Author : Mohnish Kedia

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 15, 2024 Updated 0 Hours ago

अगले दो दशकों के दौरान जब ज़्यादातर भारतीय शहरों का नगरीयकरण होगा, तो हमारे पास मौक़ा होगा जब हम लंबा, हरा और पैदल चलने लायक़’ बना सकें. 

नई शहरी जलवायु नीति: "ऊँचे, हरे और पैदल चलने योग्य" शहरों की ओर कदम


दक्षिण एशिया में हाल के दिनों में चली भयंकर हीटवेव को हमारे नीति निर्माताओं को पर्यावरण संकट को एक समग्र दृष्टि से देखने को मजबूर करना चाहिए. 2022 में एक अरब से ज़्यादा भारतीयों ने अकेले अप्रैल महीने में ही 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान का सामना किया था. पिछले साल जून, जुलाई और अगस्त के महीने, साल के सबसे गर्म तीन माह थे; ये साल उससे भी बुरा हो सकता है. दिल्ली में मई में ही अधिकतम तापमान 46 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था.

 अगले सात वर्षों में दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी. अमेरिका में लगभग 80 फ़ीसद लोग शहरों में रह रहे होंगे. इसीलिए, जलवायु परिवर्तन से निपटने के सबसे ज़्यादा उपाय शहरों पर केंद्रित होने चाहिए.

हालांकि, हमारे घरों को बिजली देने, गाड़ियों को चलाने और कारखानों को संचालित करने के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर पुनर्विचार किया जा रहा है. लेकिन, ये क़दम तो उन नीतिगत उपायों के मेल का एक हिस्सा भर हैं, जिनका सुझाव जलवायु वैज्ञानिक दे रहे हैं. ऐसे अन्य क्षेत्र भी हैं, जिन्हें अगर ज़्यादा नहीं तो इसके बराबर की तवज्जो मिलनी चाहिए. शहरी नीति के इस दायरे का विस्तार करने से ऊर्जा के उन समाधानों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी, जिन्हें कम से मध्यम अवधि में लागू करना मुमकिन है.

 

शहरों की आबादी पहले ही वैश्विक मूल्य संवर्धन में 90 प्रतिशत और कुल कार्बन उत्सर्जन में 78 प्रतिशत का योगदान देती है. अगले सात वर्षों में दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी. अमेरिका में लगभग 80 फ़ीसद लोग शहरों में रह रहे होंगे. इसीलिए, जलवायु परिवर्तन से निपटने के सबसे ज़्यादा उपाय शहरों पर केंद्रित होने चाहिए. लेकिन, अमेरिका समेत बहुत से देश ऐसे हैं, जहां शहरी नीतियों का नितांत अभाव है. अफ्रीका और एशिया के नगरों को अपनी शहरी नीति के बारे में और गंभीरता से विचार करना होगा. क्योंकि भारत, चीन या फिर नाइजीरिया जैसे देशों में ही सबसे ज़्यादा शहरीकरण होगा. लेकिन, ये शहरों के ही बाशिंदे होंगे, जिन्हें बहुत से देशों में सबसे बुरे हालात में रहना पड़ेगा.

 

मिसाल के तौर पर दिल्ली को ही ले लीजिए, जो आज दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी वाले देश की राजधानी है.

 

दिल्ली के 60 प्रतिशत से अधिक निवासी प्रति व्यक्ति 8.75 वर्ग मीटर से भी कम फ्लोर एरिया में रहते हैं. आज लोग जगह की कमी से समझौता कर रहे हैं और अनियोजित, असुरक्षित और बिना साफ सफाई वाली जगहों में रह रहे हैं. दिल्ली बाहर की तरफ़ बढ़ती जा रही है जिससे लोगों को काम करने की जगह जाने के लिए ज़्यादा सफ़र करना पड़ रहा है. सड़कों पर जाम की समस्याएं आम हैं.

 

दिल्ली में पेड़ इसके कुल क्षेत्रफल के दस प्रतिशत से भी कम इलाक़े में हैं और इनमें से भी ज़्यादातर पेड़ सेंट्रल और साउथ दिल्ली में हैं. इससे दिल्ली की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गर्मियों में भयंकर तापमान का सामना करता है. जिस शहर में 33 प्रतिशत सफर पैदल तय किया जाता हो, वहां ये हालात मौत की सज़ा जैसे हैं. पानी, शौचालय, खाना पकाने के लिए गैस और जल निकाली जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में शहर न रहने लायक़ बन सकता है.

 

शहरी नीति की टूलकिट: लंबे, हरे और पैदल चलने लायक़ बनाना

 

लेकिन, दिल्ली की चुनौतियों से सीखते हुए, भारत के वो शहर क्या बदलाव ला सकते हैं, जिनका अभी विस्तार होना बाक़ी है? इसका जवाब है: लंबे, हरे और चलने लायक़ बनाना.

 

‘लंबे’ से वैज्ञानिकों का मतलब ऊंची इमारतों से है. 478 शहरों का विश्लेषण करके वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि जो शहर ऊपर की ओर विकसित होते हैं, उनसे कार्बन उत्सर्जन कम होता है. क्यों? वो ज़मीन, बिल्डिंग मैटेरियल और ऊर्जा का उपयोग कम करते हैं. वो आपस में अधिक जुड़े हुए समुदायों को भी पोसते हैं. और अगर आप इन इमारतों को लकड़ी से बना सकें, तो और भी अच्छा होगा!

