Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 07, 2024 Updated 0 Hours ago

उपजाऊ ज़मीन की गुणवत्ता में गिरावट के लैंगिक प्रभाव यानी पुरुषों और महिलाओं पर अलग-अलग असर के मद्देनज़र, महिलाओं पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का समाधान करने के लिए, ये ज़रूरी है कि भूमि की सेहत सुधारने वाली गतिविधियों में लैंगिक समावेशी लागत-लाभ विश्लेषण फ्रेमवर्क जोड़ा जाये.

भूमि क्षरण के दौरान तटस्थता और पुनर्स्थापना; महिलाओं की भूमिका क्या हो?

यह लेख ‘ये दुनिया का अंत नहीं: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.


इस वर्ष यूनाइटेड नेशंस (UN) कन्वेंशन टु कॉम्बैट डिज़र्टिफिकेशन यानी मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन की स्थापना के 30 साल पूरे हो रहे हैं. इसलिए, इस साल के विश्व पर्यावरण दिवस का प्रमुख फोकस इससे संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्स्थापन पर संयुक्त राष्ट्र दशक (2021-2030) के एक प्रमुख स्तंभ पर है. यही वजह है कि विश्व पर्यावरण दिवस 2024 की थीम भी "भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखे को लेकर लचीलापन" रखी गई है. ज़मीन के मरुस्थलीकरण की समस्या को संबोधित करने, पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने और सूखे व मरुस्थलीकरण के प्रभावों के विरुद्ध लचीलापन बनाने की तत्काल ज़रूरत है.

 इस लेख में इन पर्यावरणीय चुनौतियों में महिलाओं की भूमिका और उन पर पड़ने वाले प्रभावों को संबोधित करने के लिए लिंग-समावेशी लागत-लाभ विश्लेषण (CBA) फ्रेमवर्क को एकीकृत करने के महत्व पर विस्तार से चर्चा की गई है.

इसी आवश्यकता को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और यूएन के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने हरी-भरी और सेहतमंद धरती को बहाल करने के लिए 10 सूत्रीय रणनीति बनाई है और इस रणनीति में विभिन्न स्तरों पर हितधारकों को शामिल किया गया है. ज़ाहिर है कि दुनिया भर में क़रीब 3.2 बिलियन लोग, जिनमें बहुत बड़ी तादाद महिलाओं की है और ग़रीबी में गुजर-बसर करने वाले 74 प्रतिशत लोग अपनी आजीविका के लिए प्रमुख रूप से खेती-किसानी और कृषि से जुड़े इकोसिस्टम पर निर्भर हैं. इसके बावज़ूद संयुक्त राष्ट्र दशक की जो रणनीति है, उसने ज़मीन की गुणवत्ता ख़राब होने या कहा जाए कि भूमि के तेज़ी से मरुस्थल में तब्दील होने की वजह से महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभावों या भूमि को दोबारा से उपजाऊ बनाने की कोशिशों में महिलाओं की भूमिका पर चुप्पी साध रखी है. इस लेख में इन पर्यावरणीय चुनौतियों में महिलाओं की भूमिका और उन पर पड़ने वाले प्रभावों को संबोधित करने के लिए लिंग-समावेशी लागत-लाभ विश्लेषण (CBA) फ्रेमवर्क को एकीकृत करने के महत्व पर विस्तार से चर्चा की गई है. इसके साथ ही इस लेख में मौज़ूदा रणनीतियों में उन कमियों के बारे में भी बताया गया है, जिन्हें अक्सर भूमि बहाली प्रयासों के लिंग आधारित पहलुओं में नज़रंदाज़ कर दिया जाता है.

 

आज हम कहां खड़े हैं?

