तक निपटा जा सकता है. [35]

कुपोषण की समस्या से निपटने के ज़मीनी समाधान

कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए हो रही तमाम कोशिशों और योजनाओं से जो एक अहम सबक़ मिला है, वो ये है कि इसके लिए हर एक इंसान की ज़रूरत के मुताबिक़ छोटे छोटे स्तर के निवेश किए जाएं, जिससे उन्हें सीधा फ़ायदा मिले. लम्बे समय से कुपोषण की मार झेल रहे राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों का मूल्यांकन बताता है कि उनके बीच पोषण के स्तर में बहुत अंतर है. ये फ़र्क़ साबित करता है कि हर इलाक़े के ख़ास हालात के मुताबिक़ योजनाएं बनाई जाएं, न कि एक राष्ट्रीय नीति से सबको हांका जाए. [36]

भारतीय राज्यों के प्रदर्शन पर एक नज़र

NFHS-4 के आंकड़ों के मुताबिक़, शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में शारीरिक रुप से कमज़ोर बच्चे ज़्यादा हैं. इसकी वजह शायद गांवों में परिवारों का सामाजिक और आर्थिक स्तर कमज़ोर होना है. 12वीं या उससे ज्यादा की पढ़ाई करने वाली मांओं के बच्चों के मुक़ाबले, उन महिलाओं के बच्चे दोगुना ज़्यादा कमज़ोर पाए गए, जिन्होंने स्कूल का मुंह देखा ही नहीं. पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले कुपोषण के चक्र को तोड़ने के लिए माताओं (गर्भवती हो या प्रसूता) और बच्चों के लिए ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है. इसके ज़रिए ही ख़ास तौर से ग्रामीण इलाक़ों के बच्चों के कम विकास और कुपोषण की समस्या से निपटा जा सकता है.

एक और अहम बात ये है कि सिखों, ईसाइयों और दूसरे धर्मों के बच्चों के मुक़ाबले हिंदू और मुसलमान बच्चों के बीच शारीरिक कमज़ोरी की समस्या ज़्यादा है. वहीं आदिवासी और दलित समुदायों की बीच भी कुपोषण और शारीरिक विकास की कमी की चुनौती का स्तर लगभग वैसा ही है. [38]

जहां तक कम शारीरिक विकास के इलाक़ाई और भौगोलिक अंतर (फिगर 6) की बात है, तो ये बिहार (48 प्रतिशत) उत्तर प्रदेश (46) और झारखंड (45 प्रतिशत) में सबसे ज़्यादा है. इस मामले में केरल और गोवा की स्थिति सबसे बेहतर (20 फ़ीसद) है. हालांकि पुष्टाहार का स्तर सभी राज्यो में सुधरा है. लेकिन राज्यों के बीच इसका फ़र्क़ बहुत अधिक है. सबसे अहम सुधार छत्तीसगढ़ में देखा गया है, जहां पिछले एक दशक में कुपोषण क़रीब 15 प्रतिशत तक घटा है. इस मामले में तमिलनाडु में सबसे कम सुधार दर्ज किया गया है.

पोषण अभियान तीन साल के लिए तैयार किया गया एक संपूर्ण अभियान है. इसमें देश के 36 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश शामिल हैं. इसकी रणनीति ज़मीनी स्तर तक कुपोषण की समस्या के समाधान का मौक़ा मुहैया कराती है. ये बहुत से मंत्रालयों के बीच तालमेल से बना एक महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, जिसके तहत 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत का लक्ष्य हासिल करने की कोशिश की जा रही है. 

मां और नवजात व छोटे बच्चों के पोषण को लेकर NFHS-4 के आंकड़ों की एक समीक्षा इंटरनेशनल फूड और पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (IFPRI) ने की है. इसके मुताबिक़, भारत के 239 जिलों में शारीरिक कमज़ोरी की दर 40 प्रतिशत तक है. अलग अलग क्षेत्रों में ये अंतर और भी अधिक है; इस पैमाने पर सबसे अच्छा काम करने वाले देश के ज़िलों में केवल 12.4 प्रतिशत बच्चों का शारीरिक विकास ही कम हुआ है. वहीं दूसरी ओर, एक ज़िला ऐसा भी है, जहां कम शारीरिक विकास वाले बच्चों की तादाद 65.1 प्रतिशत तक है. देश के लगभग 40 प्रतिशत ज़िलों में बच्चों के बीच शारीरिक कमजोरी का स्तर भी 40 फीसदी तक है. इसी के साथ देखे तों एक ज़िला ऐसा भी है, जहां केवल 1.8 प्रतिशत बच्चों में ही कम वज़न की समस्या है. वहीं कम से कम 7 जिले ऐसे हैं, जहां कम वज़न वाले बच्चों की संख्या 40 प्रतिशत से भी ज़्यादा. पूरे देश के आंकड़े देखें, तो कमज़ोर और अविकसित बच्चों की तादाद 21 फ़ीसद बैठती है. 

बच्चों और किशोरों में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और बिना छुआछूत के हो जाने वाली बीमारियों पर हाल के व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (CNNS) 2016-18 [40] पर गौर करें, तो आज बच्चों और किशोरों में कुपोषण के साथ साथ मोटापे की भी समस्या है. पांच साल से कम उम्र के बच्चों में कम शारीरिक विकास अगर 34.7 प्रतिशत है, तो पोषण की कमी 17 और वज़न की कमी 33.4 प्रतिशत बच्चों में है. NFHS-4 के अध्ययन में इसमें तुलनात्मक तौर पर कमी आई है. बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बच्चों के बीच शारीरिक कमजोरी 37 से 42 प्रतिशत तक के ऊंचे स्तर पर है. जबकि, गोवा और जम्मू-कश्मीर में ये दर सबसे कम है.

