-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
ये दलील दी जाती है कि एक बार ताइवान पर चीन का कब्ज़ा हो जाने के बाद पीएलए के पास भारत से निपटने के लिए हाथ खुल जाएंगे और वो दूसरे विवादित क्षेत्रों को भी हासिल कर सकता है.
पिछले दिनों अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे को लेकर भारत की चुप्पी चीन के सामरिक समुदाय में काफ़ी चर्चा का मुद्दा बना हुआ है. चीन के विश्लेषकों का मानना है कि स्पीकर पेलोसी के विवादित ताइवान दौरे के बाद कई देशों ने अपना-अपना पक्ष चुना है. उदाहरण के लिए, रूस, बेलारूस और उत्तर कोरिया जैसे देशों ने मज़बूती से चीन का समर्थन किया है जबकि दूसरे देशों जैसे कि दक्षिण कोरिया और आसियान के देशों ने ‘वन चाइना के सिद्धांत’ का दृढ़तापूर्वक पालन करने की बात दोहराई है. इस बीच अमेरिका और उसके सहयोगी देशों और साझेदारों, ख़ास तौर पर जी7, यूरोपीय संघ (ईयू) एवं क्वॉड के सदस्यों, ने चीन की कार्रवाई की आलोचना की है और ये चेतावनी दी है कि चीन ताइवान स्ट्रेट में यथास्थिति में बदलाव की कोशिश न करे. लेकिन इन सबके बीच भारत ने एक अलग तरह का रुख़ अपनाया है. भारत ने शुरुआती दिनों में तो पूरी तरह चुप्पी साधे रखी, बाद में एक बयान जारी कर संयम की अपील की जिसमें खुलकर ‘वन चाइना की नीति’ का समर्थन नहीं किया गया.
चीन की समीक्षा के मुताबिक़ भारत ने जिस वजह से इस मुद्दे पर उकसाने वाला जवाब नहीं दिया वो प्रमुख रूप से ये है कि भारत दो महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा में पड़ने और इस तरह चीन से और ज़्यादा दुश्मनी मोल लेने का ख़तरा नहीं उठा सकता है, ख़ास तौर से ऐसे वक़्त में जब दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर पूरी रफ़्तार से बातचीत चल रही है
चीन की समीक्षा के मुताबिक़ भारत ने जिस वजह से इस मुद्दे पर उकसाने वाला जवाब नहीं दिया वो प्रमुख रूप से ये है कि भारत दो महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा में पड़ने और इस तरह चीन से और ज़्यादा दुश्मनी मोल लेने का ख़तरा नहीं उठा सकता है, ख़ास तौर से ऐसे वक़्त में जब दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर पूरी रफ़्तार से बातचीत चल रही है. शुरुआत में चीन के कुछ विश्लेषकों ने भारत की चुप्पी की तारीफ़ की और इसकी व्याख्या ताइवान स्ट्रेट के मुद्दे पर चीन के रवैये के पक्ष में ख़ामोशी से भारत के समर्थन और अमेरिका को दो टूक जवाब के रूप में की. कुछ विश्लेषकों ने तो ये दलील भी दी कि चीन को अपने प्राथमिक (ताइवान स्ट्रेट) और कम महत्व के (चीन-भारत सीमा विवाद) विरोध के बीच अंतर करने की ज़रूरत है और चीन के लिए वर्तमान में इस बात की कोई आवश्यकता नहीं है कि भारत के साथ विरोध को और ज़्यादा बढ़ाया जाए.
लेकिन लंबे समय तक ये बातचीत नहीं चली और एक बार फिर चर्चा के दौरान भारत की आलोचना शुरू हो गई. आलोचना का आधार ये रहा कि भले ही भारत ने पेलोसी के दौरे को लेकर आधिकारिक प्रतिक्रिया भले ही बिना किसी शोर-शराबे के दी लेकिन दूसरे मोर्चों पर अपनी कड़ी कार्रवाई के ज़रिए भारत चीन की तरफ़ कुल मिलाकर अपने विरोधी रुख़ को साफ़ कर रहा है. इन मोर्चों में श्रीलंका में चीन के जहाज़ युवान वांग के दौरे का मुखर विरोध, भारत में चीन की कंपनियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई शामिल हैं. चीन को जिस बात ने सबसे ज़्यादा बेचैन किया, वो भारत और अमेरिका के द्वारा उत्तराखंड के औली में 14 से 31 अक्टूबर के बीच सालाना “युद्ध अभ्यास” के 18वें संस्करण के आयोजन की योजना की ख़बर है. चीन के रणनीतिकारों का दावा है कि भारत ने चीन को कड़ा संदेश देने के लिए “जान-बूझकर” युद्ध अभ्यास के लिए इस समय और जगह (वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी से 100 किलोमीटर से भी कम दूर) को चुना है. फूदान विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के रिसर्चर लिन मिनवांग कहते हैं, “पेलोसी के ताइवान दौरे की वजह से चीन के पूर्व में ताज़ा सैन्य तनाव को ध्यान में रखते हुए भारत के द्वारा अमेरिका के साथ साझा सैन्य अभ्यास आयोजित करने के लिए इस अवसर का चयन चीन को ये याद दिलाता हुआ भी लगता है कि उसे ‘दो मोर्चों पर युद्ध’ के धर्मसंकट का सामना करना पड़ सकता है.”
इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि 2020 में गलवान घाटी के संघर्ष के बाद चीन के मीडिया में अनेक मोर्चों पर चीन की चुनौतियों और एक ही समय पर अलग-अलग दिशाओं से सैन्य ख़तरा उत्पन्न होने को लेकर चर्चा चल रही है. ताइवान स्ट्रेट में ताज़ा घटनाक्रम ने एक बार फिर उसी आधार पर बहस और चर्चाओं को बढ़ावा दिया है कि “पूर्व में अमेरिका एवं ताइवान के बीच सांठगांठ और पश्चिम में भारत-चीन के बिगड़ते संबंधों के साथ क्या चीन एक ही समय पर दो युद्धों में विजय हासिल कर सकता है? उसे किस तरह आगे की तैयारी करनी चाहिए और क्या सावधानी बरतनी चाहिए ?”
वैसे तो भारतीय रणनीतिक समुदाय में इस मुद्दे पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है लेकिन चीन के रणनीतिक समुदाय में उसकी प्राथमिक और दूसरी रणनीतिक दिशा यानी ताइवान स्ट्रेट और चीन-भारत सीमा विवाद एक-दूसरे से काफ़ी हद तक जुड़ी हुई है और एक-दूसरे के साथ मेल खाती है. चीन के कई विश्लेषक मानते हैं कि अमेरिका, जिसने 21वीं सदी में चीन की तुलना में अपनी सैन्य बढ़त काफ़ी हद तक गंवाई है, के द्वारा अपने सभी सहयोगियों के बीच भारत के साथ संबंधों को बहुत ज़्यादा महत्व देने का असली कारण ये है कि भारत इकलौता देश है जो कि चीन के लिए “दूसरा युद्ध का मैदान” खोल सकता है. इस बात को लेकर बहुत ज़्यादा हैरानी नहीं है कि भारत-अमेरिका सैन्य सहयोग को लेकर चीन काफ़ी ज़्यादा चिंतित बना हुआ है, ख़ास तौर पर उन सैन्य सहयोगों को लेकर जिनसे एलएसी पर भारत की युद्ध लड़ने की क्षमता में सुधार होता है.
अपनी दो रणनीतिक दिशाओं के बीच चीन ताइवान मोर्चे को वरीयता और प्राथमिकता देता है. इसकी वजह सिर्फ़ चीन का राष्ट्रवाद या राष्ट्रीय कायाकल्प के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की खोज नहीं है बल्कि इसका कारण ये भी है कि चीन के लिए ताइवान का काफ़ी ज़्यादा सामरिक मूल्य है. ताइवान पर नियंत्रण करने का अर्थ होगा पहली द्वीप श्रृंखला के ख़िलाफ़ बड़ी सफलता हासिल करना. इससे चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका का सबसे बड़ा तुरुप का पत्ता बेकार हो जाएगा और दूसरे देश ताइवान स्ट्रेट में तनाव का फ़ायदा नहीं उठा पाएंगे. इस तरह चीन के कूटनीतिक संसाधनों के साथ-साथ रक्षा बल भी अन्य सामरिक दिशाओं की तरफ़ अभियान चलाने के लिए स्वतंत्र हो सकेंगे. दूसरे शब्दों में कहें तो ताइवान पर कब्ज़े का मतलब होगा दूसरी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने के लिए लिए आर्थिक और सैन्य रूप से चीन का मज़बूत होना.
