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Published on Apr 15, 2025 Updated 0 Hours ago

ट्रंप के 'टैरिफ' का टैरिफ से कोई लेना-देना नहीं है. इसका सब कुछ लेना-देना ताकत से है. आज के समय में ताकत अंतरराष्ट्रीय संबंधों के एकमात्र मंच यानी विश्वास को ध्वस्त कर रही है.

असंभव सी दिखती दुनिया में एक नई ‘असंभावना’!

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7 अप्रैल 2025 तक तीन कारोबारी दिनों में दुनिया भर के शेयर बाज़ारों में भारी गिरावट आई. जापान का शेयर बाज़ार 13 प्रतिशत, हॉन्ग कॉन्ग का 11 प्रतिशत, वियतनाम का 8 प्रतिशत, अमेरिका एवं चीन का 7 प्रतिशत और जर्मनी एवं यूनाइटेड किंगडम का 5 प्रतिशत गिरा जबकि सेंसेक्स 7 प्रतिशत. विश्वास की कमी और ज़रूरत से ज़्यादा ताकत इस तबाही के निर्धारक हैं. 

इन्हीं तीन दिनों के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड जे. ट्रंप ने स्टार वॉर सीरीज़ की सुपरहिट मूवी “द एंपायर स्ट्राइक्स बैक” के अंदाज़ में जवाबी कार्रवाई की. ये उनकी अमेरिका फर्स्ट नीति के तहत नया कदम है और जिसका अंत विश्वास का विनाश है. ट्रंप जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं वो है 'टैरिफ' लेकिन इसका अनुवाद, चाहे वो कितना भी अतार्किक क्यों न हो, है वो करो जिसका हुक्म मैंने दिया. विश्वास की जगह ताकत ले रही है.  

पिछले तीन महीनों के दौरान ट्रंप और रशियन फेडरेशन के राष्ट्रपति व्लादिमीर व्लादिमिरोविच पुतिन के बीच बातचीत, शुरुआत में जिसे यूक्रेन में युद्ध समाप्त करने के संभावित रास्ते के रूप में देखा गया था, ने एक नया मोड़ ले लिया है. राष्ट्रपति चुनाव से पहले ट्रंप ने बहुत धूमधाम से जो एलान किया था, उसे अब "व्यंग्यात्मक" टिप्पणी के रूप में पेश किया जा रहा है. युद्ध जारी है और हताहत लोगों की संख्या बढ़ रही है लेकिन रवैया सख्त़ बना हुआ है. ताकत विश्वास को ध्वस्त कर देती है. 

ट्रंप जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं वो है 'टैरिफ' लेकिन इसका अनुवाद, चाहे वो कितना भी अतार्किक क्यों न हो, है वो करो जिसका हुक्म मैंने दिया. विश्वास की जगह ताकत ले रही है.

पिछले तीन वर्षों के दौरान हिमालय की सीमा से चीन और भारत ने सैनिकों को वापस बुलाने की शुरुआत की. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धौंस जमाने वाले देश के रूप में चीन की जगह लेने वाले अमेरिका से हटकर भारत-चीन की सीमा ऐसा भौगोलिक क्षेत्र हैं जहां दो शक्तिशाली परमाणु संपन्न देश एक-दूसरे की आंखों में आंखें डालकर खड़े हैं लेकिन इसके बावजूद उन्होंने ताकत को पीछे छोड़ दिया है. हालांकि सौहार्दपूर्ण संबंधों की व्यापक भू-राजनीतिक पहेली में विश्वास गायब है. 

रायसीना डायलॉग में चर्चा

17 से 19 मार्च के बीच रायसीना डायलॉग 2025 के तीन दिनों के दौरान एक शब्द यानी विश्वास पूरी बातचीत में हावी रहा. एक के बाद एक कमरे, जहां एक समय में एक विदेश मंत्री थे, में बातचीत बेकाबू होती ताकत के मद्देनज़र विश्वसनीय साझेदार, विश्वसनीय सप्लाई चेन और विश्वसनीय संबंध पर केंद्रित थी. 10 वर्षों में पहली बार ट्रंप ने धौंस जमाने वाले के रूप में शी जिनपिंग की जगह ली है. 

20 जनवरी 2025 को अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप के कार्यभार संभालने के बाद पिछले 77 दिनों के दौरान भरोसे का सबसे बड़ा उल्लंघन यूरोपियन यूनियन (EU) ने महसूस किया है जो अभी तक ट्रंप के द्वारा सुरक्षा के मामले में यूरोप से अलग होने के झटके से जूझ रहा है. बेल्जियम, ग्रीस, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ्रांस और हंगरी में इस बात पर आत्ममंथन हो रहा है कि EU ने ठीक ढंग से अमेरिका के सिग्नल को नहीं समझा या आठ दशक पुराने रिश्ते को हल्के में लिया. यूरोप विश्वास चाह रहा है लेकिन उसे बेकाबू ताकत का सामना करना पड़ रहा है. 

