Author : Rosa Balfour

Expert Speak Raisina Debates
Published on May 03, 2024 Updated 0 Hours ago

यूरोप को इस सोच से ऊपर उठना होगा कि उसकी समस्याएं तो दुनिया भर की चुनौतियां हैं. लेकिन दुनिया की मुश्किलें यूरोप का सिरदर्द नहीं हैं.

सतही नज़रिया: ग्लोबल साउथ में यूरोपीय संघ की कमज़ोर कड़ी

ये लेख हमारी रायसीना क्रॉनिकल्स 2024 सीरीज़ का एक हिस्सा है


आज इस बात पर गर्मागर्म बहस चल रही हैं कि ग्लोबल साउथ का जुमला कितना उचित है. इस परिभाषा की अच्छाइयों और कमियों को हटा दें, तो यूरोपीय संघ के ऊंचे नज़रिए से दुनिया देखें तोग्लोबल साउथसे हमें एक दृष्टिकोण ज़रूर हासिल होता है: इसके तहत दुनिया के वो हिस्से आते हैं, जिनके साथ यूरोपीय संघ का सबसे कम संवाद होता है.

 

दुनिया भर में अपनी मौजूदगी ज़ाहिर करने के मामले में यूरोपीय संघ की रफ़्तार बहुत धीमी रही है. यूरोपीय संघ (EU) की विदेश नीति का ज़्यादातर हिस्सा उसके तथाकथित पास-पड़ोस (पूर्वी यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व) से ताल्लुक़ रखने वाला है. इसके सबसे अहम सहयोगी अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों पर आबाद हैं और बाक़ी दुनिया से EU का संवाद कुछ ख़ास नज़रियों के साथ ही होता है: व्यापार और अर्थव्यवस्था (कनाडा से लेकर वियतनाम तक. इसी वजह से ग्लोबल साउथ की परिभाषा ठीक नहीं बैठती है). मानव अधिकारों और जलवायु जैसी साझा भलाइयों का प्रशासन (बहुपक्षीय संस्थानों के ज़रिए और इनमें G77 के साथ काम करना भी शामिल है), और विकास संबंधी नीतियां (EU अभी भी दुनिया का सबसे बड़ा दानदाता है). बाक़ी दुनिया से यूरोपीय संघ के संबंध और वैश्विक स्तर पर इसकी ज़्यादातर हैसियत ख़ुद के बारे में EU की इस सोच को दर्शाती है कि वो अच्छाई की एक ताक़त है. ऐसे में यूरोपीय संघ ख़ुद को ही सारा जहां मान लेने की ग़लती कर बैठता है. जैसा कि भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर ने कहा था कि, ‘यूरोप को इस सोच से ऊपर उठना होगा कि उसकी समस्याएं तो दुनिया भर की चुनौतियां हैं. लेकिन दुनिया की मुश्किलें यूरोप का सिरदर्द नहीं हैं.’

 जब से इज़राइल ने 7 अक्टूबर के हमले के बाद ग़ज़ा में भयंकर युद्ध छेड़ा है, तब से ग्लोबल साउथ और यूरोपीय संघ के बीच की खाई इतनी गहरी दिखाई देने लगी है, जितनी पहले कभी नहीं थी. क्योंकि ग्लोबल साउथ के ज़्यादातर देश फिलिस्तीन के समर्थक हैं. वहीं, यूरोपीय संघ के देश इज़राइल के साथ खड़े हैं.

2022 में जब यूरोप और अमेरिका, यूक्रेन पर रूस के हमले के ख़िलाफ़ समर्थन जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब जाकर EU ने बहुत देर के बाद ग्लोबल साउथ से उठ रहे बिल्कुल अलग अलग नज़रियों के अस्तित्व को स्वीकार किया था. और जब से इज़राइल ने 7 अक्टूबर के हमले के बाद ग़ज़ा में भयंकर युद्ध छेड़ा है, तब से ग्लोबल साउथ और यूरोपीय संघ के बीच की खाई इतनी गहरी दिखाई देने लगी है, जितनी पहले कभी नहीं थी. क्योंकि ग्लोबल साउथ के ज़्यादातर देश फिलिस्तीन के समर्थक हैं. वहीं, यूरोपीय संघ के देश इज़राइल के साथ खड़े हैं.

 

इस कोशिश को हमें एक ऊर्जावान अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संदर्भ में रखकर देखना होगा. क्योंकि ये विश्व व्यवस्था बदल रही है और ख़ुद को अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंदिता और बहुध्रुवीयता के मुताबिक़ ढाल रही है. इन हालात में ग्लोबल साउथ के लिए नए मौक़ों के साथ साथ तमाम चुनौतियां भी हैं. तो, यही बात यूरोप पर भी लागू होती है.

