Published on Jul 06, 2024 Updated 0 Hours ago

गलवान संकट के दौरान भारतीय वायुसेना ने कारगिल युद्ध से सीखे पाठों को दोहराया. सेना के साथ समन्वय कर हवाई सुरक्षा और आक्रामक वायु शक्ति का प्रदर्शन किया. रसद पहुंचाने में मदद की. कारगिल की जंग से मिले ये सबक भारत की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण बने रहेंगे 

ऑपरेशन सफेद सागर : कारगिल युद्ध से मिले सबक अब भी हैं प्रासंगिक

कारगिल की उजाड़ और बर्फीली पहाड़ियों पर युद्ध लड़े हुए भारत को करीब ढाई दशक बीत चुके हैं. राष्ट्रीय राजमार्ग-एक (एनएच-1) को तोड़ने के लिए पाकिस्तान ने कारगिल में गुप्त रूप से घुसपैठिए भेजे थे. एनएच-1 लेह से आगे सियाचिन ग्लेशियर तक जाता है और इसे रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. जनरल परवेज़ मुशर्रफ को इस ऑपरेशन कोह-ए-पैमा का मास्टरमाइंड माना जाता है. मुशर्रफ को उम्मीद थी कि इस सप्लाई लाइन को काटकर वो सियाचिन ग्लेशियर में भारत की मज़बूत स्थिति को कमज़ोर कर देंगे. उनका इरादा आतंकवादियों के लिए घुसपैठ करने का एक और रास्ता खोलने और नियंत्रण रेखा (एलओसी) में बदलाव का भी था. लेकिन भारतीय सेना की बहादुरी और वायुसेना के योगदान से इस युद्ध में भारत को विजय मिली. कारगिल युद्ध एक ऐसी जंग थी, जहां पहली बार इतनी ऊंचाई पर वायु शक्ति का प्रयोग इतने बड़े पैमाने पर किया गया.

हालांकि शुरुआत में इस घुसपैठ को लेकर आश्चर्य और भ्रम दिखा क्योंकि पाकिस्तान ने सर्दियों में निगरानी को लेकर जो गैप होता है, उसका फायदा उठाया था. लेकिन घुसैपठ की व्यापकता और गंभीरता का एहसास तब हुआ, जब ये पता चला कि इसके पीछे पाकिस्तानी सेना की सक्रिय भूमिका है. इसके बाद भारत ने जो प्रतिक्रिया दी, वो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण और काफी नपी-तुली थी. सरकार ने घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए ना सिर्फ सैन्य शक्ति के इस्तेमाल की इजाज़त दी बल्कि वायुसेना को भी इसमें शामिल किया. सरकार की तरफ से बस ये सावधानी बरतने को कहा गया कि नियंत्रण रेखा को पार नहीं करना है. वायुसेना के प्रयोग को लेकर शुरू में कुछ गलतफहमी पैदा हुई लेकिन जब ये स्पष्ट हो गया कि सरकार ने शांतिकाल में भी एयरफोर्स के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी है, उसके बाद दोनों सेनाएं संयुक्त रूप से अपने मिशन में जुट गई और इस तरह भारत का ऐसा पहला युद्ध लड़ा गया, जो टेलीविज़न पर भी प्रसारित हुआ.

वायुसेना के प्रयोग को लेकर शुरू में कुछ गलतफहमी पैदा हुई लेकिन जब ये स्पष्ट हो गया कि सरकार ने शांतिकाल में भी एयरफोर्स के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी है, उसके बाद दोनों सेनाएं संयुक्त रूप से अपने मिशन में जुट गई और इस तरह भारत का ऐसा पहला युद्ध लड़ा गया, जो टेलीविज़न पर भी प्रसारित हुआ.

