Author : Priyanka Shah

Published on Sep 21, 2017 Updated 0 Hours ago

भारत और चीन की 7 प्रतिशत से भी अधिक सालाना जीडीपी वृद्धि दर समस्त प्रमुख शहरी केंद्रों की फिजा में जहरीली होती जा रही हवा की कीमत पर हासिल की जा रही है।

भारत और चीन में प्रदूषण मुक्त विकास?

भारत और चीन 7 प्रतिशत से भी अधिक की सालाना जीडीपी वृद्धि दर की बदौलत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के रूप में निरंतर अखबारों की सुर्खियों में हैं। हालांकि, इस तरह की अभूतपूर्व विकास दर इन दोनों ही देशों के समस्‍त प्रमुख शहरी केंद्रों की फि‍जा में जहरीली होती जा रही हवा की कीमत पर हासिल की जा रही है।

भारत एवं चीन के कई शहर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के वायु गुणवत्ता मानकों की खुली अवहेलना कर रहे हैं और कई मर्तबा तो इन शहरों में हवा इस हद तक जहरीली हो जाती है कि सांस लेना तक दूभर हो जाता है। उदाहरण के लिए, डब्लूएचओ ने सिफारिश की है कि पीएम2.5 (ऐसे सूक्ष्‍म कण जिनका व्यास 2.5 माइक्रोग्राम से भी कम है) की वार्षिक औसत सघनता 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम होनी चाहिए, लेकिन भारत और चीन के शहरी क्षेत्रों में इसका स्तर छह गुना ज्‍यादा क्रमश: 66 और 59 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। डब्ल्‍यूएचओ की रिपोर्ट से पता चला है कि वायु की गुणवत्ता के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में भारत और चीन भी शामिल हैं। सच्‍चाई तो यही है कि पीएम 2.5 की सघनता के मामले में बीजिंग और नई दिल्ली दोनों ही शहर एक-दूसरे को कड़ी टक्‍कर देते रहे हैं। हालांकि, हाल ही में चीन की राजधानी ने इस मोर्चे पर बेहतरी दर्शाई है।

जब वायु में अन्य गैसें और बगैर जले कार्बन कण मिश्रित होकर स्‍वास्‍थ्‍य के लिए अत्‍यंत घातक बन जाते हैं तो वैसी स्थिति में पीएम2.5 की भारी सघनता के कारण प्रकाश-रासायनिक स्‍मॉग या धुंध यहां से वहां तक छा जाती है जो सर्दियों के दौरान मौसम संबंधी विशेष स्थितियों के कारण छंटने का नाम नहीं लेती है। ये सूक्ष्‍म कण (पीएम2.5) मानव स्वास्थ्य के लिए अत्‍यंत खतरनाक माने जाते हैं क्‍योंकि वे न केवल फेफड़ों में काफी अंदर तक समा सकते हैं, बल्कि मानव रक्त में भी प्रवेश कर सकते हैं और यदि ऐसा वाकई हो गया तो दिल का दौरा, स्ट्रोक पड़ सकता है और फेफड़ों का कैंसर भी हो सकता है। वर्ष 2015 में पीएम2.5 के कारण विश्‍व भर में 4.2 मिलियन से भी अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। इनमें से 52 प्रतिशत मौतें भारत और चीन में हुईं (इनमें से प्रत्येक देश में 1.1 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई)। विश्व स्तर पर, ओजोन से संबंधित प्रदूषण 2,54,000 से भी अधिक सीओपीडी (चिरकालिक प्रतिरोधी फुफ्फुसीय रोग) मौतों के लिए जिम्मेदार है। इनमें से लगभग 71 प्रतिशत मौतें भारत और चीन में होती हैं। ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीजेज नामक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990 से लेकर अब तक चीन में पीएम2.5 के कारण असमय मौतों में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि भारत में यह आंकड़ा तीन गुना अधिक है।