इसके अलावा, चीनी पक्ष के लिए अक्सर ताइवान पर नियंत्रण को सबसे आसान काम के तौर पर देखा जाता है. इसकी वजह ये है कि पीएलए न सिर्फ़ ताइवान के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा मज़बूत है बल्कि पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सेना के मुक़ाबले भी कुछ मामलों में वो आगे है. इसके साथ-साथ ये दलील भी दी जाती है कि चीन-भारत मोर्चे के उलट ताइवान मोर्चे का साफ अंत दिखता है, यानी चीन की मुहिम ताइवान पर पूरी तरह कब्ज़े और उसे दूसरा हॉन्ग कॉन्ग बनाने के साथ ख़त्म होती है. इस बात में कोई शक नहीं है कि ताइवान स्ट्रेट का संकट सीधे तौर पर चीन-अमेरिका संघर्ष की वजह बन सकता है या इसकी वजह से तीन क्षेत्रों में युद्ध भड़क सकता है- पूर्व में ताइवान स्ट्रेट, पश्चिम में चीन-भारत सीमा और दक्षिण में दक्षिणी चीन सागर. ये उम्मीद की जाती है कि अगर चीन अप्रत्याशित ढंग से, अपने किसी विरोधी को जवाबी हमले का मौक़ा दिए बिना, सैन्य अभियान के ज़रिए ताइवान के ख़िलाफ़ अपने अभियान को तेज़ी से निपटा लेता है तो वो इस मोर्चे पर बड़ी परेशानी से अभी भी ख़ुद को बचा सकता है. इस मामले में सोच ये है कि अमेरिका, जापान और दूसरे देशों को इस बात के लिए मजबूर कर देना चाहिए कि वो ताइवान स्ट्रेट में बदलाव को निर्विवादित तथ्य के तौर पर स्वीकार कर लें. इसके अलावा, इस मामले में चीन के पक्ष में जाने वाली एक और बात ये है कि ताइवान के ख़िलाफ़ चीन की किसी भी कार्रवाई को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के एक बड़े वर्ग के द्वारा विदेशी आक्रमण के बदले “चीन के राष्ट्रीय एकीकरण” के तौर पर देखा जाएगा.
चीन के कई विश्लेषक मानते हैं कि अमेरिका, जिसने 21वीं सदी में चीन की तुलना में अपनी सैन्य बढ़त काफ़ी हद तक गंवाई है, के द्वारा अपने सभी सहयोगियों के बीच भारत के साथ संबंधों को बहुत ज़्यादा महत्व देने का असली कारण ये है कि भारत इकलौता देश है जो कि चीन के लिए “दूसरा युद्ध का मैदान” खोल सकता है.
लेकिन ये दलील दी जाती है कि चीन-भारत मोर्चा बिल्कुल अलग है. ये कहा जाता है कि चीन भारत के ख़िलाफ़ अपने ज़मीनी दावे को छोटे युद्ध के ज़रिए हासिल नहीं कर सकता है, बल्कि इसके लिए उसे भारत के ख़िलाफ़ संपूर्ण स्तर का युद्ध लड़ने की ज़रूरत पड़ेगी. चीन के कई विश्लेषक मानते हैं कि पश्चिमी मोर्चा चीन की बड़ी कमज़ोरी है या कमज़ोर हिस्सा है. दक्षिण-पूर्व समुद्री तट पर चीन ने कई दशकों से सैन्य तैनाती कर रखी है और वहां वो समुद्र और वायु रक्षा के लगभग हर क्षेत्र में बेहतर स्थिति में है लेकिन उत्तर-पश्चिमी इलाक़े के बारे में माना जाता है कि वो चीन की सैन्य तैनाती के लिए “कमज़ोर क्षेत्र” है. इस इलाक़े में चीन की मोर्चा बंदी भारत के मुक़ाबले कम है, हवाई रक्षा अपेक्षाकृत कमज़ोर है, अभी भी चेंगडू के बड़े वायु सेना अड्डे पर काफ़ी हद तक निर्भर है लेकिन वायु सेना का ये अड्डा सीमावर्ती क्षेत्र से काफ़ी दूर है. कुछ लोगों को ये डर भी लगता है कि दो मोर्चों पर युद्ध की स्थिति में पीएलए की वायु सेना के एक बड़े हिस्से को दक्षिण-पूर्व समुद्र तट की सुरक्षा सुनिश्चित करने का काम सौंपा जाएगा, ऐसे में पश्चिमी मोर्चे पर चीन वायु सेना के प्रभुत्व और समर्थन के बिना युद्ध करने के लिए मजबूर हो सकता है.
