Author : ARKA BISWAS

Published on Dec 27, 2016 Updated 0 Hours ago

भारत के परमाणु सिद्धांत में कोई बदलाव नहीं करने के सरकार के फैसले के कारण यह आवश्यक है कि बुनियादी बातों पर फिर से गौर किया जाए और उस उद्देश्य की पहचान की जाए, जिसकी पूर्ति के लिए भारत के परमाणु सिद्धांत की रचना की गई है।

शांति और युद्ध में भारतीय परमाणु सिद्धांत

ब्रह्मोस मिसाइल 2009 में गणतंत्र दिवस परेड के लिए पूर्ण ड्रेस रिहर्सल के दौरान राजपथ से होकर गुजरता है।

पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक और सामरिक समुदायों के बीच भारत के परमाणु सिद्धांत की समीक्षा को लेकर बहस जारी है। सामरिक समुदाय वर्तमान भारतीय परमाणु सिद्धांत की परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने संबंधी नीति (एनएफयू) और बदले की व्यापक कार्रवाई करने संबंधी रणनीति सहित विविध कारकों पर सवालिया निशान लगाते हुए इस संबंध में विशेष तौर पर सक्रिय रहा है। आलोचक एनएफयू नीति को एक ऐसी मानक नीति करार देते रहे हैं, जो भारत के राष्ट्रीय हितों को साधने में विफल रही है।

(1) विरोधी देश से परम्परागत तौर पर श्रेष्ठ देश के लिए ऐसी नीति अपनाना भले ही उचित हो, लेकिन परम्परागत तौर पर सशक्त शत्रु के विरुद्ध यह नीति परमाणु हथियारों के उपयोग की रक्षात्मक उपयोगिता को सीमित करती है। संभवतः 1999 और 2003 में जब क्रमशः भारतीय परमाणु सिद्धांत (2) पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट के मसौदे और सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की प्रेस विज्ञप्ति द्वारा भारत के परमाणु सिद्धांत (3) के संचालन की दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा को सार्वजनिक किया गया था, तो उस समय भारत, यदि खुद को चीन से बेहतर नहीं समझता था, तो कम से कम उससे कमतर भी नहीं समझता था। हालांकि दशक भर में हालात बहुत बदल चुके हैं और चीन ऐसी सैन्य ताकत जुटा चुका है, जिसने भारत की तुलना में परम्परागत सैन्य ताकत के बीच का फासला और बढ़ा दिया है। इसलिए भारतीय परमाणु सिद्धांत में एनएफयू के इस्तेमाल का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है और उसे हर हाल में हल किया जाना चाहिए।

इसी तरह, किसी भी स्तर पर परमाणु हथियार के इस्तेमाल में पहल करने के विपरीत बदले की व्यापक कार्रवाई की रणनीति को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है। विशेषकर पाकिस्तान द्वारा सामरिक परमाणु हथियारों (टीएनडब्ल्यू) की शुरूआत के मद्देनजर इसके विश्वसनीय प्रतिरोधक स्थिति नहीं होने की दलील दी जाती है। (4) यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि परम्परागत युद्ध में पाकिस्तान द्वारा परमाणु हथियारों का सामरिक इस्तेमाल किए जाने पर भारत द्वारा जवाब में बड़े पैमाने पर परमाणु कार्रवाई किया जाना न केवल अमानवीय होगा, बल्कि पाकिस्तान द्वारा इसी तरह की बदले की कार्रवाई होने की संभावना को देखते हुए इसे अविवेकपूर्ण भी कहा जाएगा।

