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विचारों के मोर्चे पर ताक़त इस बात पर आधारित होगी कि कौन लंबे वक़्त तक असर डालने वाला क़दम होगा.
सत्ता और इस पर क़ाबिज़ लोग 2020 के दशक में नई चुनौतियों का सामना करेंगे. ये वो चुनौतियां होंगी जो दुनिया के हर कोने में हम ने उठा-पटक के तौर पर 2010 के दशक में देखी थीं. मगर. ध्यान रहे कि वो उथल-पुथल महज़ एक अभ्यास था. इस बात की तैयारी कि सत्ता को किस तरह से चुनौती दी जानी चाहिए. नई तकनीक से लैस, ये नया दशक हमारी दुनिया में नई और बड़ी पेचीदगियों को दावत देगा. ये उलझनें, ये पेंच-ओ-ख़म सत्ता के हर कोने में, व्यापार के हर समीकरण में और विचारों के नए मोर्चे पर देखने को मिलेंगी. इन में से कुछ चुनौतियां तो इन विचारों, सरकारों और व्यापार से संघर्ष करेंगी, ताकि अपने लिए भी जगह बना सकें. वहीं, कुछ चुनौतियां ऐसी भी होंगी जो सत्ता के इन केंद्रों के साथ मिल कर अपनी नई अहमियत की जगह बना लेंगी. इन चुनौतियों के कई चेहरे होंगे. लेकिन, मूलभूत रूप से ये चुनौतियां जितनी प्राचीन होंगी उतनी ही भविष्य में भी हम देखेंगे. ये मुक़ाबला होगा व्यक्ति और समूह के बीच का.
दुनियादारी की बात करें, तो दुनिया के सब से ताक़तवर वो लोग हैं, जो देशों की, बड़ी कंपनियों और धार्मिक संगठनों की अगुवाई करते हैं. फ़ोर्ब्स पत्रिका की 10 सब से ताक़तवर लोगों की फ़ेहरिस्त में, जहां सात वैश्विक नेता हैं. वहीं, दो कॉरपोरेट लीडर भी हैं. इस लिस्ट में एक नाम एक धार्मिक मुखिया का भी है. भारत में सब से शक्तिशाली लोगों की सूची में काफ़ी विविधता है: समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस की इस लिस्ट में पांच नेता हैं, तो बाक़ी के पांच न्यायपालिका, व्यापार जगत, सामाजिक संगठन और अफ़सरशाही से आते हैं.
सभी नेताओं के पास अनुयायी होते हैं या फिर उन्हें अनुयायियों की ज़रूरत होती है. राजनेताओं के लिए ये अनुयायी स्वैच्छिक होते हैं, जो विचारधाराओं या कुछ ख़ास विचारों का समर्थन करते हैं. लेकिन, जब अनुयायियों की ये फ़ौज संवैधानिक और संस्थागत ढांचों में पैबस्त हो जाती है, तो ये ख़ुद को अभियव्यक्त करने के नए मंच तलाशती है.
सभी नेताओं के पास अनुयायी होते हैं या फिर उन्हें अनुयायियों की ज़रूरत होती है. राजनेताओं के लिए ये अनुयायी स्वैच्छिक होते हैं, जो विचारधाराओं या कुछ ख़ास विचारों का समर्थन करते हैं. लेकिन, जब अनुयायियों की ये फ़ौज संवैधानिक और संस्थागत ढांचों में पैबस्त हो जाती है, तो ये ख़ुद को अभियव्यक्त करने के नए मंच तलाशती है. ऐसा न होने पर यही समर्थक किसी नेता को सत्ता से बाहर करने के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं. हर युग में ये संतुलन बनाना मुश्किल रहा है. लेकिन, 2020 के दशक में ये संतुलन साधने के लिए नेताओं के पास जो समय होता है, उस का दायरा और सिमट जाएगा.
2010 के दशक में हम ने चार तरह के युद्ध देखे हैं. एक तो वैचारिक जंग थी (जिसकी परिणति अरब स्प्रिंग के तौर पर हुई थी), दूसरी राजनीतिक थी (चीन के तानाशाही मॉडल को और भी मज़बूती मिली और अब दुनिया भर में इसे जायज़ ठहराने का चलन है), सामाजिक युद्ध (हॉन्गकॉन्ग के विरोध-प्रदर्शन इस की मिसाल हैं) और तकनीकी युद्ध (विशाल कंपनियों पर नई पाबंदियां, 5G तकनीक और सुरक्षा). एक और तरह का सामूहिक संघर्ष जो दुनिया ने देखा वो था वैचारिक, जैसे कि जलवायु परिवर्तन. ये सभी संघर्ष तकनीक की मदद से लड़े गए. लोगों के हाथ में तकनीक के औज़ार थे. इस के अलावा हर संघर्ष के लिए लोगों ने अलग अलग तरह से समूह बना कर विजय का प्रयास किया.