 

उपजाऊ भूमि का तेज़ी से मरुस्थल में तब्दील होना पर्यावरण से संबंधित एक गंभीर मुद्दा है और यह कहीं न कहीं वर्तमान में आर्थिक लिहाज़ से भी बेहद चिंतित करने वाला मसला भी बन गया है. मौजूदा समय की बात करें, तो धरती पर जितनी भी भूमि उपलब्ध है, उसमें से लगभग 40 प्रतिशत ज़मीन मरुस्थल में बदल चुकी है. इतनी अधिक ज़मीन के बंजर या ऊसर होने का असर वैश्विक जीडीपी के 50 प्रतिशत से अधिक पर पड़ रहा है. सिर्फ़ वर्ष 2016 में भूमि के मरुस्थल में बदलने की वजह से सालाना 6.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के नुक़सान का अनुमान लगाया गया था. जिसमें से एशिया 84 बिलियन अमेरिकी डॉलर और अफ्रीका 65 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष का नुक़सान झेल रहे हैं.

 

दुनिया की आधी आबादी ज़मीन, जंगल और कृषि पर निर्भर है और भूमि क्षरण का इनकी आजीविका पर सीधा और गंभीर प्रभाव पड़ता है. विशेष रूप से स्वदेशी लोगों और महिलाओं पर इसका सबसे अधिक असर पड़ता है, क्योंकि ये लोग जंगलों, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और कृषि भूमि पर अत्यधिक निर्भर हैं. दुनिया की कुल आबादी में स्वदेशी लोगों की जनसंख्या केवल 5 प्रतिशत है, बावज़ूद इसके स्वदेशी आबादी दुनिया के लैंड इकोसिस्टम यानी भूमि पारिस्थितिकी तंत्र के 22 प्रतिशत हिस्से पर निर्भर हैं. इसी प्रकार से विकासशील देशों में क़रीब 80 प्रतिशत महिला आबादी खेती-किसानी जैसे ज़मीन से जुड़े कार्यों में संलग्न हैं. ज़ाहिर है कि महिलाओं की यह आबादी कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भूमि की गिरती गुणवत्ता के दुष्प्रभावों के दायरे में है. भूमि की उत्पादकता में कमी से सतत् विकास पर विपरीत असर पड़ता है और इसमें गिरावट भी आती है. सतत विकास प्रभावित होने से SDG 1 (ग़रीबी उन्मूलन), SDG 2 (भूखमरी का खात्मा), SDG 3 (बेहतर स्वास्थ्य और जन कल्याण), SDG 5 (लैंगिक समानता), SDG 8 (अच्छे कामकाज को बढ़ावा और आर्थिक विकास) और SDG 11 (टिकाऊ शहर और टिकाऊ समुदाय) जैसे लक्ष्यों पर भी सीधा असर पड़ता है.

 

चित्र 1: दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में ख़राब गुणवत्ता वाली भूमि का अनुपात

 

 स्रोत : UNCCD, 2019

 

भूमि उपयोग एवं प्रबंधन का लैंगिक आधार पर लोगों से सीधा और मज़बूत पारस्परिक रिश्ता है. अनुमान है कि वर्ष 2015 और 2020 के बीच प्रति वर्ष 10 मिलियन हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गए. वनों के समाप्त होने का असर दुनिया भर में लगभग 3.2 बिलियन लोगों पर पड़ा और इनमें से आधी महिलाएं और लड़कियां थीं. इसकी वजह यह है, कि ख़ास तौर पर विकासशील देशों में महिलाएं जल, ज़मीन और जलाने की लकड़ी के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं. इसके अलावा खेती-बाड़ी के कार्यों और परिवार की देखभाल जैसी गतिविधियों में भी महिलाओं की भूमिका सबसे अहम होती है, इसीलिए भूमि के क्षरण का सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है. वैश्विक स्तर के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कृषि का कार्य करने वाले लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत है, लेकिन इनमें से केवल 15 प्रतिशत महिलाओं के पास ही अपनी ज़मीन है. ज़मीन के मालिकाना हक से वंचित होने के अलावा, महिलाओं को अपनी भूमि से जुड़े फैसले लेने का भी समुचित अधिकार नहीं है. इसके अलावा कर्ज़ लेने, तकनीक़ तक पहुंच और दूसरे संसाधनों तक पहुंच में महिलाओं के सामने कई रुकावटें हैं. यह सभी चीज़ें, देखा जाए तो महिलाओं को वंचित एवं कमज़ोर वर्गों में पहुंचा देती हैं.