जहां एक ओर, सामरिक समुदाय इसी तरह गहन विचार-विमर्श में जुटा रहा है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक स्तर पर कुछ विशेष नहीं हुआ है-जिसके बिना भारतीय परमाणु सिद्धांत में किसी तरह के बदलाव होने की संभावना नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में अपने चुनाव घोषणा पत्र में भारत के परमाणु सिद्धांत की समीक्षा की बात करके काफी लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। हालांकि सरकार ने अब तक सिद्धांत में किसी तरह के परिवर्तन नहीं करने का फैसला किया है। यहां इस बात पर गौर करना अहम होगा कि यह आवश्यक नहीं कि परमाणु सिद्धांत की समीक्षा की परिणति बदलाव में ही हो, और इस तरह वर्तमान सरकार पर चुनाव घोषणापत्र में किए गए वादे से मुकरने का आरोप भी नहीं लगेगा। समीक्षा एक ऐसा कार्य है, जिसके अंतर्गत परमाणु सिद्धांत के उद्देश्य और चुनौतियों के प्रसार जैसी उन बुनियादी बातों का जायजा लिया जाता है, जिन्हें सुलझाने की अपेक्षा सिद्धांत के तहत की जाती है। भारत के परमाणु सिद्धांत में कोई बदलाव नहीं करने के सरकार के फैसले के कारण यह आवश्यक है कि बुनियादी बातों पर फिर से गौर किया जाए और उस उद्देश्य की पहचान की जाए, जिसकी पूर्ति के लिए भारत के परमाणु सिद्धांत की रचना की गई है।

भारत के परमाणु सिद्धांत के विकास का आकलन करते हुए एश्ले टेलीज कहते हैं कि भारत के नीति निर्माता जिस एकमात्र उद्देश्य से परमाणु हथियारों को जोड़ते हैं, वह है रक्षात्मक न होकर प्रतिरोधक है। (5) जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, आलोचक ऐसे बिंदु की ओर इशारा करते हैं, जब प्रतिरोध नाकाम हो जाता है और इस प्रकार वे परमाणु हथियारों को रक्षा के साधन के तौर पर देखने के तरीके सुझाते हैं। ग्लीन सिंडर ने अपनी पुस्तक  “डिटरन्स एंड डिफेन्स” में इस समस्या को उठाया है, जहां वे इस ओर संकेत करते हैं कि ”एक कारण जिसकी बदौलत समय पर राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में ‘व्यापक चर्चा’ अब तक बेनतीजा रही है, वह यह है कि भागीदार अक्सर तीन आधार पर बहस करते हैं-एक पक्ष प्रतिरोधकता के दृष्टिकोण से और दूसरा पक्ष रक्षा के दृष्टिकोण से (6)।” सिंडर यह दलील देते हैं कि प्रतिरोधकता और रक्षा दो अलग-अलग तरह के उद्देश्य हैं, जिन्हें अलग-अलग अनुपात में विविध सैन्य बलों की आवश्यकता होती है। वे इस बात का आकलन करते हैं कि इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किस प्रकार की अलग-अलग स्थितियों और उपयोगों की आवश्यकता होती है।

यह निबंध भारत के परमाणु सिद्धांत का जायजा लेने के लिए रूपरेखा के तौर पर  प्रतिरोध और रक्षा के उद्देश्यों के बीच के अंतर से संबंधित सिंडर के आकलन का उपयोग करता है। यह निबंध भारत के घोषित परमाणु सिद्धांत के दो प्रमुख कारकों – बदले की व्यापक कार्रवाई तथा एनएफयू की नीति -का आकलन करते हुए उसकी पहचान शांतिकालीन सिद्धांत के तौर पर करता है। उसके पश्चात वह विशेषकर पाकिस्तान द्वारा सामरिक परमाणु हथियार प्रस्तुत किए जाने और चीन की सेना के त्वरित गति से आधुनिकीकरण की पृष्ठभूमि में भारत के वर्तमान घोषित परमाणु सिद्धांत के उपरोक्त कारकों की वैधता की पड़ताल करता है।  साथ ही इस बात की दलील देता है कि युद्ध के दौरान न्यूक्लियर रेडलाइन्स, स्थिति और उपयोग के बारे में पृथक सिद्धांत की आवश्यकता है।

उद्देश्य: प्रतिरोध या रक्षा?

