Published on Sep 19, 2017 Updated 1 Days ago

भारत जैसे देश संक्रमण के उस दौर में हैं, जहां लोक नीति के लिहाज से कुपोषण की पारंपरिक चुनौती समाप्त नहीं हुई है और ऊपर से अति पोषण की समस्या भी आ कर जुड़ गई है।

स्वस्थ संपन्न भारत के लिए पोषण जरूरी

जहां भारत एक और खुद को बड़ी विश्व शक्ति और तेजी से बदलते देश के तौर पर पेश करना चाहता है वहीं अब भी उसके एक तिहाई बच्चे असाधारण रूप से दुबले और बेहद छोटे हैं, जैसा कि एंगस डीटॉन ने हाल ही में कहा है। विश्व बैंक के प्रेसिडेंट ने हाल ही में सार्वजनिक तौर पर यह कहा है कि भविष्य की एक महान आर्थिक शक्ति के रूप में भारत को समस्या आ सकती है क्योंकि यहां काम करने वाले लोगों में से 40% बचपन में कुपोषण की वजह से ठिगने रह गए हैं।

हाल के शोध दिखाते हैं दुनिया में काफी बदलाव हुए हैं। पहले जहां मोटापे की समस्या वाले लोगों के मुकाबले कम वजन के लोगों की संख्या दुगनी होती थी वहीं अब कम वजन वालों के मुकाबले मोटापे की समस्या वाले लोग ज्यादा हो गए हैं। लेकिन भारत जैसे देश संक्रमण के उस दौर में हैं, जहां लोक नीति संबंधी मामलों में कुपोषण की पारंपरिक चुनौती समाप्त नहीं हुई है और ऊपर से अति पोषण की समस्या भी शामिल हो गई है।

भारत में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का एक बड़ा कारण कुपोषण बना हुआ है। इससे वर्ष 2015 में लगभग पांच लाख मौतें हुई। भारत दूसरे दक्षिण एशियाई देशों के मुकाबले भी पोषण के लिहाज से काफी पीछे है जैसा कि हमें नीचे के ग्राफ- ठिगनापन (उम्र के मुकाबले कम लंबाई) में देख सकते हैं। वर्ष 2016 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में 118 देशों में भारत को 97 नंबर पर रखा गया है। इसी तरह लैंसेट में 2016 में प्रकाशित ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीसेस नाम के अध्ययन में भारत में अपंगता की वजह से घटने वाले जीवन के वर्षों के लिहाज से 10 सबसे बड़े खतरों में छह पोषण से जुड़े थे।

भारत ने पिछले दशक के दौरान बच्चों के पोषण के लिहाज से काफी प्रगति की है। एनएफएचएस- 4 के आंकड़े दिखाते हैं कि ठिगनेपन, एनीमिया, दुबलेपन, भारी दुबलेपन और सिर्फ स्तनपान के आंकड़े 2006 (एनएफएचएस-3) और 2016 (एनएफएचएस-4) के बीच काफी बेहतर हुए हैं। इन सुधारों के बावजूद, 38.4% भारतीय बच्चे ठिगने बने हुए हैं और 21% से ज्यादा दुबलेपन का शिकार हैं। महिलाओं में एनीमिया अब भी 50% के आंकड़े पर बना हुआ है। इसी तरह छह महीने तक के बच्चों को सिर्फ स्तनपान (ईबीएफ) करवाने का आंकड़ा अब भी सिर्फ 57% पर अटका हुआ है।

पुद्दुचेरी, दिल्ली, केरल और लक्ष्यद्वीप को छोड़ कर बाकी सभी राज्यों में शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ठिगने बच्चों का औसत ज्यादा है। बाकी पैमानों पर जहां सुधार बहुत धीमा है, वहीं चिंता का एक बड़ा कारण दुबले (लंबाई के मुकाबले वजन कम) बच्चों का औसत बढ़ना भी है। पिछले दस साल के दौरान यह 19.8% से बढ़ कर 21% हो गया है। भारी दुबलेपन के शिकार बच्चों का औसत भी बढ़ गया है। वर्ष 2005 में यह 6.4% था वहीं 2015 में बढ़ कर 7.5% हो गया। जबकि इस दौरान काफी आर्थिक विकास हुआ है।