 वैश्विक स्तर के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कृषि का कार्य करने वाले लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत है, लेकिन इनमें से केवल 15 प्रतिशत महिलाओं के पास ही अपनी ज़मीन है. ज़मीन के मालिकाना हक से वंचित होने के अलावा, महिलाओं को अपनी भूमि से जुड़े फैसले लेने का भी समुचित अधिकार नहीं है.

ज़मीन पर निर्भर लोगों को आजीविका के साधन उपलब्ध कराने के अलावा भूमि पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु विनियमन यानी वैश्विक और स्थानीय दोनों स्तरों पर वायुमंडलीय रासायनिक संरचना, ग्रीनहाउस प्रभाव, ओजोन परत, वर्षा, वायु गुणवत्ता और तापमान व मौसम पैटर्न से संबंधित प्रक्रियाओं समेत सॉयल हेल्थ और पॉलिनेशन की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है. भूमि पारिस्थितिकी तंत्र इसके साथ ही प्राकृतिक स्थानों पर पर्यटन को बढ़ावा देने और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने में मदद करता है. इसके अलावा, यह तमाम सहायक सेवाओं जैसे कि पोषक तत्व और जल चक्रण में भी सहायक होता है, ज़ाहिर है कि ये चीज़ें लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. उदाहरण के तौर पर, अगर व्यापक स्तर पर जंगलों को समाप्त किया जाता है, पेड़ों को काटा जाता है, तो इससे जो ज़मीन का नुक़सान होता है उससे कई मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. जैसे कि इससे किसी इलाक़े में पानी का बहाव बदल सकता है और इससे बाढ़ या सूखे जैसे हालातों में बढ़ोतरी हो सकती है. इसके साथ ही वनों की कटाई से कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ सकता है और इससे जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में इज़ाफा हो सकता है. ये जितनी भी प्राकृतिक आपदाएं हैं, उनका सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है, यानी इन हालातों में महिलाएं ही सबसे अधिक असुरक्षित होती हैं.

 

एक अहम बात यह भी है कि जब ज़मीन का स्वामित महिलाओं के पास होता है और भूमि उपयोग के अधिकार भी उनके पास होते हैं, तो वे अमूमन जलवायु अनुकूल और प्राकृतिक तरीक़े से खेती को प्राथमिकता देती हैं, साथ ही इससे भूमि के उपयोग में बदलाव में उल्लेखनीय स्तर पर कमी आती है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ जब महिलाएं खेती करती हैं और उन्हें पुरुषों के समान संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं, तो वे पुरुषों की तुलना में कृषि उपज में 20 से 30 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकती हैं. कृषि उपज में बढ़ोतरी होने से भुखमरी की घटनाओं में 12 से 17 प्रतिशत की कमी आती है. इतना ही नहीं कृषि उपज में बढ़ोतरी होने से वनों की कटाई में कमी आने और कृषि या उससे जुड़े उद्योगों के विस्तार के लिए भूमि का उपयोग बदलने की घटनाओं में भी कमी आने की संभावना है. इसके अलावा, अगर महिलाओं की आय भी पुरुषों के बारबर हो जाती है, तो इसका समाज पर तुलनात्मक रूप से बहुत ज़्यादा सकारात्मक असर पड़ता है. महिलाओं की जब आय बढ़ती है, तो वे अपनी आय का 90 प्रतिशत हिस्सा अपने परिवार की देखभाल, ख़ास तौर पर स्वास्थ्य, शिक्षा और खान-पान पर ख़र्च कर देती हैं, जबकि पुरुष अपनी आय का केवल 35 प्रतिशत हिस्सा ही इन कार्यों पर ख़र्च करते हैं. इससे साफ हो जाता है कि महिलाओं को प्रोत्साहन देने से कई गुना लाभ मिलता है, ऐसे में ज़मीन के उपयोग और प्रबंधन में महिलाओं की भूमिका पर विशेष रूप से ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.

