Author : Satish Misra

Published on Dec 14, 2017 Updated 0 Hours ago

भाजपा गुजरात में एक कठिन लड़ाई लड़ रही है। अभी हाल तक गुजरात से आने वाली मीडिया रिपोर्टों में लगभग सर्वसहमति से कहा जा रहा था कि भाजपा एक बार फिर से जीत का परचम फहराएगी। लेकिन अब उसी मीडिया के सुर बदले हुए हैं और अब वह कांटे की टक्कर की बात करने लगा है।

क्या मोदी का जादू गुजरात में फिर सर चढ़कर बोलेगा?

गुजरात, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का गृह राज्य है। वहां नए विधान सभा के लिए चुनावों का एक चरण 9 दिसंबर को संपन्न हो चुका है और अगले दौर का मतदान 14 को होना है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्य में लगभग 22 वर्षों से सत्ता में रही है। उसके और कांग्रेस के बीच की लड़ाई अब बेहद दिलचस्प, अहम और कांटे की लड़ाई साबित होने वाली है।

इस विधान सभा चुनाव के परिणाम इन दोनों ही राष्ट्रीय दलों के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि उससे आगे आने वाले वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति की दशा-दिशा तय होगी। 498 दिनों की अल्प अवधि, जब भाजपा के एक नेता शंकर सिंह बाघेला अपने अनुयायियों के साथ पार्टी से अलग हो गए थे और कांग्रेस के सहयोग से 1997 में मुख्यमंत्री बन गए थे, को छोड कर भाजपा 1995 से ही लगातार सत्ता में काबिज है।

मार्च 1998 के बाद से, भाजपा राज्य में लगातार शासन कर रही है और उसने कांग्रेस को लगभग पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिल्ली की गद्दी संभालने से पहले खुद 12 वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने अभूतपूर्व सफल तरीके से राज्य पर शासन किया और दुनिया के सामने गुजरात को ‘विकास के मॉडल’ के रूप में ला खड़ा किया। उनके इसी विशिष्ट गुण ने उन्हें दिल्ली की सल्तनत पर दावा ठोंकने की ताकत और प्रेरणा दी।

2014 के आम चुनावों में भाजपा को अप्रत्याशित विजय सुनिश्चित करने के बाद मोदी मई 2014 में दिल्ली की गद्दी पर सुशोभित हो गए। उसके बाद गुजरात में भाजपा के दो मुख्यमंत्री सामने आए हैं-आनंदीबेन पटेल एवं विजय रूपाणी। यह सर्वविदित है कि इन दोनों में ही न तो मोदी जैसा करिश्मा है और न ही सत्ता विरोधी हवा को थामने का मोदी जैसा चतुर राजनीतिक कौशल।

सत्तारूढ़ पार्टी यानी भाजपा के लिए अब मुश्किलें और परेशानियां इसलिए भी बढ़ गईं हैं क्योंकि मोदी के गुजरात से चले जाने के बाद राज्य सरकार युवा नेताओं-जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकुर एवं हार्दिक पटेल के नेतृत्व वाले विरोध आंदोलनों से सही तरीके से नहीं निपट पाई जो क्रमशः दलितों, पिछड़े वर्गों एवं पाटीदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे उन विरोध आंदोलनों की उपज हैं जो मोदी के चले जाने के बाद से राज्य में पनपा है।

नोटबंदी और बेहद खराब तरीके से लागू की गई जीएसटी ने सत्तारूढ़ पार्टी की मुश्किलें और बढ़ा दीं क्योंकि राज्य का विशाल व्यापारिक समुदाय इन दो झटकों से उबर पाने में विफल साबित हो रहा था जिसका दुष्परिणाम रोजगार और व्यवसाय दोनों के ही नुकसान के रूप में सामने आया।

नोटबंदी और बेहद खराब तरीके से लागू की गई जीएसटी ने सत्तारूढ़ पार्टी की मुश्किलें और बढ़ा दीं

बढ़ते जनाक्रोश एवं युवाओं की नाराजगी को भांपते हुए राज्य से लगभग दो दशकों से बाहर रही कांग्रेस को सत्ता में अपनी वापसी की संभावनाएं दिखने लगी हैं। कांग्रेस फिलहाल अपनी चालें सोचसमझ कर और बुद्धिमानी से चल रही है। वह मेवाणी, ठाकुर और हार्दिक पटेल का समर्थन हासिल करने में सफल रही है और उसने अपने मतों के विभाजन को रोकने के लिए जनता दल (यू) से पृथक हुए गुट से भी गठबंधन कर लिया है।