 
सरकार ने एयरफोर्स को युद्ध में शामिल होने की मंजूरी 25 मई 1999 को दी लेकिन वायुसेना प्रमुख ने इससे पहले ही आपातकालीन योजनाओं को सक्रिय कर दिया था. श्रीनगर में तैनात वायुसैनिकों और राडारों को 24 घंटे निगरानी के निर्देश दिए गए. युद्ध के लिए नामित लड़ाकू इकाइयों को बहुत ज़्यादा ऊंचाई वाली फायरिंग रेंज पर हवा से ज़मीन पर फायरिंग ड्रिल करने को कहा गया, साथ ही ऐसे इलाकों में लड़ाकू विमानों की उड़ानें भी करवाई गई. इसके बाद अगले कुछ दिन तक एयरफोर्स ने थल सेना की सैनिक टुकड़ियों को एयरलिफ्ट करने और अग्रिम मोर्चों तक रसद पहुंचाने में मदद की. इसके अलावा वायुसेना ने फोटो और इलेक्ट्रॉनिक टोही मिशन को अंजाम दिया, जिससे दुश्मनों की तैनाती का पता लगाया जा सके. 26 मई को भोर होते ही मिग-21, मिग-23 और मिग-27 ने घुसपैठियों के शिविरों, उनके सामान और आपूर्ति मार्ग पर हमला किया. ये सभी इलाके द्रास, करगिल और बटालिक के आसपास के थे. ये पूरा हिमालयी क्षेत्र बर्फ से ढका होने की वजह से सफेद समुद्र जैसा दिखता था. यही वजह है कि इसे ऑपरेशन सफेद सागर का कोडनेम दिया गया. इस ऑपरेशन ने ये भी दिखाया कि ऊंचाई वाले युद्धक्षेत्र और यहां की संकीर्ण घाटियों में अपने टारगेट पर अटैक करना कितना मुश्किल होता है क्योंकि इन भौगोलिक कठिनाइयों के कारण लड़ाकू विमानों के उड़ने और हमले करने की दिशा बहुत सीमित हो जाती है. यहां के वातावरण ने स्थितियों को और जटिल बना दिया क्योंकि मौसम का प्रभाव लड़ाकू विमानों और हथियारों के प्रदर्शन पर पड़ रहा था. विमानों की तेज़ रफ्तार और इस इलाके की दुर्गम स्थिति लक्ष्य पर हमले को मुश्किल बना रही थी. 700 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार और विमान के कॉकपिट से देखने पर एक बड़ा बंकर या फिर बंदूक की स्थिति का आकार कुछ मिलीमीटर के धब्बे जैसा दिखाई देता है. बर्फीली चट्टान की वजह से सफेद और काले रंग के मेल की वजह से कई बार ये बंकर बिल्कुल अदृश्य हो जाते हैं.

कारगिल युद्ध

वायुसेना की कार्रवाई के शुरुआती दिनों में दुश्मनों की तरफ से कंधे से दागी जाने वाली स्टिंगर सरफेस टू एयर मिसाइल (SAM) के हमले में भारत का एक लड़ाकू विमान और एक हेलीकॉप्टर नष्ट हुआ. इसने वायुसेना को नए सिरे से रणनीति बनाने पर मज़बूर किया. ये फैसला किया गया कि इन स्टिंगर मिसाइलों के हमलों से बचने के लिए दुश्मन पर और ज़्यादा ऊंचाई से अटैक किया जाएगा, लेकिन इसने लक्ष्य पर सटीक हमला करने की चुनौती को और बढ़ा दिया. हमले की रणनीति में बदलाव के बाद स्टीप डाइव अटैक, जीपीएस की मदद से दिन और रात बमबारी, लक्ष्य से हथियार के बेहतर मिलान, लेज़र टारगेट पॉड का पहला इस्तेमाल और लक्ष्य पर सटीकता से निर्देशित हथियारों से हमला किया गया. वायुसेना ने ज़्यादातर हमले पारंपरिक हथियारों से ही किए. इन हथियारों की सटीकता कम होने के बावजूद लगातार किए गए हमलों ने दुश्मनों के मनोबल को तोड़ने का काम किया और भारतीय सेना का उत्साह बढ़ाया, जो काफी प्रतिकूल परिस्थितियों में मुश्किल जंग लड़ रही थी. उन्हीं दिनों हासिल किए गए लाइटनिंग टारगेटिंग पॉड्स को तेज़ी से एकीकृत किया गया. मिराज़ 2000 में कुछ बाहरी संशोधन किए गए, जिससे वो पेववे-II लेज़र गाइडेड मिसाइल्स को ले जा सकें. इसके अलावा इसके वेपन सिस्टम में बदलाव करके इसे उन हथियारों की डिलीवरी करने लायक बनाया गया, जो इसके मूल डिज़ाइन में नहीं थे. इससे टाइगर हिल में कमांड पोस्ट को नष्ट करने में मदद मिली. इस पोस्ट से भारतीय ठिकानों, जैसे कि सबसे बड़े रसद शिविर मुंथो धालो और दूसरे महत्वपूर्ण लक्ष्यों, पर तोप से सीधी फायरिंग की जा रही थी. दुश्मन के ठिकानों पर वायुसेना के लगातार और सटीक हमलों ने उन पाकिस्तानी रणनीतिकारों को हैरान कर दिया, जिन्होंने ये उम्मीद नहीं की थी कि भारत इस सैन्य कार्रवाई में वायु शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है. 