 

भूमि क्षरण की प्रक्रिया को रोकने के लिये लैंगिक समावेशी नज़रिया

 

ज़मीन की दोबारा से हरा-भरा बनाने और जैव विविधिता बहाल करने के लिए भूमि क्षरण तटस्थता को नुक़सान की भरपाई करने का सबसे प्रमुख तरीक़ा बताया गया है. भूमि के पुनर्स्थापन के व्यापक सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ हैं. जैसे कि ज़मीन की गुणवत्ता में सुधार करने से खाद्यान्न और पानी की कमी पर लगाम लगाई जा सकती है, जैव विविधता को होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है, साथ ही जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में भी मदद मिल सकती है. भूमि के पुनर्स्थापन के आर्थिक फायदों पर नज़र डालें तो अगर भूमि की सेहत सुधारने में एक डॉलर ख़र्च किया जाता है, तो इससे बदले में 7 से 30 अमेरिकी डॉलर का लाभ हो सकता है. इसके अतिरिक्त, ग्लोबल लैंड आउटलुक रिपोर्ट (GLO2) के दूसरे संस्करण के मुताबिक़ अगर भूमि का संरक्षण किया जाता और उसकी पुनर्स्थापना की जाती है, तो न केवल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम किया जा सकता है, बल्कि जैव विविधता को होने वाले नुक़सान पर भी लगाम लगती है और इससे प्रतिवर्ष 125 से 140 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक लाभ भी हो सकता है. ज़ाहिर है, कि स्वस्थ मिट्टी कार्बन सिंक के रूप में कार्य करती है, जो वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड की ज़्यादातर मात्रा को अवशोषित करती है. वायुमंडल में जितनी भी कार्बन डाई-ऑक्साइड मौजूद है उसका लगभग 80 प्रतिशत वापस मिट्टी में अवशोषित हो जाता है. यही वजह है कि भूमि का पुनर्स्थापन या भूमि की बहाली करने से कार्बन डाई-ऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलेगी. इतना ही नहीं यह जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम से कम करने में भी यह लाभदायक सिद्ध हो सकता है. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि अगर भूमि का पुनर्स्थापन किया जाता है, तो सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक लिहाज़ से इसके व्यापक लाभ हासिल होते हैं.

 

अफसोस की बात यह है कि भूमि का क्षरण रोकने में किए जाने वाले ख़र्च की तुलना में इससे होने वाले लाभ कई गुना अधिक हैं, बावज़ूद इसके भूमि पुनर्स्थापन के लिए ज़रूरी फंड की बेहद कमी है. बताया गया है कि सालाना आधार पर इसके लिए आवश्यक वित्तपोषण में लगभग 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर की कमी है. जलवायु से संबंधित तमाम मसलों के समाधान में जंगल और कृषि योग्य भूमि 30 प्रतिशत से अधिक योगदान देती है, बावज़ूद इसके क्लाइमेट फाइनेंस यानी जलवायु वित्त के लिए जो भी राशि आवंटित की जाती है, उसका सिर्फ़ 2.5 प्रतिशत हिस्सा ही वन और कृषि भूमि को दिया जाता है. इतना ही नहीं, वर्ष 2017-18 और 2019-20 के बीच भूमि संरक्षण और पुनरुद्धार के लिए आवंटित किए जाने वाले जलवायु वित्त में 20 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है. इस दौरान भूमि पुनर्स्थापन के लिए प्रति वर्ष औसतन 16.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का क्लाइमेट फाइनेंस उपलब्ध कराया गया है, जो बताता है कि इस दिशा में बहुत कम वित्तपोषण किया गया है.

