Author : Vikram Sood

Published on May 20, 2017 Updated 0 Hours ago

कश्मीर में जो चल रहा है वह आजादी का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह पाकिस्तानी सेना की ओर से हमारे खिलाफ छेड़ा गया युद्ध है जो वर्षों से चल रहा है और जिसके नियम भी पाकिस्तानी सेना ही तय करती है।

कश्मीर: हकीकत का सामना जरूरी

शुरुआत कुछ स्पष्टीकरण से करते हैं। कश्मीर में कोई स्वतंत्रता संग्राम नहीं चल रहा, बल्कि यह एक युद्ध है जो पाकिस्तान ने हमारे खिलाफ छेड़ा हुआ है, जो वर्षों से चल रहा है और जिसके नियम भी पाकिस्तानी सेना ही तय करती है। इसलिए युद्ध के ये नियम हर हाल में बदलने होंगे, वे कार्रवाई करें और हम सिर्फ प्रतिक्रिया करें यह नहीं हो, बल्कि स्थिति हमारे काबू में रहे, नियंत्रण हमारा रहे। इसकी शुरुआत हमें अपनी ओर से कुछ कदम उठा कर करनी चाहिए। जब हमारे रिश्तों में कुछ ठोस हो नहीं रहा तो फिर पाकिस्तान में हमें अपना उच्चायुक्त रखने का कोई मतलब नहीं है और ना ही अपने यहां उनका उच्चायुक्त बिठाने का कोई फायदा है। उनके उच्चायुक्त उल्टा हमारे टीवी पर प्राइम टाइम पर प्रवचन करते हैं और पूरे देश में अपनी बात फैलाते हैं। राजनयिक व्यवस्था को घटाना पहला कदम हो सकता है। इसी तरह कारोबार के लिहाज से सबसे पसंदीदा देश यानी मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) का दर्जा भी वापस लेना होगा। जब दोनों देशों के बीच ज्यादा कारोबार हो ही नहीं रहा तो फिर इस रवायत को भी छोड़िए। प्याज के बदले बिजली का प्रस्ताव करने की कोई जरूरत नहीं। अभी जो स्थितियां हैं उनमें यही वे कदम हैं जो हमें तुरंत उठाने होंगे। भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौते को बहुत लंबा समय बीत चुका है और अब समय आ गया है, जब हम इस पर पुनर्विचार करें ताकि यह भारतीय हितों और मौजूदा परिस्थितियों के मुताबिक ज्यादा अनुकूल हो। रणनीतिक रूप से हमें परमाणु बम का पहला इस्तेमाल नहीं करने की नीति पर भी दुबारा विचार करना चाहिए। ये सब कदम उठाते हुए हमें यह भी ध्यान रखना है कि इस दौरान हमें किसी रूठे बच्चे की तरह पेश नहीं आना, बल्कि यह सब एक राजनीतिक हकीकत को स्वीकार करने की प्रक्रिया के तहत हो। यह हकीकत है कि पाकिस्तान और भारत के बीच बहुत कम साम्य है और बेहतर होगा कि दोनों अपना रास्ता अलग-अलग कर लें। (पाकिस्तान गुड बाय एंड गुड लक, आनंद रंगनाथन)

पाकिस्तान के शासकों यानी वहां की सेना के मिजाज के बारे में भी हमें अपने भ्रम समाप्त कर लेने चाहिएं। शीर्ष पर होने वाले बदलाव के साथ इनके मिजाज में कोई बदलाव नहीं आता। सर्वोच्च व्यक्ति सिर्फ सर्व शक्तिमान कोर कमांडर्स के प्रति ही जवाबदेह होता है। इस मामले में हमेशा से निरंतरता बनी रही है। उनके मन में अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को ले कर भी सम्मान नहीं है और वे इसे छुपाते भी नहीं। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपने दुश्मन और हिंदू भारत के साथ जरा भी बेहतर तरीके से पेश आएं। इसलिए हममें से जो लोग यह सपना देख रहे हैं कि पाकिस्तान के साथ सदा-सर्वदा की शांति हासिल कर सकते हैं, वे इस जमीनी हकीकत को स्वीकार कर लें।