प्रदूषण के कारण बड़ी संख्‍या में होने वाली असमय मौतों और विकलांगता को ध्‍यान में रखते हुए इस गंभीर समस्‍या से निजात पाने की चुनौती को नकारा नहीं जा सकता है। जहां एक ओर परिवेशी वायु प्रदूषण के कारण गंभीर बीमारियां होने के साक्ष्‍यों की कोई कमी नहीं है, वहीं दूसरी ओर इस वजह से पारिस्थितिकी में भारी व्यवधान उत्‍पन्‍न होने से भी सभी वाकिफ हैं। इसी तरह के एक प्रयास के तहत भारत में कृषि पैदावार संबंधी हानि को गेहूं उत्पादन में 50 फीसदी सापेक्ष उपज नुकसान के रूप में दर्शाया गया है, जिसके लिए अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों की भारी सघनता जिम्‍मेदार होती है। एक और अध्ययन से यह पता चला है कि खराब प्राकृतिक रोशनी के कारण कृषि उत्पादन धीमा पड़ जाता है। चूंकि इन दोनों ही देशों के सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान अब भी अच्‍छा-खासा है, अत: इस वजह से अर्थव्यवस्था पर हानिकारक असर पड़ सकता है। इससे दिल्ली में प्रवासी पक्षियों और अन्य पशुओं के वन्य जीव आश्रय स्‍थलों को भी भारी खतरा पहुंचने का अंदेशा है।

औद्योगिक उत्सर्जन, परिवहन, जैव पदार्थों जैसे पराली को खुले में जलाया जाना और कोयला आधारित बिजली संयंत्र सूक्ष्‍म कण संबंधी प्रदूषण के कुछ प्रमुख स्रोत हैं। ऑटोमोबाइल और वाहनों से होने वाले उत्सर्जन में तेजी से वृद्धि के कारण इन दोनों ही देशों में पीएम2.5 की सघनता पर संचयी प्रभाव पड़ा है। जहां एक ओर कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को चीन में परिवेशी वायु प्रदूषण का महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है, वहीं दूसरी ओर जैव पदार्थों (बायोमास) को जलाया जाना भारत में वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। भारत में पटाखों के अत्यधिक उपयोग से भी छोटी सी अवधि में ही हवा की गुणवत्ता बेहद घटिया हो जाती है। इसी तरह निर्माण संबंधी गतिविधियों से धूल के कणों का फैलकर वायुमंडल में मिश्रित हो जाना भी शहरों में एक और चिंता का विषय है। इन सभी स्रोतों से पूरे साल स्वास्थ्य और पर्यावरण पर अत्‍यंत प्रतिकूल असर पड़ता रहता है। अत: वायु प्रदूषण को कम करने की कुंजी इन स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन को नियंत्रित करने में निहित है।

इन दोनों ही देशों में विकास की दिशा अलग-अलग रही है और इस वजह से वहां उत्सर्जन के स्रोत भी अलग-अलग हैं। जहां एक ओर चीन में विकास मुख्य रूप से उद्योगों के दम पर हुआ है, वहीं दूसरी ओर भारत ने विभिन्‍न सेवाओं में विशेषज्ञता की बदौलत उच्च विकास दर हासिल की है। अत: दोनों ही क्षेत्रों से प्रदूषण में कमी की जो उम्‍मीद की जा रही है उसका स्‍वरूप भी अलग-अलग है। अध्ययनों से पता चला है कि उत्सर्जन में कटौती संबंधी अंतर्निहित ज्ञान के साथ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण से चीन का विनिर्माण क्षेत्र लाभान्वित हुआ है। वहीं, भारत की समस्याएं आमदनी आधारित उपभोक्तावाद से संबंधित हैं।

