पश्चिमी देशों और रूस, दोनों के साथ भारत के संबंध बेहतर हैं. लेकिन इसकी सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है चीन के साथ और चीन से मुकाबला करने के लिए भारत बहुत अधिक निर्भर है रूस पर. हमारा 60 से 70 प्रतिशत रक्षा हथियार रूस से आता है. अगर चीनी सेना से सामना होता है, तो रूस से रक्षा हथियारों के आयात जारी रखने पर ध्यान देना होगा. ऐसी स्थिति में हमें बड़े ही सधे तरीके से रूस के साथ संबंध बनाए रखने होंगे. जहां तक पश्चिमी देशों का सवाल है, तो वे भी हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में पश्चिमी देशों का स्वागत कर भारत कहीं न कहीं इनके साथ बैलेंस ऑफ पावर स्थापित करने की कोशिश कर रहा है ताकि वहां चीन का ही दबदबा न बना रहे.
जैसे-जैसे यह संकट बढ़ेगा, उसे रणनीतिक तरीके से निर्णय लेना पड़ेगा कि वह किस तरफ जाएगा. जाहिर है, भारत एक तरफ झुकेगा, तो दूसरी तरफ इसकी नाराज़गी रहेगी. इसका असर पड़ेगा भारत की विदेश नीति पर.
भारतीय विदेश नीति पर पड़ता असर
पिछले कुछ बरसों में काफी बदलाव आया है. अमेरिका की बात करें या फिर यूरोपीय यूनियन के मेंबर स्टेट्स की, जैसे फ्रांस या जर्मनी, इनके साथ भारत का द्विपक्षीय संबंध बढ़ा है. वहीं, हम यह भी देख रहे हैं कि अब रूस और पश्चिमी देशों के बीच मतभेद उभर रहा है. अब तो आक्रमण की स्थिति आ ही गई है. रूस ने यूक्रेन पर चढ़ाई भी कर दी है. डिप्लोमैटिक रिजोल्यूशन की संभावनाएं दूर होती जा रही हैं. ऐसे में भारत पर दबाव ज़रूर पड़ेगा कि वह किस तरफ झुकता है. भारत सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य भी है. हालांकि, उसने अब तक दोनों तरफ संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है, लेकिन जैसे-जैसे यह संकट बढ़ेगा, उसे रणनीतिक तरीके से निर्णय लेना पड़ेगा कि वह किस तरफ जाएगा. जाहिर है, भारत एक तरफ झुकेगा, तो दूसरी तरफ इसकी नाराज़गी रहेगी. इसका असर पड़ेगा भारत की विदेश नीति पर.

जब हम रक्षा नीति की बात करते हैं, तो स्पष्ट है कि रक्षा हथियारों के लिए भारत फिलहाल रूस पर ज़्यादा निर्भर है. इस मायने में रूस बहुत महत्वपूर्ण है. हालांकि, शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद से भारत ने अपना दायरा बढ़ाने की कोशिश भी की है. इसके तहत फ्रांस, अमेरिका, इजरायल जैसे देश भी भारत के महत्वपूर्ण डिफेंस पार्टनर बनकर उभरे हैं, लेकिन रूस का दबदबा कायम है. भारत अगर रूस को नाराज़ करता है या भारत-रूस संबंधों में किसी भी तरह की खटास आती है, तो तुरंत उसका असर प्रस्तावित रक्षा सौदों पर पड़ सकता है.
याद होगा, जब गलवान घाटी में चीन के साथ झड़प हुई थी, तब भारत के रक्षा मंत्री का पहला दौरा रूस का था कि कहीं वह रक्षा हथियारों को देना बंद न कर दे. चिंता की वजह इसलिए क्योंकि पिछले कुछ बरसों में रूस और चीन के संबंध बढ़े हैं.
चिंता की वजह
भारत यदि रूस के ख़िलाफ़ जाता है या रूस के व्यवहार के प्रति अपनी असंतुष्टि जाहिर करता है, तो एस-400 डिफेंस मिसाइल सिस्टम और अन्य मिसाइल, एंटी मिसाइल की डील चपेट में आ सकती है. रक्षा हथियारों की सप्लाई पर रूस की क्या प्रतिक्रिया रहती है, यह देखने वाली बात होगी. क्योंकि अब भी चीन को लेकर बॉर्डर पर भारत की परेशानी बनी हुई है. याद होगा, जब गलवान घाटी में चीन के साथ झड़प हुई थी, तब भारत के रक्षा मंत्री का पहला दौरा रूस का था कि कहीं वह रक्षा हथियारों को देना बंद न कर दे. चिंता की वजह इसलिए क्योंकि पिछले कुछ बरसों में रूस और चीन के संबंध बढ़े हैं.
