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Published on Jul 03, 2024 Updated 0 Hours ago

सार्वजनिक तौर पर अफ़गानिस्तानी आतंकी संगठनों से निपटने को लेकर तालिबान की हिचकिचाहट अथवा असमर्थता की वजह से ही आतंकवाद विरोधी सहयोग को लेकर भारत-रूस के बीच नज़दीकियां बढ़ गई है.

अफ़गानिस्तान में रूस और भारत: आतंकी ख़तरे से कैसे निपटा जाये, क्या हो इसकी रणनीति?

मार्च, 2024 में मॉस्को के क्रोकस सिटी सेंटर पर कथित रूप से इस्लामिक स्टेट ऑफ़ खुरासान प्रोविंस (ISKP) द्वारा किए गए आतंकी हमले के बाद से ही मॉस्को ने अफ़गानिस्तान को आतंकी आश्रयस्थल या शरणस्थली के रूप में एक बार फिर से उभरने से रोकने के प्रयास तेज़ कर दिए हैं. ऐसा करने का एक तरीका, जैसे कि रूस की ओर से की गई कार्रवाई से साफ़ हो जाता है, यह है कि तालिबान के साथ सहयोग को बढ़ाया जाए. हाल ही में रूस के विदेश मामलों के मंत्रालय और रूसी न्याय मंत्रालय ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को एक प्रस्ताव भेजकर तालिबान को आतंकी संगठनों की सूची से बाहर करने को कहा है. तालिबान इस सूची में 2003 से शामिल है. चूंकि अफ़गानिस्तान से उभरने वाले आतंकवाद को लेकर भारत और रूस आपस में सहयोग करते हैं, अत: अफ़गानिस्तान में हो रही नई गतिविधियों और आतंकवाद विरोधी मोर्चे पर भारत और रूस के आपसी सहयोग को समझना महत्वपूर्ण हो गया है.

 काबुल की शिकस्त के बाद से ही तालिबान के साथ रूस सहयोग कर रहा है. काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बावजूद रूसी राजनायिक काबुल में रुके रहे और उसका दूतावास भी काम करता रहा था.

अपने हितों की रक्षा

 

आतंकी सूची से तालिबान को हटाने का रूस का फ़ैसला भले ही अचानक न लिया गया हो, लेकिन इसे ‘लिमिटेड रिस्क’ यानी ‘सीमित ख़तरे’ का परिदृश्य माना जा रहा है. चूंकि तालिबान अब भी UN सुरक्षा परिषद की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों का सामना कर रहा है, अत: रूस का यह कदम तालिबान को मान्यता तो नहीं देता. लेकिन यह फ़ैसला लेने का मॉस्को का उद्देश्य तालिबान संचालित इस्लामिक अमीरात से नज़दीकी बढ़ाना या उनकी नज़रों में अच्छा बनकर इसका फ़ायदा उठाना है. काबुल की शिकस्त के बाद से ही तालिबान के साथ रूस सहयोग कर रहा है. काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बावजूद रूसी राजनायिक काबुल में रुके रहे और उसका दूतावास भी काम करता रहा था. अगस्त 2022 में ही मॉस्को ने तालिबान नियुक्त राजनायिक को अधिस्वीकृति प्रदान की थी और अब इस वर्ष फरवरी में उसने एक मिलिट्री ऐटशे/अताशे यानी सैनिक सहकारी को भी स्वीकार कर लिया है. रूस ने तालिबान को 2021 तथा 2022 में मॉस्को फार्मेट कंसलटेशन/वार्ता के लिए भी न्यौता दिया था. इसी प्रकार 2022 और 2024 में हुए सेंट पीटर्सबर्ग इंटरनेशनल इकोनॉमिक फोरम में भी दो बार उसे न्यौता दिया गया था. एक विशेष दूत ने इस बात के भी संकेत दिए है कि यदि काबुल को मान्यता मिल गई तो उसे शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में भी जगह दी जा सकती है. 