ग्लेन सिंडर अमेरिकी सुरक्षा नीति का आकलन करते हुए दलील देते हैं कि प्रतिरोध और रक्षा की अवधारणाएं अलग-अलग हैं और इस तरह इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अलग-अलग सैन्य बलों के मिश्रण की आवश्यकता होगी। वह प्रतिरोध की अवधारणा को ”लाभ की तुलना में लागत और जोखिम अधिक होने की संभावना बताकर शत्रु को सैनिक कार्रवाई के प्रति हतोत्साहित करने” के रूप में -और रक्षा की अवधारणा को ”प्रतिरोध विफल होने की सूरत में संभावित लागत और जोखिमों में कमी लाने” के रूप में परिभाषित करते हैं। सिंडर इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि प्रतिरोध अनिवार्य रूप से शांतिकाल का उद्देश्य है, जबकि रक्षा युद्धकाल की आवश्यकता है। किसी देश की परमाणु परिसम्पत्तियों पर गौर करते हुए, शांतिकाल में परमाणु हथियारों के उद्देश्य को प्रतिरोधक और युद्धकाल में, जब प्रतिरोध विफल हो जाए, तो रक्षात्मक मानने की दलील दी जा सकती है। परमाणु सिद्धांत, परमाणु हथियारों के उद्देश्य के बारे में किसी देश और उसके राजनीतिक अथवा सैन्य नेतृत्व के दृष्टिकोण का सार प्रस्तुत करते हैं, इसलिए उनमें आवश्यक तौर पर दो अर्थ होते हैं-एक शांतिकाल में प्रतिरोध और दूसरा युद्धकाल में रक्षा संबंधी की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

भारत के परमाणु सिद्धांत का आकलन करने में यह सैद्धांतिक रूपरेखा उपयोगी है। भारत सरकार द्वारा घोषित किए गए 1999 में भारतीय परमाणु सिद्धांत पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट का मसौदा और उसके बाद 2003 में भारत के परमाणु सिद्धांत के संचालन की दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा से संबंधित सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की प्रेस विज्ञप्ति- दोनों दस्तावेज परमाणु हथियारों के प्रतिरोधक महत्व पर बल देते हुए शांतिकाल में भारत के परमाणु सिद्धांत को परिलक्षित करते हैं।

भारत द्वारा परमाणु हथियारों पर रक्षा नहीं, बल्कि प्रतिरोध के साधनों के रूप में बल दिए जाने के मूलभूत कारण हैं और एश्ले टेलीज ने उनमें से तीन की पहचान की है। पहला कारण “देश की राजनीतिक संस्कृति को परिभाषित करने वाले आदर्शवादी और उदारवादी चिंतन के निर्माण की अवस्था में होने”  में अंतर्निहित है। जैसी कि टेलीज की दलील है कि भारत पिछली आधी सदी से लगातार ”बिना किसी मूल्य मीमांसा (एक्यिोलाजिकल) संबंधी औचित्य के परमाणु हथियारों में निवेश करने से इंकार करता आया है।” यहां तक कि परमाणु के संबंध में अटल फैसला लेने से पहले ही “भारत की दलील थी कि व्यापक विनाश के खतरे का राष्ट्र के व्यवहार को नियंत्रित करना निर्विवाद रूप से एक वीभत्स सिद्धांत है”

संभवतः यह भी कारण है कि भारत का घोषित सिद्धांत विशिष्ट तौर पर परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए उसकी प्रतिबद्धता को उद्धृत करता है। दूसरा कारण, जिस पर टेलीज ने गौर किया है वह भारत में राजनीतिक-सैन्य संबंध का संगठन है, जो राजनीतिक नेतृत्व को परमाणु हथियारों का उद्देश्य निर्धारित करने का पूर्ण अधिकार देता है। परमाणु हथियारों को प्रतिरोध के लिए राजनीतिक साधन के तौर पर देखने के राजनीतिक नेतृत्व के दृष्टिकोण को देखते हुए, इन हथियारों को युद्ध के साधन के तौर पर देखने की संभावना बेहद कम बनी हुई है। तीसरा कारण यह है कि परमाणु हथियारों के उद्देश्य को केवल प्रतिरोध तक घटाते हुए, भारत बड़े पैमाने पर परमाणु हथियारों का निर्माण करने के कार्य में घिरने और साथ ही व्यापक और जटिल कमान और नियंत्रण प्रणाली की स्थापना करने से बचना चाहता है।