2025 के साल में ताकत के दुरुपयोग को सामान्य बनाया जा रहा है. चीन ने पिछले दशक के दौरान ये किया, रूस 2022 से कर रहा है और अब ऐसी शक्तियों में शामिल होने की बारी अमेरिका की है. इसे महाशक्तियों का नैरेटिव भी कह सकते हैं. 

ताकत वो है जो वो कर के दिखाती है. लोकतांत्रिक देशों में ये लोगों की आकांक्षाओं को जमा करने और देश को आकार देने की क्षमता है. निरंकुश शासन में ये संस्थानों पर कब्जा करने, उन्हें चलाने एवं नियंत्रित करने और बिना किसी सवाल के राष्ट्रीय नीतियों को आगे ले जाने की क्षमता है. व्यापार में ताकत गुप्त बातचीत का साधन है. युद्ध में ये खून और इलाके में लिखी गई एक स्पष्ट बातचीत है. 2025 के साल में ताकत के दुरुपयोग को सामान्य बनाया जा रहा है. चीन ने पिछले दशक के दौरान ये किया, रूस 2022 से कर रहा है और अब ऐसी शक्तियों में शामिल होने की बारी अमेरिका की है. इसे महाशक्तियों का नैरेटिव भी कह सकते हैं. 

1945 में नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना के बाद से आठ दशकों में बहुत कुछ बदल गया है. शी जिनपिंग के तहत चीन के उदय की विशेषता रही है इस व्यवस्था का उल्लंघन. ये व्यापार के शस्त्रीकरण, 5G जैसी तकनीकों की घुसपैठ और ज़मीन एवं समुद्री क्षेत्रों के इर्द-गिर्द आक्रामकता के माध्यम से हुआ है. पुतिन के तहत यूक्रेन, जो कि अमेरिका का प्रतिनिधि बन गया था, पर हमले के साथ इस व्यवस्था को ध्वस्त किया गया. और अब ट्रंप के तहत ये अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था अनिश्चितता के गर्त में अंतिम धक्का खा रही है.  

प्रभावी रूप से हम अक्टूबर 1945 की स्थिति में पहुंच गए हैं जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र (UN) के माध्यम से एक नई नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तैयार की गई थी जो शांति स्थापित करने में बुरी तरह विफल साबित हुई है. ये कोई नई बात नहीं है. जनवरी 1920 में शांति के इर्द-गिर्द बहुपक्षीय सहयोग तैयार करने के लिए राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशंस) के माध्यम से ऐसा एक और प्रयास हुआ था लेकिन ये नाकाम रहा. नेपोलियन के बाद के दौर में सितंबर 1814 में कॉन्सर्ट ऑफ यूरोप के ज़रिए यूरोप के राजतंत्रों के द्वारा अपने क्षेत्रों को बचाए रखने के लिए एक आम सहमति बनी थी लेकिन ये भी असफल रही. 

इन बाहरी घटनाक्रमों से पीछे हटने पर हम जो देखते हैं वो ये है कि पुतिन-शी-ट्रंप की तिकड़ी- जो अब मूल्यों या निष्पक्षता की जगह ताकत से जुड़ी हुई है- अग्रणी देशों के विशेषाधिकार को अपनी निजी जागीर में बदल रही है. 

नाकामी के इस शिखर पर अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच में से तीन स्थायी सदस्य खड़े हैं. तीनों देश शांति का समर्थन करने में नाकाम साबित हुए हैं. इसके विपरीत तीनों ने नियम आधारित व्यवस्था को ताकत आधारित अव्यवस्था से बदल दिया है- यूक्रेन में रूस, वॉल्फ-वॉरियर कूटनीति (लड़ाकू कूटनीति) एवं ताइवान पर संभावित आक्रमण के ज़रिए चीन और दुनिया के लिए समझने में मुश्किल टैरिफ की बेतुकी परिभाषाओं एवं पनामा और ग्रीनलैंड पर अपने दावे के साथ अब अमेरिका. सुरक्षा परिषद के दूसरे दो सदस्यों UK और फ्रांस ने ख़ुद को रणनीतिक रूप से निष्क्रिय कर लिया है. 