2020 के दशक में हम इन तनावों को और भी बड़े पैमाने पर होते देखेंगे. इन का दायरा भी बढ़ेगा और तीव्रता भी. इन संघर्षों से नए नेता तो पैदा होंगे, भले ही वो अस्थायी क्यों न हों. वो वैश्विक संवाद के नए माध्यम होंगे. वो पूरी दुनिया के आम लोगों को प्रभावित करेंगे. उन्हें विचारधारा, ग्लैमर और रिट्वीट का खाद-पानी मिलेगा. उन के पास तकनीक के शस्त्र होंगे. और, फिर वो इन औज़ारों से उसी तकनीक पर हमला भी करेंगे. और, इस संघर्ष के लिए उन्हें वित्तीय मदद भी हासिल होगी.
इस का नतीजा ये होगा कि, जो लोग सत्ता पर क़ाबिज़ हैं वो छोटे स्तर पर ऐसी मुश्किलों का सामना करेंगे, जिस के लिए न तो वो प्रशिक्षित होंगे और न ही उन के पास ऐसी संस्थागत व्यवस्था होगी कि वो इन चुनौतियों को सीमित कर सकें. आख़िर सरकारें ऐसी पेचीदगियों का सामना कैसे करेंगी-जैसे कि कोई युवा महिला अगर बेहतर दुनिया की मांग करेगी, कोई कार्यकर्ता, जनहित में किसी हुक़ूमत के राज़ फ़ाश करेगा, कुछ लोगों का छोटा सा समूह सुरक्षा के नाम पर हमारी ज़िंदगी के हर पहलू में सरकार की ख़ुफ़िया निगाहों के होने का विरोध करेगा. कोई भी निज़ाम सरकार की सीमाओं से परे हट कर इन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है क्या? जनहित में सरकार और विशाल कंपनियों के ख़िलाफ़ संघर्ष को जिस तरह से सशस्त्रीकृत किया जा रहा है, उस से इन सरकारों और बड़ी कंपनियों को संघर्ष करने वालों से संवाद के लिए नए हुनर सीखने होंगे.
2010 के दशक में हम इस बात पर परिचर्चा कर रहे थे कि वैश्विक स्तर की कंपनियों के प्लेटफ़ॉर्म पर उपलब्ध तकनीकी संसाधनों की शक्ति की मदद से किस तरह सामाजिक नज़दीकी बढ़ी, जिस ने राष्ट्रीय सीमाओं को अप्रासंगिक बना दिया. हुकूमतों ने इस चुनौती का जवाब नई नई पाबंदियां और नियामक व्यवस्थाओं से दिया था, ताकि छोटी होती दुनिया को बीसवीं सदी वाली अपनी ताक़त की मौजूदगी का एहसास करा सकें. कभी यहां पाबंदी, तो कभी वहां जुर्माना. और इसी दरमियान किसी बात के पर्दाफ़ाश को राष्ट्रीय सुरक्षा के दायरे में लाने की कोशिश हम ने देखी थी. 2020 के दशक में हम इन नियामक व्यवस्थाओं को और प्रौढ़ होते देखेंगे. इन का इस्तेमाल करने वाले नागरिकों की आवाज़ से लैस लोकतंत्रों को फिर इन पाबंदियों के बारे में नए सिरे से सोचना होगा. उन्हें सोचना होगा कि वो ग्राहकों, कंपनियों और देशों की नई आकांक्षाओं की पूर्ति कैसे कर सकेंगे.
21वीं सदी के पहले दशक में दुनिया की आबादी 6 अरब थी. 2010 के दशक में ये आबादी बढ़ कर 7 अरब पहुंच गई. सोशल मीडिया ने इन में से एक तिहाई को अपनी आवाज़ बुलंद करने का मौक़ा दिया. इन में से 2.5 अरब लोगों ने नागरिक होने की हैसियत से अपनी आवाज़ उठाई. इन लोगों ने कभी मोबाइल फ़ोन तो कभी कंप्यूटर के ज़रिए पॉप कल्चर और अपनी राजनीतिक अपेक्षाओं को आवाज़ दी. वो जिन संस्थाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे थे, उन्हीं के संरक्षण में इन लोगों ने पूरी दुनिया में गोलियों से लेकर पानी की बौछार झेलने वाले प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया. मज़े की बात ये कि सत्ता के साथ इस संघर्ष में ख़ुद उन्हें एक खरोंच तक नहीं आई.