5 साल से कम उम्र के 41 फ़ीसद बच्चे, स्कूल जाने वाले 24 प्रतिशत बच्चे और 28 प्रतिशत किशोर ख़ून की कमी के शिकार हैं. ख़ून की कमी की समस्या अगर 12 फ़ीसद पुरुषों में है, तो इसके ढाई गुना से भी अधिक यानी 31 फ़ीसद महिलाएं ख़ून की कमी की शिकार हैं. आदिवासी और दलित समुदायो में इसका स्तर सबसे ज्यादा है. इसका सीधा ताल्लुक़ परिवारों की माली हालत से पाया गया है. राज्यों के बीच ख़ून की कमी की समस्या को फिगर 8 में देखा जा सकता है. ख़ून की कमी सबसे ज़्यादा 54 फ़ीसद मध्य प्रदेश में है. जबकि, नगालैंड में ये सबसे कम यानी 8 प्रतिशत है. ग्रामीण इलाक़ों की तुलना में शहरों के बच्चों और किशोरों में ख़ून की कमी की समस्या ज़्यादा पायी गई है.

पोषण अभियान से बड़े लक्ष्यों को साधने की कोशिश

2017 में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने भागीदारी बढ़ाने और कार्यक्रमों की गुणवत्ता और तादाद बढ़ाने के मकसद से राष्ट्रीय पोषण अभियान की शुरुआत की थी. पोषण अभियान का मुख्य लक्ष्य, नवजात से छह साल तक के बच्चों, किशोर उम्र लड़कियों, गर्भवती और बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं में पोषण का स्तर बढ़ाना था. [41]

पोषण अभियान तीन साल के लिए तैयार किया गया एक संपूर्ण अभियान है. इसमें देश के 36 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश शामिल हैं. इसकी रणनीति ज़मीनी स्तर तक कुपोषण की समस्या के समाधान का मौक़ा मुहैया कराती है. ये बहुत से मंत्रालयों के बीच तालमेल से बना एक महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, जिसके तहत 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत का लक्ष्य हासिल करने की कोशिश की जा रही है. ये मिशन बहुत सी योजनाओं-परियोजनाओं का मेल है. इसके तहत अंतर्गत प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, आंगनबाड़ी सेवाएं, महिला और बाल विकास मंत्रालय के किशोर उम्र लड़कियों वाले कार्यक्रम, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय का राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय का स्वच्छ भारत मिशन, उपभोक्ता मंत्रालय की जन वितरण प्रणाली (PDS), पंचायती राज मंत्रालय से पीने का पानी और शौचालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय की मशहूर रोज़गार गारंटी योजना मनरेगा, खाद्य आपूर्ति और तमाम संबंधित मंत्रालयों के ज़रिए शहरी और स्थानीय निकाय भी इससे जुड़े हैं. [42]

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में, सूचना, शिक्षा और संचार (ICE) का एक मिला जुला प्रयोग देखने को मिला. वहां भीड़ भरी जगहों मसलन, रेलवे स्टेशन पर अधिकारियों ने दीवार पर चित्रों के ज़रिए पोषण, मां और बच्चे की शुरुआती 1000 दिनों की देखभाल और साफ-सफाई यानी टॉयलेट की ज़रूरत पर जोर देने वाले संदेश लिखे थे. 

अभियान का मकसद बच्चे के जन्म से पहले और बाद के दौरान 1000 दिनों में माताओं को ऐसा आहार देना है, जिससे कुपोषण की समस्या में कमी आए. पोषण अभियान को लागू करना तभी संभव है, जब समाज के कमज़ोर वर्गों के लिए मौजूद सेवाओं का विकास और विस्तार हो; तकनीक ( यानी ICDS कम्प्यूटर एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर), योजना और उसे लागू करने में तालमेल, व्यवहारगत बदलाव लाने वाला संवाद और क्षमता का निर्माण हो. [43] 

पोषण अभियान का लक्ष्य उन तीनों स्तंभों के बीच तालमेल के लिए एक मंच मुहैया कराना है, जिनका ज़िक्र हमने पहले किया था. जन आंदोलन के नारे के साथ ये अभियान, हर नागरिक को कुपोषण से मुक्त कराने के ख़िलाफ़ जंग को आगे बढ़ा रहा है. इस वक़्त देश भर में 3.6 करोड़ गतिविधियों के साथ, 2.51 अरब लोग इस अभियान का हिस्सा बन चुके हैं. [44]  सबसे ज़्यादा ज़ोर उन गतिविधियों पर दिया जा रहा है, जो संपूर्ण पोषण, ख़ून की कमी, साफ़-सफ़ाई (पानी और शौच), स्तनपान, समुचित विकास की निगरानी और टीकाकरण पर केंद्रित हैं.

इन गतिविधियों का मक़सद जानकारी बढ़ाना और सूचना, सप्लीमेंट और वैक्सीन उपलब्ध कराकर संक्रमण को कम करना है, जिससे कुपोषण के पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले चक्र को तोड़ने में मदद मिले. ये अभियान लोगों तक पहुंचाने के लिए कई और पहल भी की गई हैं. जैसे कि फूड फोर्टिफ़िकेशन रिसोर्स सेंटर, ईट राइट इंडिया मूवमेंट. एनीमिया मुक्त भारत कार्यक्रम और आयुष्मान भारत के तहत स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम.

