Author : Vinayak Dalmia

Published on Jan 04, 2018 Updated 0 Hours ago

पर्यावरण आज एक अच्छी राजनीति हो गया है। भारत के लिए यह समय प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों नजरिये से हरित एजेंडे के अनुकरण का है।

दूसरे चिपको आंदोलन की जरूरत

गुड़गांव में कोहरा, दिसंबर 2017

पीटीआई

हाल ही में, नई दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में श्रीलंका और भारत के बीच होने वाले क्रिकेट मैच को तीन बार रोक देना पड़ा। इसकी वजह बेमौसमी बरसात अथवा खराब प्रकाश व्यवस्था नहीं थी, जैसी की खेल के स्थगित होने की आम वजह होती है। लेकिन इस समय खेल रोकने की असल वजह थी-दिल्ली में प्रदूषण का ऊंचे स्तर पर पहुंचना। श्रीलंकाई टीम किसी तरह अपने को बचाने की जद्दोजहद में लगी थी — न केवल पूरी तरहं से हावी भारतीय क्रिकेट टीम के साथ खेल में प्रदर्शन को लेकर बल्कि भारी प्रदूषण की मार के चलते भी वह दोहरे संकट में थी। अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को मैदान में मास्क लगा कर खेलते देखा गया।

इस शरद ऋतु की हवा में एक किस्म का तनाव है। अभी दीपावली पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने पटाखों की बिक्री को प्रतिबंधित कर दिया था। शरद ऋतु की शुरुआत ही हुई थी और उत्तर भारत कोहरे की चादर में ढंक गया। इसी तरह, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ऑड-ईवन योजना भी विवादों में घिर गई है। इसी बीच, पीएम लेवल खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है, बच्चों ओैर बुजुर्गों को स्थायी रूप से फेफड़े की बीमारी से ग्रस्त होने का जोखिम बढ़ गया है, प्रदूषण से बचाव के लिए स्कूल बंद किये जा रहे हैं और मास्क और हवा को शुद्ध करने वाले यंत्रों की बिक्री आसमान छू रही है।

ग्लोबल कॉर्बन बजट-2017 के मुताबिक भारत में इस साल रिकार्ड 2 फीसद कॉर्बन-उत्सर्जन की उम्मीद है।

एक महीने के भीतर, एक राष्ट्र और एक राजधानी के रूप में हमने अपने प्रदूषित वातावरण का हल निकालने की कोशिश की है। घरेलू स्तर पर छोटे पटाखों के उपयोग को प्रतिबंधित करना,पंजाब व हरियाणा में खेतों में पराली जलाने पर रोक लगाने या वाहनों द्वारा विषैली गैस के उत्सर्जन से फैलते प्रदूषण को सीमित करना, ये सब वैसी ही कोशिशें हैं। कुछ अध्ययनों व अनुमानों के मुताबिक दिल्ली का पर्यावरण दूषित करने में सड़क से उड़ने वाली धूल का 38 फीसदी योगदान है तो 20 फीसदी प्रदूषण वाहनों द्वारा छोड़ी जाने वाली गैसों से फैलता है।

प्रदूषण से कैसे निजात पाई जाए; इसके लिए मुख्य धारा के मीडिया में हाल के समय में कई तरह के प्रस्ताव देखने को मिले हैं। द इकोनोमिस्ट ने हाल के अपने अंक में दक्षिण एशिया में प्रदूषण को लेकर काफी चिंताएं जाहिर की हैं।

उत्तर (और मध्य) भारत सांस लेने के लिए जूझ रहा है। अभी के समय में यहां ताजा हवा में सांस लेना तक दूभर है। नागरिक समाज और नागरिक पर्यावरण संबंधी मसले का हल निकालने में अहम भूमिका निभा सकते हैं और वे निभाते भी है, लेकिन इसमें संस्थानों-राजनीतिक प्रतिष्ठान और कार्यपालिका-दोनों की भूमिकाएं ज्यादा मायने रखती हैं। पर्यावरण की परवाह करना अब एक अच्छी राजनीति और अच्छी शासन-प्रणली दोनों की परिचायक हो गई है।