2020 के दशक में ऐसी 8.5 अरब आवाज़ें पूरी दुनिया में होंगी. और इस आबादी के आधे से ज़्यादा लोगों के पास तकनीक के तौर पर बेहद सशक्त हथियार होगा. इन तकनीकी संरचनाओं ने आम लोगों को हक़ीक़त, जीवन मूल्यों, संस्कृति और वित्तीय आधार वाली अपनी एक अलग दुनिया बसाने का अवसर दिया है. इसीलिए 2020 के दशक में वैश्विक नेतृत्व के सामने जो चुनौती होगी, वो चार अरब लोगों के मज़बूत आपसी संपर्क से लैस होगी. हमारा ये मानना है कि मौजूदा सरकारी संस्थाएं इस ताक़त से निपटने में अक्षम हैं. हमारे मुताबिक़, इस से भी बुरी बात ये है कि मौजूदा नेतृत्व भविष्य की उस तल्ख़ हक़ीक़त से नज़रें चुरा रहा है, जो उस के सामने स्पष्ट रूप से खड़ी है.
अगर कोई नेतृत्व तानाशाही नहीं है, तो हमारी हमदर्दी हर उस नेतृत्व से है, जो 2020 के दशक में लोकतांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन करेगा. जहां तानाशाही हुकूमतें अपने अल्पसंख्यकों को नज़रबंद करके जवाबदेही से बच जाएंगी. या फिर राजनीतिक विरोध को ख़ामोश कर देंगी. वहीं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं वाले देशों के नेताओं को इस बदलते भविष्य की चुनौती का बोझ ज़्यादा उठाना होगा. अब ये देखने वाली बात होगी कि लोकतांत्रिक देश किस तरह से अपनी भौगोलिक सीमाओं में नागरिकों को सुरक्षा, क़ानून-व्यवस्था और समृद्धि देने के साथ-साथ दूसरे देशों को प्रभावित कर सकेंगी. दुनिया बड़ी सावधानी से इस बात पर नज़र रखेगी.
अहंकारी सत्ताधारी नेतृत्व के दिन हो सकता है कि कुछ दिन और रहें. लेकिन, 21वीं सदी के ज्ञान वाली कामगारों की फ़ौज 20वीं या 19वीं सदी की शान-ओ-शौक़त को स्वीकार नहीं करेगी. ज्ञान की स्वायत्त सहायक धाराओं से लैस ये कॉरपोरेट सत्ता 2020 के दशक में नए बदलाव देखेगी.
अपने शांत दफ़्तर वाली संस्कृति के आदी सत्ताधारी संप्रभुओं और कॉरपोरेट दुनिया के नेताओं को इस बारे में दोबारा सोचना होगा. अहंकारी सत्ताधारी नेतृत्व के दिन हो सकता है कि कुछ दिन और रहें. लेकिन, 21वीं सदी के ज्ञान वाली कामगारों की फ़ौज 20वीं या 19वीं सदी की शान-ओ-शौक़त को स्वीकार नहीं करेगी. ज्ञान की स्वायत्त सहायक धाराओं से लैस ये कॉरपोरेट सत्ता 2020 के दशक में नए बदलाव देखेगी. क्योंकि ज्ञान की शक्ति से संचालित कंपनियों के विशाल समुद्र के संतुलन को साधने के लिए बुद्धिमत्ता की ये सहायक नदियां बेहद महत्वपूर्ण हैं.
2020 के दशक में सरकारी अफ़सरशाही की ही तरह, विशाल कंपनियों की ब्यूरोक्रेसी के पास अपने बचाव में हाथ-पैर मारने की बेहद कम जगह होगी. नई प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें सम्मानित करना इन के लिए सब से बड़ी चुनौती होगा. ये चुनौती कंपनियों के उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता सुधारने से पहले आएगा. क्योंकि शानदार काम करने वाले जीते-जागते इंसान होंगे, न कि उत्पादों और सेवाओं जैसे निर्जीव. हो सकता है कि किसी कंपनी के सीईओ को सब से ज़्यादा तनख़्वाह ही न मिले. सब से बड़ी टीम का सब से ज़्यादा असर ही कंपनी पर न हो. सब से बड़ा प्रोजेक्ट सब से मुनाफ़े का सौदा ही न रह जाए. बेहद क़ाबिल लोगों को आकर्षित करना और अपने साथ जोड़े रखना ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सब से बड़ी चुनौती होगा. फिर इन विशेषज्ञों को ख़ुदमुख़्तार विशाल व्यवस्था में तब्दील करना होगा. और साथ ही साथ सामान्य मानव संसाधन की नीतियों के दायरे में किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं को दबाने से बचाना बड़ी चुनौती होगा. बड़ी कंपनियों का नेतृत्व करने वालों को अपने आलीशान दफ़्तरों में बैठ कर इस बारे में माथापच्ची करते रहनी होगी.