फूड फोर्टिफिकेशन रिसोर्स सेंटर[45]  (FFRC) की स्थापना सरकार के विभिन्न मंत्रालयों को खाने की पांच बुनियादी चीज़ों – चावल, आटा, तेल, दूध और नमक- में पोषक तत्व बढ़ाना और राज्यों को ये बताना है कि राशन की दुकानों, मिड डे मील और ICDS के ज़रिए इनका वितरण कैसे आसान बनाया जा सकता है. खाद्य पदार्थों में अतिरिक्त पोषक तत्व डालने (फोर्टिफ़िकेशन) सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि बगैर निगरानी और सप्लीमेंट की टैबलेट बांटे, लोगों को खाने की ऐसी चीज़ें दी जा सकती हैं, जिनमें ज़रूरी सूक्ष्मपोषक तत्व मौजूद हैं.

ठीक इसी तरह FSSI के ईट राइट मूवमेंट [46]  का ज़ोर सही, सुरक्षित और टिकाऊ खाना खाने पर है. इसका मक़सद लोगों को संतुलित और सेहतमंद खान-पान प्रति जागरूक करना है. पोषण अभियान के साथ इस पहल के ज़रिए स्कूलों, अस्पतालों और घरों तक पहुंच बना कर लोगों को अच्छे खान-पान के प्रति जागरूक बनाया जाता है. इसका ज़ोर मुख्य रूप से अच्छी सेहत पर होता है. इसके अलावा, ईट राइट टूल-किट डिजिटल काउंसलिंग का विकल्प उपलब्ध कराकर ये लक्ष्य हासिल करने में और मददगार बनेगी. इससे लोगों को ये बताया जा सकेगा कि वो अपना खान-पान और पोषण कैसे सुधारें. [47]

ओडिशा में भी ममता कार्यक्रम [53] के ज़रिए गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को नक़द मदद दी जाती है, जिससे उनके पोषण और सेहत, दोनों में सुधार आए. ये प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना का ही एक विस्तारित रूप है, जिसमें दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली मां और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को भी इसका फ़ायदा मिलता है. 

पोषण अभियान के तहत आन वाले एनीमिया मुक्त भारत कार्यक्रम का लक्ष्य हर साल ख़ून की कमी की दर में तीन प्रतिशत की कमी लाना है, जो 2005 से 2015 के दौरान एक प्रतिशत के पुराने ट्रेंड से काफी अधिक है. स्वाथ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय का ये कार्यक्रम 6x6x6 की रणनीति पर चल रहा है. इसके तहत 6 अलग अलग आयु वर्गों के लिए, 6 अलग संस्थागत व्यवस्था के 6 अलग अलग कार्यक्रम हैं. [48] इस रणनीति का मक़सद मांग और आपूर्ति की एक पूरी व्यवस्था बनाना, उस पर नज़र रखना और इसके जरिए ख़ून की कमी के उन कारणों का पता लगाकर उनका हल खोजना है, जो खाने पीने और अन्य वजहों से होती है. [49]

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा शुरू किए गए आयुष्मान भारत कार्यक्रम के तहत चल रहे स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम का मक़सद स्कूली बच्चों को सेहत और पोषण में जागरूक करना है. इसमें स्वस्थ रहन सहन, मासिक धर्म के दौरान साफ़-सफ़ाई और पीने के साफ़ पानी की अहमियत बताना शामिल है. आपसी बातचीत पर आधारित इस पहल में अध्यापकों को स्वास्थ्य और अच्छे जीवन का पैग़ाम देने वालों के रूप में आगे बढ़ाया जाता है, जिससे वे छात्रों के बीच उनकी उम्र के मुताबिक सेहत के मसले पर चर्चा करें. ये कार्यक्रम राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर मंत्रालयों और दूसरी संस्थाओं के बीच तालमेल बैठान का काम भी करता है, जिससे इस कार्यक्रम की पहुंच व्यापक और चौतरफ़ा हो.

राज्यों की अनूठी रणनीति

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने नवंबर 2019 में पोषण अभियान पर जो उत्तर क्षेत्र की कार्यशाला आयोजित की उसने अलग-अलग इलाकों और राज्यों में चलाए जा रहे कार्यक्रमों और योजनाओं पर गंभीर विश्लेषण का एक मंच मुहैया कराया. इसका मक़सद यही था कि राज्यों की अच्छी योजनाओं और हल को राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से लागू करके मंज़िल तक जल्द से जल्द पहुंचने के रास्ते खुलें.