ये कारण संभवतः इस बात की व्याख्या कर सकते हैं कि भारत परमाणु हथियारों को महज प्रतिरोध के राजनीतिक साधनों के रूप में क्यों देखता है। हालांकि बदले की व्यापक कार्रवाई और एनएफयू नीति जैसी अवधारणाओं की मौजूदगी है, जो भारत के वर्तमान परमाणु सिद्धांत को युद्ध में रक्षा संबंधी जरूरते पूरी करने वाले युद्धकालीन सिद्धांत की बजाए, प्रतिरोध पर फोकस करने वाले केवल शांतिकालीन सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करती है। उदाहरण के लिए, भारत या उसकी सेना पर विरोधियों के किसी भी स्तर के परमाणु हमले की स्थिति में बड़े पैमाने पर जवाबी परमाणु कार्रवाई का आश्वासन संभावित रूप से विरोधी को भारी कीमत चुकाने का प्रयास है, जो उसके अपेक्षित फायदों से अधिक होती है। इसी तरह एनएफयू की नीति संभवतः शांतिकाल का आश्वासन है, जो किसी देश की शांति और स्थायित्व सुनिश्चित करने की जिम्मेदारीपूर्ण प्रकृति को दर्शाती है। हालांकि युद्धकाल में, अलग-अलग तरह के हालात भारत के वर्तमान परमाणु सिद्धांत के प्रभाव पर सवालिया निशान लगाने के साथ ही साथ बदले की व्यापक कार्रवाई और एनएफयू की अवधारणाओं के लिए चुनौती पेश कर सकते हैं। बाद का खण्ड पाकिस्तान द्वारा टीएनडब्ल्यू की शुरूआत और चीन द्वारा त्वरित सैन्य विस्तार और आधुनिकीकरण की पृष्ठभूमि के विपरीत युद्धकाल की परिस्थितियों के दौरान बदले की व्यापक कार्रवाई की रणनीति और एनएफयू नीति की वैधता की पड़ताल करता है।

 युद्धकाल में भारत के शांतिकालीन सिद्धांत का प्रभाव

अमेरिका में 1954 में हुई “बदले की व्यापक कार्रवाई” पर हुई बहस के बारे में चर्चा करते हुए सिंडर इस बात पर गौर करते हैं कि “भूतपूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री ड्यूल्स और उनके समर्थकों ने मुख्यतः यह दलील प्रस्तुत की थी कि बदले की व्यापक कार्रवाई की क्षमता संभावित कम्युनिस्ट संकट को निरस्त करेगी, लेकिन उन्होंने इस बात को नजरअंदाज किया कि इसके परिणामस्वरूप प्रतिरोध विफल हो जाएगा।” भारतीय संदर्भ में, पाकिस्तान द्वारा टीएनडब्ल्यू की शुरूआत युद्धकाल में बदले की व्यापक कार्रवाई की रणनीति के प्रभाव को पुरजोर चुनौती देती है।

भारत ने हालांकि ‘कोल्ड स्टार्ट सिद्धांत’ का कार्यान्वयन नहीं किया, संभवतः उसने पाकिस्तान की रणनीतिक न्यूक्लियर रेडलाइन्स से कम स्तर पर, विशेषकर उप-परम्परागत युद्ध छेड़ने के लिए दंडित करने के वास्ते उसके खिलाफ परम्परागत हमले के विकल्प को कायम रखना ज्यादा बेहतर समझा है। पाकिस्तान ने टीएनडब्ल्यू लाकर अपनी परमाणु सीमारेखा को इस प्रकार घटा दिया है कि वह भारत द्वारा छोटे पैमाने पर परम्परागत हमले के विकल्प तलाशे जाने की संभावनाओं को सीमित करता है।

नस्र और अब्दाली (7) जैसी कम दूरी तक मार करने वाली मिसाइल प्रणालियों के परीक्षण ने वर्ष 2020 तक (8) 200 मुखास्त्रों के निर्माण के अनुमान के साथ परमाणु मुखास्त्रों यानी न्यूक्लियर वॉरहेड की संख्या में तेजी से वृद्धि की है और परमाणु नीति को विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोधकता से पूर्णतया विस्तृत प्रतिरोधकता में परिवर्तित कर दिया है (9)। यह सब इसी ओर इशारा करता है कि पाकिस्तान पहले ही टीएनडब्ल्यू का विकास कर चुका है। जहां इनकी तैनाती की विवरण सार्वजनिक तौर पर ही उपलब्ध नहीं है, वहीं टीएनडब्ल्यू बनाने के उद्देश्य और लांच अथाॅरिटी के प्री-डेलीगेशन की आवश्यकता पर गौर करें तो छोटे पैमाने के परम्परागत युद्ध में टीएनडब्ल्यू के इस्तेमाल की संभावना वास्तविक मालूम पड़ती है।