इस मामले में चीन के पक्ष में जाने वाली एक और बात ये है कि ताइवान के ख़िलाफ़ चीन की किसी भी कार्रवाई को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के एक बड़े वर्ग के द्वारा विदेशी आक्रमण के बदले “चीन के राष्ट्रीय एकीकरण” के तौर पर देखा जाएगा.
इसके अलावा, चीन के अनुमानों के मुताबिक ताइवान के बदले पश्चिमी मोर्चे पर प्राथमिकता देने से चीन को बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है. प्रमुख चिंता ये है कि अगर भारत के ख़िलाफ़ चीन को समय से पहले युद्ध लड़ना पड़ता है तो ताइवान स्ट्रेट, जो इस समुय चीन की सबसे बड़ी चिंता है, में स्थिति हमेशा के लिए बदल सकती है. ऐसे में ताइवान के एकीकरण की संभावना अभी के मुक़ाबले और भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकती है. दूसरी तरफ़ बड़ी आबादी के साथ बड़ा देश होने की वजह से भारत के ख़िलाफ़ सिर्फ़ एक सैन्य अभियान से चीन के द्वारा अपनी इस समस्या को हल करने की संभावना कम है. अगर चीन एक बड़े स्तर के युद्ध के ज़रिए भारत के उस भू-भाग पर कब्ज़ा कर भी लेता है, जिसे वो अपना बताता है, तो भी भारत इस हार को कभी नहीं मानेगा. चीन और भारत के लोग “मौत तक लड़ेंगे” लेकिन दोनों देशों के बीच विवाद कभी खत्म नहीं होगा. इस तरह चीन अलग-अलग दिशाओं में संघर्ष के दलदल में फंस जाएगा. इसलिए चीन की रणनीति उस वक़्त तक पश्चिमी मोर्चे पर बड़े स्तर के संघर्ष को टालना है जब तक कि ताइवान के मुद्दे का हल नहीं निकल जाता. ज़्यादा से ज़्यादा चीन भारत के ख़िलाफ़ स्थानीय स्तर का कोई हमला कर सकता है और फिर तुरंत ही इससे आगे बढ़ जाएगा. ऐसे हमले के पीछे चीन का मक़सद लंबे समय के संघर्ष को छेड़े बिना भारत को सबक़ सिखाना है. ये दलील दी जाती है कि एक बार जब ताइवान पर चीन का कब्ज़ा हो जाएगा तो पीएलए के हाथ भारत से निपटने के लिए खुल जाएंगे और वो दूसरे विवादित क्षेत्रों को भी हासिल कर सकता है. इनमें वो क्षेत्र भी शामिल है जिसे चीन “दक्षिणी तिब्बत” कहता है. इस तरह चीन भारत को युद्ध या युद्ध के बिना ही अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए मजबूर कर देगा.
वैसे तो ताइवान के साथ भारत के संबंधों को काफ़ी हद तक चीन की तुलना में महज़ रणनीतिक रवैये से देखा जाता है लेकिन ऊपर की चर्चा से पता चलता है कि ताइवान भारत की सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. अगर चीन ताइवान को अपने में मिला लेता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि उसका अगला निशाना भारत होगा. इस बार वो पूरी ताक़त के साथ वार करेगा. ऐसे में भारत के लिए ताइवान स्ट्रेट में संकट के समय दूसरी तरफ़ देखना या इसे दूर-दराज़ में “महाशक्तियों का मुक़ाबला” कहकर खारिज करना एक अदूरदर्शी नीति होगी. दूसरी तरफ़, ये भी एक अच्छा सुझाव नहीं है कि भारत को हर हाल में ज़्यादा ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए और युद्ध के क्षेत्र में दाखिल होना चाहिए या भारत से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित ताइवान की सुरक्षा के लिए जंगी जहाज़ों को भेजना चाहिए. इसके बदले भारत समान विचार वाले देशों के साथ सहयोग कर सकता है और करना भी चाहिए ताकि एलएसी पर अपनी स्थिति एवं क्षमता को मज़बूत कर सके. इस तरह वो चीन पर ज़्यादा दबाव बना सकता है और दो मोर्चों पर अपनी दुविधा से उबर सकता है. इस प्रकार भारत अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ-साथ स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को मज़बूत करने में सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है. इस दृष्टिकोण से आगामी “युद्ध अभ्यास” सही दिशा में एक अच्छी शुरुआत की तरह दिखता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...
Read More +