 

चित्र 2: कृषि और भूमि उपयोग सेक्टर को किए जाने वाला जलवायु वित्त आवंटन

 

 स्रोत : FAO, 2022

 

एक बेहद अहम मुद्दा यह भी है कि ज़मीन की सेहत को सुधारने से जुड़े कार्यों में जो निवेश किया जाता है उसके पर्यावरणीय और सामाजिक लागत व लाभों की अमूमन कोई मार्केट वैल्यू नहीं होती है. कहने का मतलब है कि इसमें होने वाले ख़र्च की एवज़ में जो भी लाभ प्राप्त होते हैं बाज़ार के लिए उनका कोई ख़ास मतलब नहीं होता है. यही वजह है कि इस तरह के निवेश में निजी निवेशकों को कोई ख़ास आर्थिक फायदा नहीं होता है, इसलिए उनकी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती है. इनमें मौज़ूदा लैंगिक असमानताओं से जुड़ी लागत और इससे होने वाले लाभ भी शामिल हैं. ज़ाहिर है कि भूमि पुनर्स्थापन से जुड़ी पहलों के ज़रिये अगर महिलाओं का सशक्तिकरण किया जाता है, तो ऐसा करना न सिर्फ़ उनकी उत्पादकता को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है, बल्कि इससे समुदाय की भी बेहतरी का मार्ग प्रशस्त हो सकता है और विकास के लक्ष्यों को भी हासिल किया जा सकता है. 

 

इसके अलावा, अगर भूमि पुनर्स्थापन से जुड़े नीतिगत क़दमों और गतिविधियों में लैंगिक समावेशी नज़रिए को प्रमुखता दी जाती है, यानी महिलाओं को भी इनमें समुचित तवज्जो दी जाती है, तो इसके जो सामाजिक लाभ हैं, वो की गुना बढ़ सकते हैं और कहीं न कहीं इससे लागत की तुलना में अधिक लाभ हासिल किया जा सकता है. कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि ज़मीन की सेहत को सुधारने से जुड़े कार्यों में महिलाओं को प्राथमिकता देना न केवल एक बेहतरीन आर्थिक रणनीति है, बल्कि भविष्य में सामाजिक उत्थान हासिल करने का भी एक अच्छा विकल्प है.

 

इस हिसाब से यह कहना उचित होगा कि भूमि क्षरण तटस्थता (LDN) के लिए लैंगिक समावेशी नज़रिए पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए और इसके लिए नीचे दिए गए बिंदुओं पर फोकस किया जाना चाहिए-

 

1) भूमि पुनर्स्थापन से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश के वैकल्पिक रूपों को बढ़ावा दिया जाए, और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि इन परियोजनाओं के लागत-लाभ विश्लेषण में लैंगिक समावेशी नज़रिया शामिल हो. अगर इन परियोजनाओं में महिलाओं की भूमिका, उनके योगदान और आवश्यकताओं को प्रमुखता दी जाती है और उसका बेहतर तरीक़े से आकलन किया जाता है, तो इससे निश्चित तौर पर निवेशकों को पूरी जानकारी उपलब्ध होगी और वे बेहतर फैसले लेने में सक्षम हो सकेंगे.

 

2) कम कार्बन उत्सर्जन वाले खेती-बाड़ी के तरीक़ों को प्रोत्साहन देना और वन संरक्षण से जुड़ी गतिविधियों को बढ़ावा देना बेहद अहम है. हालांकि, वर्तमान में इस दिशा में अधिक कार्य नहीं किया जा रहा है. ऐसे में महिलाओं को प्राथमिका देने वाली कृषि और भूमि उपयोग से जुड़ी परियोजनाओं के लिए जलवायु वित्त को आवटिंत करना एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है. इससे जहां कृषि उपज में भी बढ़ोतरी होगी और मौज़ूदा लैंगिक असमानता के मुद्दे का भी सामधान हो सकेगा.