पुंछ की किशन घाटी में हुए ताजा खूनी हमले किसी पेशेवर फौज की निशानी नहीं हैं। इसे पाशविकता कहना भी पशुओं का अपमान होगा। यह ऐसी सेना की हरकत है जिसने इस्लामिक स्टेट के मूल्यों को स्वीकार कर लिया है। अगर इन्हें मूल्य कहा जा सकता है तो ये ऐसे मूल्य हैं जहां सर्वाधिक बर्बरता को प्राथमिकता दी जाती है। दुश्मन को सर्वाधिक बर्बरता और घृणा के साथ मार डालो। यह सुनिश्चित करो कि फिर से मेल-जोल की कोई गुंजाइश ही नहीं बचे।

जगन्नाथन (पाकिस्तान इजंट द प्रोब्लम, इट्स अस) ने हाल में बहुत अहम बातें रखी हैं। उन्होंने कहा है कि हमें युद्ध से डरना नहीं चाहिए और अब वक्त आ गया है जब हमें रक्षात्मक रवैया छोड़ कर हमलावर रवैया अपना लेना चाहिए। ऐसा करते समय हमें यह पता होना चाहिए कि पूर्ण युद्ध का मतलब क्या हो सकता है। साथ ही हम ऐसे देश को खेल के नियम तय करने की इजाजत नहीं दे सकते जो हमारे सैनिकों का मजाक उड़ाता है, उनको मारता है और उनका अपमान करता है। वे दावा करते हैं कि वे कश्मीर के नाम पर ये हत्याएं करते हैं। यह सच नहीं है, यह एक बहाना है। पाकिस्तानी सैनिकों को भारती सैनिकों की हत्या करने का पाठ पढ़ाया जाता है जो लगातार वहाबी होते जा रहे पाकिस्तान की “हिंदू” के प्रति घृणा की भावना का भी साफ संकेत है। यह साफ तौर पर भारत-पाकिस्तान मुद्दा है और हमें उसके अनुरूप ही प्रतिक्रिया करनी होगी।

यह सच है कि हमने गलतियां कीं, बहुत सी कीं। साथ ही बहुत सी शिकायतें भी हैं, जिनमें कुछ सच्ची हैं, कुछ झूठी हैं और कुछ बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई हैं। लेकिन ये मौजूद हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा की रैडक्लिफ लाइन के लिहाज से दूसरे हिस्सों में तो हम विवाद को दूर करने में कामयाब रहे, लेकिन जब जम्मू-कश्मीर की बात आई तो यह नहीं हो सका, जहां गिलगित, बालटिस्तान, जम्मू, लद्दाख और श्रीनगर जैसे कई हिस्सों को अलग-अलग शासकों ने एक साथ रख दिया था। ब्रितानी सरकार भले ही भारत छोड़ रही थी, लेकिन उनकी औपनिवेशिक मानसिकता तब भी बहुत हावी थी। ऐसे में उन्होंने चालाकी दिखाई। उन्होंने गिलगित और बालटिस्तान को विद्रोह कर पाकिस्तान के साथ जाने की मांग करने को उकसाया। उन्हें लगता था कि भविष्य में सोवियत का मुकाबला करने के लिहाज से यह उनके लिए बेहतर होगा।

कश्मीर कहीं नहीं जा रहा। लेकिन हमें सावधान रहना होगा कि कश्मीरियत की जगह इस्लामियत नहीं ले ले।