नीतिगत उपाय

खतरे को भांपते हुए इन दोनों ही देशों ने उत्सर्जन कम करने के उद्देश्य से नीतियों और विनियमों के एक सेट को अपनाया। चीन का पर्यावरण संरक्षण कानून (जनवरी 2015 से ही प्रभावी) कई अल्पकालिक लक्ष्यों के साथ पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार और विनियमन सुनिश्चित करने हेतु की गई ठीक एक ऐसी ही पहल है। यह प्रभावकारी साबित हुआ है क्योंकि अल्पकालिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संसाधनों को तत्‍काल सुलभ कराया जा सकता है, इस दिशा में हो रही प्रगति की निगरानी करना आसान है और दीर्घकालिक लक्ष्यों के विपरीत इसमें हितधारक के हितों को बनाए रखा जाता है।

चीन ने विशेष रूप से उद्योगों (विद्युत संयंत्रों) के लिए प्रभावकारी कड़े नियम-कायदों के साथ-साथ उत्सर्जन मानकों को बेहतर बनाने के प्रयासों पर बल दिया है। इस्‍पात और कोयला जैसे प्रदूषणकारी उद्योगों में उत्पादन गतिविधियों को अब हवा के गुणवत्ता मानकों के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील बना दिया गया है। अक्सर विशिष्ट मौसम के दौरान उत्सर्जन कम करने के लिए उत्पादन कम कर दिया जाता है। देश में आर्थिक गतिविधियों को अब काफी तेजी के साथ भारी उद्योगों से दूर किया जा रहा है और इसके साथ ही स्वच्छ ऊर्जा के लिए विभिन्‍न विकल्प तलाशे जा रहे हैं। इसी प्रकार वाहनों से होने वाले उत्सर्जन, यातायात प्रबंधन, इलेक्‍ट्रॉनिक एवं हाईब्रिड वाहनों को बढ़ावा देने, धूल हटाने और हरित कवरेज से संबंधित प्रभावकारी नीतियों ने देश में वायु प्रदूषण कम करने में अहम योगदान दिया है। नवीनतम प्रयास के तहत उद्योग और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के उप मंत्री जिन ग्‍योबीन ने यह जानकारी दी है कि सरकार परंपरागत ईंधनों से चलने वाली कारों के उत्पादन और बिक्री पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है। चूंकि घरेलू ऑटोमोबाइल कंपनियों के लिए भारी-भरकम सब्सिडी मुहैया कराई जा रही है, इसलिए पेट्रोल और डीजल कारों पर प्रतिबंध लगाए जाने को सरकार द्वारा बिजली और प्लग-इन हाईब्रिड कारों के अपने विशाल घरेलू बाजार का दोहन करने की चाल के रूप में देखा जाएगा। चीन ने वायु गुणवत्ता मानकों की व्यवस्थित निगरानी पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया है और इसके साथ ही इसने नागरिकों की प्रभावकारी भागीदारी के लिए डेटा साझा करने के तरीके को बेहतर कर दिया है।

भारत भी प्रदूषण नियंत्रण के लिए प्रभावकारी नियम-कायदे लागू करता रहा है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय स्वच्छ प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने की नीतियों, विशेष रूप से वाहनों से होने वाले उत्सर्जन पर फोकस कर रहा है। अधिक से अधिक अंतर-क्षेत्रीय समन्वय के लिए प्रयास किए जा रहे हें। उदाहरण के लिए, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने वाहनों के बेड़े के आधुनिकीकरण और पर्यावरण अनुकूल परिवहन को बढ़ावा देने के लिए कई पहलों की पहचान की है। इसी तरह प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) का उद्देश्य महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए स्वच्छ रसोई ईंधन (एलपीजी) उपलब्ध कराना है। राज्य स्तर पर भी कई नीतिगत प्रयास किए गए हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली ने चरम प्रदूषण के दौरान वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए यातायात संबंधी नियम-कायदे (ऑड-ईवन नियम) लागू किए। दिल्ली में वाहनों से परिवहन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि सीएनजी ईंधन पर विशेष जोर दिया जा रहा है। पंजाब में उपकरणों की खरीद पर सब्सिडी देने के प्रावधान हैं, जिनसे फसल अवशेषों का स‍कारात्‍मक उपयोग बढ़ जाता है। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि गुणवत्ता की निगरानी के लिए पर्यावरण के आंकड़ों पर कहीं अधिक जोर दिया जा रहा है, जिन पर संबंधित हितधारकों और मीडिया द्वारा सक्रिय रूप से चर्चा की जाती है।