प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण

2025 में ट्रंप को पुतिन या शी से अलग करने के लिए बहुत कम चीजें बची हैं. अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए ट्रंप के कदम चीन और रूस के द्वारा पहले से किए जा रहे उपायों के सामने एक प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण है. इसके पीछे की भावना ये है कि अगर चीन और रूस ऐसा कर सकते हैं तो अमेरिका भी कर सकता है. ये एक ऐसी दौड़ है जो महाशक्तियों के साथ-साथ पूरी दुनिया को गर्त में ले जाएगी. अगर पुरानी व्यवस्था के पतन से नई व्यवस्था का उदय होता है तो ये एक अच्छी बात होगी. दुनिया को अधिक समानता की आवश्यकता है. 

नियम आधारित व्यवस्था, जो कि मौजूदा समय में ध्वस्त हो रही है, ने दुनिया की महाशक्तियों, उभरती शक्तियों और बाकी देशों की मदद की है. इसकी निगरानी में दुनिया की अर्थव्यवस्था बदल गई है. 1960 में अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) दुनिया की GDP का 39.6 प्रतिशत था; 2023 में ये गिरकर 25.7 प्रतिशत हो गया. इसी अवधि के दौरान GDP में चीन का हिस्सा 4.4 प्रतिशत से बढ़कर 16.8 प्रतिशत हो गया; भारत का हिस्सा 2.7 प्रतिशत से बढ़कर 4.0 प्रतिशत हो गया; वहीं यूरोपियन यूनियन (EU) का थोड़ा गिरकर 20.7 प्रतिशत से 17.5 प्रतिशत हो गया. इसके अलावा, ट्रिलियन डॉलर के पैमाने वाली अर्थव्यवस्थाओं के बीच दुनिया में विकास को आगे बढ़ाने वाले देश पूर्व की तरफ बदलकर भारत, चीन और इंडोनेशिया बन गए. किसी भी नई नियम आधारित व्यवस्था के बनने के लिए उसे बदलावों के उद्देश्य से जगह तैयार करनी होगी. 

इन बाहरी घटनाक्रमों से पीछे हटने पर हम जो देखते हैं वो ये है कि पुतिन-शी-ट्रंप की तिकड़ी- जो अब मूल्यों या निष्पक्षता की जगह ताकत से जुड़ी हुई है- अग्रणी देशों के विशेषाधिकार को अपनी निजी जागीर में बदल रही है. तीनों दुनिया को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट रहे हैं. हमारे ग्रह को एक साथ जोड़ने की एक विश्व की आकांक्षा की जगह इन तीनों ताकतों के राष्ट्रीय हितों ने ले ली है. लेकिन एक बिंदु के आगे इसका अनुमान लगाना अदूरदर्शिता होगी. वैश्वीकरण ने पहले ही कई मायनों में दुनिया को जोड़ा है. 

किसने सोचा था कि जिस व्यवस्था का निर्माण अमेरिका ने किया था, उसे वो तोड़ देगा? रूस को स्विफ्ट (SWIFT) सिस्टम से बाहर करना नियम आधारित व्यवस्था के ताबूत में एक और कील ठोकने की तरह था.

अमेरिका का मैकडॉनल्ड और एक्स (जो पहले ट्विटर के रूप में जाना जाता था) उतना ही अंतरराष्ट्रीय है जितना होना चाहिए. इसी तरह भारत का योग एवं मानव पूंजी, दक्षिण कोरिया का सैमसंग टीवी, जापान का इलेक्ट्रॉनिक्स, ताइवान का सेमीकंडक्टर, जर्मनी की कार, सऊदी अरब का तेल और रूस की गैस है. दूसरी तरफ वैश्वीकरण ने विरोधाभासी परिस्थितियां भी उत्पन्न की हैं: इस्लामिक कट्टरपंथियों के लिए क़तर की वित्तीय मदद, हमास और हिज़्बुल्लाह के रूप में ईरान के आतंकी एजेंट, पाकिस्तान के द्वारा आतंक का निर्यात, मेक्सिको के बड़े गैंग और उत्तर कोरिया की परमाणु धमकी.  

यहां तक कि अगर किसी उत्पाद पर एक देश में असेंबल करने का ठप्पा लगा होता है तब भी उनमें कई देशों के सामान लगे होते हैं. आईफोन के सप्लायर 43 देशों के हैं जबकि बीएमडब्ल्यू के 10 देशों के. सेमीकंडक्टर चिप तैयार करने के लिए डिज़ाइन और डेवलपमेंट में अमेरिका एवं इज़रायल, सिलिकॉन के लिए चीन, उत्पादन के लिए ताइवान एवं दक्षिण कोरिया और पैकेजिंग एवं टेस्टिंग के लिए मलेशिया एवं वियतनाम की विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है. एक परमाणु ऊर्जा रिएक्टर के लिए दक्षिण कोरिया, कनाडा, जापान, फ्रांस और जर्मनी जैसे कई देशों से पुर्जों की ज़रूरत होती है; इसका कच्चा माल कज़ाकिस्तान और रूस में उपलब्ध है. 