अपनी सुविचारित चुनावी रणनीति में, कांग्रेस फूंक फूंक कर कदम रख रही है और मुस्लिमपरस्त पार्टी के रूप में प्रस्तुत किए जाने के भाजपा के जाल में फंसने से बचने की कोशिश कर रही है। इसी को ध्यान में रखते हुए, कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष अब अपने चुनावी अभियानों के दौरान मंदिरों में जाने से भी गुरेज नहीं कर रहे। वह इसके लिए धर्मनिरपेक्षता को छोड़ने और ‘नरम हिंदुत्व‘ कार्ड खेलने का जोखिम भी मोल ले रहे हैं।

कांग्रेस को इस वर्ष अगस्त में अपनी प्रबल संभावनाएं दिखीं जब उसके नेता अहमद पटेल, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की तमाम तरकीबों को नाकाम करते हुए राज्य से राज्य सभा की सीट जीत पाने में कामयाब हो गए। शाह ने कांग्रेस के 11 विधायकों को पटेल के खिलाफ वोट देने के लिए उन्हें भड़का कर कांग्रेस में विद्रोह की योजना बनाई थी लेकिन बाद में उन्हें मुंह की खानी पड़ी क्योंकि उन विधायकों ने चुनाव में भाग लेने के जरिये उनके इरादों को नाकाम बना दिया।

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इसी दौरान, पूर्व मुख्यमंत्री वाघेला द्वारा की गई बगावत ने भी राज्य कांग्रेस से गुटबंदी को साफ करने में मदद की और मतदाताओं के सामने एकजुटता की छवि पेश की। कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को जिस एक और वजह से मजबूती मिली, वह थी, राहुल गांधी की सार्वजनिक छवि में बदलाव। पिछले तीन महीनों में राज्य की उनकी यात्राओं के दौरान उनकी रैलियों, बैठकों एवं रोडशो में उमड़ने वाली भारी भीड़ इसकी गवाह हैं। राहुल गांधी जो कभी उपहास के पात्र माने जाते थे और हमेशा आरएसएस-भाजपा तथा सोशल मीडिया के निशाने पर रहते थे, को अब न केवल उनके हितचिन्तक एक गंभीर राजनेता के रूप में देख रहे हैं बल्कि उनके विरोधियों की भी उन्हें लेकर ऐसी ही राय बनती प्रतीत हो रही है।

भाजपा नेताओं द्वारा राहुल गांधी पर तीखे हमले उस खतरे को प्रतिबिंबित करते हैं जो राहुल गांधी उनके समक्ष बनते हुए दिख रहे हैं। भाजपा का लगभग प्रत्येक नेता राहुल गांधी को कमतर साबित करने की कोशिश कर रहा है जो अब देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष पर पर विराजमान हो चुके हैं। भाजपा के एक प्रवक्ता ने तो उनकी तुलना मुगल बादशाह औरंगजेब और अलाउद्दीन खिलजी तक से कर दी। खुद प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी के पार्टी के प्रमुख पद पर मनोनयन को ‘औरेंगजेब राज‘ का उदय करार दिया। (औरेंगजेब एक बेहद धार्मिक मुगल बादशाह था जिसे हिंदुत्ववादी एक आततायी राजा मानते हैं।)

बढ़ती चुनौती को भांपते हुए, मोदी और शाह अपने राजनीतिक तरकश के सभी तीरों का इस्तेमाल करने और अपनी सत्ता बचाये रखने की हर तरकीब लगाने की जुगत में हैं। सबसे पहले तो भाजपा ने यह सुनिश्चित किया कि गुजरात में चुनाव हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव की तारीख से अलग हो (हिमाचल प्रदेश में 9 नवंबर को ही चुनाव हो गए), हालांकि दोनों ही राज्यों के चुनाव परिणामों की घोषणा एक ही दिन की जाएगी।