भारत ने अपने ठिगने बच्चों के औसत को पिछले कुछ दशकों के दौरान लगभग आधा कर लिया है। 80 के दशक के बाद के वर्षों में यह 66.2 प्रतिशत था, वहीं अब यह 38.4 प्रतिशत रह गया है। लेकिन शुरुआती दौर में हासिल की गई बढ़त अब हाथ से फिसलती दिखाई दे रही है। दुबलेपन का मामला लें तो 80 के दशक के बाद के वर्षों में हम 21 प्रतिशत के जिस स्तर पर थे आज भी लगभग उसके आस-पास ही हैं। चिंताजनक रूप से तमिलनाडु जैसे राज्य जहां ठिगनेपन को दूर करने के लिहाज से सबसे अच्छे नतीजे आ रहे हैं, वहीं दुबलेपन को दूर करने के लिहाज से यह सबसे पीछे साबित हो रहा है। तमिलनाडु और गोवा ऐसे राज्य हैं जहां दुबलापन तो काफी है, लेकिन उसके अनुपात में ठिगनेपन की समस्या ज्यादा नहीं है। गोवा में दुबलेपन का औसत ठिगनेपन से ज्यादा है।

भारत की प्रगति रोक रहा कुपोषण

हाल के विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत में इस समय काम करने लायक लोगों में दो तिहाई लोग बचपन में ठिगनेपन के शिकार थे। इसका प्रति व्यक्ति आय पर और कुल आर्थिक लागत पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। भारत में ठिगनेपन की वजह से प्रति व्यक्ति आय में -13% की भारी कमी दर्ज हो रही है। यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। पूरे दक्षिण एशिया और अफ्रीकी देशों में यह लगभग 10 प्रतिशत है।

पैदा होने के कुछ समय बाद से ले कर वयस्क होने तक के आंकड़ों को शामिल करने वाले अध्ययनों में पता चला है कि जीवन के शुरुआती चरण में पर्याप्त पोषण नहीं मिलने से उसके जीवन पर बहुत गंभीर असर पड़ता है। एशियन डेवलपमेंट बैंक की 2017 की एक ताजा रिपोर्ट में पाया गया है कि यह उसके मानसिक विकास और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, जिसकी वजह से उसे ज्यादा ताकत नहीं मिल पाती, दिमाग का ठीक से विकास नहीं हो पाता और साथ ही यह मृत्यु दर को भी बढ़ाता है। इसका उसकी शिक्षा पर और वयस्क होने के बाद उसकी उत्पादन क्षमता पर प्रभाव पड़ता है और उसे मजदूरी या पारिश्रमिक कम मिलती है। इसके अलावा बचपन में कुपोषण का संबंध मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारियों से भी होता है। साथ ही आगे चल कर वह मोटापे का शिकार भी हो सकता है।

भारत कुपोषण की जिस गंभीर समस्या से जूझ रहा है, ठिगनापन उसका महज एक पहलू है। इसके अलावा एनीमिया का ऊंचा स्तर, दुबलापन, बड़ी तादाद में बच्चों का कम वजन के साथ पैदा होना, वजन ज्यादा होने या मोटापे का शिकार होने के साथ ही जन्म से छह महीने तक बच्चों को सिर्फ स्तनपान नहीं मिल पाने से यह समस्या और बढ़ जाती है। हाल के अध्ययनों में यह भी पता चला है कि भारत में लगभग एक लाख बच्चे हर साल उन बीमारियों से मारे जाते हैं, जिन्हें छह महीने तक सिर्फ मां का दूध उपलब्ध करवा कर आसानी से रोका जा सकता था। छह महीने तक बच्चों को सिर्फ स्तनपान नहीं करवाने की वजह से ही भारत की अर्थव्यवस्था पर हर साल 14 अरब अमेरिकी डॉलर का बोझ पड़ता है। क्योंकि बीमारियों की वजह से एक तो इलाज पर खर्च आता है और दूसरा उत्पादकता कम हो जाती है।

भारत में ठिगनापन तो कुपोषण की गंभीर समस्या का महज एक पहलू है। भारी संख्या में महिलाओं में एनीमिया, दुबलापन, बहुत बड़ी संख्या में बच्चों का कम वजन के साथ पैदा होना, ज्यादा वजन और मोटापे की तेजी से बढ़ती समस्या तथा छह महीने तक सिर्फ स्तनपान पाने वाले बच्चों की कम संख्या इस समस्या को और विकराल बना देते हैं।