विकास की बात करें तो 20वीं सदी का विशाल आकार वाला मॉडल पुराना पड़ जाएगा. 21वीं सदी में इनोवेशन और प्रासंगिकता की अहमियत ज़्यादा होगी. कम ख़र्च में तकनीक की मदद से चलने वाली नई कंपनियां नए मूल्यों की रचना करेंगी, वो भी असीमित रफ़्तार से. बड़े पैमाने पर उत्पादन के पुराने विचार केवल मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों तक ही सीमित रह जाएंगे. सेवाएं प्रदान करने वाली कंपनियों को नई तकनीक से लैस हो कर भविष्य की चुनौतियों का सामना करना होगा. उन्हें ऐसे लोगों की ज़रूरत होगी जो ऐसी क़ाबिलियत से लैस हों और इन नई चुनौतियों का सामना कर सकें. एक अरब लोगों को सेवाएं देने के लिए आज किसी स्टार्ट अप कंपनी को 50 इंजीनियरों के एक समूह भर की ज़रूरत होती है. आज के दौर में जब हर दिन एक नई तकनीक की हमारी ज़िंदगी में आमद हो रही है, तो पुराने ज़माने के ख़यालात में क़ैद कंपनियों को इन तकनीकी ज्ञान से लैस छोटे मगर बेहद शातिर खिलाड़ियों से मुक़ाबला करने में बहुत मशक़्क़त करनी पड़ेगी.
लेकिन, स्टार्ट अप कंपनियों का नेतृत्व करने वालों को भी चौकस रहना होगा. 2010 के दशक में हम ने देखा था कि हर हाई-प्रोफ़ाइल और वित्तीय संसाधनों से लैस स्टार्ट अप कामयाब हो, इस की कोई गारंटी नहीं है. इस का ये नतीजा होगा कि 2020 के दशक में लीडरशिप पर ज़्यादा ज़ोर होगा. इस नए नेतृत्व को लचीला होना होगा, बदलाव के लिए हर समय तैयार रहना होगा और ज़रूरत पड़ने पर नए नेतृत्व को रास्ता देने के लिए तैयार होना होगा. वहीं, नई कामयाब स्टार्ट अप कंपनियों यानी यूनिकॉर्न को ये समझना होगा कि अरबों रुपए की कामयाबी वाला हर विचार वही नेता ले कर आए, जिस ने पिछली कंपनी की शुरुआत की थी, ये ज़रूरी नहीं है. किसी विचार के छलांग लगाकर आमदनी बढ़ाने और फिर इस पूंजी के बाज़ारीकरण के बीच एक विशाल ख़ालीपन है. क्षमता की कमी की चुनौती होती है. नेतृत्व क्षमता का ब्लैकहोल होता है. क्या कारोबार की बढ़त के साथ-साथ हम 2020 नए बिज़नेस लीडर भी उभरते देखेंगे? या फिर हम 2010 के दशक में लौट जाएंगे. और बड़ी कंपनियों को इन छोटी कंपनियों को ख़रीद कर हर हाल में जीत हासिल करते रहने देंगे. इस सवाल का जवाब फ़िलहाल खुला हुआ है.
विचारों के मोर्चे पर ताक़त इस बात पर आधारित होगी कि कौन लंबे वक़्त तक असर डालने वाला क़दम होगा. हम ने देखा है कि कई प्रभावशाली लोग इस तस्वीर के साथ सामने आए कि ये अगला बड़ा विचार है. लेकिन, जल्द ही वो गुम हो गए. आज ज्ञान आधारित समाज में बने रहने के लिए सत्ता उन लोगों के हाथ में होगी, जो विचारों की फ़सल संस्थागत स्तर पर पैदा कर सकें. वो विचारोत्पादक लोगों का कैसे इस्तेमाल करेंगे और उन्हें किस तरह से नियमित रूप से नए विचार लाने के लिए प्रेरित करेंगे, ताकि वैचारिक प्रवाह संस्थागत रूप से बना रहे और उनका असर व्यापक रूप से लोगों को प्रभावित करता रहे, यही बात तय करेगी कि नए विचार लाने वाले 2020 के दशक में कब तक प्रासंगिक बने रहते हैं.