परम्परागत युद्ध की स्थिति में, यदि परमाणु प्रतिरोध विफल हो जाए और पाकिस्तान, भारतीय बटालियन पर उसके भूभाग पर टीएनडब्ल्यू का इस्तेमाल करे, तो भी भारत बदले की व्यापक कार्रवाई की रणनीति का इस्तेमाल नहीं करना चाहेगा। इसका पहला कारण यह है कि भारत की ओर से बड़े पैमाने पर जवाबी करवाई, का आशय भारतीय संदर्भ में यह होगा कि वह शहर पर छापेमारी करते हुए आबादी और औद्योगिक केंद्रों को निशाना बनाए- जो बेहद अमानवीय होगा। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह होगा कि इसकी वजह से पाकिस्तान की ओर से उतने ही पैमाने पर और उसी तरह की बदले की परमाणु कार्रवाई हो सकती है, जो भारतीय हितों के प्रतिकूल होगी। दूसरी ओर, यदि भारत अपने परमाणु हथियारों से बिल्कुल भी जवाबी कार्रवाई न करे, तो ऐसे में विरोधी का प्रतिरोध करने संबंधी भारत के शांतिकालीन परमाणु सिद्धांत की विश्वसनीयता बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाएगी। इसलिए, युद्धकाल में, परमाणु प्रतिरोध के विफल होते ही, भारत को हर हाल में बदले की परमाणु कार्रवाई की रणनीति बनानी होगी, जो पाकिस्तान के न्यूक्लियर एक्सचेंज जारी रखने की लागत में इजाफा करे और वस्तुतः रक्षा के उद्देश्य की पूर्ति करे। (10) सिंडर यह भी दलील देते हैं “युद्ध से पहले हम अपनी इस प्रकार की जानकारी के माध्यम से रक्षा क्षमताओं से परोक्ष रूप से लाभ प्राप्त करते हैं कि अगर दुश्मन ने हमला किया, तो हमारे पास उसके प्रभावों को कम करने के साधन मौजूद हैं।” इसलिए संदर्भ, यदि सीमित हो, तो भी पाकिस्तान द्वारा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल में पहल किए जाने की स्थिति में जवाबी परमाणु कार्रवाई की रणनीति के कार्यान्वयन के लिए उपयुक्त है, साथ ही वह भारत के शांतिकालीन परमाणु सिद्धांत की प्रतिरोधकता के महत्व को भी बढ़ाता है।

एनएफयू नीति के संदर्भ में, जो एक शांतिकालीन आश्वासन है, जिसकी वैधता युद्धकाल के दौरान संदेहास्पद होगी। एश्ले टेलीज 2001 में भारत के उभरते परमाणु सिद्धांत का आकलन करते हुए कहते हैं ”शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के विपरीत भारत, पाकिस्तान या चीन की तुलना में किसी भी तरह की परम्परागत हीनता का शिकार नहीं था।” उसके बाद टेलीज दलील देते हैं “जहां, दोनों देशों (चीन या पाकिस्तान) में से किसी से भी परम्परागत संघर्ष होने पर (भारत) को नुकसान की संभावना नहीं है, ऐसे में परमाणु हथियारों को युद्धकाल का उपयोगी साधन होने के बारे में सोचना महत्वपूर्ण रूप से सुरक्षित होगा, जिन्हें जंग के मैदान में संभावित हार से बचने के लिए बेहद कठिन हालात में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए, 2003 में, सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने जब भारत के परमाणु सिद्धांत के संचालन की दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा के बारे में प्रेस विज्ञप्ति जारी की, तो भारत के, पाकिस्तान और चीन में से किसी एक से भी खुद को कमतर नहीं समझने के मद्देनजर वह संभवतः युद्धकाल में पाकिस्तान और चीन दोनों के विरुद्ध एनएफयू नीति के प्रति समर्पित रहने की स्थिति में था। हालांकि पिछले दशक भर में चीन की त्वरित सैन्य प्रगति और आधुनिकीकरण ने भारत की तुलना में परम्परागत सैन्य ताकत के बीच का फासला और बढ़ा दिया है। (11) जहां एक ओर, चीन के रक्षा खर्च पर सटीक निगरानी रखना कठिन है, वहीं पिछले दशक भर में समग्र रुझान रक्षा खर्च के प्रतिशत में दहाई के अंकों में सालाना वृद्धि दर्शाता है। साथ ही साथ इसकी परिणति चीन की युद्ध क्षमताओं में वृद्धि में परिलक्षित हुई है। इसके अलावा भारत से सटी सीमा के निकट आॅपरेट करने की क्षमता में और बढ़ोत्तरी करने के लिए चीन ने भारत के साथ अनसुलझी सीमा के तीन क्षेत्रों के समीप सड़कों और रेलवे संपर्क सहित बड़े पैमाने पर बुनियादी सैन्य सुविधाएं एकत्र की हैं। (12) साथ ही साथ 1995 से 2014 तक पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (पीएलए)नौसेना में पनडुब्बियों और विध्वसंकों की संख्या में क्रमशः 86.67 प्रतिशत और 85 प्रतिशत वृद्धि के साथ विस्तार हुआ है। (13)