एक बहुत कामयाब तरीका सामुदायिक स्तर पर परियोजनाएं चलाने का रहा. पहले के उदाहरण मौजूद हैं कि किस तरह निचले स्तर पर बेहतर रणनीति और सामुदायिक प्रोत्साहन से चमत्कारी बदलाव आए हैं. ऊपर से कोई अभियान थोपने के बजाय, आम लोगों को अभियान से निजी तौर पर जोड़ने और उन्हें अपनाने से उसका दूरगामी असर होता है. मिसाल के लिए, उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में, सूचना, शिक्षा और संचार (ICE) का एक मिला जुला प्रयोग देखने को मिला. वहां भीड़ भरी जगहों मसलन, रेलवे स्टेशन पर अधिकारियों ने दीवार पर चित्रों के ज़रिए पोषण, मां और बच्चे की शुरुआती 1000 दिनों की देखभाल और साफ-सफाई यानी टॉयलेट की ज़रूरत पर जोर देने वाले संदेश लिखे थे. इससे न सिर्फ जागरूकता बढ़ाने में मदद मिली बल्कि लोगों ने समझा कि हां, ये उनके लिए है, और अपनी सेहत से जुड़े मसले उन्हें ही हल करने हैं. दूसरे राज्यों ने भी ऐसे ही भागीदारी से सीखने और क़दम उठाने के कार्यक्रम शुरु किए. जैसे बिहार में जीविका स्वयं सहायता समूह, ओडिशा में शक्ति, मध्य प्रदेश में आंगनबाड़ी और झारखंड में आशा वर्कर जन आंदोलन की रणनीति के तहत जुड़ीं. इन प्रयासों से पोषण को लेकर सामुदायिक स्तर पर एक आम राय बनाने में मदद मिली और कुपोषण की समस्या को लेकर वो जागरूकता पैदा हुई कि इसके ख़िलाफ़ समाज को मिलजुल कर लड़ना है.

मांओं, गर्भवती महिलाओं और उनके परिवार में इस तरह के खान-पान और रहन-सहन को बढ़ाने के लिए ‘चैम्पियन की मां’ जैसे मंचों की उपयोगिता भी समझी है. इस तरह से राजस्थान में ये कार्यक्रम लोगों को सीख देने से ज़्यादा उनमें उम्मीदें जगाने की कोशिश में तब्दील हो गया है और इससे महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में भी मदद मिली है.

उत्तराखंड ने तो अपने यहां एक अभियान ये शुरु किया कि गंभीर रुप से कुपोषित एक बच्चे को आप गोद ले सकते हैं. गोद लेने का फायदा ये हुआ कि बच्चे को शुरुवाती दौर में ही एक परिवार या संस्था मिल गयी जो उसकी सेहत से लेकर पढ़ाई तक का बोझ उठा लेती है. इस प्रयोग का मक़सद राजनेताओं से लेकर कारोबारियों, निजी संस्थाओं और समाज के बीच ज़िम्मेदारी का वो भाव पैदा करना है, जिससे कुपोषण मुक्त भारत का सपना साकार हो सके.

वहीं, ओडिशा में महिला और बाल विकास विभाग ने सामुदायिक स्तर पर निगरानी के काम को संस्थागत ही बना दिया. इसके लिए गांव के स्तर पर जांच कमेटियां और मदर कमेटियां खड़ी की गयीं. [50]  इन कमेटियों को बनाकर एक साथ दो लक्ष्य साधने की कोशिश की गई है. जनता की भागीदार बढ़ाना और ISDS ज़रिए दी जा रही सुविधाओं पर नज़र रखना. मदर कमेटियां जहां ये सुनिश्चित करती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्रों में घर का बना बेहतर खाना मिले. वहीं, जांच कमेटियां ये देखती हैं कि दिए जा रहे भोजन की मात्रा और क्वालिटी तय पैमाने के मुताबिक़ है या नहीं. इस ढांचे ने उन स्वयं सहायता समूहों की जवाबदेही भी बढ़ाई है, जो खाना पकाने या राशन वितरण के काम में लगी हैं. वहीं, महिलाओं और परिवारों में भोजन के सुरक्षित होने को लेकर भरोसा बढ़ा है.

पंचशील नाम की स्टडी [51] से स्वास्थ्य, शिक्षा, इंजीनियरिंग और पर्यावरण पर ध्यान देने वाले एक ऐसे एकीकृत और इंटरएक्टिव सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रम के असर की पड़ताल की गई, जिससे बच्चों का पोषण बढ़ाया जा सकता है. इसने ये भी पता लगाया कि आंगनबाड़ी जैसे केंद्रों के ज़रिए चलने वाले पोषण के कार्यक्रमों को समाज किस हद तक स्वीकार करता है. इसके लिए राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में एक पारंपरिक समाजिक भागीदारी कार्यक्रम शुरु किया गया। इससे नवजात और छोटे बच्चों के आहार (ICYF)  के मान्य तौर-तरीकों और उसकी खामियों को समझने में मदद मिली. इस अध्ययन से समुदाय के स्तर पर कार्यक्रम चलाने की अहमियत तो समझ में आयी ही, ये भी पता चला कि लोगों की भागीदारी कैसे एक कामयाब परियोजना को जन्म दे सकती है.

फंड के इस्तेमाल में ये अंतर बेहद गंभीर और चिंता मसला है. खास तौर पर तब और जब देश के 22 राज्यों के 267 ज़िलों में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में शारीरिक कमज़ोरी, राष्ट्रीय औसत से बहुत ज़्यादा है

चूंकि, कनेक्टिविटी पोषण अभियान की एक बड़ी चुनौती रही है. ऐसे में पहुंच बढ़ाने वाली योजनाओं की ज़रूरत है. मसलन, चंडीगढ़ ने एक पोषण हेल्पलाइन शुरू की है. ये हेल्पलाइन दूर-दराज़ के इलाकों तक आंगनवाड़ी कार्यकर्तांओं की पहुंच बनाने में मदद करती है और आंगनवाड़ी कार्यकताओं, स्वास्थ्य सहायिकाओं और मिडवाइफ को घर बुलाने की बुकिंग का मौक़ा देती है.

