Published on Nov 22, 2016 Updated 0 Hours ago

पेरिस जलवायु समझौता अपनी तरह का पहला ऐसा करार है जिसके तहत गैर सरकारी निकायों और सिविल सोसायटी को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई है।

हमारी धरती को बचाएगा पेरिस समझौता!

पेरिस में 12 दिसंबर(2015) को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के 196 पक्षों यानी देशों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने पेरिस समझौते को ‘ दुनिया के समस्‍त लोगों और धरती की चिरस्मरणीय जीत’ करार दिया। यह नया समझौता सभी पक्षों के स्व-निर्धारित राष्ट्रीय योगदान से ही ‘ठोस आकार’ ले पाया है। लंबी कवायद के बाद अस्तित्‍व में आया यह समझौता क्योटो प्रोटोकॉल से बिल्‍कुल भिन्‍न है। दरअसल, इस समझौते में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रण में रखने के लिए अब विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील देशों द्वारा भी राष्‍ट्रीय संकल्‍प व्‍यक्‍त करना अनिवार्य कर दिया गया है और इसके साथ ही इसमें निहित नियमों के मुताबिक समस्‍त देशों द्वारा संबंधित कार्यकलापों की समीक्षा करवाना, पारदर्शिता सुनिश्चित करना एवं समग्र पर्याप्तता की सामूहिक अहमियत को ध्‍यान में रखना आवश्‍यक कर दिया गया है। पेरिस में देशों ने ‘बीच का रास्ता’ ढूंढा और वैश्विक जलवायु परिवर्तन की दिशा में ठोस कार्रवाई के लिए दो दशकों से किए जा रहे प्रयासों के तहत एक नई रणनीति अपनाई। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्‍या नया समझौता इस दिशा में कारगर और न्यायसंगत कार्रवाई को नई गति प्रदान करेगा ? पेरिस समझौता कोई ऐसा करार नहीं है जो धरती को अपने बलबूते बचा लेगा। हालांकि, यह बहुपक्षीय समझौता उप-राष्ट्रीय एवं गैर सरकारी निकायों जैसे कि एनजीओ एवं सिविल सोसायटी द्वारा कई स्तरों पर इस दिशा में कार्रवाई करने की सुविधा का मार्ग प्रशस्‍त कर सकता है। इस नए जलवायु समझौते के मद्देनजर जलवायु अनुरूप विकास एवं ऊर्जा क्षेत्र में सुनिश्चित बदलाव के साथ-साथ प्रौद्योगिकी संबंधी नवाचार की प्रक्रियाओं पर भी नए सिरे से गौर करना होगा। जलवायु परिवर्तन एक ‘दुष्ट’ समस्या है। हॉर्स्ट रिटेल और मेल्विन वेबर ने वर्ष 1973 में ‘दुष्ट’ समस्याओं की अवधारणा पेश की थी। उन्होंने यह दलील पेश की कि दुष्ट समस्याएं ऐसी जटिल सामाजिक चुनौतियां होती हैं जिनका सरल एवं सीधा समाधान नहीं होता है। जलवायु परिवर्तन की समस्‍या सामाजिक एवं आर्थिक प्रणालियों के कई पहलुओं जैसे कि गरीबी, उपेक्षा, विषमता और ऊर्जा तक पहुंच के साथ काफी गहराई से जुड़ी हुई है। जलवायु परिवर्तन के समाधान परिवर्तनकारी और/या हानिकारक हो सकते हैं, जिनके प्रचंड महत्‍वपूर्ण विभाजनकारी असर पड़ सकते हैं और रोजगार, विकास एवं तरक्‍की के साथ-साथ जीवाश्म ईंधनों के उपयोग और जीवन शैली के बारे में भी कठिन विकल्‍प अपनाने पड़ सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग में योगदान करने में विकसित देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारी जलवायु परिवर्तन के असर से कतई मेल नहीं खाती है क्‍योंकि इसका फैलाव मुख्‍यत: वैश्विक दक्षिण में नजर आता है। गरीब देशों और उनकी आबादी ही जलवायु परिवर्तन की चपेट में आती है, भले ही इस समस्या में उनका कोई हाथ न हो। पेरिस