कई लोगों को लग रहा है कि जो आशंका थी, वह सच होने लगी है। लेकिन सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे युवाओं को सिर्फ बेहतर आर्थिक अवसर या राजनीतिक आजादी नहीं चाहिए। सेना और अर्धसैनिक बलों को भी इस स्थिति के लिए दोष नहीं दिया जा सकता। सेना को वहां कानून व्यवस्था कायम करने के लिए भेजा गया है ना कि समाधान तलाशने। इसने कभी कहा नहीं कि उसे राज्य में लगाया जाए। यह काम उन्हें हमारे राजनैतिक नेतृत्व ने दिया है। राजनेता इस मामले में लगातार असफल होते रहे हैं और नौकरशाह भी बेहतर साबित नहीं हुए हैं। इसके बावजूद सेना और अर्धसैनिक बल एक मुश्किल काम को पूरा करने में लगे हैं। ऐसे में हमें सेना के कामों को ले कर ज्यादा क्षमाप्रार्थी होने का भाव रखने की जरूरत नहीं है। इसका समाधान श्रीनगर और नई दिल्ली में बैठे राजनेताओं को निकालना है और अफसरशाहों को इसमें उनकी मदद करनी है।

Srinagar, Kashmir, Jammu and Kashmir
फोटो: जेस राप्जाक/सीसी बाय- एनडी 2.0

कई मौके आए हैं जब सेना और अर्धसैनिक बलों ने भारी मुश्किल से और जान-माल के बड़े नुकसान के बाद स्थिति को सामान्य करने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन इन मौकों पर राजनेता इसका लाभ उठाने में नाकाम रहे हैं और संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए इस स्थिति को फिर से बिगड़ जाने दिया गया। हर राजनीतिक दल ने सिर्फ अपने राजनैतिक वर्चस्व को कायम रखने की सोची और अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने में जुटे रहे। यहां तक कि उन्होंने जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरवादियों के साथ भी हाथ मिलाया और इसका नतीजा हम आज देख रहे हैं। ऐसे परेशान करने वाले दृष्य सामने आ रहे हैं, जिसमें एक हथियारबंद जवान को “संयम बरतना” पड़ रहा है जबकि कुछ स्थानीय शरारती तत्व उस पर लगातार हमला कर रहे हैं। संदेह नहीं कि ऐसा वह ऊपर से मिले आदेश की वजह से करने को मजबूर हो रहा होगा। दूसरे किसी देश में ऐसा नहीं हो सकता था और ना ही इसकी जरूरत है। एक बार वर्दी को ले कर डर और इज्जत समाप्त हो गई तो समझिए कि एक संस्था का पतन हो जाएगा और फिर हम अव्यवस्था की ओर बढ़ जाएंगे। यह उस पड़ोसी देश की वजह से हो रहा होगा जो खुद अपने संघर्षों में तबाह हो रहा है।

क्या इसका कोई समाधान है? यह तो तलाशना ही होगा और इसे कश्मीर के लोगों के साथ मिल कर और उनसे बात कर के ढूंढ़ना होगा। हुर्रियत कश्मीर के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि पाकिस्तानी हितों का प्रतिनिधित्व करता है। हमें पाकिस्तान के साथ पेश आते समय अलग रवैया अपनाना है और उसे अपने मुसलमानों के साथ जोड़ कर नहीं देखना। अगर हमने ऐसा किया तो यह बहुत बड़ी गलती होगी। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां तो धर्म हटा लीजिए तो देश बचता ही नहीं है। जबकि भारत अगर धर्म के आधार पर आगे बढ़ेगा तो देश बचा ही नहीं रहेगा। हम पाकिस्तान को भारत में दखल करने के लिहाज से काबू करेंगे और कश्मीर के मुद्दे का समाधान अपने संविधान के तहत हासिल करने की कोशिश करेंगे। कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए पाकिस्तान से बात करने का कोई मतलब नहीं होगा और ना ही इससे समाधान निकल सकता है। अब तक हमें यह समझ जाना चाहिए कि ऐसा सोचना कोरी मूर्खता होगी। निश्चित तौर पर पाकिस्तान में भी एक वर्ग है जो भारत के साथ रिश्तों को सामान्य करने व सेना की सर्वोच्चता के खिलाफ राय रखता है। लेकिन यह वर्ग बहुत प्रभावी नहीं है और साथ ही कश्मीर के मामले पर यह भी अलग स्वर में नहीं बोलेगा।