इस जटिल और वैश्वीकृत दुनिया में किसी एक इकाई के दबदबे की कोई गुंजाइश नहीं है. अगर ट्रंप बहुत दबाव डालते हैं तो ताकत का नया समीकरण शी की तरफ मुड़ने लगेगा. चीन पहले से ही 120 देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. अगर दोनों गलत व्यवहार करते हैं तो बाकी दुनिया कुछ समय के लिए तो सहमत हो जाएगी (अमेरिका का कहना है कि 50 से ज़्यादा देश टैरिफ पर बातचीत के लिए कतार में खड़े हैं) लेकिन वो नए संगठन बनाने और उसे मज़बूत करने के लिए मजबूर होंगे.  

नई असंभावना

इस असंभव दुनिया में नई असंभावना छिपी हुई है. EU, चीन और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौतों से 40 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से बड़े आकार के साझा बाज़ार का निर्माण होगा. इसमें जापान, ऑस्ट्रेलिया और आसियान के देशों को जोड़ दीजिए तो ये बढ़कर 50 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा. इसमें रूस के 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर और सऊदी अरब के 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के व्यापार को भी जोड़ दीजिए तो व्यापार का एक बड़ा हिस्सा पूर्व की तरफ बदल जाएगा. ये इतना बड़ा हो जाएगा कि तकनीकों, ऊर्जा, लोगों और कारखानों को एकजुट करके सामंजस्यपूर्ण व्यापार संधि बनाई जा सकती है. चूंकि अमेरिका ने दबाव बनाने के चीनी मॉडल को अपनाया है, ऐसे में चीन का वर्चस्व और ख़तरा पीछे छूट गया है. अगर अमेरिका व्यापार पर अब भरोसा नहीं करता है तो व्यापार भी अमेरिका पर भरोसा नहीं करेगा. ये अमेरिका के लिए कितना ‘विनाशकारी’ होगा, इस पर किसी और दिन चर्चा हो सकती है.   

इसके अलावा, अगर नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था अब वैध नहीं है, मान लीजिए कि व्यापार की तरफ विश्व व्यापार संगठन (WTO) को अनदेखा करके, तो नई असंभावना के विश्व में सभी दांव बेकार हो सकते हैं. WTO कितना भी पुराना क्यों न हो चुका हो लेकिन इसने व्यापार के संचालन के लिए विश्वास की एक संस्थागत व्यवस्था मुहैया कराई थी; इसमें ताकत के लिए गुंजाइश सीमित थी. लेकिन पहले चीन ने WTO का दुरुपयोग किया और अब अमेरिका इससे अलग हो गया है. ऐसे में इसके नतीजे आने वाले हैं.  

चीन ने जिस बौद्धिक संपदा की चोरी की, अब उसे वैध बनाया जा सकता है. चाइना फर्स्ट को अमेरिका फर्स्ट की तरह ही स्वीकार किया जा सकता है. ये अमेरिका को कहां छोड़ेगा? अगर ये असंभावना कल्पना के हिसाब से मुश्किल है तो इसका जवाब दीजिए: किसने सोचा था कि जिस व्यवस्था का निर्माण अमेरिका ने किया था, उसे वो तोड़ देगा? रूस को स्विफ्ट (SWIFT) सिस्टम से बाहर करना नियम आधारित व्यवस्था के ताबूत में एक और कील ठोकने की तरह था. दुनिया के द्वारा एक वित्तीय कवच और डॉलर के विकल्प की मांग करने के विचार पर ट्रंप का नाराज़ होना और इसे रोकने के लिए ताकत के उपयोग की धमकी देना दिलचस्प है. ये अमेरिका की विदेश नीति को तमाशा बना रहा है. 

अगर नई विश्व व्यवस्था को जन्म देना है तो अतीत की तीन विश्व व्यवस्थाओं की गलतियों को दोहराना नहीं चाहिए. बाकी दुनिया पर इसे थोपने की सभी कोशिशें अल्पकाल में एक नए संतुलन का निर्माण कर सकती हैं लेकिन इतिहास का लंबा दौर ताकत के इस भद्दे प्रदर्शन को बर्दाश्त नहीं करेगा. उसने पहले भी इसे सहन नहीं किया है और आगे भी बर्दाश्त नहीं करेगा. 


गौतम चिकरमाने ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के उपाध्यक्ष हैं.

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