रुझानों पर गौर करते हुए, यदि अन्य बातें पूर्ववत रहें, तो 2022 तक इस अंतर के और बढ़ने की संभावना है। इस अंतर के मद्देनजर, यदि चीन क्षेत्रीय विवाद के मसले पर परम्परागत युद्ध करना चाहे, तो उसे परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। ऐसी परिस्थितियों में, भारी नुकसान उठाते हुए और यहां तक कि अपने इलाके हारते हुए – भारत के एनएफयू नीति के प्रति समर्पित रहने की संभावना नहीं है और ऐसे में भारत को अनिवार्य तौर पर अपने परमाणु हथियारों को इस्तेमाल करना होगा।

इसलिए, युद्धकाल में, जहां एक ओर पाकिस्तान के विरुद्ध भारत एनएफयू के प्रति समर्पित रह सकता है, वहीं चीन के विरुद्ध उसकी संबंधित परम्परागत श्रेष्ठता के मद्देनजर उसके ऐसा कर पाने के आसार नहीं हैं। इसलिए भारत को चीन की तुलना में हर हाल में युद्धकालीन परिदृश्य पर विचार करना होगा और अपनी न्यूक्लियर रेडलाइन्स को परिभाषित करना होगा, जिन्हें यदि एक भी चीन ने पार कर लिया, तो उसके परिणामस्वरूप पूर्ववर्ती को एनएफयू नीति को त्यागते हुए संभावित जवाबी परमाणु कार्रवाई करनी होगी।

निष्कर्ष

अंत में ऐसा प्रतीत होता है कि शांतिकाल और युद्धकाल दोनों के लिए दो अलग-अलग परमाणु सिद्धांतों की जरूरत है। हालांकि यह अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है कि प्रतिरोध के लिए केवल राजनीतिक साधनों के रूप में सार्वजनिक तौर पर घोषित परमाणु हथियार किस हद तक भारत के युद्धकालीन परमाणु हथियारों की स्थिति और तैनाती को प्रभावित करते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि 1999 में इस प्रश्न के जवाब में कि क्या भारत शांतिकाल और युद्धकाल में अलग-अलग तैनाती/स्थिति का अनुसरण करेगा, भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कहा था, ”यह सही आकलन होगा।” (14) ऐसे में यही उपयुक्त होगा कि भले ही घोषित भारतीय परमाणु सिद्धांत शांतिकाल के लिए उसकी न्यूक्लियर रेडलाइन्स, स्थिति और तैनाती को परिभाषित करते हों, भारत पहले ही ऐसा सिद्धांत तैयार कर चुका है, जो युद्धकाल में उसकी न्यूक्लियर रेडलाइन्स, स्थिति और तैनाती को परिभाषित करेगा। पाकिस्तान द्वारा सामरिक परमाणु हथियार बनाने और चीन द्वार त्वरित सैन्य आधुनिकीकरण और विस्तार किए जाने जैसे हाल के घटनाक्रम दर्शाते हैं कि युद्धकाल के लिए अलग परमाणु सिद्धांत बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है।

