Author : Nidhi Razdan

Published on Oct 09, 2017 Updated 0 Hours ago

जर्मनी में 24 सितम्बर को जब मतदान हुआ, उस समय मर्केल की सत्ता में वापसी को लेकर रत्ती भर भी संशय नहीं था। जैसे ही चुनाव परिणाम आने शुरू हुए, यह स्पष्ट हो गया कि यह उस जीत से कोसों दूर है, जिसकी उम्मीद मर्केल ने की थी।

मर्केल और मीडिया

क्या एंजेला मर्केल का प्रवासियों के लिए अपने देश के दरवाजे खोलने का फैसला जर्मन चुनावों में उन पर भारी पड़ा? पिछले रविवार को सम्पन्न चुनावों के संबंध में जारी बहस और चर्चाओं के केंद्र में यही मुख्य सवाल है, जिनमें घोर दक्षिणपंथी पार्टी का बन्डस्टेग या जर्मन संसद में नाटकीय प्रवेश हुआ।

जब जर्मनी में 24 सितम्बर को मतदान हुआ, उस समय मर्केल की सत्ता में वापसी को लेकर रत्ती भर भी संशय नहीं था। अपना चुनाव प्रचार अर्थव्यवस्था की हालत, बेरोजगारी में कमी और सामाजिक स्थायित्व जैसी सकात्मक बातों तक केंद्रित रखने के कारण चुनाव से पहले के महीनों के दौरान मर्केल के लिए कोई भी वास्तविक विरोध नहीं था। बहुत से लोग इन्हें नीरस चुनावों की संज्ञा दे रहे थे, लेकिन इनके परिणाम बेहद दिलचस्प साबित हुए।

जैसे ही चुनाव परिणाम आने शुरू हुए, यह स्पष्ट हो गया कि यह उस जीत से कोसों दूर है, जिसकी उम्मीद मर्केल ने की थी। घोर ​दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी (अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी) का नाटकीय उदय इस बात की चेतावनी की तरह सामने आया है कि जर्मनी संभवत: खतरनाक दक्षिणपंथ की ओर मुड़ सकता है। एएफडी की बयानबाजी घोर मुस्लिम-विरोधी और प्रवासी-विरोधी है, और 2013 में अपनी स्थापना के बाद से उसका स्वर लगातार तीखा होता जा रहा है। एएफडी ने “बुर्का? हम बिकिनी पसंद करते हैं” जैसे संदेश वाले पोस्टरों के सा​थ प्रचार किया। पार्टी का यह भी मानना है कि जर्मनी को अतीत के लिए पश्चाताप करना बंद कर देना चाहिए। बहुत से लोगों ने एएफडी की तुलना नाजियों से की है।

महज पांच साल पुरानी पार्टी, जिसका उदय किसी सुदूर स्थान पर हुआ और जिसने पहली बार जर्मन संसद में कदम रखा था तो उसकी झोली में 13 प्रतिशत वोट और 709 सदस्यीय सदन में 90 से ज्यादा सीटे थीं। वह इस समय जर्मनी की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। मर्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन का 1949 के बाद पहली बार इतना खराब प्रदर्शन रहा और वह महज 246 सीटें ही जीत सकी। वर्ष 2013 के चुनावों की तुलना में इस बार उसे 65 सीटें कम मिलीं। इससे यह साबित हो गया कि यह जीत “मुटी” या “मम्मी” के लिए अविश्वसनीय है।

इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए यह खासतौर पर चिंताजतनक है, दरअसल जर्मनी दशकों से घोर दक्षिणपंथियों के उदय का विरोध करता रहा है, जबकि यूरोप में हमने इनका उदय देखा है। ऐसे में समझा जा सकता है कि वर्तमान में जर्मन मीडिया में जारी विचार विमर्श इस ऐतिहासिक चुनाव के परिणामों पर केंद्रित है।

देश के प्रमुख टीवी नेटवर्क डीडब्ल्यू का कहना है:

घोर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी बन्डस्टेग में तीसरी बड़ी पार्टी होगी। इसका नीति पर तो वास्तव में कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं होगा, लेकिन यह राजनीतिक सुर को बदल कर रख देगा। संक्षेप में कहें तो: स्थितियां अब बहुत अप्रिय हो जाएंगी।

डीडब्ल्यू में देश के एक प्रमुख शिक्षाविद् ऑस्कर निएदरमेयर को उद्धृत करते हुए कहा गया है: “एएफडी में प्रस्तुत स्थितियों की रेंज को एक शब्द में बयान नहीं किया जा सकता। मैं उसे दक्षिणपंथी उग्रवाद के साथ बढ़ते संबंधों वाली राष्ट्रवादी-रूढ़िवादी पार्टी करार देता हूं।”