राजस्थान के उदयपुर में तो एक अनोखा ही प्रयोग हुआ. राजपुष्ट कार्यक्रम के तहत वहां बच्चों के पोषण का स्तर बढ़ाने के लिए महिलाओं को नक़द सहायता दी जाती है. उन्हें इससे होने वाले सामाजिक और ज़मीनी बदलाव की जानकारी भी दी जाती है. इस कार्यक्रम का लक्ष्य केवल बच्चे, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाएं ही नहीं बल्कि उनके पति और परिवार समेत पूरा समाज है. इसका फ़ायदा ये होता है कि इससे खान-पान के तौर-तरीक़ों, सेहत को लेकर जागरूकता और पोषण को लेकर बर्ताव में भी सुधार दिखता है. [52]

ओडिशा में भी ममता कार्यक्रम [53] के ज़रिए गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को नक़द मदद दी जाती है, जिससे उनके पोषण और सेहत, दोनों में सुधार आए. ये प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना का ही एक विस्तारित रूप है, जिसमें दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली मां और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को भी इसका फ़ायदा मिलता है. ममता योजना की ये ख़ूबी प्रधानमंत्री मातृवंदना योजना में मौजूद नहीं है. यही नहीं, आदिवासी महिलाओं को और खास तौर पर वंचित महिलाओं को ये नक़द लाभ सारे बच्चों के लिए मिलता है, जिससे वो सब एक स्वस्थ जीवन का लाभ ले सकें.

राजस्थान में चल रहे प्रोजेक्ट उड़ान का मक़सद, जल्द शादी और गर्भधारण को रोकना है. इस परियोजना के तहत सरकार के सारे अहम विभागों को एक साथ लाकर किशोर उम्र लड़कियों और लड़कों की ज़िंदगी में असरदार बदलाव लाने की कोशिश को मज़बूती दी जा रही है. [54] इस कार्यक्रम के चार लक्ष्य हैं- कम उम्र में विवाह, गर्भधारण और बच्चा पालने के दबाव से लड़कियों को बचाने के लिए उन्हें शिक्षित करना, RKSK के तहत एक सामाजिक नेटवर्क खड़ा करना, जिसके ज़रिए यौन संबंधों और गर्भधारण से जुड़ी तालीम दी जाए. तकनीक का इस्तेमाल करके किशोर उम्र लड़के-लड़कियों को सही जानकारी देना और सामाजिक पैमानों में ऐसे बदलाव जिससे बच्चियों का स्कूल जाना, 18 साल की उम्र से पहले शादी और 20 से पहले बच्चे के जन्म से रोकना, गर्भ निरोधक का इस्तेमाल और अंत में शादीशुदा किशोरियों के पहले बच्चे के जन्म में देरी पर ज़ोर, बच्चों के जन्म में समय का अंतर और पैदाइश के वक़्त बच्चे के वज़न का ख़ास ध्यान रखना.

कुपोषण से लड़ने का एक और अहम पहलू, पोषाहार की गुणवत्ता, उनकी उपलब्धता, और कही-सुनी बातों, भ्रम, सामाजिक बुराइयों और नियमों सुधार लाना है. अब जबकि कुपोषण से लड़ने के लिए राज्य सरकारें पौष्टिक खाद्य और सप्लीमेंट्स, मसलन IFA टैबलेट दे रही हैं, उन्हें लेकर समाज में बहुत से भ्रम फैले हुए हैं. ऐसी सोच से भी पोषण से जुड़े कार्यक्रमों पर बुरा असर पड़ता है. अब ओडिशा और राजस्थान के हेल्थ वर्कर्स के सुनाए किस्सों को ही लीजिए. उनका सामना ऐसे परिवारों से हुआ जो मानते है कि आयरन टैबलेट्स से उनके बच्चों की शारीरिक बनावट पर बुरा असर पड़ता है. या पपीता खाने से गर्भपात हो जाता है. ओडिशा में तो सरकार ने इन्हीं भ्रमों को दूर करने के लिए पोषाहार के नाम पर बादाम लड्डू बांटना शुरु किया. हरियाणा मे आंगनबाड़ी केन्द्रों पर लोहे के बर्तनों में खाना बनता भी है और परोसा भी जाता है. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता तो घर की रसोई में भी लोहे के बर्तनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देती हैं. इससे लोगों के खाने में पोषक तत्व बढ़े हैं और खून की कमी वाली समस्या काफी हद तक दूर हुई.

पोषण अभियान में लगे समूहों ने देश में खान-पान की विविधता के हिसाब से पुष्टाहार का चलन विकसित करने पर बहुत ज़ोर दिया है. राजस्थान में किए प्रयासों ने बेहतर भविष्य के लिए एक उम्मीद जगाई है. स्वास्थ्य विभाग ने खेती-बाड़ी और मौसमों के हिसाब से देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रों का विश्लेषण कर वहां आसानी से उपलब्ध और सस्ते पौष्टिक आहार की पहचान की है. इस तरीके से कम ख़र्च में भी पुष्टाहार मुहैया कराने की कोशिश की जा रही है. इसके अलावा मांओं, गर्भवती महिलाओं और उनके परिवार में इस तरह के खान-पान और रहन-सहन को बढ़ाने के लिए ‘चैम्पियन की मां’ जैसे मंचों की उपयोगिता भी समझी है. इस तरह से राजस्थान में ये कार्यक्रम लोगों को सीख देने से ज़्यादा उनमें उम्मीदें जगाने की कोशिश में तब्दील हो गया है और इससे महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में भी मदद मिली है.