 

2023 में जारी अपनी विदेश नीति की अवधारणा में रूस ने यह साफ़ कर दिया है कि वह दीर्घ-अवधि में अफ़गानिस्तान को यूरेशियाई इलाके में सहयोग करने के लिए जोड़ना चाहता है. अत: तालिबान की ओर हाथ बढ़ाने के मॉस्को के फ़ैसले के पीछे एक मजबूत भूआर्थिक कारण भी छुपा हुआ है. इस समूह को आतंकी सूची से हटाने के फ़ैसले के पश्चात दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों का रास्ता साफ़ हो सकता है. उज़्बेकिस्तान-अफ़गानिस्तान-पाकिस्तान रेलरोड और अफ़गान सेक्टर में आने वाली तुर्कमेनिस्तान-अफ़गानिस्तान-पाकिस्तान-भारत गैस लाइन जैसी परियोजनाओं से अफ़गानिस्तान में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है. इसकी वजह से क्षेत्रीय कनेक्टिविटी में इज़ाफ़ा होगा और आतंकी घुसपैठ को रोकने के लिए सीमा पर बेहतर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. मॉस्को के लिए एक स्थिर अफ़गानिस्तान एक फायरवॉल यानी संरक्षण दीवार का काम करेगा, जो आतंक को मध्य एशिया में फ़ैलने और अंतत इसे रूस में पहुंचने से रोकेगा.

 

भारत ने जून 2022 से ही काबुल के अपने दूतावास में एक तकनीकी टीम को तैनात कर रखा है. इस समूह के साथ नई दिल्ली की बातचीत भी बढ़ गई है. मार्च 2024 में ही भारतीय अधिकारियों ने IEA के कार्यवाहक/प्रभारी FM से सहायता के प्रावधान अफ़गानी कारोबारियों द्वारा चाबहार बंदरगाह के उपयोग को लेकर एक बैठक की थी. अफ़गानिस्तान चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंवेस्टमेंट और इंडियन पोर्ट्‌स ग्लोबल लिमिटेड के बीच भी एक ऑनलाइन बैठक हुई, जिसमें अफ़गानी कारोबारियों द्वारा चाबहार बंदरगाह के उपयोग को लेकर चर्चा की गई. तालिबान की ओर से नियुक्त राजनायिकों को भारत ने अभी मान्यता नहीं दी है. तालिबान की ओर से नियुक्त राजनायिकों को भारत ने अभी मान्यता नहीं दी है. दूसरी ओर पिछली अफ़गान सरकार यानी अफ़गान रिपब्लिक दौर के राजनायिक और मुंबई के कौंसुल जनरल/ महावाणिज्यदूत त्यागपत्र दे चुके हैं.

 भारत ने तालिबान पर ही आतंक से निपटने की ज़िम्मेदारी डाल दी है. भारत अपने ख़िलाफ़ काम करने वाले आतंकी समूह लश्कर-ए-तैयबा (LeT) तथा जैश-ए-मोहम्मद (JeM) तथा अंतरराष्ट्रीय आतंकी समूहों को अपनी सुरक्षा और रणनीतिक हितों के लिए बड़ा ख़तरा मानता है.

भारत ने तालिबान से महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा करने के साथ ही सर्वसमावेशक सरकार के गठन की आवश्यकता पर बल देकर यह साफ़ कर दिया है कि अफ़गानिस्तान का उपयोग आतंकी समूहों की शरणस्थली के रूप में नहीं होना चाहिए. ऐसे में भारत ने तालिबान पर ही आतंक से निपटने की ज़िम्मेदारी डाल दी है. भारत अपने ख़िलाफ़ काम करने वाले आतंकी समूह लश्कर-ए-तैयबा (LeT) तथा जैश-ए-मोहम्मद (JeM) तथा अंतरराष्ट्रीय आतंकी समूहों को अपनी सुरक्षा और रणनीतिक हितों के लिए बड़ा ख़तरा मानता है. अफ़गानिस्तान में LeT और JeM की मौजूदगी और जम्मू और कश्मीर को अस्थिर करने की उनकी क्षमता को लेकर आशंका ही भारत की मुख्य चिंता है. एनालिटिकल सपोर्ट एंड सैंक्शंस मॉनिटरिंग टीम ने अपनी 13 वीं रिपोर्ट में कहा था कि JeM अफ़गानिस्तान में प्रशिक्षण शिविर चला रहा है. इसमें से कुछ शिविर सीधे तालिबान के नेतृत्व में चल रहे है. इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि तालिबानी ऑपरेशंस को LeT ही वित्तपोषण और प्रशिक्षण में सहायता उपलब्ध करवा रहा है. नई दिल्ली के लिए मध्य एशियाई लोकतांत्रिक देशों तक पहुंच बनाने के लिए भी अफ़गानिस्तान की स्थिरता आवश्यक है.