युद्धकालीन परमाणु सिद्धांत की घोषणा किए जाने की आवश्यकता नहीं है और भारत द्वारा सार्वजनिक तौर पर शांतिकालीन सिद्धांत पर बल दिया जाना बिल्कुल सही है। अपने शांतिकालीन परमाणु सिद्धांत में एनएफयू जैसी मानक नीति हवाला दिए जाने और परमाणु हथियारों का एकमात्र उद्देश्य प्रतिरोधी बताने ने भारत की जिम्मेदार परमाणु ताकत होने की छवि को मजबूती प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई है। जहां एक ओर भारत वैश्विक परमाणु व्यवस्था के साथ एकीकरण का लगातार अनुसरण कर रहा है, वहीं एनएफयू का त्याग करना या फिर अपने शांतिकालीन सिद्धांत में परमाणु युद्ध लड़ने के विकल्पों का स्पष्ट रूप से हवाला देना उचित नहीं होगा।

भारत के परमाणु सिद्धांत पर बहस करने वाले सामरिक विशेषज्ञों को प्रतिरोध और रक्षा के उद्देश्यों के बीच अंतर करना होगा और इस बात को स्वीकार करना होगा कि भारत द्वारा घोषित परमाणु सिद्धांत, एक शांतिकालीन दस्तावेज है, इसलिए  भारत ने युद्धकाल के लिए अपने विकल्पों का आकलन अवश्य किया होगा और उसने एक दस्तावेज तैयार किया है, जो परमाणु प्रतिरोध के विफल होते ही न्यूक्लियर रेडलाइन्स, स्थितियों और तैनाती को परिभाषित करेगा।

साथ ही, इस बात पर गौर करते हुए कि रक्षा के उद्देश्य से परमाणु हथियारों के हटने के साथ ही, शांतिकालीन परमाणु सिद्धांत की प्रतिरोधकता की अहमियत घट जाती है। जैसा कि इस निबंध में देखा गया कि शांतिकालीन परमाणु सिद्धांत में कुछ परमाणु विकल्पों का सीमित संदर्भ, जिन्हें भारत युद्धकाल में अपने लिए खुला रखेगा, वे शांतिकालीन सिद्धांत के प्ररिरोधक महत्व को बढ़ाने में उपयोगी साबित हो सकते हैं। साथ ही साथ यह जनता को भरोसा दिलाएगा कि भारत युद्धकाल के दौरान, प्रतिरोधकता के विफल होते ही, रक्षा के लिए अपनी परमाणु परिसंपत्तियों का इस्तेमाल के विचार कर सकता है। हालांकि युद्धकालीन सिद्धांत के उन कारकों की पहचान करना महत्वपूर्ण होगा, जिनका उपयोग शांतिकालीन सिद्धांत में भारत की जिम्मेदारी परमाणु शक्ति होने संबंधी छवि को नुकसान पहुंचाए बिना किया जा सकता है।

यह लेख ORF के प्रकाशन डिफेंस प्राइमर: इंडिया एट 75 से लिया गया है।


संदर्भ

1. Bharat Karnad, Nuclear Weapons & Indian Security: The Realist Foundations of Strategy (2nd edition) (New Delhi: Macmillan India, 2005).

2. Ministry of External Affairs, “Draft Report of National Security Advisory Board on Indian Nuclear Doctrine,” August 17,1999, http://mea.gov.in/in-focus-article.htm?18916/Draft+Report+of+National+Security+Advisory+Board+on+Indian+Nuclear+Doctrine.

3. Press Information Bureau, “Cabinet Committee on Security Reviews Progress in Operationalizing India’s Nuclear Doctrine,” January 04, 2003, at http://pib.nic.in/archieve/lreleng/lyr2003/rjan2003/04012003/r040120033.html.

4. Ali Ahmed, “Reviewing India’s Nuclear Doctrine,”IDSA Policy Brief, April 24, 2009, http://www.idsa.in/policybrief/reviewingindiasnucleardoctrine_aahmed_240409.

5. Ashley J. Tellis, “India’s Emerging Nuclear Doctrine: Exemplifying the Lessons of the Nuclear Revolution,” NBR Analysis (National Bureau of Asian Research) Vol. 12, No. 2, May 2001.

6. Glenn H. Snyder, Deterrence and Defense(Princeton: Princeton University Press, 1961), pp. 3–51.

7. Inter Services Public Relations, “ISPR Press Release No. PR94/2011-ISPR,” April 19, 2011, https://www.ispr.gov.pk/front/main.asp?o=t-press_release&id=1721; and Inter Services Public Relations, “ISPR Press Release No. PR34/2012-ISPR,” March 05, 2012, https://www.ispr.gov.pk/front/main.asp?o=t-press_release&date=2012/3/5.

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