अगर दिल्ली की दूषित हवा राष्ट्रीय मानक 40 के स्तर तक साफ हुई तो लोगों की जीवन प्रत्याशा की आयु छह साल और बढ़ जाएगी।

पहला, इसलिए कि भारत को प्रदूषण के चलते बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। लान्सेट आयोग ने अपने एक अध्ययन में पाया कि 2015 में 2.51 मिलियन (लगभग 25 लाख) लोग केवल प्रदूषणजनित रोगों के चलते मौत के आगोश में समा गए। प्रदूषणजनित बीमारियों से सर्वाधिक मौतों वाले देशों में भारत शीर्ष पर है और अन्य मौतों के मामलों में 25 फीसदी की वजह प्रदूषण ही है। इसके अलावा, विश्व बैंक की रिपोर्ट-2013 में कहा गया है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) का 8.5 फीसदी सामाजिक कल्याणों पर खर्च करने और मजदूरों की आय न होने का नुकसान उठाना पड़ता है। देश की राजधानी दिल्ली में ही पीएम2 का वाषिर्क औसत विश्व बैंक के मानक 10 की तुलना में 14 गुना ज्यादा यानी 143 तक रहता है। लेकिन प्रदूषण के चलते बच्चे समय के पहले ही दमा से पीड़ित हो रहे हैं, गर्भवती स्त्रियां कम वजन के और वह भी स्थायी रूप से बीमार बच्चों को जन्म दे रही हैं तो देश की बुजुर्ग आबादी गंभीर व्याधि की शिकार हो रही है।

योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया भी कहते हैं कि विश्व के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में 11 नगर भारत के ही हैं। आने वाले कुछ दशकों में शहरीकरण के विस्तार के प्रति निवेशकों और पर्यटकों को आकर्षित करने में हमें हमारे नगरों को अधिक से अधिक रहने योग्य बनाने की जरूरत है। राजधानी दिल्ली को बेहतर बनाने के बारे में पूर्व उपाध्यक्ष के पास कई उपयोगी विचार और सुझाव हैं।

दूसरी, इसलिए कि प्रदूषण अब लोक विमर्श का हिस्सा हो गया है। भारतीय (कम से कम शहरी) इस मसले पर अपने सरोकार जताने लगे हैं। सोशल मीडिया पर प्रदूषण के बारे में रोषपूर्ण प्रतिक्रियाएं और कसे जाने वाले तंज लोगों की नब्ज का सही पता देते हैं। 2015 में प्यू रिसर्च रिपोर्ट ने यह खुलासा किया कि 73 फीसदी लोग वैश्विक जलवायु परिवर्तन को लेकर ‘बेहद चिंतित’ थे। फिर, 2016 की रिपोर्ट में भी मिले-जुले स्वर सुनने को मिले थे-73 फीसदी शहरवासी और 65 फीसदी ग्रामीण भारत के लोगों ने प्रदूषण को ‘बहुत बड़ी समस्या’ माना था। 47 फीसदी लोग साफ हवा के लिए आर्थिक संवृद्धि के कार्यक्रमों से भी परहेज़ करने के लिए तैयार थे। इसी तरह, 2011 में नील्सन द्वारा अलग से कराये अध्ययन में 90 प्रतिशत भारतीय हवा-पानी के प्रदूषण को लेकर चिंतित थे जबकि 80 प्रतिशत लोगों की राय थी कि जलवायु परिवर्तन एक ‘महत्वपूर्ण मसला’ है।

यद्यपि समस्या न तो नई है और न ही इस पर बहस कोई पहली बार हो रही है, लेकिन अब इतना हुआ है कि प्रदूषण का मुद्दा लोक संज्ञान और बाह्य जगत दोनों के सरोकारों में शामिल हो गया है।