 

आतंकवाद का शरण स्थल?

 

विगत ढाई वर्षों में अफ़गानिस्तान की सत्ता संभाल रहा इस्लामिक अमीरात, दोहा समझौते के तहत अफ़गानिस्तान को आतंकवाद का शरणस्थल बनने से रोकने के अपने वादे पर ख़रा नहीं उतरा है. इसी प्रकार अफ़गानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय आतंकी हमलों की योजना बनाने का स्प्रिंगबोर्ड यानी अड्डा बनने से रोकने के वादे पर भी इस्लामिक अमीरात ख़रा नहीं उतरा है. जनवरी 2024 में जारी UN एनालिटिकल सपोर्ट एंड सैंक्शंस मॉनिटरिंग टीम की रिपोर्ट में अल-कायदा और तालिबान के बीच नज़दीकी संबंधों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है. अल-कायदा ने भी विश्व में अपने सारे समर्थकों को अफ़गानिस्तान में बसने की अपील की है. अल-कायदा ने इन समर्थकों से तालिबान की ओर से अपनाई जाने वाली परंपराओं को स्वीकार करते हुए ‘पश्चिमी’ और ‘जियोनिस्ट’ यानी यहूदी ताकतों के ख़िलाफ़ संयुक्त संघर्ष शुरू करने का आह्वान किया है. इस समूह ने अफ़गानिस्तान के 34 में से 10 प्रांतों में अपनी मौजूदगी सुनिश्चित करते हुए वहां प्रशिक्षण केंद्र, मदरसा और सेफ-हाऊस यानी सुरक्षित ठिकाने तैयार कर लिए है. तालिबान के अल-कायदा समेत अधिकांश समूहों के साथ अच्छे संबंध है. लेकिन ISKP जैसे समूह की क्षमता में वृद्धि तालिबान की सत्ता पर पकड़ के लिए चुनौती के साथ-साथ इस समूचे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भी एक तगड़ी चुनौती बन सकती है. 

 

इसी वजह से अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस ख़तरे से निपटने के लिए तालिबान के साथ किसी न किसी स्तर पर बातचीत स्थापित करने को ज़रूरी मानता है. मॉस्को की ओर से तालिबान को प्रतिबंधित सूची से हटाने का प्रस्ताव भी इसी दिशा में एक कदम माना जा रहा है. ऐसा करने से मॉस्को को तालिबान के साथ सहयोग करने का रास्ता मिलेगा. लेकिन क्या तालिबान में इन आतंकी समूहों पर प्रभावी नियंत्रण पाने की क्षमता या फिर इच्छाशक्ति है इस बारे में फ़िलहाल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. ISKP अब दक्षिण और मध्य एशिया में अपने पैर जमाने की नए सिरे से कोशिश कर रहा है. इस समूह ने भारत के साथ तालिबान की बातचीत की आलोचना की है. इसके अलावा ISKP और अल-कायदा दोनों समूहों ने ही नई दिल्ली के अंदरुनी मामलों से जुड़े कुछ मसलों पर टिप्पणी भी की है. 

 ISKP अब दक्षिण और मध्य एशिया में अपने पैर जमाने की नए सिरे से कोशिश कर रहा है. इस समूह ने भारत के साथ तालिबान की बातचीत की आलोचना की है. इसके अलावा ISKP और अल-कायदा दोनों समूहों ने ही नई दिल्ली के अंदरुनी मामलों से जुड़े कुछ मसलों पर टिप्पणी भी की है. 