 

3) अगर महिलाओं के भूमि स्वामित्व से संबंधित अधिकारों को संरक्षित किया जाता है, तो इससे सरकारी योजनाओं तक महिलाओं की पहुंच सुनिश्चित हो सकती है. इसके अलावा परिवार में उनकी स्थिति मज़बूत हो सकती है और पारिवारिक फैसलों में उनकी भूमिका बढ़ सकती है. इसके साथ ही महिलाओं को कर्ज़ हासिल करने में सहूलियत हो सकती है, जिससे महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है. इसलिए, महिलाओं को उनकी ज़रूरत के मुताबिक़ व्यक्तिगत वित्तीय सेवाएं और ऋण सुविधाएं उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, ताकि महिलाओं को टिकाऊ कृषि प्रथाओं यानी पर्यावरण या जलवायु अनुकूल खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और भूमि पुनरुद्धार से जुड़ी परियोजनाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके.

 

4) खेती-किसानी करने वाली महिलाओं की बीज, उर्वरक और कृषि की आधुनिक तकनीक़ जैसी ज़रूरी चीज़ों तक पुरुषों के समान पहुंच सुनिश्चित करने से कृषि उपज में बढ़ोतरी हो सकती है. इसके अलावा, महिला किसानों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए विशेष कृषि सेवाओं को विकसित किया जाना चाहिए. साथ ही खेती और भूमि प्रबंधन के पर्यावरण अनुकूल तौर-तरीक़ों के बारे में भी महिलाओं को ख़ास तौर पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए.

 इस तरह के आंकड़े न केवल भूमि क्षरण तटस्थता को लेकर लैंगिक आधार पर लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए बेहद ज़रूरी हैं, बल्कि इस तथ्य को समझने के लिए भी आवश्यक हैं कि भूमि क्षरण का महिलाओं और पुरुषों पर किस प्रकार का असर पड़ता है.

ये जिनती भी रणनीतियां बताई गई हैं उन्हें तभी बेहतर तरीके से लागू किया जा सकता है, जब भूमि की बिगड़ती सेहत से पड़ने वाले प्रभावों और भूमि की हालत को सुधारने के लिए किए जाने वाले प्रयासों से जुड़े आंकड़े लैंगिक आधार पर उपलब्ध हों. यानी इस संबंध में जो भी आंकड़ें उपलब्ध हैं उन्हें लैंगिक आधार पर अलग-अलग किया जाना चाहिए. कहने का मतलब यह है कि इनसे कितनी महिलाएं प्रभावित हैं या कितनी संख्या में महिलाएं लाभान्वित हैं, उसके विस्तृत आंकड़े ज़रूरी हैं. इस तरह के आंकड़े न केवल भूमि क्षरण तटस्थता को लेकर लैंगिक आधार पर लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए बेहद ज़रूरी हैं, बल्कि इस तथ्य को समझने के लिए भी आवश्यक हैं कि भूमि क्षरण का महिलाओं और पुरुषों पर किस प्रकार का असर पड़ता है. साथ ही इससे यह भी जानकारी मिल सकती है कि भूमि के पुनरुद्धार की कोशिशों में महिलाएं और पुरुष किस प्रकास से अपनी भागीदारी निभा सकते हैं. इसके साथ ही इन आंकड़ों से मिले निष्कर्षों को दूसरे सामाजिक-आर्थिक सूचकों के साथ जोड़ना भी बेहद अहम है, तभी इसको लेकर एक व्यापक दृष्टिकोण बनाया जा सकता है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भूमि क्षरण तटस्थता से जुड़ी गतिविधियों में लैंगिक अंतर को दूर करना बेहद आवश्यक है और इसे लक्षित एवं प्रभावी नीतिगत क़दमों के ज़रिए ही हासिल किया जा सकता है. साथ ही ऐसा करके भूमि सुधार से जुड़े कार्यों में लैंगिक समानता को यानी महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सकता है और पर्यावरण अनुकूल भूमि प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सकता है.


शारोन सराह थवाने ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में ओआरएफ कोलकाता के निदेशक की एक्जीक्यूटिव असिस्टेंट हैं.

देबोस्मिता सरकार ऑब्ज़र्व रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में जूनियर फेलो हैं.

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