पिछले साल शहर में छाई घातक धुंध पर सख्‍त रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने श्रेणीबद्ध कदमों वाली कार्य योजना लागू की। इस योजना में प्रदूषण की गंभीरता के आधार पर पड़ोसी राज्यों और प्रदूषण नियंत्रणकारी एजेंसियों के बीच ठोस समन्वय के जरिए अमल में लाए जाने वाले कई अहम कदम शामिल हैं। शुरू में इस कार्य योजना की सराहना की गई और ऐसी कई अन्य योजनाओं से इसकी तुलना की गई जिन्हें विश्‍व भर में सरकारों द्वारा अमल में लाया गया था। हालांकि, दुर्भाग्यवश केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़े बताते हैं कि इस पर अमल के बाद से ही वायु की गुणवत्ता महज एक दिन भी डब्‍ल्‍यूएचओ के मानकों के अनुरूप नहीं रही है। ऐसी नौबत संभवत: प्रदूषण नियंत्रणकारी एजेंसियों के समक्ष पेश आ रही श्रमशक्ति, तकनीकी और संस्थागत बाधाओं की वजह से आई और इन्‍होंने तब इन योजनाओं को व्‍यापक तौर पर लागू करने से रोक दिया। इसके अलावा, राजधानी में पटाखों की बिक्री पर लगा प्रतिबंध कल हटा लिया गया। पटाखों से हवा की गुणवत्ता और नागरिकों के स्वास्थ्य पर लंबे समय तक असर पड़ने की बात को ध्‍यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल यह प्रतिबंध लगाया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि बिक्री पर रोक लगाना ‘सख्‍त कदम’ था। शीर्ष अदालत ने कुछ अन्य विशिष्‍ट नियमों के साथ पटाखों की बिक्री को 500 दुकानदारों तक सीमित कर दिया है। यह एक निराशाजनक कदम है, क्‍योंकि एक ऐसे शहर में प्रदूषण के स्तर को नियंत्रण में रखने के लिए वाकई सख्‍त कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, जिसकी गिनती निरंतर दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में की जाती है। हालांकि, यह कहना उचित नहीं है कि अकेले पटाखे ही जहरीली हवा के लिए जिम्‍मेदार हैं, लेकिन यह तो तय है कि पटाखे हवा में पहले से ही मौजूद प्रदूषण स्तर को और बढ़ा देते हैं।

अत: देश की राजधानी में वायु प्रदूषण के मसले से निपटने के लिए भले ही ढेर सारी नीतियां और रणनीतियां हों, लेकिन सच यही है कि वायु के गुणवत्ता मानकों में नगण्‍य सुधार हुआ है। भारत ने वायु प्रदूषण को कम करने की दिशा में भले ही अनेक कदम उठाए हों, लेकिन वह इस मामले में वैसी आपातकालीन गंभीरता दिखाने में नाकाम रहा है जैसी गंभीरता चीन ने हाल के वर्षों में दर्शाई है।

चीन-भारत सहयोग की संभावनाएं

वायु की गुणवत्ता में सुधार के लिए भारत और चीन दोनों ने ही प्रभावकारी उपाय किए हैं। वैसे तो वायु प्रदूषण के कारणों में काफी भिन्नता है, लेकिन दोनों देशों के समक्ष पेश आ रही चुनौतियों में अनगिनत समानताएं हैं। अत: कई सबक सीखे जा सकते हैं और प्रदूषण के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग की व्‍यापक संभावनाएं हैं। इसके अलावा, चूंकि पर्यावरण की चुनौतियां जैसे कि वायु प्रदूषण राष्ट्रीय सीमाओं के पार भी अपने पैर पसार लेता है, अत: ऐसे में दोनों पड़ोसियों के लिए यह और भी जरूरी हो गया है कि वे इस मोर्चे पर आपस में मिलकर काम करें।

