Published on Sep 10, 2020 Updated 28 Days ago

राज्य सरकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बड़े पैमाने पर हर सरकारी स्कूल में ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति करना होगा, जो छात्रों की घरेलू भाषा बोल सकते हों.

नई शिक्षा नीति 2020: ‘शिक्षण का माध्यम’ क्या हो? कुछ महत्वपूर्ण बिंदु

29 जुलाई को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 जारी होने के बाद गहराई से जांच के लिए उठने वाले शुरुआती मुद्दों में से एक था- स्कूलों में ‘शिक्षा का माध्यम.’  शिक्षा नीति में सिफारिश की गई है कि, जहां तक संभव हो शिक्षा के माध्यम के रूप में 5वीं कक्षा तक मातृभाषा /घर की भाषा /स्थानीय भाषा /क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग किया जाए और 8वीं कक्षा व  उसके बाद की शिक्षा में भी इसकी पूरी कोशिश की जाए. इस सुझाव की तीखी आलोचना हुई. हालांकि, यह सुझाव पिछली दो शिक्षा नीतियों में अपनाई गई बातों का ज़्यादा परिष्कृत रूप है. यह इस तथ्य को मान्यता देता है कि किसी ख़ास इलाक़े में स्थानीय भाषा राज्य की क्षेत्रीय भाषा से अलग हो सकती है. उदाहरण के लिए, कर्नाटक की सीमा से लगे कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्रों में मराठी स्थानीय भाषा है, जबकि कन्नड़ क्षेत्रीय भाषा. इसी तरह, बच्चे की मातृभाषा घरेलू भाषा से अलग हो सकती है (अगर माता-पिता दोनों की मातृभाषा अलग है और वे बातचीत के लिए किसी तीसरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं). इस तरह ये चारों भाषाएं- स्थानीय, क्षेत्रीय, मातृभाषा और घर में बोली जाने वाली भाषा- कुछ बच्चों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं. इसलिए शिक्षा नीति में मुख्य रूप से राज्य सरकारों द्वारा जहां तक संभव हो राज्य में बोली जाने वाली सभी भाषाओं में शिक्षा दिए जाने की सिफारिश की गई है.

शिक्षा नीति में मुख्य रूप से राज्य सरकारों द्वारा जहां तक संभव हो राज्य में बोली जाने वाली सभी भाषाओं में शिक्षा दिए जाने की सिफारिश की गई है.

पहले की दो नीतियों के आधार पर अब तक के चलन, क्षेत्रीय भाषा को पूरे राज्य में शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने का मतलब है कि लगभग 20 भाषाओं को पढ़ाया जा रहा है, और देश की काफी ज़्यादा समृद्ध भाषाई विविधता की अनदेखी की जा रही है. इस चलन ने लगातार खराब सीखने के नतीजों में बढ़ोत्तरी ही की है जो कि हर साल एएसईआर की रिपोर्ट में बताया जा रहा है. अब यह अच्छी तरह से पता चल चुका है कि अगर बच्चों को किसी ऐसी भाषा में पढ़ाया जाता है, जो उनकी घरेलू भाषा नहीं है या जिसे वे नहीं समझते हैं, तो सीखने पर नकारात्मक असर पड़ता है.

घरेलू भाषा में शुरुआती शिक्षा: बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान प्राप्त करना

आम लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर यह ज़ाहिर किया डर यह था कि एनईपी 2020 सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को ख़त्म करने का प्रयास कर रहा है. इसके उलट, शिक्षा नीति बच्चों में भाषा अधिग्रहण पर वैज्ञानिक शोध के नतीजों को ध्यान में रखते हुए, भाषा सीखने और पढ़ाई के माध्यम के मुद्दे पर एकदम स्पष्ट और सुविचारित रुख़ अपना रही है. बच्चे अपने मां-बाप, दूसरे वयस्कों और बच्चों के साथ बातचीत के माध्यम से भाषा सीखते हैं. एक बच्चे के लिए एक ही समय में दो या अधिक भाषाओं का सीखना काफी आसान है, अगर वे उन भाषाओं के बोलने वालों के साथ नियमित रूप से बातचीत करते हों. हाल का शोध यह भी संकेत देता है कि बच्चे के लिए 10 साल की उम्र से दूसरी भाषा सीखना शुरू करना सबसे बेहतर है, अगर वह मूल वक्ता जैसी सही व्याकरणिक महारत हासिल करना चाहता है.