भारत सहित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के सभी सदस्य देशों ने वादा किया था कि वे सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) संबंधी अपनी प्रतिबद्धता के तहत अपने-अपने यहां पोषण संबंधी स्थिति को बेहतर करेंगे। लेकिन इस लिहाज से प्रगति बहुत धीमी है और भारत को वर्ष 2025 तक वैश्विक लक्ष्य तक पहुंचने के लिए काफी तेज प्रयास करने होंगे, जैसा कि नीचे के ग्राफ में दिखाया गया है:

पोषण से तेज होगा विकास: निवेश का बेहतर साधन

विश्व बैंक के प्रेसिडेंट डॉ. किम योंग जिम ने कुपोषण के ऊंचे स्तर को सामूहिक चेतना के लिए एक धब्बा बताते हुए ऐसे मामलों से जुड़े ढांचागत विकास पर निवेश को सबसे महत्वपूर्ण बताया है, जिससे जीवन के शुरुआती समय में कुपोषण की स्थिति नहीं बने। उनका कहना है कि यह इसलिए ज्यादा अहम हो जाता है क्योंकि अब अर्थव्यवस्था ज्यादा से ज्यादा डिजिटल और कौशल के उच्च स्तर पर निर्भर करती जा रही है।

भारत के आर्थिक सर्वे 2016 में माना गया है कि जच्चा-बच्चा पोषण में निवेश के जहां और कई आवश्यक कारण भी हैं, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस निवेश का लाभ बहुत अधिक है। शुरुआती शारीरिक और मानसिक विकास में सहायता आगे चल कर उनकी स्कूली पढ़ाई और प्रशिक्षण को प्रभावित करती है और इससे उनके वयस्क होने के बाद के नतीजे संचालित होते हैं।

ताजा वैश्विक पोषण रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया में कुपोषण की वजह से होने वाला आर्थिक प्रभाव हर वर्ष सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को 11% का नुकसान पहुंचाता है। जबकि कुपोषण को रोकने के लिए खर्च किए गए एक डॉलर के निवेश से 16 डॉलर तक का फायदा मिलता है।

औसत देखने से पूरी तस्वीर नहीं दिखती

अगर आप भारत के राष्ट्रीय औसत को देखेंगे तो सच्ची और पूरी तस्वीर दिखाई नहीं देगी। राज्यों और जिलों के स्तर पर मौजूदा स्तर और प्रगति की दर में भारी अंतर है। जैसा कि आप नीचे के मानचित्र में देख सकते हैं, भारत में ठिगनेपन के स्तर में राज्यों के बीच भारी फर्क है। बिहार में जहां महिलाओं (15 से 49 वर्ष) में एनीमिया की दर 67.4 प्रतिशत से घट कर 60.3 प्रतिशत पर पहुंच गई है, वहीं हिमाचल प्रदेश में यह दर दस प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी है।

नीति निर्माताओं को कुपोषण के सामाजिक-आर्थिक पहलू पर तुरंत ध्यान देना होगा। नीचे आप एनएफएचएस (2015-16) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक वर्गों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में ठिगनेपन के स्तर को देख सकते हैं।

ऐतिहासिक रूप से पोषण संबंधी आंकड़ों में क्षेत्रीय आधार पर काफी अंतर रहा है और साथ ही ग्रामीण इलाकों के मुकाबले शहरी इलाकों में यह हमेशा बेहतर रहा है। लेकिन पिछले दशक में इस लिहाज से पारंपरिक चलन में बदलाव शुरू होता दिखाई दिया है। जहां ठिगनेपन में पिछले एक दशक के दौरान शहरी और ग्रामीण सभी इलाकों में कमी आई है, वहीं दुबलेपन में शहरी इलाकों में बढ़ोतरी हुई है और गांवों में यह आंकड़ा ठिठका हुआ है।

दुबलेपन के आंकड़े शहर और गांव में अब समान स्थिति पर पहुंच रहे हैं। पिछले एक दशक में ग्रामीण इलाकों में जहां दुबलेपन का शिकार होने वाले बच्चों का प्रतिशत आधा प्रतिशत बढ़ा है, वहीं शहरी इलाकों में यह तीन प्रतिशत तक बढ़ा है।

कई राज्यों और जिलों में कुपोषण के खिलाफ जंग में बहुत अच्छा काम हुआ है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के विश्लेषण में पता चलता है कि एनएफएचएस- 4 में शामिल 640 जिलों में सिर्फ 29 जिले हैं, जहां ठिगनेपन का प्रतिशत 10 से 20 के बीच है और इनमें से ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्यों में हैं। सबसे कम ठिगनेपन के लिहाज से सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देश के दस सबसे अच्छे जिलों में जहां दो ओडिशा के हैं, वहीं राज्यों के स्तर पर देखें तो यह ठिगनेपन में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में है।