क्या कोई समाधान है? यह तो हमें तलाशना ही होगा और इसे कश्मीर के लोगों के साथ बातचीत के जरिए तलाशा जा सकता है।

तीन पहलू हैं, जिन पर गौर करना जरूरी है। अल्पकालिक उपाय के तौर पर हमें शांति स्थापित करने व कानून-व्यवस्था की स्थिति को ठीक कर यहां जीवन को सामान्य करने पर ध्यान देना होगा। यह काम सेना और अर्धसैनिक बलों की ओर से किया जाएगा और आम तौर पर ऐसी गतिविधियों को ले कर हम जैसी सफाई देते हैं, उसकी जरूरत नहीं। सैन्य बलों पर पूरा भरोसा रखना होगा कि वे अपना बेहतरीन प्रदर्शन करेंगे। मीडिया और इसके चीख-पुकार मचाने वालों को दूर रखिए। अपने सनसनीखेज तरीकों और बिना जानकारी के अटकलों के आधार पर की जाने वाली बातों की वजह से वे तनाव को बढ़ाते हैं। ऐसे में जब सैन्य बल अपना काम कर रहे हों उन्हें इनकी विशेषज्ञ राय या संवेदनहीन और भड़काऊ रिपोर्टिंग की जरूरत नहीं। खास कर ऐसी रिपोर्ट जो बलों और लोगों के बारे में गलत राय बनाती हो। अल्पकालिक से मध्यकालिक उपायों की ओर जाने में खुफिया सूचना की बहुत जरूरत होगी।

मध्यकालिक उपायों के रूप में रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय को अपनी व्यवस्था बेहतर करनी होगी। लाल फीताशाही को दुरुस्त कर सैनिकों को आधुनिकतम उपकरण मुहैया करवाने होंगे। बलों की पर्याप्त संख्या में तैनाती जैसे काम कमांडरों के ऊपर छोड़ दिए जाने चाहिएं। यह भी ध्यान रखना होगा कि जम्मू और कश्मीर में हो रहे व्यापक ढांचगत विकास के काम रुकने नहीं चाहिएं। सड़क, पुल और सुरंगों के निर्माण का काम हर हाल में जारी रहना चाहिए। घाटी के अंदर, राज्यके अंदर और देश के दूसरे हिस्सों से आवागमन को अनिवार्य रूप से बेहतर बनाया जाना चाहिए। इससे सबसे ज्यादा परेशान पाकिस्तान होगा, क्योंकि पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में इस लिहाज से बेहद बुरी हालत है। आवागमन के बेहतर साधन ना सिर्फ स्थानीय लोगों के लिए रोजगार मुहैया करवाते हैं, बल्कि इनका उन्हें स्थायी लाभ होगा।

हमें नदी और ऊर्जा परियोजनाओं में भी आगे बढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए और जिस परियोजना को मंजूरी हो, उसे आगे बढ़ाना चाहिए। ऐसी किसी भी परियोजना का जब-जब पाकिस्तान विरोध करेगा, यह जाहिर होता रहेगा कि वह आम कश्मीरी के हित को ले कर चिंतित नहीं है। पाकिस्तान को सिर्फ जमीन चाहिए और वे नदियां चाहिएं जिनसे वह पंजाब सूबे में अपने खेतों की सिंचाई कर सके। कश्मीरियों का भविष्य भी बलूच, सिंधी या पश्तून की तरह होगा। लेकिन वह एक काल्पनिक तुलना है। मध्यम से दीर्घ काल के दौरान राज्य को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर देना चाहिए जिसमें अहले हदित और जमात स्कूलों से दूरी बनाई जाए। ऐसे स्कूलों की भारत में कोई जगह नहीं। हमारे पास कश्मीर के लिए खास तौर पर एक कार्य बल होना चाहिए। इसमें मुख्य रूप से सैन्य बल के लोग हों और थोड़ी संख्या में नौकरशाहों को लिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि हम सिर्फ कश्मीर समस्या से नहीं जूझ रहे, बल्कि भीतरघातियों और पाकिस्तान से भी निपट रहे हैं।