समझौते से जलवायु परिवर्तन की समस्‍या का ‘हल निकलने’ की संभावना नहीं है, लेकिन यह सही दिशा में एक ठोस कदम जरूर साबित हो सकता है। वैश्विक जलवायु नीति को यूएनएफसीसीसी से जोड़ा गया है। जलवायु परिवर्तन की वैश्विक एवं सामूहिक कार्रवाई वाली समस्या से निपटने के उद्देश्‍य से यूएनएफसीसीसी ने सभी देशों को एकल समझौते के लिए राजी किया, जिससे नियमों एवं व्यापक ढांचे की एक प्रणाली के तहत ही कार्रवाई करने की जरूरत पर वैश्विक आम सहमति बनी। इसने प्रामाणिक छत्र प्रदान किया। कन्वेंशन में उन सिद्धांतों को भी संजोया गया जो इस दिशा में हो रहे वैश्विक प्रयासों का मार्गदर्शन करेंगे। इन प्रयासों में आम, लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियां (सीबीडीआर) और विशिष्‍ट क्षमताएं (आरसी) शामिल हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े दायित्‍वों और जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्षमताओं में अंतर को स्‍वीकार करते हैं। यूएनएफसीसीसी के तहत वर्ष 1997 में हुआ क्योटो प्रोटोकॉल पहला ऐसा फ्रेमवर्क था जिसकी परिकल्‍पना वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में वास्तविक कमी के लिए की गई थी। क्योटो प्रोटोकॉल में विकसित देशों को उत्सर्जन में कटौती शुरू करने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई, जबकि विकासशील देशों को कानूनन बाध्‍यकारी प्रतिबद्धताओं से बख्श दिया गया। क्योटो प्रोटोकॉल के कार्यान्वयन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ा – अमेरिका, जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक था, इसकी पुष्टि करने में विफल रहा। इसी तरह अन्य देश भी आगे चलकर इससे मुकर गए। विकसित देश चाहते थे कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को भी उत्‍सर्जन में कमी करने की व्यवस्था के दायरे में लाया जाए और उन्‍होंने कुछ विशेष विकासशील देशों पर आरोप लगाया कि वे बगैर कुछ किए ही इस दिशा में उनकी कार्रवाई से फायदा उठाना चाहते हैं। क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि वर्ष 2020 में समाप्त होनी है। क्योटो प्रोटोकॉल के एक उत्तराधिकारी की तलाश करते वक्‍त इसकी विफलताओं को अवश्‍य ही स्वीकार किया जाना चाहिए। स्टीव रेनर ने क्योटो प्रोटोकॉल को एक ‘दुष्ट’ समस्या का एक ‘शिष्ट समाधान’ करार दिया है। ऐसे समय में जब और अधिक बेढंगे एवं लचीला दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, यह एक अत्‍यंत सरल समाधान है। क्योटो प्रोटोकॉल भी उत्‍सर्जन में कमी किए जाने पर केंद्रित था; जबकि अनुकूलन इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं था। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की गंभीरता बढ़ने के साथ ही जब विभिन्‍न देशों द्वारा अपनी उत्‍सर्जन न्‍यूनीकरण प्रतिबद्धताओं को बढ़ाए जाने के वक्‍त अंतरिम व्‍यवस्‍था के तौर पर अनुकूलन की आवश्‍यकता की बात स्‍वीकार की जाने लगी तो जलवायु से जुड़ी परिचर्चाओं में अनुकूलन काफी जोर पकड़ने लगा। यह स्पष्ट हो गया कि उत्‍सर्जन घटाने की जिम्‍मेदारी केवल विकसित देशों पर डालने के मॉडल के साथ-साथ बाध्‍यकारी प्रतिबद्धताएं भी काम नहीं आ पाएंगी, क्‍योंकि विभिन्‍न देश केवल अपने स्‍वार्थों को ध्‍यान में रखते हुए ही कोई कदम उठाएंगे।