अब जबकि राजनीतिक पार्टियां शहरी भारत में चुनाव के लिए तैयार हो रही हैं, हरित घोषणापत्र तैयार करने की आवश्यकता है। जैसा कि कहा जाता है कि यह न केवल नैतिक रूप से बाध्यकारी है बल्कि युक्तिसंगत भी है। यह देखा गया है कि बड़ी पार्टियों के हालिया घोषणापत्रों में हरित एजेंडे को प्रमुखता से जगह नहीं दी गई है। आगामी 2019 के चुनाव यह बदलाव होना चाहिए या उसके बाद होने वाले चुनावों में वैसा परिवर्तन देखने को मिले। किंतु यह जरूरी है कि राजनीतिक पार्टियां शहरी भारत के पर्यावरण के मसले पर एक अलग विजन-डॉक्यूमेंट लाएं। इधर के दिनों में राजनीतिक पार्टियों के कार्यक्रमों को देखते हुए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि कम से कम शहरों में उनके प्रचार का अहम केंद्र बिंदु पर्यावरण होगा। इस संभावित बदलाव की झलक अपेक्षाकृत नई राजनीतिक पार्टियों के दस्तावेजों में मिल सकती है। यद्यपि पश्चिमी देश समझौते के दोहरे मानदंडों की वजह से पीड़ित होते हैं, लेकिन इनसे कुछ सबक सीखे जा सकते हैं। अमेरिका में चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों से उम्मीद की जाती है कि वह पर्यावरण के मसले पर अपना रुख स्पष्ट करें। पूर्व राष्ट्रपति अल गोरे ने तो पर्यावरण की चिंताओं के इर्द-गिर्द ही अपना सारा चुनावी अभियान चलाया था और इस विषय पर एक नैरेटिव विकसित किया था। ब्रिटेन में तो बाकायदा एक ग्रीन पार्टी ही है, हालांकि इसको सीमित सफलता मिलती रही है।

भारत में प्रशासनिक और कार्यपालिका दोनों स्तर पर हरित कार्ययोजना (ग्रीन रोडमैप) बनाने की जरूरत है। पहला, नीति आयोग यूएनडीपी के शताब्दी विका।

स लक्ष्य की तर्ज पर भारत के लिए भी एक हरित लक्ष्य तय कर सकता है। हालांकि शहरों में वायु प्रदूषण एक प्रमुख दोषी है, ऐसे में इसको दूर करने के लिए न केवल उपाय करने की जरूरत है बल्कि समग्रता में समस्या के समाधान के लिए अभियान शुरू करने की दरकार है। दूसरे, राष्ट्रीय हरित अभिकरण (एनजीटी) को पुनगर्ठित करने की जरूरत है। उसे वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदें और कुछ अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों से लैस किया जाना चाहिए।

कुछ लोगों का सुझाव है कि भारत को भी अमेरिका की एन्वायरमेंटल संरक्षा एजेंसी (ईपीए) की तर्ज पर एक संघीय हरित अभिकरण (एजेंसी) का गठन करना चाहिए। इस दिशा में सरकार के कुछ फैसले स्वागतयोग्य हैं-जैसे 2030 तक केवल बिजली आधारित वाहनों के उपयोग की तैयारी।

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स्त्रोत: पीटीआई

इस संदर्भ में, अन्य देशों द्वारा पर्यावरण-सुधार की दिशा में लिये निर्णयों का अध्ययन करने की जरूरत है। अभी कुछ साल पहले तक, दिल्ली की तुलना में चीन से सबसे ज्यादा प्रदूषित था, लेकिन 2010-15 तक के आंड़े चीन में एफपीएम में 17 फीसदी की गिरावट दर्शाते हैं,जबकि इसी अवधि में भारत में 13 फीसदी की बढ़ोतरी दिखाते हैं। इसके अलावा, मैरीलैंड विविद्यालय द्वारा कराये गए अध्ययन से जाहिर होता है कि चीन में सल्फर डॉयऑक्साइड (एसओ2) में 75 फीसदी की गिरावट आई है जबकि भारत में यह 50 फीसदी तक बढ़ा है। चीन ने तो कच्चे कोयले से चलने वाली बिजली उत्पादन की इकाइयों में सल्फर के उपयोग को नियंत्रित कर लिया जबकि भारत में कुछेक मामलों में (मौलिक नियमन-2015 में लाया गया) इस उपाय को 2022 तक निलंबित कर दिया गया है। प्रदूषण नियंत्रण के लिए चीन द्वारा किये गए और किये जाने वाले उपायों के बारे में भारत के एकअग्रणी अखाबार ने प्रमुखता से छापा है।