हाल ही में संपन्न ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र में चीन ने सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्राप्त करने के लिए पर्यावरण के क्षेत्र में सहयोग के महत्व पर विशेष बल दिया। इसमें ‘वायु एवं जल प्रदूषण की रोकथाम, अपशिष्ट प्रबंधन और जैव विविधता संरक्षण जैसे क्षेत्रों में परिणाम-उन्मुख सहयोग को आगे बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाने’ का जिक्र किया गया है। चूंकि चीन ने हरित प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में काफी प्रगति की है, अत: इस क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग को इस तरह की उन्नत प्रौद्योगिकी, ज्ञान और अनुभवों के साथ-साथ ‘हरित प्रथाओं या तौर-तरीकों’ को भी साझा करते हुए आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके अलावा, दोनों देशों के बीच तत्‍काल यानी वास्तविक समय में ही संबंधित डेटा का अधिक से अधिक आदान-प्रदान भी होना चाहिए।

चीन की ही भांति भारत को भी अल्पकालिक लक्ष्य और सख्त समयसीमा तय करनी चाहिए। किसी भी योजना को सफल बनाने में जवाबदेही अहम भूमिका निभाती है। योजना के कार्यान्वयन की प्रक्रिया में शामिल प्रदूषण बोर्डों, राज्य सरकारों एवं अधिकारियों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। इसके तहत उन्‍हें बढि़या प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए और खराब प्रदर्शन के लिए दंडित किया जाना चाहिए। भारत इसके अलावा चीन के अभिनव कार्यान्‍वयन मॉडल जैसे कि धुंध-रोधी पुलिस को उधार भी ले सकता है, जो पर्यावरण नियमों के उल्लंघन की रोकथाम के लिए सड़कों पर गश्त लगाती है। इस तरह की प्रक्रिया में नागरिकों को शामिल करने से न केवल उनमें स्वामित्व की भावना बढ़ेगी, बल्कि रोजगार भी सृजित हो सकते हैं। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करना भी सरकार के लिए आवश्‍यक है कि वायु की गुणवत्ता के आंकड़े तत्‍काल यानी वास्तविक समय में ही आम जनता को आसानी से उपलब्ध हो जाएं। डेटा गुम होने एवं देरी से मिलने के साथ-साथ वायु गुणवत्ता निगरानी केंद्रों का ठीक से काम न करना जैसी व्‍यापक बुनियादी ढांचागत चूक होने की भी जानकारी मिली है। वैसे तो इस तरह के मसले मोटे तौर पर मामूली नजर आते हैं, लेकिन वे ऐसे आपातकालीन उपायों (जैसे कि श्रेणीबद्ध कदमों वाली कार्य योजना) के कार्यान्‍वयन में अत्‍यंत बाधक साबित हो सकते हैं जो मुख्‍यत: इस डेटा की उपलब्धता पर ही निर्भर हैं।

वैसे तो वायु प्रदूषण के बहुआयामी स्‍वरूप को देखते हुए चीन से हम कई सबक सीख सकते हैं, लेकिन ‘हर जगह एक ही नीति या उपाय’ को लागू करना निरर्थक साबित होगा। जैसा कि शंघाई नगर विदेश मामलों के कार्यालय के उप महानिदेशक फू जिहोंग का कहना है, ‘जब पर्यावरण संरक्षण की बात आती है, तो हमें यह मान कर चलना होगा कि हर शहर अलग है और उसकी अपनी विशेषताएं एवं विशिष्‍टताएं हैं। पर्यावरण को दुरुस्‍त करने की मुहिम चलाते वक्‍त शहर की विशिष्ट जरूरतों के साथ-साथ शहर की विकास संबंधी आवश्यकताओं को भी अवश्‍य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।’

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