हवाई हमलों की वजह से दुश्मन को होने वाली रसद की आपूर्ति को कितना नुकसान हुआ, इसका सबूत उनके बीच रेडिया इंटरसेप्ट पर हुई बातचीत से भी मिला.

चूंकि पाकिस्तानी वायुसेना के F-16 फाइटर प्लेन्स सीमा पार उड़ान भर रहे थे और पाकिस्तान ने श्रीनगर के उत्तर यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के स्कर्दू एयरफील्ड पर F-7P लड़ाकू विमानों का बेड़ा तैनात कर रखा था, ऐसे में भारतीय वायुसेना को नियंत्रण रेखा के पास संचालन और हमले के लिए पूर्व स्वतंत्रता की आवश्यकता थी. इसका मतलब ये हुआ कि युद्ध के दौरान व्यापक हवाई सुरक्षा (AD) कवच दिया जाना ज़रूरी था. ये कवर ना सिर्फ अपने हवाई संचालन के लिए आवश्यक था बल्कि ये भी सुनिश्चित किया जाना था कि पाकिस्तान वायु सेना भारतीय सेना की सैन्य कार्रवाई में किसी तरह की बाधा ना डाल सके. पाकिस्तान वायुसेना को इस युद्ध से दूर रखने में अहम भूमिका मिग-29 लड़ाकू विमानों की भी थी. इन फाइटर प्लेन्स की बियॉन्ड विजुअल रेंज एयर टू एयर मिसाइल क्षमता पाकिस्तान से बेहतर थी. भारतीय वायुसेना ने गुजरात सेक्टर में सीएपी मिशन में शामिल और बीवीआर से सुसज्जित सुखोई-30K लड़ाकू विमानों को पूरी तरह सक्रिय कर दिया था. इसने भी पाकिस्तानी एयरफोर्स को जंग से दूर रहने पर मज़बूर किया. अगर साझा दृष्टिकोण से देखें तो इस युद्ध की सबसे बड़ी खासियत दुश्मन की वायुसेना की अनुपस्थिति रही. भारत को ज़मीन और हवा में सैनिक संचालन की पूर्ण स्वतंत्रता थी. भारतीय वायुसेना ने अपने एयर डिफेंस मिशन के तहत जिस तरह आसमान पर पूरा नियंत्रण हासिल किया था, उसकी वजह से ही ये सब संभव हुआ. बीवीआर की वजह से कारगिल युद्ध के दौरान इंडियन एयरफोर्स को जो बढ़त मिली थी, वो अब पलट गई है. अमेरिका की तरफ से पाकिस्तानी वायुसेना को एडवांस मीडियम रेंज एयर टू एयर मिसाइल दी गई है, जिसने परिस्थितियों को पाकिस्तान के पक्ष में मोड़ दिया है. यही वजह है कि बालाकोट एयर स्ट्राइक के दौरान भारत को रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ा था.