बच्चों द्वारा भाषा सीखने के बारे में इन जानकारियों ने डॉ. के. कस्तूरीरंगन समिति (ड्राफ्ट एनईपी 2019 ) और भारत सरकार को एनईपी 2020 में पिछली दो शिक्षा नीतियों में अपनाए गए तीन-भाषा फार्मूला को जारी रखने की सिफारिश करने के लिए प्रेरित किया, लेकिन साथ ही दो बहुत महत्वपूर्ण बदलाव भी किए गए: पहला, यह कि तीन-भाषाओं को ज़्यादा शुरुआती दौर में शामिल किया जाए- 3-8 साल की उम्र के बुनियादी चरण के दौरान, और इसे 8-11 वर्ष की प्रारंभिक अवस्था में भी आगे ले जाया जाए- जिससे कि छोटे बच्चे कई भाषाओं में महारत हासिल कर सकें; दूसरा, यह कि तीन भाषाओं का विकल्प पूरी तरह से माता-पिता और विद्यार्थियों पर छोड़ दी जाए.

शिक्षा के माध्यम और भाषा सीखने के बारे में ये सिफारिशें एनईपी 2020 के प्रमुख घोषित लक्ष्यों में से एक से जुड़ी हैं, ग्रेड 5 तक के सभी बच्चों के लिए बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान सुनिश्चित करना ताकि एएसईआर रिपोर्ट में खराब परिणामों को दुरुस्त किया जा सके. बच्चों को कम से कम छह साल की उम्र तक उस भाषा में शिक्षा देने, जिसे वो समझते हैं, की ज़रूरत का समर्थन करने वाले पूरे साक्ष्य हैं, लेकिन भारत ने अभी तक इस साक्ष्य पर ध्यान नहीं दिया है. आज बहुत से बच्चे प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा के माध्यम के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को नहीं समझते हैं (भले ही वह भाषा क्षेत्रीय हो या अंग्रेज़ी), और उनकी सीखने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है. यह बाधा उनके साथ बनी रहती है क्योंकि शिक्षक लगातार शुरुआती पढ़ाई से आगे ही पढ़ा रहे होते हैं. बहुत जल्द कुछ ही महीनों के भीतर, छात्र पिछड़ जाते हैं और वे साक्षरता और संख्या ज्ञान को समझ नहीं पाते हैं.

राज्य सरकारों और शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका

ड्राफ्ट एनईपी 2019 में यह भी सुझाव दिया गया है कि अंग्रेज़ी को सभी बच्चों को तीन भाषाओं में से एक के रूप में अच्छी तरह से पढ़ाया जाना चाहिए, क्योंकि अंग्रेज़ी की पढ़ाई भारत में सभी की ख़्वाहिश है, और छात्रों को धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने के फ़ायदों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए. यह भी सिफारिश की गई है कि विज्ञान और गणित जैसे विषयों को अंग्रेज़ी और घरेलू दोनों भाषाओं में पढ़ाया जाए. यूरोप में जर्मनी जैसे गैर-अंग्रेज़ी भाषी देशों के कई उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि यह रणनीति काम करती है और यह कि छात्र पूरी तरह से द्वि-भाषी बन सकते हैं, जिससे उन्हें बाद की ज़िंदगी में कई फ़ायदे होते हैं. बेशक यह चुनौती है कि बहुभाषी शिक्षा महंगी है. इसमें ऐसे शिक्षकों की ज़रूरत होती है जो द्वि-भाषी हों और दोनों भाषाओं में सामग्री को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित हों, जो कि काफी हद तक अभी उपलब्ध नहीं हैं.

ड्राफ्ट एनईपी 2019 में यह भी सुझाव दिया गया है कि अंग्रेज़ी को सभी बच्चों को तीन भाषाओं में से एक के रूप में अच्छी तरह से पढ़ाया जाना चाहिए, क्योंकि अंग्रेज़ी की पढ़ाई भारत में सभी की ख़्वाहिश है, और छात्रों को धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने के फ़ायदों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए.

इस तरह, राज्य सरकारों पर ज़िम्मेदारी डाली गई है कि वह राज्य के सरकारी स्कूलों में अलग-अलग समुदायों की ज़रूरतों को पूरा करने वाले हर स्कूल के हिसाब से शिक्षा के माध्यम को अलग-अलग करे, और यह सुनिश्चित करे कि सभी स्कूलों में अंग्रेज़ी अच्छी तरह से पढ़ाई जा रही है. यह सचमुच राज्य सरकारों द्वारा लागू किया जाने वाला एक बड़ा सुधार है, और देखा जाना बाकी है कि वे कितनी अच्छी तरह से अमल करती हैं. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भोजपुरी, अवधी और खड़ी बोली के अलावा कई भाषाओं में पढ़ाने के लिए शिक्षक जुटाने होंगे, बल्कि हिंदी के साथ द्वि-भाषी पढ़ाई भी करनी होगी, जो कि फिलहाल पढ़ाई का माध्यम है.