अब समस्या यह आती है कि अमेरिका का एक क़ानून है- काटसा यानी काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सेंक्शंस एक्ट (सीएएटीएसए). इसके तहत वह उन देशों पर प्रतिबंध लगाने की बात करता है, जो देश रूस के साथ डिफेंस रिलेशनशिप बढ़ा रहे हैं. हालांकि पिछले कई बरसों से यह बात चल रही है. ट्रंप का शासनकाल हो या बाइडेन का, दोनों ने इसमें भारत को छूट दी. भारत को इस ऐक्ट के तहत नहीं लाया गया, लेकिन समस्या बढ़ती है, तो हो सकता है वॉशिंगटन में कई सदस्य भारत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं. वे नई दिल्ली को काटसा के दायरे में लाने की बात कर सकते हैं. ऐसा हुआ तो फिर भारत के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. भारत ऐसे में रूस से रक्षा हथियार नहीं खरीद पाएगा और इससे उसकी रक्षा नीति पर प्रभाव पड़ेगा.
तीसरी बात यह है कि यूक्रेन संकट को लेकर पश्चिमी देशों और रूस के बीच जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं. उसके तहत रूस और चीन के संबंध और बढ़ रहे हैं. ओलंपिक की ओपनिंग सेरेमनी में जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन वहां गए थे, तो उन्होंने चीन के साथ एक बड़ा स्टेटमेंट जारी किया. उन्होंने चीन के साथ टेक्नॉलजी शेयरिंग और संबंधों को आगे बढ़ाने की बात कही थी. इससे आने वाले समय में भारत और रूस के संबंधों में दरार आने की आशंका बढ़ जाती है. इसी के तहत पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का दौरा हुआ है. ऐसा लगता है, रूस और चीन के बीच पाकिस्तान की भूमिका एक मीडिएटर के तौर पर हो सकती है. रूस और चीन के संबंध और बढ़ते हैं, तो भारत पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक है. हम देख चुके हैं कि रूस हिंद-प्रशांत महासागर, क्वॉड वगैरह को लेकर काफी ऑब्जेक्शन लगा चुका है. वह अपनी नाराज़गी भी जाहिर कर चुका है. रूस का वहां दखल नहीं है. फिर भी उसने चीन से भी ज़्यादा इस बात को उठाने और भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की है. हालांकि भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपनी विदेश नीति किसी के दबाव में आकर नहीं तय करेगा.
समस्या बढ़ती है, तो हो सकता है वॉशिंगटन में कई सदस्य भारत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं. वे नई दिल्ली को काटसा के दायरे में लाने की बात कर सकते हैं.
भारत को सोचना ही होगा
लेकिन, रूस-चीन के बढ़ते रिश्तों को लेकर भारत को सोचना ही होगा. अगर रूस अपनी सारी तकनीक चीन के साथ बांटता है, तो भारत के लिए परेशानी खड़ी होगी. चीन के साथ युद्ध या किसी टकराव की स्थिति में भारत को उसका नुकसान हो सकता है.
रूस-चीन के बढ़ते रिश्तों को लेकर भारत को सोचना ही होगा. अगर रूस अपनी सारी तकनीक चीन के साथ बांटता है, तो भारत के लिए परेशानी खड़ी होगी. चीन के साथ युद्ध या किसी टकराव की स्थिति में भारत को उसका नुकसान हो सकता है.
ऐसे कई पहलू हैं, जिससे भारतीय विदेश नीति और रक्षा नीति को ध्यान में रखकर भारत के पॉलिसी मेकर को आगे बढ़ना होगा. इस समय पुतिन की विदेश नीति एंटी-वेस्ट है. उनका प्रयास है कि अमेरिका को कैसे चैलेंज किया जाए. ऐसे में रूस के लिए भारत प्राथमिकता सूची में दूसरे नंबर पर चला गया है.
यह आर्टिकल मूल रूप से नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है.
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