तालिबान तक पहुंचने के लिए नई दिल्ली के लिए रूस के साथ भारत का सहयोग एक रास्ता खोल रहा है. पिछले वर्ष अमीरात के कुछ सदस्यों के साथ हुई भारत की बैठक इसलिए संभव हुई थी, क्योंकि इसके पीछे रूसी सहयोग शामिल था. पिछले माह अफ़गानिस्तान में रूस के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव ने नई दिल्ली के निमंत्रण पर भारत की यात्रा की थी. यह यात्रा मॉस्को पर हुए हमले के बाद आयोजित की गई थी. ऐसे में यह साफ़ है कि आतंकी ख़तरे को लेकर भारत और रूस की चिंताएं साझा है. 

 

अफ़गानिस्तान से US की वापसी के बाद ईरान, रूस और चीन की तिकड़ी ने अफ़गानिस्तान के साथ अपने सहयोग को बढ़ाया है. इस तिकड़ी ने ऐसा केवल इस क्षेत्र से US को बाहर रखने के संयुक्त उद्देश्य को ध्यान में रखकर ऐसा किया है. सार्वजनिक रूप से US अफ़गानिस्तान को रूस के साथ कूटनीतिक प्रतिस्पर्धा का मंच नहीं मानता, लेकिन रूस इसे इसी दृष्टि से देखता है. पिछले माह ही मॉस्को और बीजिंग ने अफ़गानिस्तान में US अथवा NATO की ओर से सैन्य बुनियादी सुविधाओं में इज़ाफ़े को रोकने का इरादा जाहिर करते हुए अफ़गानिस्तान के मुद्दे पर सहयोग बढ़ाने का फ़ैसला किया था. ऊपर की गई चर्चा के अनुसार भारत और रूस, दोनों ही इस देश को लेकर चिंताएं साझा करते हैं. ऐसे में यह साझा चिंताएं ही इन दोनों देशों को द्विपक्षीय अथवा बहुराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध मंचों का उपयोग करते हुए सहयोग करने का अवसर और जगह मुहैया करवाती है. विशेषज्ञों का मानना है कि अफ़गानिस्तान में उभरने वाले आतंकी ख़तरे से निपटने के लिए SCO-रिजनल एंटी-टेररिस्ट स्ट्रक्चर यानी क्षेत्रीय आतंकवादरोधी ढांचा (SCO-RATS) बेहद अहम है. इस मंच का उपयोग करते हुए सदस्य देशों के हितों के लिए हानिकारक समूहों और व्यक्तिगत लोगों के बारे में जानकारी साझा की जा सकती है. इसके अलावा इस मंच का उपयोग मादक पदार्थ तस्करी रोकने, संयुक्त आतंकवाद-विरोधी अभ्यास आदि के लिए भी किया जा सकता है. ऐसा करने से दोनों देशों के बीच सहयोग को और भी मजबूत किया जा सकता है. 

 

हांलाकि, भारत जहां रूस की ओर से होने वाली पहलों में शामिल होने के साथ ही SCO का सदस्य भी है. वहीं रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान सहयोग के लिए ऐसे मंचों का उपयोग करते हैं, जिसमें भारत सदस्य नहीं होता. इन देशों का इन मंचों के साथ सहयोग करने का अंदाज भी नई दिल्ली से अलग ही होता है. नई दिल्ली अपने सहयोग में अफ़गानी नागरिकों के हितों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता का भी ध्यान रखकर संतुलन साधने की कोशिश करता है. इसके साथ ही वह अपने कूटनीतिक हितों का भी ध्यान रखता है. इन मतभेदों के बावजूद नई दिल्ली को रूस के साथ मिलकर काम करना चाहिए, ताकि वह अफ़गानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति को लेकर अपना दखल बनाए रख सकें.

 

तालिबान की उग्रवाद विरोधी भूमिका

 

ISKP की ओर से पेश ख़तरे को पूरी तरह स्वीकार करने से तालिबान बचता रहा है. उसके वरिष्ठ नेता सार्वजनिक बैठकों में इस ख़तरे को कम आंकते हैं और बाहरी सहयोग की ज़रूरत नहीं होने की बात कहते है. UN के अनुसार तालिबान की प्राथमिकता ISKP की ओर से उसकी सत्ता को पेश होने वाली अंदरुनी ख़तरे संबंधी चुनौती का प्रबंधन करना है. तालिबान इसी वजह से इस समूह की ओर से अफ़गानिस्तान के बाहर की जाने वाली गतिविधियों पर ध्यान नहीं देता है. तालिबान ने पिछले वर्ष फरवरी में अपनी उग्रवाद विरोधी कोशिशों को बढ़ाया था. लेकिन ISKP की ओर से होने वाले हमलों में इसकी वजह से कमी नहीं आयी है, बल्कि ISKP ने अपने स्तर पर ही रणनीति में परिवर्तन करते हुए अपनी गतिविधियों/हमलों को कम किया है. 