दीर्घकालिक योजना के तहत प्रधानमंत्री को कश्मीरियों से बातचीत कर रास्ता तलाशने की योजना पर काम करना चाहिए। इन बातचीत में हुर्रियत को शामिल किया जा सकता है, लेकिन ये सिर्फ हुर्रियत के साथ या हुर्रियत के नेतृत्व वाली नहीं हो सकती। इसमें कुछ खास नियम पहले से तय होने चाहिएं। जैसे कि आजादी को ले कर कोई बातचीत नहीं हो सकती। विशेष सुविधाएं और कुछ को बाहर रखने का तरीका खत्म हो। इन उपायों की समय सीमा एक-दूसरे से अलग नहीं होगी, बल्कि ये सभी एक-दूसरे से जुड़ी रहेंगी।

अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान की कमान इसकी सेना के हाथ में ही है। यही देश की मालिक है। राजनेता महज सेना की कृपा पर रहते हैं। सार्वजनिक और निजी कारोबार की साझेदारी का देश में सबसे बड़ा तंत्र यही है। आगे भी नियंत्रण इसी के हाथ में होगा, ऐसा मानने के वाजिब कारण हैं। भारत का खौफ दिखा कर यह ऐसा करती रहेगी। यह जताती रहेगी कि देश और इस्लाम की रक्षक यही है। इस बारे में हमें अक्सर साक्ष्य मिलते रहते हैं, लेकिन इसके बावजूद हम अनावश्यक उम्मीद लगाए रहते हैं। कुलभूषण जाधव के खिलाफ आरोपों के साथ कई घटनाओं का सिलसिला शुरू हो गया है। इसमें उसे भारतीय जासूस बता दिया गया और बिना सुनवाई के ही उसे फांसी की सजा सुना दी गई। इसी तरह ‘आत्मसमर्पण’ करने वाले टीटीपी नेता एहसानुल्लाह एहसान को भारत समर्थित आतंकवादी करार दे दिया गया। फिर हमने देखा उसका तोते की तरह पढ़ा कर किया गया इंटरव्यू। ये सभी बताते हैं कि रावलपिंडी के नए नेतृत्व की योजनाएं कैसी हैं।

हाल ही में पाकिस्तानी सेना के एक मेजर जनरल ने खुल कर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के कार्यालय की आलोचना की है। भारत में ऐसी किसी घटना के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यही फर्क है दोनों देशों के बीच। दोस्ती भरी मुलाकातें दोतरफा संबंधों को बेहतर करने के लिहाज से काफी अच्छी हैं। बेहतर दोतरफा रिश्ते कायम करने की दिशा में ये काफी मददगार साबित होती हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि पाकिस्तान के मामले में इससे कोई मदद नहीं मिल रही। भारत की उदारता का जवाब हमेशा दुस्साहस से दिया गया है। इसी तरह यह उम्मीद भी बेकार साबित हुई है कि कुछ छूट देने से, लोगों से लोगों के रिश्ते बेहतर करने से दोनों देशों के राजनीतिक रिश्ते भी अच्छे होंगे। या तो इस तरह के प्रस्तावों को जल्दी ही खत्म कर दिया जाता है, या फिर यह मान लिया जाता है कि पाकिस्तान की सख्त नीति की वजह से भारत इस तरह की दरियादिली दिखाने को मजबूर हुआ है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि यह नीति जारी रहनी चाहिए। जिहादी और सेना दोनों साथ मिल कर इस तर्क को ले उड़ते हैं। जनरल परवेज मुशर्रफ 2001 में आगरा आए थे तो पक्के यकीन के साथ कि भारतीय नेतृत्व पूरी तरह थक चुका है और अब शांति के रास्ते तलाश रहा है।