2015 से, एंजेला मर्केल ने सीरिया, अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों से आने वाले 1.3 मिलियन से ज्यादा शरणार्थियों को जर्मनी में दाखिल होने की अनुमति दी है। उन्होंने अपने इस कदम को देश का “मानवतावादी कर्तव्य” करार दिया है।

स्पष्ट तौर पर कुछ ऐसे लोग थे, जिन्होंने मर्केल के इस मानवतावादी कदम का समर्थन किया, लेकिन जैसा कि डेर स्पीगल में लिखा गया है “उनकी शरणार्थी नीतियों ने उनके पिछले राजनीतिक फैसलों की तरह लोगों का ध्रुवीकरण नहीं किया। अब वही आक्रोश बन्डस्टेग में एएफडी के रूप में दाखिल हो गया है।”

अब यह स्पष्ट तौर पर जाहिर हो चुका है कि इन चुनावों में मर्केल की शरणार्थी नीति से बड़ी संख्या में लोग नाराज दिखे, उन्होंने सरकार पर काफी हद तक उसी तरह प्रहार किया जैसे ब्रेक्जिट ने ब्रिटेन में चुनावों को प्रभावित किया था। जर्मन मीडिया का ध्यान स्पष्ट तौर पर इसी पर केंद्रित है, जो एएफडी के एजेंडे और उसकी अपील को समझने की कोशिश कर रहा है। डीडब्ल्यू का कहना है कि यह “विदेशी समझे जाने वाले लोगों के प्रति भय और शत्रुता है।”

वेल्ट में एक लेख में कहा गया है कि मर्केल को हर बात के लिए पूरी तरह दोषी ठहराया जा रहा है। रिचर्ड हर्जिंगर लिखते हैं, “आलोचना का सार यही है कि एएफडी को मजबूत बनाने में मुख्य योगदान मर्केल ने दिया है।” वे लिखते हैं “तानाशाह शासनों से मर्केल के शासन की तुलना करने का सिलसिला कट्टरपंथी हलकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि गंभीर टीकाकारों और मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों स्वरों में भी शामिल हो चुका है।” वे यही नहीं रुकते बल्कि कहते हैं, “मर्केल को बलि का बकरा बनाना सत्ता की प्रतिकूल सत्ता का प्रमाण है और यह बड़ी सहजता से इस निराशाजनक तथ्य को जाहिर करता है कि किसी भी राजनीतिक ताकत, बुद्धिजीवी मार्गदर्शक, सामाजिक संगठनों के पास अब तक इस बात का कोई पुख्ता जवाब नहीं है कि वैध राष्ट्रवादियों के उदय को किस तरह रोका जाए।”

मर्केल को व्याक आलोचना का सामना करना पड़ रहा है और यह बात मीडिया में सब जगह जाहिर हो रही है।

डेर स्पीगल में लिखा गया है: “पिछले साल बतौर चांसलर चौथे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ने का फैसला करने वाली मर्केल के लिए, आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी)का उदय किसी हार से कम नहीं है। चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त करते ही उन्होंने 16 वर्ष तक देश की बागडोर संभालने वाले हेल्मट कोल के पदचिन्हों पर चलने का फैसला कर लिया। अब बहुत स्पष्ट प्रश्न यह है कि क्या मर्केल ने वही भूल की, जो कोल ने 1994 में चांसलर के पद पर बने रहे की ​कोशिश के रूप में की थी? उस समय सीडीयू का कोई भी चालक सदस्य यह जानता था कि कोल समय की दौड़ में पिछड़ चुके हैं। लेकिन किसी ने भी इस वरिष्ठ राजनीतिज्ञ के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की। क्या अब इतिहास खुद को दोहरा रहा है? मर्केल के प्रचार ने एक व्यक्ति के तौर पर उनकी तथा नेतृत्व संभालने के उनके अंदाज से संबंधित सभी समस्याओं को उजागर कर दिया है। मर्केल को लम्बे अर्से तक पक्षपात रहित चांसलर के रूप में सब चीजों के ऊपर दिखाई देती प्रतीत होती है — जिससे यह समझने में मदद मिलती है कि क्यों जर्मन लोगों की उनके बारे में कड़ी भावनाएं नहीं हैं। लेकिन शरणार्थी संकट के बाद से उनमें बुनियादी रूप से बदलाव आ चुका है।”

डेर स्पीगल के एक कॉलम में जर्मनी के मूड के बारे में कहा गया है। “सीडीयू को गलत कार्यक्रम या गलत इंटरनेट रणनीति की वजह से नहीं, बल्कि सत्ता के अहंकार की वजह से इस हद तक नीचा देखना पड़ा। अहंकार को सुधारना किसी दोषपूर्ण कार्यक्रम को सुधारने से ज्यादा कठिन है।”

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