पोषण अभियान में सुधार लाने के लिए तकनीक पर आधारित इनोवेशन की काफ़ी संभावना है. ICDC के कॉमन एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर (CAS) ने आंगनबाड़ी केन्द्रों से वज़न, कद, पूरक पोषाहार और घर के दौरों से जुड़े आंकड़े इकट्ठे करने के मामले में शानदार नतीजे दिए हैं. 

कुल मिलाकर ओआरएफ के कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले उत्तर भारतीय राज्यों में एक आम राय ये है कि एक असरदार पोषण अभियान को चलाने के लिए सही निगरानी और निर्देशन की जरूरत है. पंजाब में एक पहल का नाम है-आओ चलिए आंगनवाड़ी. इसके तहत आंगनबाड़ी केन्द्रों का नियमित दौरा होता है. सरकारी कर्मचारियों को निर्देश है कि वो केंद्रों का दौरा करने, कर्मचारियों से बात करने के साथ साथ उन लोगों से भी बात करें, जिनके लिए ये योजना चलाई जा रही है. इससे पता चलेगा कि ज़मीनी स्तर पर अभियान के आगे चुनौतियां और इसकी ज़रूरतें क्या हैं?

निष्कर्ष और सुझाव

स्वास्थ्य विशेषज्ञ [55]  ये मानते हैं कि कुपोषण ज़िंदगी के शुरुआती दो वर्षों के दौरान जड़ें जमाता है. उस समय तक दिमाग़ अपनी कुल क्षमता का क़रीब 85 फ़ीसद तक विकसित हो जाता है. अगर कुपोषण पर सही समय पर क़ाबू नहीं पाया जाता, तो वो बच्चे के शारीरिक और दिमाग़ के विकास को इतना नुक़सान पहुंचाता है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. गर्भधारण से लेकर अगले 1000 दिनों या बच्चे के दूसरे जन्म दिन तक का पूरा समय कुपोषण से बचाव का बेहद अहम मौक़ा होता है. [56]  इस दौरान मिला पोषण पीढ़ीगत कुपोषण के चक्र को तोड़ने में मददगार होता है. वरना, कुपोषित बच्चियां आगे चलकर कुपोषित मां बनती हैं जो कमज़ोर बच्चों को जन्म देती हैं.

पोषण अभियान की कोशिश यही है कि वो स्थायी विकास-2 के लक्ष्य के तहत वर्ष 2030 तक हर तरीक़े के कुपोषण को ख़त्म कर ले. इसमें 2025 तक 5 साल के बच्चों मे शारीरिक कमज़ोरी और वज़न की समस्या को ख़त्म करने का अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य हासिल करना भी शामिल है. बीते एक दशक के दौरान शारीरिक कमजोरी की दर में आयी गिरावट के लिहाज से देखें तो ये लक्ष्य बहुत मुश्किल है. 2006 में शारीरिक कमजोरी की दर 48 प्रतिशत थी जो 2016 में घटकर 38.4 प्रतिशत तक ही पहुंची. यानी हर साल केवल एक प्रतिशत की कमी. इसके लिए अलग-अलग मंत्रालयों के बीच फ़ौरन तालमेल बढ़ाने की ज़रूरत है. गर्भधारण से लेकर बच्चे के 5 साल का होने तक स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रम के बीच बेहतर तालमेल हो, और कार्यक्रम के दौरान होने वाली प्रगति की पूरी निगरानी हो.

वर्ष 2005 से 2015 के बीच कुपोषण घटने की दर सालाना एक फ़ीसद पर ही अटकी रही थी. [57] वैसे तो राष्ट्रीय पोषण मिशन ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं. लेकिन, शारीरिक विकास न होने, कुपोषण, ख़ून की कमी और पैदाइश के वक़्त बच्चे का वज़न कम होने जैसी चुनौतियों को दो प्रतिशत, दो फ़ीसद, तीन प्रतिशत और तीन फ़ीसद की तरह से घटाने के लिए इस योजना को कई स्तरों यानी राज्यों से लेकर व्यक्तियों तक मज़बूत बनाने की ज़रूरत है. [58]

2013 में विज्ञान पत्रिकार लैंसेट ने अपनी एक स्टडी में पाया था कि पोषण की असरदार योजनाओं का दायरा बढ़ाने से दुनिया भर में बच्चों के कम विकास को बीस प्रतिशत और उनकी मृत्यु दर को 15 फ़ीसद तक कम किया जा सकता है. वैसे तो ज़्यादातर रिसर्च का ज़ोर इस बात पर रहा है कि आर्थिक विकास के ज़रिए बदलाव लाया जाए. लेकिन कुछ स्टडी ने ये भी आकलन करने की कोशिश की है कि आख़िर कुछ कार्यक्रम हमारे समाज के कितने कमज़ोर हिस्सों तक पहुंच पाते हैं. जैसा कि लैंसेट ने अपनी स्टडी में पाया है कि, ‘ कार्यक्रम का दायरा और उनका प्रभाव ही कुपोषण की कमी को घटाने या ऐसा न करने में नाकाम रहने को तय करता है’

बहरहाल, इस ख़ास रिपोर्ट ने जो निम्नलिखित सुझाव दिए हैं:

1. कार्यक्रम को प्रभावी बनाना और पहुंच बढ़ाना

कुपोषण की समस्या पर अब पर्याप्त ध्यान केंद्रित हो चुका है, और कम से कम सरकारी स्तर पर तो इसे नीतिगत प्रथमिकता मिल रही है. हालांकि, पोषण अभियान को लागू करने में खामियां रही हैं. मार्च 2019 तक केंद्र सरकार ने पोषण अभियान के तहत राज्यों को 31.42 अरब रुपए का फंड जारी किया था. लेकिन राज्यों ने इसमें से केवल 5.69 अरब रुपए ही ख़र्च किए[60] कर्नाटक और गोवा जैसे राज्यों ने तो इस फंड का एक रुपया तक इस्तेमाल नहीं किया. फंड के इस्तेमाल में ये अंतर बेहद गंभीर और चिंता मसला है. खास तौर पर तब और जब देश के 22 राज्यों के 267 ज़िलों में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में शारीरिक कमज़ोरी, राष्ट्रीय औसत से बहुत ज़्यादा है.[61]  इसके चलते कार्यक्रम के तहत ज़रूरी ख़र्च न किए जाने के कारणों की पड़ताल करने पर भी एक अध्ययन किया गया है. इस कार्यक्रम को ज़मीनी स्तर पर सबूतों पर आधारित रिसर्च और योजना की ज़रूरत है. जिससे ज़रूरत के हिसाब से संसाधनों के इस्तेमाल की व्यवस्था बनाई जा सके.

इसी से जुड़ा जो एक और मुद्दा ORF की कॉन्फ्रेंस में बार बार उठा, वो था ICDS की सेवाओं के जनता तक पहुंच में कमी का, वो भी ख़ास तौर पर आदिवासी इलाकों में जहां कुपोषण का ग्राफ लंबे समय से बहुत ऊंचा है. चूंकि, कुपोषण के ख़िलाफ़ अभियानों में आंगनबाड़ी केंद्रों की बहुत अहम बूमिका है. ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि समुदायों और लोगों की उन तक आसानी से पहुंच हो. ओडिशा के अंगुल ज़िले में जहां लोगों को आंगनबाड़ी केन्द्रों तक पहुंचने में परेशानी होती थी, वहां वर्ष 2019 में शिकायत के निपटारे की ऐसी व्यवस्था विकसित की गई, जिससे ऐसे मसलों को हल किया जा सके. इससे कार्यक्रम की पहुंच ज़िले के दूर-दराज़ के इलाक़ों तक बनी और कार्यक्रम का विस्तार बड़े स्तर पर हुआ. जिससे फिर बजट में आवंटित पैसे का उचित तरीक़े से इस्तेमाल किया गया. एक और समाधाना ये हो सकता है कि मिनी आंगनबाड़ी केंद्र स्थापित किए जाएं. इससे बच्चे गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं जैसे वो लोग जो ज़्यादा दूर नहीं जा सकते, उन्हें भी आसानी से ये सुविधा हासिल हो सके.

2. पोषण अभियान का विस्तार करके उसमें मनोवैज्ञानिक प्रभाव को शामिल करना

हालांकि, भोजन पोषण का सबसे आवश्यक माध्यम है. लेकिन कुपोषण ख़त्म करने के लिए सिर्फ़ खाने पर आधारित नहीं बल्कि एक व्यापक समाधान की ज़रूरत है. [63] जिन बच्चों को पर्याप्त मात्रा में खाना मिल रहा है उनमें भी कुपोषण के लक्षण नज़र आ सकते हैं. लिहाज़ा पोषण के वार्षिक लक्ष्य हासिल करने के लिए एक चहुंमुखी नज़रिए की ज़रूरत है. ऐसे में गर्भवती और स्तनपन करा रही महिलाओं की मनोवैज्ञानिक मदद के लिए उन्हें सलाह मशविरे देने की ज़रूरत है.  स्तनपान के साथ साथ अतिरिक्त आहार के मामले में तो और बेहतर काउंसेलिंग की ज़रूरत है. हमारे कार्यक्रम ज्यादातर ताज़ा पके भोजन और घर ले जाए जाने वाले पूरक आहार तक ही सीमित हैं. लेकिन, कम वज़न के बच्चों की पैदाइश की दर जस की तस है. उसमें कमी लाने के लिए नवजात और छोटे बच्चों के लिए बेहतर और ठोस पोषण कार्यक्रम की आवश्यकता है.

पोषण कार्यक्रम का मौजूदा दायरा AAA यानी आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, नर्स-मिडवाइफ और आशा वर्कर तक सीमित है. इसे बढ़ाकर इसमें खेतों में काम करने वालों और बच्चों के माता-पिता को भी जोड़ा जाना चाहिए. [64]  गांवों में खाद्य सुरक्षा के लिहाज से किसानों का योगदान बहुत अहम है; और माता-पिता तो ख़ैर सबसे अहम कड़ी हैं.

3. तालमेल मज़बूत करना

पोषण अभियान की कामयाबी के लिए अलग अलग सेक्टर को साथ लाने की ज़रूरत है. ये बात इसे लागू करने की रणनीति के ब्लूप्रिंट में भी शामिल है. [65]

 

इसमें ये बात स्वीकार की गई है कि अभियान को असरदार बनाने और बर्बादी से बचाने के लिए केंद्र, राज्यों, अलग-अलग महकमों और ग़ैर सरकारी संगठनों और अन्य समूहों के बीच बेहतर तालमेल की ज़रूरत है. हालांकि, अब तक फ़ैसले लेने और उन्हें लागू करने में एक सुस्ती सी रही है. देश में कुपोषण के मौजूदा हालात को देखते हुए इसे तीन फ़ीसद सालाना की की दर से घटाने का महात्वाकांक्षी लक्ष्य रखना होगा. फिर इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 3N के फॉर्मूले [66] पर चलने की ज़रूरत होगी. वो है नीति, नियति और नेतृत्व.