हालांकि कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने दुश्मन के ठिकानों पर जिस तरह लगातार बमबारी की, उसने लड़ाई के इस व्यापाक मोर्चे पर खुद को मज़बूत बनाए रखने के दुश्मन के इरादों को नाकाम कर दिया. हवाई हमलों की वजह से दुश्मन को होने वाली रसद की आपूर्ति को कितना नुकसान हुआ, इसका सबूत उनके बीच रेडिया इंटरसेप्ट पर हुई बातचीत से भी मिला. वायुसेना के टोही मिशन ने सही समय पर ये पता लगा लिया कि दुश्मन अपने वैकल्पिक आपूर्ति मार्ग पर शिफ्ट हो रहा है. इन वैकल्पिक रूट्स का पता लगाकर वहां सटीक हवाई हमले किए गए. राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ नसीम ज़ेहरा के मुताबिक भारतीय वायुसेना की तरफ से की गई लगातार बमबारी ने पहाड़ों को चोटियों पर बैठे पाकिस्तान सैनिकों के मनोबल पर हमला किया. उनका ये बयान इंडियन एयरफोर्स की कार्यकुशलता को दिखाता है. नसीम ज़ेहरा ने ये भी कहा कि भारतीय वायुसेना की बमबारी ने पाकिस्तानी सेना के रसद आपूर्ति मार्गों को ख़त्म कर दिया, उनके पास कोई वैकल्पिक रास्ते भी नहीं थे, जिसने पाकिस्तानी सेना को कमज़ोर कर दिया. उन्हें रसद नहीं मिल पा रही थी और उनकी कमज़ोरी उजागर हो गई”.  नसीम ज़ेहरा के मुताबिक ऑपरेशन कोह-ए-पैमा की योजना बनाने वालों की प्लानिंग में कमी थी. पाकिस्तान में बैठकर इस ऑपरेशन की योजना बनाने वाले इस जंग में भारतीय वायुसेना के शामिल होने, भारत की वायुशक्ति और भारतीय सैनिकों की दृढ़ इच्छाशक्ति का अंदाज़ा लगाने में नाकाम रहे.

निष्कर्ष

हालांकि करगिल युद्ध में भारतीय वायुसेना की कार्यकुशलता का श्रेय उन लोगों को भी दिया जाना चाहिए, जिन्होंने विमानों के रखरखाव, रसद और इनकी गतिशीलता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई. इन्हीं की वजह से वायुसेना कारगिल इलाके की बेहद चुनौतीपूर्ण भौगोलिक स्थिति, प्रतिकूल मौसम और एयर क्रू की थकान के बावजूद वायु सेना इस युद्ध में महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभा सकी. हेलीकॉप्टर और परिवहन विमानों के बेड़ों  ने जिस तरह चौबीस घंटे उड़ान भरी. सैनिक टुकड़ियों तक राशन, हथियार और तोप पहुंचाने में मदद की. घायल और हताहत सैनिकों को वापस लाने में जिस तरह तेज़ी से काम किया, वो भी इस जंग में निर्णायक जीत दिलाने में सहायक सिद्ध हुई. इस युद्ध का एक महत्वपूर्ण सबक ये था कि अगर दोनों सेनाएं साथ आएंगी, संयुक्त योजनाएं बनाकर उनका सटीक क्रियान्वयन करेंगी तो कोई भी जंग जीती जा सकती है. दो दशक बात 2020 में गलवान संकट के दौरान भारतीय वायुसेना ने एक बार फिर अपनी एयर डिफेंस क्षमता का परिचय दिया. कारगिल युद्ध के दौरान जो सीख मिली थी, उसके हिसाब से तेज़ और व्यापक कार्रवाई की. थल सेना के साथ समन्वय बनाकर वायुसेना ने अपने पूरे संचालन को सक्रिय किया, जिससे आर्मी को काफी मदद मिली. इसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि कारगिल की जंग से हमें जो सबक मिले, वो भविष्य के युद्धों के लिए भी प्रासंगिक बने रहेंगे.


एयर मार्शल दीप्तेंदु चौधरी नई दिल्ली के नेशनल डिफेंस कॉलेज के पूर्व कमांडेंट हैं.

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