हरे-भरे पर्यावरण की लड़ाई में हम राजनीतिक चौहद्दी को चिह्नित किये जाने के शुरुआती संकेत को देख रहे हैं। अनेक प्रस्तावों पर काम किये जा रहे हैं। नागरिकों को ‘ताजा हवा का हक’ सुनिश्चित करने के लिए लाये गए एक सांसद द्वारा निजी हैसियत से पेश किये विधेयक पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में उत्तर भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक कमेटी बनाई गई है। इसके अतिरिक्त, एक आरटीआई सूचना में खुलासा हुआ है कि 787 करोड़ रुपये का ग्रीन फंड दिल्ली सरकार द्वारा बनाया गया है। कहने का आशय यह कि पर्यावरण का मसला मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के विचार-विमर्श में धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है और इस वसंत ऋतु में हमने अभी तक कोई बुरी खबर नहीं सुनी है।

फैलते शहरीकरण के साथ आर्थिक विकास भारत के ग्रीन रिपोर्ट कार्ड पर बेतहाशा दबाव डालेगा। और राजनीतिक नेताओं और प्रशासकों को संतुलन बिठाने की कला में निपुण होना होगा।

भारत को सतत विकास के साथ तेज गति वाले जीडीपी वृद्धि की जरूरत होगी। विकासशील देश जो बेरोजगारी और गरीबी की लगातार दोहरी मार झेल रहा है कि पर्यावरण चिंताओं का तेज गति से व्यापक स्तर पर होते औद्योगिकीकरण के साथ संतुलन बिठाने की आवश्यकता है।

प्रदूषण से निजात दिलाने के लिए कुछ कदम उठाये जाने की बाबत की जाने वाली एक अधीर अपील के परिप्रेक्ष्य में एक हालिया प्रकाशित आलेख बताता है कि कैसे भारत ‘कई टाइम बमों’ के ऊपर बैठा हुआ है और किस तरह उसका रास्ता आत्म विध्वंस की तरफ जाता है। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण ने हमें अपने और देश के भविष्य के बारे में चिंतित होने की सबसे बड़ी वजह दी है। हम उस समय से बहुत आगे बढ़ आए हैं, जब कुछेक साल पहले एक अमेरिकी पत्रकार ने दिल्ली से कूच करने के अपने फैसले को इसका प्रदूषण की राजधानी होना अहम वजह बताया था। हममें से बहुतों ने इस पर अपमानित महसूस किया था।

यह गौरतलब है कि हरेक भारतीय को संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन जीने का अधिकार है और स्वच्छ वातावरण इस अधिकार का हिस्सा है। प्रदूषण की उपेक्षा करना न केवल व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है बल्कि बड़ी आर्थिक, मानवीय और राजनीतिक कीमत को चुकाना भी है। भारतीय वोटर चाहते हैं कि पर्यावरण के प्रति जागरूक राजनीतिक भी प्रदूषण के खिलाफ मिशन में शामिल हों। लेकिन इस समय, चिंताएं वास्तविक होनी चाहिए, राजनीतिक दलों के घोषणापत्र तथ्यपरक होना चाहिए और उनमें प्रदूषण के खिलाफ कार्रवाई का संजीदगी से वादा किया गया हो।

1970 के दशक में शुरू किया गया चिपको आंदोलन’ ने न केवल देश में पर्यावरण रक्षा को लेकर अग्रणी साबित हुआ था बल्कि विश्व में भी उसने शीषर्स्थ भूमिका अदा की थी। उसी तरह, आज राजनीतिक दलों की अगुवाई में ही चिपको आंदोलन का दूसरा चरण शुरू करने की जरूरत है।

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