बढ़ती चुनौती को भांपते हुए, मोदी और शाह अपने राजनीतिक तरकश के सभी तीरों का इस्तेमाल करने और सत्ता बचाये रखने की हर तरकीब लगाने की जुगत में जुट गए हैं।

 राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा प्रकट या परोक्ष रूप से चुनावी अभियानों में लगातार प्रखर होते सांप्रदायिक बयान भी इसके प्रमाण हैं। फिल्म पद्मावती को लेकर उपजे विवादों को लगातार हवा दिया जा रहा है। राज्य प्रशासन ने देश के सेंसर बोर्ड द्वारा मंजूरी दिए जाने से पहले ही इस फिल्म को दिखाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया।

सुप्रीम कोर्ट में 5 दिसंबर को अयोध्या मामले की सुनवाई और कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल के न्यायालय में किए गए निवेदन का लाभ उठाते हुए, मोदी एवं शाह ने कांग्रेस पर राम मंदिर को 2019 के लोकसभा चुनावों से जोड़ने का आरोप लगाया। शाह ने राहुल गांधी को राम मंदिर मुद्वे पर अपने रुख को स्पष्ट करने को भी कहा।

भाजपा के नेता अपने चुनाव अभियानों में मुस्लिम शासन को लेकर टाल मटोल का रवैया अपना रहे हैं और बहुसंख्यक हिन्दु समुदाय के दिलों में इस तरह के भय का संचार कर रहे हैं कि कांग्रेस के सत्ता में वापस लौटने पर मुसलमानों के बुरे तत्वों को बढ़ावा मिलेगा।

एक कठिन संघर्ष का अनुमान लगाते हुए, मोदी पिछले छह महीनों के दौरान नियमित अंतराल पर राज्य का दौरा करते रहे हैं और मतदाताओं को लुभाने के लिए नई परियोजनाओं की घोषणा और विभिन्न योजनाओं का शिलान्यास करते रहे हैं। मोदी मतदान के पहले और दूसरे राउंड के बीच दो दर्जन से अधिक चुनावी रैलियों को संबोधित कर चुके हैं। लगभग प्रत्येक कैबिनेट मंत्री और भाजपा शासित राज्यों के अधिकतर मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री द्वारा चुनाव अभियान में भाग लेने तथा इसमें अपनी भूमिका निभाने को कहा गया। तीन दर्जन से अधिक मंत्रियों ने राज्य के चुनाव अभियान में हिस्सा लिया है।

भाजपा गुजरात में एक कठिन लड़ाई लड़ रही है। अभी हाल तक गुजरात से आने वाली मीडिया रिपोर्टों में भाजपा की संगठनात्मक ताकत और प्राानमंत्री के जादुई प्रभाव तथा मतदाताओं के बीच उनकी लोकप्रियता को देखते हुए लगभग सर्वसहमति से कहा जा रहा था कि भाजपा एक बार फिर से जीत का परचम फहराएगी। लेकिन अब उसी मीडिया के सुर बदले हुए हैं और अब वह कांटे की टक्कर की बात करने लगा है।

2012 के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 117 सीटें जीती थीं तथा 47.90 प्रतिशत वोट हासिल किए थे जबकि कांग्रेस को 60 सीटें मिली थीं और उसने 38.9. प्रतिशत वोट हासिल किए थे-अर्थात दोनों पार्टियों के बीच 9 प्रतिशत का अंतर रहा था।

सैद्धांतिक रूप से, कांग्रेस के पक्ष में पांच प्रतिशत वोटों का बदलाव पूरे संतुलन को बदल सकता है। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा, यह लाख टके की बात है। 5 दिसंबर को प्रकाशित चुनाव पूर्व अंतिम सर्वेक्षण में दोनों ही दलों को 43 -43 प्रतिशत वोट मिलते प्रदर्शित किया गया था तथा 14 प्रतिशत सीट अन्य छोटी पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को मिलते दिखाया गया था। पिछले कुछ महीनों के दौरान होने वाले चुनाव सर्वेक्षणों में भाजपा का वोट हिस्सा लगतार गिरता जा रहा है।

यह मुकाबला निश्चित रूप से कांटे का मुकाबला बन चुका है। और जब 18 दिसंबर को चुनाव के परिणाम घोषित होगे, तो उसके बारे में अभी से यह कहना मुश्किल है कि ऊंट किस करवट बैठेगा।

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