 

यूरोपीय संघ के नज़रिए की कमियां

 

चूंकि ग्लोबल साउथ एक विशाल भू-भाग में फैला हुआ है और इसके विविधता भरे नज़रिए सिर्फ़ अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों के हिसाब से अलग हैं, बल्कि इनकी सरकारों और समाज, शहरी और ग्रामीण और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की समझ भी हर देश के हिसाब से अलग अलग है. ऐसे में अगर EU विशाल ग्लोबल साउथ से उठ रहे तमाम दृष्टिकोणों को समझने के बजाय यूरोपीय संघ अपनी आलोचना को समझना चाहता है, तो उसे कुछ ख़ास वर्गों में बांटकर देखा जा सकता है

 

यूरोप पर दोहरे मापदंड अपनाने का जो इल्ज़ाम लगता है उसका बहुत हद तक ताल्लुक़ अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और दुनिया की शांति और युद्ध में EU की भूमिका से जुड़ा हुआ है. जब यूरोपीय संघ यूक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान का तर्क दे रहा था, तो उसके पाखंड का पर्दाफाश करने के लिए इराक़ पर सैन्य हमले (जिसका यूरोपीय संघ के ज़्यादातर देशों ने समर्थन किया था) और लीबिया पर आक्रमण (फ्रांस और ब्रिटेन) की मिसाल दी जा रही थी. एक हद तक ये तर्क दिया जा सकता है कि EU उन देशों से संबंध का दोषी है, जिन्होंने ये हमले किए थे. लेकिन, ये आलोचना उस वक़्त वाजिब लगती है, जब यूक्रेन पर 2014 में रूस द्वारा किए गए हमले और क्राइमिया पर क़ब्ज़े और फिर उसके बाद 2022 के आक्रमण को लेकर उसके अलग अलग रुख़ को लेकर सवाल उठाए जाते हैं. यूरोपीय संघ पर पाखंड का जो इल्ज़ाम लगता है वो अंतरराष्ट्रीय क़ानून को लेकर बाक़ी दुनिया में हो रहे संघर्षों को लेकर उसके अलग अलग रुख़ की वजह से लगता है.

 हाल ही में अप्रवास और शरण देने के जिस समझौते पर सहमति बनी है, उससे मौजूदा चुनौतियों का समाधान निकलने के बजाय उनके और बढ़ने की आशंका है, और इससे यूरोपीय संघ को अपने बारे में नकारात्मक सोच से निपटने में कोई मदद नहीं मिल सकेगी.

नियमों पर आधारित और वैश्विक हित व्यवस्था को लेकर EU के मंत्र पर भी ये कहते हुए सवाल उठाए जाते हैं कि इस तरह तो दुनिया की असमानता को आगे भी जारी रखने को बढ़ावा दिया जाता है. कोविड-19 महामारी के दौरान यूरोप के देशों को जितनी आसानी सरकारी क़र्ज़ हासिल हो रहा था, वैसा विकल्प बेहद कम आमदनी वाले देशों के लिए नहीं खुला था. यूरोपीय देशों ने टीकाकरण की नीति के तहत बाक़ी दुनिया के ऊपर अपने नागरिकों के हितों को तरज़ीह दी. व्यापार और जलवायु संबंधी नीतियों के मामले में भी यूरोपीय संघ पर वसूली वाली नीति चलाने और कच्चा माल हासिल करने या फिर ग़रीब देशों के विकास में बाधक बनने वाले पर्यावरण के मानकों वाली दीवार खड़ी करने के इल्ज़ाम लगते रहे हैं.

 

EU की अप्रवास और शरण देने की नीति और 2015 में सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों और फिर 2022 में यूक्रेन से आने वाले शरणार्थियों के प्रति बर्ताव में विरोधाभास की भी आलोचना होती रही है. इस दौरान यूरोप पर गोरे ईसाइयों के मुक़ाबले मुस्लिम शरणार्थियों के प्रति अलग बर्ताव करने की वजह से नस्लवादी नीति और इकतरफ़ा तरीक़े से सीमाएं खड़ी करने का इल्ज़ाम लगाकर कड़ी आलोचना की गई थी. यूरोपीय संघ का सीमा पर नियंत्रण का बर्ताव और ये ज़िम्मेदारी तीसरे पक्षों को देने की वजह से अप्रवासियों और शरणार्थियों की स्थिति बेहद ख़राब हो गई. हम इसकी मिसाल 2016 में यूरोपीय संघ और तुर्की के बीच हुए कुख्यात समझौते के रूप में देख चुके हैं. हाल ही में अप्रवास और शरण देने के जिस समझौते पर सहमति बनी है, उससे मौजूदा चुनौतियों का समाधान निकलने के बजाय उनके और बढ़ने की आशंका है, और इससे यूरोपीय संघ को अपने बारे में नकारात्मक सोच से निपटने में कोई मदद नहीं मिल सकेगी.