 भारत के अन्य शहर अपने यहां मौजूद पेड़ों को संरक्षित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. इसके लिए एक समर्पित और सक्षम शहरी पर्यावरण एजेंसी की ज़रूरत होगी, जो शहरों के प्राकृतिक संसाधनों के भंडार का सर्वेक्षण, सुधार और रख-रखाव कर सकती है. 

अगर आपने शंघाई, न्यूयॉर्क या टोक्यो का आसमान देखा हो, तो उनकी तुलना में दिल्ली की इमारतें छोटी हैं. दिल्ली, फ्लोर टू एरिया के अनुपात (FAR) की सीमा बढ़ाने से शुरुआत करता है. FAR वो होता है कि आप ज़मीन के किसी टुकड़े पर कितना निर्माण कर सकते हैं. दिल्ली का अधिकतम FAR 3.5 है. शंघाई का 8 है. डेनवर का 17 और टोक्यो का FAR 20 है. रांची जैसे शहर, जिनका दिल्ली के मुक़ाबले अभी बहुत कम विस्तार हुआ है, वो बाहर की तरफ़ बढ़ने के बजाय ऊपर की ओर विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं. इसके लिए उन्हें FAR की सीमा में बढ़ोतरी करनी होगी.

 

‘हरित’ से मतलब पेड़, पार्क, जंगल, घरों के भीतर पौधे लगाना और लंबाई चौड़ाई वाले बाग़ विकसित करना है. पेड़ों से तापमान और प्रदूषण कम होता है. सिंगापुर ने दिखाया है कि पेड़ों से पर्यटन को भी बढ़ावा मिल सकता है. पेड़, पैदल चलने वालों को धूल और भयंकर तापमान से बचाते हैं. दिल्ली जैसे घनी आबादी वाले शहर में लंबाई और चौड़ाई में विकसित किए गए बाग़ और घर के भीतर लगाए गए पौधे, जैव विविधता के ज़रिए इंसान की सेहत सुधारने में भी योगदान दे सकते हैं. उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी दिल्ली में पैदल चलने वाले रास्तों पर पेड़ों की संख्या बढ़ाने से शहर का कुल तापमान कम करने में भी मदद मिल सकती है. भारत के अन्य शहर अपने यहां मौजूद पेड़ों को संरक्षित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. इसके लिए एक समर्पित और सक्षम शहरी पर्यावरण एजेंसी की ज़रूरत होगी, जो शहरों के प्राकृतिक संसाधनों के भंडार का सर्वेक्षण, सुधार और रख-रखाव कर सकती है. 

 तमाम रिपोर्टों ने जलवायु संकट से निपटने के लिए उपायों की अधिक व्यापक सूची पर ध्यान देने की बात कही है.

आख़िर में ‘पैदल चलने लायक़’. ज़्यादा ऊंची इमारतें और हरा भरा मूलभूत ढांचा, पैदल चलने की सुविधा में सुधार ला सकता है. न्यूयॉर्क जैसे ऊंची इमारतों वाले शहर जहां के ब्लॉक छोटे छोटे हैं और चौराहे पास पास हैं, उनसे लोगों को ज़्यादा हरे भरे रास्ते पर पैदल चलने का मौक़ा मिलता है और उन्हें पैदल चलते वक़्त छाया मिल जाती है. हम दिल्ली जैसे शहरों में ट्रैफिक का प्रबंधन सुधारकर और पैदल चलने के रास्ते बनाकर पैदल चलने की सुविधा में सुधार ला सकते हैं. या फिर, इसके लिए शहर के भीतरी हिस्सों में सड़कों की चौड़ाई कम की जा सकती है. सार्वजनिक परिवहन में सुधार से सड़कों पर ट्रैफिक का बोझ कम किया जा सकता है, और शहरों को कम दूरी का सफर पैदल या साइकिल से करने को बढ़ावा दिया जा सकता है. भारत में सभी गैर संक्रामक बीमारियों की महामारी को देखते हुए, पैदल चलने से हमारी सेहत ही बेहतर होगी. इससे उत्सर्जन भी कम होगा, क्योंकि लोग गाड़ियां भी कम चलाएंगे. इससे लोग स्थानों से भी जुड़ सकेंगे.

 

अगले दो दशकों के दौरान जब देश के लगभग हर शहर का विस्तार हो रहा होगा, तो हमारे पास मौक़ा होगा, जब हम शहरों को ‘लंबा, हरा भरा और पैदल चलने लायक़’ बना सकते हैं. इसके लिए योजनाएं बनानी होंगी, ज़मीन के इस्तेमाल के नियमों में बदलाव करने होंगे, ख़ास तौर से शहरों के इलाक़ों के आपसी जुड़ाव के लिए. शहरों के स्तर पर वित्तीय प्रबंधन को भी बेहतर बनाना होगा और नीतियां लागू करने की चुनौतियों पर चर्चा करने और समाधान निकालने के लिए सहयोगात्मक रवैया अपनाना होगा. ये बात दोहराना ज़रूरी है कि केवल यही नीतिगत उपाय नहीं हैं. तमाम रिपोर्टों ने जलवायु संकट से निपटने के लिए उपायों की अधिक व्यापक सूची पर ध्यान देने की बात कही है.

 

भारत के शहरों ने पहले ही भयंकर गर्मी से निपटने के लिए हीट एक्शन प्लान जैसे औज़ारों के ज़रिए नीतिगत हस्तक्षेप पर ध्यान देना शुरू कर दिया है. हालांकि, हमें अधिक ठोस प्रयास करने की ज़रूरत है. लंबे, हरे भरे और पैदल चलने लायक़ शहर बनाने के प्रयास इसी दिशा में उठाया गया क़दम है.

 

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