4. डेटा और तकनीक का इस्तेमाल करना

पोषण अभियान में सुधार लाने के लिए तकनीक पर आधारित इनोवेशन की काफ़ी संभावना है. ICDC के कॉमन एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर (CAS) ने आंगनबाड़ी केन्द्रों से वज़न, कद, पूरक पोषाहार और घर के दौरों से जुड़े आंकड़े इकट्ठे करने के मामले में शानदार नतीजे दिए हैं. इस समय 5 लाख 30 हज़ार आंगनबाड़ी केंद्र ICDS-CAS सिस्टम से जुड़े हुए हैं. बाक़ी के 13.7 लाख केंद्रों को भी मार्च 2020 तक इससे जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था. इस तरीक़े से जमा किए गए आंकड़े योजना की निगरानी और उसके मूल्यांकन की व्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए बहुत अहम होंगे. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि हर बच्चे, गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं और माओं का अधिकतम ख़याल रखा जा सके. निगरानी की इस व्यवस्था की दिन और समय के साथ ली गई तस्वीरों के ज़रिए जियो टैगिंग भी की जा सकेगी. इससे ज़मीनी कार्यकर्ताओं और सुपरवाइज़रों की कुशलता भी बढ़ेगी. [67] भविष्य में बड़े पैमाने आंकड़ों का विश्लेषण और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से और भी नए प्रयोग शुरू किए जा सकते हैं.

5. क्षमता निर्माण को संस्थागत बनाना

आंगनवाड़ी वर्कर्स को नियमित रूप से प्रशिक्षण देने से पोषण अभियान की उपयोगिता को काफ़ी हद तक बढ़ाया जा सकता है. इसके अलावा, बेहतर निगरानी, तार्किक और काम का समान वितरण और संसाधनों में सुधार करके भी इसे बेहतर बनाया जा सकता है. वैसे तो कुछ मामलों में तो काफ़ी सुधार आया है. लेकिन, अभी भी कार्यक्रम के कई पहलुओं में इसकी कमी है. पोषण अभियान की इन कमजोर कड़ियों को मज़बूत करने के लिए इसके निरपेक्षता से मूल्यांकन की ज़रूरत है. आंगनबाड़ी केंद्रों को बेहतर और असरदार तरीक़े से चलाने के लिए वहां बुनियादी सुविधाओं जैसे कि बिजली, बच्चों के विकास की निगरानी करने वाले उपकरण और ज़रूरी आपूर्ति की व्यवस्था.

6. सामुदायिक नज़रिए को मज़बूत करना

विकास कार्यक्रमों की कामयाबी की पहली शर्त है, पंचशील की अवधारणा. [68]  ये सिद्धांत केंद्र और राज्य सरकारों को साथ लाता है; अकादेमिक संस्थाओं और विश्वविद्यालयों; निजी क्षेत्र को; अंतर्राष्ट्रीय, द्विपक्षीय, बहुपक्षीय एजेंसियों और सामाजिक समूहों को एक साथ लाता है. तमाम कोशिशों के बावजूद, पोषण अभियान में सामुदायिक भागीदारी बहुत कमज़ोर रही है. कोई योजना तभी ज्यादा असरदार हो सकती है, जब उसको समाज के उस ताने-बाने के साथ जोड़ा जाए जो समाज की विविधता और उनके आपसी मेलजोल के मुताबिक़ हो. इससे पोषण कार्यक्रमों की उपयोगिता पर असर पड़ता है. [69] किसी भी कार्यक्रम को सफलता से चलाने और पोषण संबंधी असमानतों की जड़ तक पहुंचने के लिए परिवारों के अंदरूनी समीकरण और सामाजिक भेदभाव पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है.


Appendix: वक्ताओं की सूची 

Laxmaiah, Scientist-G, National Institute of Nutrition, Hyderabad

Ajay Khera, Commissioner, Ministry of Health & Family Welfare, Government of India

Ajay Tirkey, Addl. Secretary, Ministry of Women & Child Development,

Amitabh Kant, CEO, Niti Aayog

Arjan de Waqt, Chief Child Development & Nutrition, UNICEF

Ashi Kohli Kathuria, Senior Nutrition Specialist, World Bank (TBC)

Bishow Parajuli, Country Director, World Food Programme

C.S. Pandav, Member-National Council on India’s Nutritional Challenges, Government of India

Debasree Chaudhuri, Minister of State, Ministry of Women & Child Development, Government of India

Gurnitika Kaur, Consultant, POSHAN Abhiyaan, Department of Women & Child Development, Haryana

Hisham Mundol, Executive Director, India & Child Protection, Children’s Investment Fund Foundation

Inoshi Sharma, Director, Food Safety & Standards Authority of India

Krishna Kant Pathak, Secretary, Department of Women & Child Development, Rajasthan

Purnima Menon, Senior Research Fellow, International Food Policy Research Institute

R V Bhavani, Director, Agriculture-Nutrition-Health, MS Swaminathan Research Foundation

Raghwesh Ranjan, Director of the Social and Economic Empowerment Practice, IPE Global

Raji P. Shrivastava, Principal Secretary, Department of Women & Child Development, Punjab

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