वर्ष 2013 में वारसॉ में ‘सीओपी 19’ के बाद नई संस्थागत व्यवस्था सीओपी की प्रक्रिया का फोकस बन गई। राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की अवधारणा को लीमा, सीओपी 20 में औपचारिक रूप दिया गया और पेरिस सम्मेलन से पहले देशों ने जलवायु संबंधी कार्रवाई के लिए अपने स्वैच्छिक संकल्‍प एवं लक्ष्य पेश कर दिए। इसके परिणामस्वरूप औसत तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के वैश्विक लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में उत्‍सर्जन घटाने की जिम्‍मेदारी केवल विकसित देशों पर डालने (टॉप-डाउन मॉडल) के बजाय पेरिस में संबंधित पक्षों ने एक संकर (हाइब्रिड) दृष्टिकोण को अपनाया, जिसके तहत विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील देशों द्वारा भी इस बारे में राष्‍ट्रीय संकल्‍प व्‍यक्‍त करना अनिवार्य कर दिया गया है (बॉटम-अप मॉडल) और इसके साथ ही सभी देशों के संबंधित कार्यकलापों की निगरानी एवं समीक्षा करने और इस दिशा में प्रगति का सामूहिक आकलन करना तय किया गया है। नए दृष्टिकोण में भी अपनी तरह की कई चुनौतियां हैं। उत्‍सर्जन कम करने के मामले में संबंधित पक्षों द्वारा किए गए एनडीसी के संकलन से पता चला है कि ये कुल मिलाकर 2.70C की ग्लोबल वार्मिंग के बराबर बैठते हैं, जो पाठ में उल्लिखित 1.5 डिग्री के लक्ष्‍य अथवा जलवायु परिवर्तन के खतरनाक स्तर से बचने के लिए आवश्यक 2 डिग्री के लक्ष्य से भी काफी ज्‍यादा है। देशों को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के मामले में किसी दंड का भी सामना नहीं करना पड़ेगा जिससे इस बात की संभावना बढ़ गई है कि वास्तविक परिणाम बेहद कम महत्वाकांक्षी होंगे। विशेषकर विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन को कम किए जाने पर कानूनन बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं के अभाव को ध्‍यान में रखते हुए कुछ विशेषज्ञों ने पेरिस समझौते को ‘दंतहीन’ करार दिया है। क्या एक ढीले, सुविधाजनक और गैर-दंडात्मक समझौते से महत्वाकांक्षी कदम को उठाना संभव हो पाएगा, यह स्‍पष्‍ट नहीं है। हालांकि, इस समझौते की आलोचना करते वक्‍त क्योटो प्रोटोकॉल की विफलताओं को ध्‍यान में रखने की जरूरत है जिसने बातचीत के जरिए तय किए गए लक्ष्यों को लागू करने का प्रयास किया। इस समझौते में हर पांच वर्षों में स्थिति का जायजा लेने का उल्‍लेख किया गया है, जिसके तहत विभिन्‍न देशों को इस दिशा में अपनी प्रगति की जानकारी देने के साथ-साथ हर बार और ज्‍यादा महत्वाकांक्षी योजनाएं पेश करनी होंगी। समय के साथ महत्वाकांक्षा का स्तर बढ़ाना यह सुनिश्चित करने के लिहाज से महत्‍वपूर्ण होगा कि जलवायु संबंधी कार्रवाई तापमान में वृद्धि को एक पूर्व निर्धारित स्‍तर पर सीमित करने के वैज्ञानिक दबावों के अनुरूप ही होनी चाहिए। यह संकलन जलवायु संबंधी कार्रवाई के लिए पेरिस के बाद के एजेंडे पर नीतिगत दृष्टिकोणों को एकजुट करता है। नई जलवायु व्‍यवस्‍था में अनुकूलन एवं लचीलापन के विषय, ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव एवं प्रौद्योगिकी संबंधी नवाचार के साथ-साथ गैर सरकारी निकायों की भूमिका आखिरकार कैसे विकसित होगी ? पेरिस समझौते के कार्यान्वयन को नई गति प्रदान करने के लिए पेरिस के बाद नीतिगत अनुसंधान एजेंडा क्या होना चाहिए? इस संकलन के अपने लेख में स्टीव रेनर ने यह दलील दी है कि पेरिस के परिणामों को लेकर अच्छी और बुरी दोनों ही खबरें हैं। अच्छी खबर यह है कि इसने क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत एक रेखा खींची है , जिसे वह जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने की दिशा में बर्बाद करने वाली एक कवायद मानते हैं। बुरी खबर तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का लक्ष्य