 ISKP की ओर से पेश ख़तरे को पूरी तरह स्वीकार करने से तालिबान बचता रहा है. उसके वरिष्ठ नेता सार्वजनिक बैठकों में इस ख़तरे को कम आंकते हैं और बाहरी सहयोग की ज़रूरत नहीं होने की बात कहते है.

इसके अलावा चीन की अपनी सीमाओं पर तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (जिसे ETIM भी कहा जाता है) को लेकर चिंताओं से निपटने में भी तालिबान विफ़ल रहा है. यही स्थिति पाकिस्तान में TTP की ओर से लगातार होने वाले हमलों के मामले में भी देखी जा रही है. हाल के महीनों में रूस ने तालिबान की ओर से ISKP से निपटने की कोशिशों की सराहना तो की है, लेकिन साथ ही कहा है कि तालिबान को इस मामले में अभी काफ़ी कुछ करना होगा. इस बात को लेकर भी खबरें थी कि ईरान और तुर्किए में होने वाले हमलों में शामिल हमलावरों को अफ़गानिस्तान में ही प्रशिक्षण मिला था. हक्कानी समूह और ISKP के बीच नजदीकी संबंधों की वजह से भी तालिबान ISKP को आगे बढ़ने से रोकने में विफ़ल साबित होता दिखाई दे रहा है. 

 

निष्कर्ष 

 

सार्वजनिक तौर पर अफ़गानिस्तान में मौजूद आतंकी समूहों से निपटने में तालिबान की हिचकिचाहट अथवा असमर्थता से चलते अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अस्थिरता की उस स्थिति का सामना करने की तैयारी शुरू कर दी है, जो अमीरात के अपने यहां मौजूद विभिन्न समूहों को नियंत्रित करने में विफ़ल रहने के बाद पैदा होगी. लेकिन तालिबान के साथ बातचीत में वृद्धि से इस समूह को मान्यता मिलने का ख़तरा भी पैदा हो जाता है. यह मान्यता काबुल की ओर से आतंकवाद विरोधी कदम उठाने को लेकर कोई निश्चित कार्रवाई न करने की स्थिति में भी उसे मिलती दिखाई देती है. इसके अलावा तालिबान की ओर से महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता और शासन में व्यापकता लाने के वादे की दिशा में कोई कदम उठाए जाने की गारंटी भी नहीं है. 

 

अब तक चीन, रूस, ईरान और तुर्किए ने ही 2021 में US के अफ़गानिस्तान छोड़ने के औचक और अव्यवस्थित निर्णय के बाद रिक्त हुए स्थान को भरने की कोशिश की है. इस समूह के साथ बातचीत को लेकर भारत और रूस के बीच कुछ चुनिंदा मतभेद अवश्य हैं. इसी प्रकार तालिबान और चीन के बीच बढ़ रही नज़दीकी भी भारत के लिए चिंता का विषय है. लेकिन वह सहयोग की अपनी गति को बनाए रखना चाहेगा. भारत के लिए ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि वह यहां के खेल में अपना स्थान बनाए रख सकें. फिर भारत और रूस दोनों ही अफ़गानिस्तान की सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता को लेकर साझा रूप से चिंतित हैं.


शिवम शेखावत, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में जूनियर फेलो हैं.

राजोली सिद्धार्थ जयप्रकाश, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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Authors

Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat is a Junior Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses primarily on India’s neighbourhood- particularly tracking the security, political and economic ...

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Rajoli Siddharth Jayaprakash

Rajoli Siddharth Jayaprakash

Rajoli Siddharth Jayaprakash is a Research Assistant with the ORF Strategic Studies programme, focusing on Russia's domestic politics and economy, Russia's grand strategy, and India-Russia ...

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