 

ये सारी आलोचनाएं उपनिवेशवाद के बाद के दौर की आलोचना का हिस्सा हैं, जिनसे निपटने में EU सामूहिक तौर पर ऐतिहासिक रूप से गुरेज करता रहा है. आगे चलकर युद्ध को देखते हुए पूरे यूरोप में दक्षिणपंथी सियासी झुकाव और EU का विस्तार करके उसे रूस के आक्रमण से बचाने के वादे को देखते हुएयूरोप के एक क़िले में तब्दीलहोने की आशंका को अवास्तविक मंज़र नहीं, बल्कि एक हक़ीक़त है, जिसमें भविष्य में इसकी सीमाओं की चौकसी और बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.

 

इनमें से कुछ आलोचनाएं भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदिताओं की वजह से पैदा हुए आम चलन वाले नैरेटिव का नतीजा हैं और इनके पीछे यूरोपीय संघ से ज़्यादा अमेरिका और चीन का हाथ है; कुछ बातों को रूस और चीन के नैरेटिव के ज़रिए तोड़-मरोड़कर भी पेश किया जाता है कि पश्चिमी देश नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं और उदारवादी लोकतंत्र तबाह होने वाले हैं. ग्लोबल साउथ के नेता अक्सर अपनी जनता को लुभाने के लिए उपनिवेशवाद के दौर की आलोचनाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं.

 यूरोपीय संघ को चाहिए कि वो अपने हितों को लेकर स्पष्ट रहे, अपने साझीदारों के हितों का भी सम्मान करे और व्यावहारिक रूप से इस बात की पहचान करे कि EU के साथ साझेदारी की वजह से अच्छे प्रशासन, जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले और दोनों पक्षों के लिए आर्थिक लाभ की शक्ल में किसी साझेदारी में क्या मूल्य जुड़ सकते हैं.

लेकिन, ये बात भी सच है कि EU को चाहिए कि वो इन आलोचनाओं को ठीक से समझे और इनकी मदद से ऐसी नीतियां बनाए जो उसकी ऐतिहासिक कमियों को दूर करने वाली हों. यूरोपीय संघ को चाहिए कि वो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को सुधारने के लिए अपने साझीदारों के साथ काम करने के अधिक रचनात्मक तरीक़ों पर विचार करें. क्योंकि दुनिया की असमानता और EU के अहंकार की सबसे बड़ी वजह मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ही है.

 

हाल के वर्षों में हमने देखा है कि EU और इसके सदस्य देश भारत के साथ पहले से कहीं ज़्यादा संपर्क कर रहे हैं. यूक्रेन में युद्ध छिड़ने के बाद भारत पर रूस की खुलकर आलोचना करने का दबाव बनाने और भविष्य में सहयोग के लिए इसे शर्त बनाने के बजाय यूरोप ने तब भारत की मजबूरियों और उसकी चिंताओं को समझा, जब भारत ने केवल अपनी बल्कि बहुत से अन्य देशों की सोच को बुलंद आवाज़ में व्यक्त किया. आज के उथल-पुथल भरे विश्व के संदर्भ में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन और भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित किया जाने वाला रायसीना डायलॉग, देशों के बीच संवाद और समझ की कमियों को दूर करने में बेहद अहम भूमिका निभा रहा है

 

पूरे तथाकथित ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के प्रतिनिधियों और भागीदारों को साथ लाकर, रायसीना डायलॉग यूरोप के विद्वानों, नीति निर्माताओं और वैचारिक नेताओं को वो मंच मुहैया कराता है, जिसकी उन्हें सख़्त ज़रूरत है और जहां पर वो एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमेरिका के अपने समकक्षों के साथ बात कर सकते हैं, सहमतियां बना सकते हैं और एक साझा नज़रिया विकसित कर सकते हैं. पिछले साल, भारत की G20 अध्यक्षता और ग्लोबल साउथ पर उसके ध्यान केंद्रित करने की पृष्ठभूमि में रायसीना डायलॉग में जो परिचर्चाएं हुई थीं, वो उत्तर और दक्षिण के बीच हमदर्दी को बेहतर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम था. इन उच्च स्तरीय परिचर्चाओं में मददगार बनकर रायसीना डायलॉग भारत की उत्तर और दक्षिण के बीचपुल बनाने वाला देश बनने की महत्वाकांक्षाओं/ इरादों और कोशिशों में मददगार साबित हो सकता है.