कई राज्यों और जिलों से पोषण की स्थिति बेहतर करने के लिहाज से काफी अच्छे उदाहरण भी मिलते हैं। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की ओर से किए गए विश्लेषण से बता चलता है कि एनएफएचएस – 4 में शामिल 640 जिलों में से सिर्फ 29 जिले हैं, जहां ठिगनेपन का स्तर 10 से 20 प्रतिशत के बीच है और इनमें से अधिकांश दक्षिणी राज्यों में है।

भारत में सभी राज्य समान राष्ट्रीय नीति और कुपोषण दूर करने के कार्यक्रम के एक समान माहौल में काम करते हैं। इसलिए राज्यों और जिलों में प्रगति में इतने अंतर की वजह संभवतः पोषण सुनिश्चित करने वाले तत्वों में असमानता और स्वास्थ्य व पोषण संबंधी मदद को पहुंचाने में आने वाला फर्क है। एक ही राज्य के अंदर कहीं सफलता और कहीं धीमी प्रगति क्यों होती है, इसके कारणों को समझना महत्वपूर्ण है ताकि नीति और कार्यक्रम क्रियान्वयन को बेहतर किया जा सके। साथ ही प्रगति की रफ्तार बढ़ाने की रणनीति भी बनाई जा सके।

आगे क्या?

भारत में पोषण संबंधी नीति के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में कुपोषण और माइक्रोन्यूट्रिएंट की कमी की समस्या को दूर करना तो है ही, साथ ही अधिक पोषण की वजह से पैदा हो रही लाइलाज बीमारियों की तेजी से बढ़ती समस्या भी है। नीति संबंधी दस्तावेज मानते हैं कि कम पोषण की वजह से बच्चों में मानसिक विकास कमजोर पड़ सकता है और आगे चल कर उनकी उत्पादकता प्रभावित हो सकती है।

भारत में पोषण की स्थिति को बेहतर करने के लिए खास तौर पर उन कारकों पर ध्यान देना होगा जिनकी वजह से पोषण की स्थिति तय होती है। उदाहरण के तौर पर- स्वच्छता। एनएफएचएस-4 दिखाता है कि पिछले एक दशक के दौरान पीने के पानी और बिजली तक लोगों की पहुंच बढ़ी है वहीं कुपोषण के एक बड़े कारण गंदगी को ले कर अब भी स्थिति वहीं बनी हुई है। स्वच्छ भारत अभियान (एसबीए) दिखाता है कि नीतिगत रूप से स्वच्छता सरकार की प्राथमिकता में आई है, जो स्वास्थ्य और पोषण का एक अहम कारक है।

सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के रूप में भारत के सामने एक मौका है जहां वह पोषण को ले कर अपनी रणनीति में व्यापक बदलाव ला सके और स्वस्थ्य, संपन्न भारत बना सके। यह बेहद जरूरी हो गया है कि स्वास्थ्य और पोषण संबंधी नीतियां शासन के हर स्तर पर आपस में जुड़ी हुई हों। इसके साथ ही पोषण को प्राथमिकता में लाने के लिए बेहतर प्रशासन और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है।

पोषण से जुड़े एसडीजी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पोषण से सीधे जुड़े और इसे प्रभावित करने वाले मामलों में तेज रफ्तार से दखल देना होगा। इससे भारत को अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने में मदद मिलेगी। युवा आबादी की वजह से जो बढ़त हासिल है, उसका वास्तविक लाभ उठाने का मौका मिल सकेगा। साथ ही मजबूत और सतत आर्थिक विकास दर्ज करने का अवसर मिलेगा। इस सीरीज के अन्य अंकों में ठिगनेपन, दुबलेपन, महिलाओं में एनीमिया और छह महीने तक सिर्फ स्तनपान जैसे मुद्दों पर चर्चा की जाएगी और साथ ही इन मामलों पर भविष्य की राह भी तलाशी जाएगी।

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Authors

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...

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Malancha Chakrabarty

Malancha Chakrabarty

Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...

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Priyanka Shah

Priyanka Shah

Priyanka is the Communications and Events Officer for the Local Government Revenue Initiative (LoGRI). She is responsible for developing the initiative’s engagement with external stakeholders ...

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Tanoubi Ngangom

Tanoubi Ngangom

Tanoubi Ngangom is a Chief of Staff and Deputy Director of Programmes. Tanoubi is interested in the political economy of development — the evolution of global ...

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