है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) से प्राप्‍त एकमात्र प्रतिनिधि एकाग्रता मार्ग (आरसीपी) संबंधी परिदृश्य, जो हमें 2 डिग्री सेल्सियस पर ले जाते हैं, आरपीसी 2.6 है। यह नकारात्मक उत्सर्जन प्रौद्योगिकियों पर अत्‍यंत महत्वपूर्ण अमल की बात को रेखांकित करता है, जिनके स्‍तब्‍धकारी असर खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन और जैव विविधता पर पड़ेंगे। ऐसी अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक नीतिगत प्रतिक्रियाओं की जरूरत होगी जो वर्तमान जलवायु परिवर्तनशीलता के अनुकूलन का समर्थन करेंगी और विकासशील देशों में ग्रिड से जुड़ने की सुविधा से वंचित करोड़ों और लोगों को बिजली सुलभ कराने के लिए ऊर्जा संबंधी अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) में निवेश करेंगी। पेरिस में अनुकूलन पर और अधिक ध्यान दिया गया। अपने लेख में इयान फ्राई ने यह दलील दी है कि पेरिस जलवायु नीति में अनुकूलन के लिहाज से ‘आगे की ओर एक महत्वपूर्ण, लेकिन अपरिहार्य कदम’ का प्रतिनिधित्‍व करता है। इसने अनुकूलन पर एक कानूनन बाध्यकारी दायित्व बनाया है और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना को मजबूत बनाया है। हालांकि, वित्त पोषण से जुड़े मुद्दे उसी तरह से अब भी अनसुलझे हैं जिस तरह से अनुकूलन पर एक वैश्विक लक्ष्य का सवाल अभी भी बना हुआ है। वैसे तो नुकसान और अहित को पहली बार किसी जलवायु समझौते की एक प्रमुख विशेषता के रूप में शामिल किया गया है, लेकिन यह फिर भी कई लंबित मुद्दों को हल करने में विफल रहा है। समझौते में अवगत कराई गई मूल भावना और सीओपी के निर्णयों के मूल पाठ के बीच भी कुछ विरोधाभास है, जिसने उदाहरण के लिए नुकसान और अहित अनुच्‍छेद के जरिए दायित्व या मुआवजे का कोई भी विकल्प नहीं दिया है। इन द्विभाजनों को हल करना ही अल्प विकसित देशों और निचले क्षेत्र वाले द्वीप देशों की नजर में न्यायसंगत परिणामों की धारणा के लिहाज से अत्‍यंत महत्वपूर्ण होगा। प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को भी इसी तरह की कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यूएनएफसीसीसी के तहत प्रौद्योगिकी व्‍यवस्‍था इस समझौते के केंद्र में है,  जो प्रौद्योगिकी व्‍यवस्‍था के कामकाज के लिए मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु एक प्रौद्योगिकी फ्रेमवर्क भी स्थापित करती है। वित्तीय सहायता से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को जोड़ने का प्रयास भी मूल पाठ (टेक्‍स्‍ट) में किया गया है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इससे विकासशील देशों को अपेक्षाकृत अधिक सहायता कैसे मिल सकती है। प्रौद्योगिकी से जुड़ी चुनौती पर अपनी टिप्पणी में आनंद पटवर्धन ने पेरिस से प्राप्‍त प्रौद्योगिकी संबंधी निष्‍कर्षों को ‘मामूली’ और ‘गैर महत्वाकांक्षी’ बताया है, जो इस कन्वेंशन के तहत मौजूदा व्‍यवस्‍थाओं पर ही निर्भर हैं। पेरिस समझौते से जुड़ी एक सकारात्मक बात यह है कि जलवायु परिवर्तन की दिशा में एक कारगर वैश्विक कार्रवाई करने के लिए नवाचार पर ध्यान केंद्रित किया गया है। ‘नवाचार’ पर जॉन एलिक के लेख में परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए निजी क्षेत्र और जमीनी स्तर के निकायों की भूमिका पर विशेष बल दिया गया है। जहां तक वित्त का सवाल है, पेरिस समझौते में वैसे तो विकसित देशों के लिए यह कानूनी रूप से बाध्यकारी कर दिया गया है कि उन्‍हें विकासशील देशों को दी जाने वाली अपनी वित्तीय सहायता पर रिपोर्ट देनी होगी, लेकिन वास्तविक लक्ष्य कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं हैं। वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में विकसित देशों ने प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर देने का जो वादा किया था उसका महज उल्‍लेख ही समझौते की प्रस्तावना में किया गया है, अत: यह कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं है। इसके बजाय यह आशा व्यक्त की गई कि वित्त के प्रवाह और अलग-अलग देशों के योगदान की निगरानी के लिए बनाई गई पारदर्शी व्‍यवस्‍थाओं से प्रतिबद्धताओं को बढ़ाने के लिए विकसित देशों पर दबाव बनेगा और इस तरह विकासशील देशों में जलवायु संबंधी कार्रवाई का समर्थन करने की उनकी महत्वाकांक्षा बढ़ेगी। जलवायु वित्त पर एलेड जोन्स का विश्लेषण आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण वित्त के दो संभावित स्रोतों के रूप में उत्सर्जन संबंधी व्‍यापारिक (ट्रेडिंग) योजनाओं और हरित बांडों की तरफ इशारा करता है। पेरिस जलवायु समझौता अपनी तरह का पहला ऐसा करार है जिसके तहत गैर सरकारी निकायों और सिविल सोसायटी को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई है। समझौते के मूल पाठ और सम्मेलन दोनों ही में शहरों, बहुराष्ट्रीय गठबंधनों, निवेशकों, कंपनियों और सिविल सोसायटी द्वारा इस दिशा में कार्रवाई किए जाने के कदम को अपनाया गया है। हालांकि, एमी वीनफर्टर के लेख में आगाह करते हुए कहा गया है कि ‘वैसे तो उप-राष्ट्रीय और गैर सरकारी निकायों द्वारा इस दिशा में उठाए जाने वाले कदमों से जलवायु संबंधी कार्रवाई को नई गति मिलेगी और वे इस दिशा में पूरक साबित हो सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद वैश्विक लक्ष्यों की प्राप्ति में अब भी राष्ट्रीय नेतृत्व की काफी आवश्यकता रहेगी।’ पेरिस में अनेक निकायों पर केंद्रित निष्‍कर्ष से उतने ही नए सवाल पैदा हो रहे हैं, जितने पुराने प्रश्‍न पहले से ही बने हुए हैं। निष्‍पक्षता, वित्तीय प्रवाह और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के साथ-साथ उत्‍सर्जन कम करने में मददगार पर्याप्त कदमों से जुड़ी चुनौतियों का समाधान नई व्‍यवस्‍था की प्रभावशीलता, वैधता और स्थायित्व के लिहाज से काफी महत्‍वपूर्ण साबित होगा। हमारे लेख के समापन में यह दलील दी गई है कि कमजोर नियम-कायदों वाले समझौते को ठोस आकार प्रदान करने की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए उत्‍सर्जन कम करने की दिशा में कार्रवाई करने वाले विभिन्‍न निकायों के बीच विश्वास का माहौल बनाना पड़ेगा और वैधता की धारणा बनानी पड़ेगी। आने वाले वर्षों में विद्वानों, प्रोफेशनलों एवं सिविल सोसायटी को इसे हासिल करने में मददगार कदमों को समझने पर ही अपना ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए। पेरिस समझौते से सामने आए अवसरों और चुनौतियों से यह साफ प्रतीत होता है कि हमारी जलवायु की समुचित व्‍यवस्‍था करने की जरूरत पर बहस का सिलसिला अवश्‍य ही आगे भी जारी रहेगा।


1. रिटेल, एच. डब्ल्यू. , और मेल्विन एम. वेबर। ‘2.3 नियोजन से जुड़ी समस्याएं दुष्ट हैं।’ राजव्यवस्था 4 (1973): 155-169.

2. एस. रेनर, ‘दुष्ट समस्याएं: बेढंगे समाधान – पर्यावरण से जुड़ी समस्‍याओं का निदान और नुस्खे’, वैश्विक पर्यावरण पर जैक बीअले का स्मारक व्याख्यान, सिडनी, ऑस्ट्रेलिया, जुलाई 2006.

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Authors

Vikrom Mathur

Vikrom Mathur

Vikrom Mathur is Senior Fellow at ORF. Vikrom curates research at ORF’s Centre for New Economic Diplomacy (CNED). He also guides and mentors researchers at CNED. ...

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Aniruddh Mohan

Aniruddh Mohan

Aniruddh Mohan is a climate and energy policy researcher currently based at the Wuppertal Institute for Climate Environment &amp: Energy through the Alexander von Humboldt ...

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