2020 के दशक में दोनों ही बातों की ज़रूरत होगी. एक तरफ़ तो किसी एक विषय की ख़ास विशेषज्ञता आवश्यक होगी. वहीं, दूसरी तरफ़ तमाम विषयों में कार्य कुशल होना भी आवश्यक होगा.
अपने तौर पर, किसी ख़ास सेक्टर से जुड़े विशेषज्ञों और बड़ी तस्वीर पर असर डालने वालों के पास अपनी कामयाबी का जश्न मनाने का वक़्त नहीं होगा. आज हम ने एक ऐसे दशक में प्रवेश किया है, जिस में 2010 की उठापटक के विस्तार से ही शुरुआत हुई है, वहां विशेषज्ञता का ख़याल ही लगातार परिवर्तित हो रहा है. 2020 के दशक में दोनों ही बातों की ज़रूरत होगी. एक तरफ़ तो किसी एक विषय की ख़ास विशेषज्ञता आवश्यक होगी. वहीं, दूसरी तरफ़ तमाम विषयों में कार्य कुशल होना भी आवश्यक होगा. अलग अलग तरह की टीमों के साथ काम करना, 2010 के दशक की विरासत है. 2020 के दशक में इन्हीं टीमों को अलग-अलग विचारों पर कामयाबी से काम कराना ही असल पहचान बनेगी.
जैसा की तकनीकी इनोवेशन में होता है, विचारों के विश्व में असल सत्ता मायने बनाने वालों की होती है. मायने स्थापित करने वाले इन लोगों की अपेक्षाओं के बीच संतुलन बना कर उन्हें गिग इकोनॉमी की तमाम सीमाओं और अवसरों के बीच लंबे दौर के लिए क़ीमती बनाने की क्षमता ही तय करेगी कि सत्ता और प्रभाव किसके पास होंगे. हो सकता है कि ये संघर्ष एक बार फिर से विचारों के नए खिलाड़ियों और उन से कामयाबी की फ़सल काटने वालों के बीच होगा. व्यक्ति और टीम के बीच होगा. निजता और सामूहिकता के बीच होगा. 2020 के दशक का नेतृत्व ये मांग करेगा कि इन दोनों स्तंभों के बीच संवाद क़ायम करे. ज्ञान और इस ज्ञान को सत्ता में तब्दील करने वालों के बीच संवाद स्थापित कराए. जो लोग इन की अनदेखी करेंगे वो विचारों की सुनामी में तबाह हो जाएंगे. क्योंकि ये सुनामी हमारे समाज के हर मोर्चे पर आने वाली है. सैकड़ों सरकारें, हज़ारों कंपनियां और अरबों लोगों की अपनी दुनिया में ये तूफ़ान उठने को बेक़रार है.
विचारों के इस विश्व से संवाद स्थापित करने की सब से ज़्यादा ज़रूरत सरकारों और विशाल कंपनियों को होगी. आप इसे पसंद करें या न करें, सरकार, निजी कंपनियों और वैचारिक उद्यमियों की आपसी आमद-ओ-रफ़्त ही राष्ट्रीय और वैश्विक परिचर्चा में सब से अहम होने जा रही है. कोई भी पद बहुत बड़ा नहीं रह जाएगा, कोई भी विचार एकदम अप्रासंगिक नहीं होगा, कोई भी विचार इतना छोटा नहीं होगा कि इस आमद-ओ-रफ़्त के दरवाज़े से अपनी पैठ न बना सके. इन सब से ऊपर, समाज का कोई भी क्षेत्र इस से अछूता नहीं रहने वाला है. जो सरकारें और निजी कंपनियां कुछ लोगों को अपनी स्वायत्त सत्ता चलाने की आज़ादी देंगी, वो इस बदलाव के तूफ़ान में तबाह होने वाली हैं.
2020 का दशक उन लोगों का होगा, जो व्यक्तिगत दुनिया का विस्तार कर के इस में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के लिए फ़ायदे के अवसर निकालेंगे. अधिकतम उत्पादन के लिए ज्ञान आधारित ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ेंगे, जो उन के विचारों को दूर दूर तक ले जा सकें और लगातार प्रयासों से आम लोगों की अपेक्षाओं की पूर्ति कर के उन की सेवा कर सकें. और इस काम में लंबे वक़्त की राष्ट्रीयता की शक्ति दृढ़ता से लगे रहें.
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Gautam Chikermane is Vice President at Observer Research Foundation, New Delhi. His areas of research are grand strategy, economics, and foreign policy. He speaks to ...
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