इसलिए पाकिस्तान और कश्मीर को अलग-अलग ही रखना होगा और अलग-अलग ही इनसे निपटना होगा। पाकिस्तान किसी भी कीमत पर यहां शांति कायम नहीं होने देगा। भारत की मदद करने के पक्ष में इसके पास कोई तर्क भी नहीं हैं, क्योंकि मौजूदा स्थिति इसके मुफीद है। इसी तरह भारत के खिलाफ दुश्मनी कायम रहना पाकिस्तानी सेना को भी पूरी तरह उपयुक्त बैठता है। इससे बाकी दुनिया के लोग भी परमाणु खतरे के पहलू की वजह से चिंतित रहते हैं। इसी वजह से अक्सर यह खुद ही परमाणु खतरे को हवा देता रहता है। 1989 से शुरू हुई समस्या को पाकिस्तान ने नहीं खड़ा किया है, बल्कि हमने खुद खड़ा किया है और इसका फायदा उन्होंने जरूर उठाया है। अब यह उम्मीद मत रखिए कि पाकिस्तान भारत की मदद करेगा और कश्मीर समस्या के समाधान में कोई दिलचस्पी दिखाएगा। यह ऐसा करे क्यों? मौजूदा स्थिति उन्हें सबसे उपयुक्त बैठती है। जो लोग यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान के साथ बातचीत से स्थिति बदल सकती है, वास्तव में वे अपने ही बनाए भ्रमजाल में उलझे हैं।

पाकिस्तान और कश्मीर दोनों मुद्दों को पूरी तरह अलग-अलग रखना होगा। पाकिस्तान किसी कीमत पर यहां शांति कायम नहीं होने देगा। भारत की मदद करने की इसके पास कोई वजह नहीं है क्योंकि इसे लगता है कि यह स्थिति इसके लिए पूरी तरह अनुकूल है।

कश्मीरियों को यह समझाना होगा कि पाकिस्तान के साथ उनका विलय या फिर आजादी दोनों ही नामुमकिन हैं। निश्चित तौर पर कश्मरीरी भी यह समझने लगे हैं कि ऐसे देश में उनका कोई भविष्य नहीं है जहां बलूच और सिंधी आजादी चाहते हैं और पश्तूनों को लगातार पाकिस्तान में पंजाबी आधिपत्य का खतरा सता रहा है। यह संभव है कि जब हिंसा समाप्त हो जाए या थाम दी जाए तो घाटी के लिए कुछ विशेष प्रबंध किए जाएं, लेकिन यह पूरी तरह भविष्य की बात है। जब तक आतंकवाद चलता रहेगा कोई बातचीत नहीं हो सकती, सैन्य बलों की ओर से अत्यधिक संयम का भी उल्टा नतीजा हो सकता है। तुष्टीकरण का कोई फायदा नहीं होता, बल्कि इसका उल्टा असर होता है। इससे फसादियों को मदद मिलती है और उदारवादियों और सेना को निराशा होती है। खुद को अच्छा और नरम दिखाने के चक्कर में हमें अपने एक संस्थान को नष्ट नहीं करना चाहिए।

चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका पाकिस्तान को बचाते हैं तो अपने रणनीतिक कारणों से। पाकिस्तान की ऐसी गतिविधियों का एक कारण यह भी है कि इसे इन देशों से दूसरे कारणों से समर्थन मिलता है। अमेरिका को पता नहीं है कि वह इस लिहाज से कहां खड़ा है। हमें भी पता नहीं है कि अमेरिका किस मामले पर, किस तरह, कब और कितनी करवट लेगा। यूरोपीय लोग अपनी ही समस्याओं में उलझे हैं और इस्लामी आतंकवाद को ले कर उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा है। रूस और चीन को पाकिस्तान में अपने लिए एक संभावना दिख रही है। पाकिस्तान को लगता है कि इस उलझन का उसे फायदा उठाना चाहिए। पाकिस्तान बलूचिस्तान को बाकी दुनिया से पूरी तरह काट कर सील कर देना चाहता है। इसकी कोशिश है कि अपने ही लोगों को एक दबाव कक्ष में रख कर बर्बरताओं के जरिए सेना के चीनी स्वामियों और देश को कर्ज देने वालों को खुश कर सके। यह अपने पसंदीदा क्षद्म जिहादियों के जरिए अफगानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है जिससे कि इसे उम्मीद है कि वह भारत को दबाव में ले लेगा।