राज्य सरकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बड़े पैमाने पर हर सरकारी स्कूल में ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति करना होगा, जो छात्रों की घरेलू भाषा बोल सकते हों. यहां एक और पेच है. मौजूदा व्यवस्था में शिक्षक का पद तबादला का है. शिक्षकों की भर्ती की जाती है और उन्हें राज्य स्तर पर नियुक्त किया जाता है और तय अवधि के लिए राज्य भर के तमाम स्कूलों में तैनात किया जाता है. शिक्षकों की भर्ती और नियुक्ति राज्य स्तर पर की जाती है और तय अवधि के लिए राज्य भर के किसी भी स्कूल में नियुक्त किया जाता है. इसका मतलब यह है कि शिक्षकों की उन स्कूलों में तैनाती की जाती है जहां छात्र की घरेलू भाषा उस भाषा से अलग होती है, जो शिक्षक बोलता है और जिस भाषा में पढ़ाता है. यह स्थिति ख़ासकर राज्यों के सीमावर्ती इलाक़ों में या राज्यों के अंदरूनी और जनजातीय इलाक़ों में आती है. शिक्षक का तबादला भी छोटे बच्चों को अपने शिक्षकों के साथ संबंध बनाने में दिक्कत पैदा करता है, यह ऐसी बात है जो उनके सीखने के लिए ज़रूरी है.

आदर्श स्थिति तो यह है कि शिक्षकों को स्थानीय स्तर पर काम पर रखा जाए और असाधारण मामलों को छोड़कर किसी का तबादला नहीं होना चाहिए. एनईपी 2020 ने सुझाव दिया है कि शिक्षक भर्ती जिला स्तर पर की जाए और शिक्षकों की नियुक्ति स्कूल परिसर में की जाए. हालांकि, इस सिफारिश को लागू करने के लिए गहरी राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत होगी, और यह देखना बाकी है कि राज्य सरकारें ऐसी इच्छाशक्ति दिखाती हैं या नहीं. स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई से स्थानीय समुदायों द्वारा अर्जित पारंपरिक ज्ञान और टिकाऊ  प्रथाओं का स्कूल द्वारा विस्तार किया जा सकता है. नहीं तो ऐसे ज्ञान के ख़त्म हो जाने का ख़तरा है.

शिक्षा नीति की सिफारिशों को स्वीकार करने, शिक्षकों को सही तरीके से प्रशिक्षित करने और नियुक्ति करने और बहुभाषी शिक्षा के लिए धन और संसाधन उपलब्ध कराना- ये ऐसी बातें हैं जिससे बच्चों के सीखने के नतीजों पर सबसे अधिक असर पड़ेगा.

निष्कर्ष

अगर राज्य सरकारें अलग भाषाओं में शिक्षा के माध्यम के रूप में शिक्षण प्रदान करने में सक्षम हों तो भी देश की भाषाई विविधता को देखते हुए बहुत मुमकिन है कि लाखों बच्चे ऐसी भाषाओं में दी जाने वाली कक्षाओं में शामिल होते रहेंगे, जो उन्हें समझ में नहीं आती है. शहरी क्षेत्रों में चुनौती और बड़ी होगी, जहां कोई प्राथमिक स्कूल, चाहे सरकारी हो या निजी, ऐसे बच्चों का दाख़िला ले रहा होगा जिनकी घरेलू भाषाएं अलग-अलग हैं. इन हालात में अंग्रेज़ी को शिक्षा के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करना बेहतर हो सकता है, क्योंकि बच्चे के लिए क्षेत्रीय भाषा भी अंग्रेजी की ही तरह विदेशी है. माता-पिता द्वारा अंग्रेज़ी माध्यम का चुनाव करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा यह तर्क है, और इसी तर्क को केंद्रीय विद्यालय व दूसरे स्कूलों द्वारा अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा देने के लिए आगे बढ़ाया जा रहा है. ऐसे सभी मामलों में, बच्चों को कुछ भी सिखाने की कोशिश करने से पहले, बच्चों को लगातार बातचीत के माध्यम से भाषा सीखने में मदद करने के लिए अतिरिक्त प्रयासों की ज़रूरत होगी. इन चुनौतियों पर काबू पाना आसान नहीं हैं.

आगे बढ़ने के लिए राज्य सरकारों की कार्रवाई महत्वपूर्ण होगी- शिक्षा नीति की सिफारिशों को स्वीकार करने, शिक्षकों को सही तरीके से प्रशिक्षित करने और नियुक्ति करने और बहुभाषी शिक्षा के लिए धन और संसाधन उपलब्ध कराना- ये ऐसी बातें हैं जिससे बच्चों के सीखने के नतीजों पर सबसे अधिक असर पड़ेगा. बच्चों के माता-पिता के लिए अपनी ओर से बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान प्राप्त करने के महत्व को समझने की ज़रूरत है. उन्हें अपने बच्चों को धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला बनाने के लिए स्कूलों की ज़िम्मेदारी के बारे में भी पता होना चाहिए, भले ही यह शिक्षा का माध्यम हो या नहीं.

लेखिका डॉ. के कस्तूरीरंगन समिति के तकनीकी सचिवालय की सदस्य थीं और राष्ट्रीय शिक्षा नीति मसौदा समिति 2019 की मसौदा समिति की भी सदस्य थीं.

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