 

इस हक़ीक़त से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दुनिया की ज़्यादातर समस्याओं से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर सहयोग की आवश्यकता है. तार्किक रूप से यूरोप अभी तक ग्लोबल साउथ के देशों में नैरेटिव के संघर्ष की जंग हारा नहीं है और वो अब भी एक ऐसा सकारात्मक पेश करने की स्थिति में है, जो दोनों ही साझीदारों के हित में साझा वैश्विक मूल्यों पर आधारित हो.

 

सरकारी नीतियों से आगे बढ़कर समाजों को अंगीकार करना इसके लिए पहला क़दम होगा. मिसाल के तौर पर दुनिया की राय फिलिस्तीन के मसले पर बहुत से देशों की सरकारों की नीतियों से कहीं कम बंटी हुई है. दुनिया भर में सरकारों के रवैये के बावजूद अभी भी उदारवादी लोकतंत्र के मूल्यों को पसंद किया जाता है. ग्लोबल नॉर्थ बनाम ग्लोबल साउथ की ये तस्वीर अक्सर राजनीतिक हितों के लिए गढ़ी जाती है या फिर दो प्रतिद्वंदियों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने के लिए इस्तेमाल की जाती है.

 

निश्चित रूप से ग्लोबल साउथ के सियासी नेता भी उसी तरह नफ़ा नुक़सान देखने वाले हो सकते हैं, जिसका इल्ज़ाम वो यूरोपीय संघ पर लगाते हैं. शायद यही बात अधिक व्यावहारिक रिश्ते क़ायम करने का आधार बन सकती है, हाल ही में शुरू किया गया ग्लोबल गेटवे इनिशिएटिव- जो एक ऐसी पहल है जो दुनिया भर में मूलभूत ढांचे के विकास में मदद करेगी- इसे चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव को EU का जवाब कहा जा रहा है. 300 अरब यूरो (2021-27) की रक़म के साथ इसे देर से उठाया गया कमज़ोर क़दम भले कहा जाए. मगर ये तो बहुत कम रक़म है और ही ये देर से की गई पहल है. यूरोपीय संघ को चाहिए कि वो अपने हितों को लेकर स्पष्ट रहे, अपने साझीदारों के हितों का भी सम्मान करे और व्यावहारिक रूप से इस बात की पहचान करे कि EU के साथ साझेदारी की वजह से अच्छे प्रशासन, जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले और दोनों पक्षों के लिए आर्थिक लाभ की शक्ल में किसी साझेदारी में क्या मूल्य जुड़ सकते हैं.

 

यूरोपीय संघ को चाहिए कि वो अपने प्रति उस सकारात्मक सोच को और मज़बूती देने की कोशिश करे, जो ग्लोबल साउथ के बहुत से नागरिकों, लोकतंत्र और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, कारोबारी समुदाय, अकादमिक क्षेत्र के सदस्यों और ऐसे बहुत से लोगों की नज़र में है, जो EU के कार्यक्रमों या प्रतिनिधियों से जुड़े रहे हैं. G77,17 में किए गए वादे के मुताबिक़, नुक़सान और क्षतिपूर्ति की मद में दिल खोलकर फंड मुहैया कराने से केवल लाभ पाने वाली सरकारों बल्कि दुनिया भर के समाजों के बीच यूरोपीय संघ की छवि बेहतर होगी. पनाह मांगने वालों से वैसा ही अधिक मानवीय बर्ताव करके, जैसा यूक्रेन के शरणार्थियों को दिया गया था, और अप्रवास की एक अधिक उदारवादी नीति अपनाने से EU के सीमावर्ती देशों पर से दबाव कम होगा. शरण मांगने वालों की प्रतिष्ठा का सम्मान होगा और इससे ग्लोबल साउथ और भविष्य के यूरोपीय संघ के नागरिकों की नज़र में EU की नीतिगत प्रतिक्रिया को लेकर एक सकारात्मक छवि भी बनेगी.


ये पूरी सीरीज़ आप यहां पढ़ सकते हैं. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.