सामान्य तौर पर अगर यह पश्चिम में या अमेरिका में हो रहा होता तो दूसरे विश्व यु्द्ध के बाद हुई न्यूरेमबर्ग सुनवाई जैसी सुनवाई की मांग उठ रही होती। उन्होंने सर्बियन नेता रोडवान कारजिक के साथ भी यही किया था। पाकिस्तानी सेना के लिए ऐसी ही सुनवाई क्यों नहीं होनी चाहिए? हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारत के खिलाफ आतंकवाद हमारी अपनी समस्या है। इसलिए भारत को दूसरों से महज कुछ संवेदनशील बयानों से ज्यादा की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। हाल ही में तुर्की के एक तानाशाह हमारे यहां आए तो उन्होंने नैतिकता के इतने ऊंचे पायदान पर खड़े हो कर बातें की, जबकि अपने देश में स्वतंत्रता की मांग को उन्होंने बर्बरता से कुचला है। दूर की दुनिया से आए लोगों के लिए स्थानीय हकीकत और इतिहास को समझना मुश्किल है। जबकि भारत को 70 साल से एक ऐसी लड़ाई का सामना करना पड़ रहा है जिसमें दुश्मन ने कुछ अलग ही साधन अपनाए हुए हैं। ऐसे में अंतहीन संयम की नीति को समाप्त करना ही होगा। यह याद रखना भी सही रहेगा कि इस मामले में हम खुद ही अपने साथ हैं। यह हमें देखना है कि हमें अपने ऊपर विश्वास है या नहीं और हम टीवी चैनलों पर होने वाली गर्मा-गर्म बहसों से आगे बढ़ कर वास्तव में एक लंबा युद्ध लड़ने का साहस रखते हैं या नहीं।

आखिरकार हमें यह सिलसिला समाप्त करना होगा और अपने मुताबिक समय और जगह तय कर के पाकिस्तानी सेना और वहां के शीर्ष लोगों को जो सबसे ज्यादा दर्द दे, ऐसा हमला करना होगा। ऐसा करते समय हमें परमाणु धमकी से डरना नहीं चाहिए, जिसके बारे में पाकिस्तान अकसर घुड़की देता रहता है और जिसको ले कर पश्चिम भी अक्सर सहमा रहता है। अगर पश्चिमी देशों को ऐसे किसी अंजाम की चिंता है तो उन्हें सबसे पहला काम यह करना चाहिए कि उन्हें पाकिस्तान को यह बता देना चाहिए कि उसे इस क्षेत्र में अपनी ओछी हरकतों की कीमत चुकानी होगी। देखा जाए तो लोगों को उत्तरी कोरिया और अमेरिका के बीच चल रहे संघर्ष को ले कर ज्यादा चिंतित होना चाहिए। दोनों में से किसी भी पक्ष ने ठंडे मन से आत्मपरीक्षण करने की कभी इच्छा भी नहीं दिखाई है।

ज्यादा चिंता की जरूरत भी नहीं है। पाकिस्तानी जनरल दुस्साहसी और इस्लाम से जुड़े जरूर हैं, लेकिन मूर्ख नहीं हैं। वे उस क्षेत्र के लिए परमाणु युद्ध नहीं छेड़ने जा रहे जो आकार में सिंधु बेसिन के उनके उपजाऊ खेतों के बराबर हो और मुस्लिम आबादी में उस बलूचिस्तान के बराबर हो जिसे वे बर्बरता के साथ हमेशा रौंदते रहते हैं। ये जनरल इस छोटे लक्ष्य के लिए पूरे पाकिस्तान को खो देने का खतरा भी नहीं उठाना चाहेंगे।

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