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मध्य पूर्व (पश्चिमी एशिया) और अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष के इलाक़े, जिहाद के जोश से भरे विदेशी लड़ाकों की प्रेरणा का स्रोत बन रहे हैं. यहां तक कि ग़ज़ा में भी, जहां की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि वहां दूसरे देशों के लड़ाके जाकर जिहाद नहीं कर सकते हैं. इसके बावजूद जिहादियों की हस्ती और उनके इरादों में कोई कमी नहीं आई है. ये हालात ठीक वैसे ही हैं, जैसे हम चेचन्या के अलावा सीरिया- इराक़ और ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान में देख चुके हैं, जहां वैचारिकता की घुट्टी पिलाकर विदेशी लड़ाकों को धर्म पर ख़तरे का डर दिखाते हुए उन्हें इस जटिल संघर्ष का हिस्सा बना लिया गया था. जिहादी संगठन अपने लड़ाकों की तादाद बढ़ाने के लिए लोगों के ऊपर ज़ुल्म और धर्म की रक्षा के नाम पर युवाओं को बहला-फुसलाकर आकर्षित करने में माहिर होते हैं. एक महान मक़सद का ख़्वाब दिखाकर इन नौजवानों को आकर्षित किया जाता है और फिर फ्रांस और मालदीव जैसे दूर-दराज़ के इलाक़ों के लोगों को ऐसे कारण बताकर उन संघर्षों का हिस्सा बना लिया जाता है, जिनके बारे में उनको बहुत कम जानकारी होती है. कहा जाता है कि जब इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक़ ऐंड सीरिया (ISIS) अपनी ताक़त के उरूज़ पर था, तब उसके लगभग दो तिहाई सदस्य विदेशी लड़ाके थे.
जब हम जिहाद के नाम पर अपनी मर्ज़ी से दूसरे देशों में जाकर लड़ने वालों का विश्लेषण करते हैं, तो पता चलता है कि उनमें से ज़्यादातर का ताल्लुक़ या तो उन इलाक़ों से था, जहां इस्लाम का उदय हुआ, यानी मध्य पूर्व और मध्य एशिया..
इसके बावजूद, जिहादी दुष्प्रचार ने कुछ देशों पर बहुत गहरा असर डाला है और कुछ पर बहुत कम. जब हम जिहाद के नाम पर अपनी मर्ज़ी से दूसरे देशों में जाकर लड़ने वालों का विश्लेषण करते हैं, तो पता चलता है कि उनमें से ज़्यादातर का ताल्लुक़ या तो उन इलाक़ों से था, जहां इस्लाम का उदय हुआ, यानी मध्य पूर्व और मध्य एशिया. या फिर ये जिहादी लड़ाके, पश्चिमी देशों के समृद्ध और उदारवादी ठिकानों से दूसरे देश लड़ने के लिए आए थे. बेलमेलेश और क्लोर ने 2016 में इस्लामिक स्टेट के विदेशी मूल वाले लड़ाकों पर अध्ययन किया था. जिसमें पता ये चला था कि उनमें से आधे से ज़्यादा जिहादी मुस्लिम बहुल देशों से ताल्लुक़ रखते थे. हालांकि, जो बात सच में हैरान करने वाली है कि ISIS के एक चौथाई से ज़्यादा लड़ाके पश्चिमी देशों से जिहाद लड़ने आए थे. ये आंकड़े तब और हैरान करते हैं, जब हम इन जिहादियों के देशों की आबादी और वहां से निकलने वाले लड़ाकों की संख्या का आकलन करते हैं. अगर आबादी के अनुपात के लिहाज़ से देखें, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों में हर दस लाख लोगों के बीच से क्रमश: 26 और 12 जिहादी इस्लामिक स्टेट में शामिल होने पहुंचे थे. वहीं, मिस्र और इंडोनेशिया जैसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशों की हर दस लाख आबादी में से तीन और छह आतंकवादियों ने ही इस्लामिक स्टेट की तरफ़ से लड़ने के लिए अपना वतन छोड़ा था. इनकी तुलना में अगर हम भारत और सिंगापुर जैसे ग़ैर मुस्लिम देशों को देखें, तो यहां से इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने जाने वालों की संख्या बहुत कम थी. वहीं, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), मलेशिया , ओमान, बहरीन के बहुत ही कम नागरिकों ने इस्लामिक स्टेट की तरफ़ से जिहाद लड़ने में दिलचस्पी दिखाई थी. इन आंकड़ों से सवाल ये उठता है कि जिहाद की तरफ़ आकर्षित होने को लेकर अलग अलग समाजों में दिलचस्पी कम या ज़्यादा क्यों दिखती है. ये सवाल ऐसे समय में और गंभीर हो जाता है, जब दुनिया के तमाम मुस्लिम देशों में उथल-पुथल मची हुई है, जिससे जिहादी संगठनों को धर्म के नाम पर प्रताड़ित किए जाने का माहौल बनाने में और भी मदद मिलती है.
मुस्लिम विश्व के कुछ हिस्सों में जहां मज़हब रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है, वहां एक कमज़ोर तबक़ा ऐसा है, जो इस भड़काऊ जिहादी विचारधारा की तरफ़ आकर्षित हो जाता है. जिहाद के नाम पर मरने मारने को उतारू होने के पीछे भू-मंडलीकरण से लेकर, दुनिया भर के मुसलमानों के एक होने या ‘उम्माह’ के नाम पर एकजुटता जैसे कई कारण हो सकते हैं. इस्लामिक वाद एक राजनीतिक विचार है, जो सारे मुसलमानों के बीच एकजुटता पर ज़ोर देता है और देश की सरहदों की बंदिशों से परे एक मज़बूत मज़हबी पहचान बनाने का इरादा रखता है. इससे अक्सर ये होता है कि संघर्षों को धर्म के चश्मे से देखकर पहचान बनाने की कोशिश की जाती है. वहीं दूसरी तरफ़, इस्लाम पर मिले जुले असर के कारण, आबादी के शुद्धतावादी तबक़े के बीच इस्लाम की एक कट्टर धार्मिक विचार वाली व्याख्या को बढ़ावा दिया जा रहा है. इससे जिहादी संगठनों को अपने यहां भर्ती करने की ऊर्वर ज़मीन तैयार मिलती है. इसे वो ‘मज़हबी शुद्धता’ की सुरक्षा के लिए धर्म युद्ध लड़ने की ज़िम्मेदारी के तौर पर देखते हैं. किसी भी देश की इस्लामिक बुनियाद अक्सर ऐसे कट्टरपंथ को वाजिब ठहराने का बहाना बन जाती है, जिससे इन ख़तरनाक तर्कों को वैधानिकता का जामा पहना दिया जाता है.
पश्चिमी देशों में जिहाद के प्रति आकर्षण की चुनौती, अप्रवासों का स्थानीय तबके से मेल-जोल न हो पाने की वजह से पैदा होती है. ये ऐसी प्रक्रिया है जिसे अपने आप जारी रहने दिया जाए, तो ये तीन से चार पीढ़ियों और कई दशकों में अपनी ज़मीन तैयार करती है.
पश्चिमी देशों में जिहाद के प्रति आकर्षण की चुनौती, अप्रवासों का स्थानीय तबके से मेल-जोल न हो पाने की वजह से पैदा होती है. ये ऐसी प्रक्रिया है जिसे अपने आप जारी रहने दिया जाए, तो ये तीन से चार पीढ़ियों और कई दशकों में अपनी ज़मीन तैयार करती है. अप्रवासियों की हर पीढ़ी, दूसरे देश जाने पर अपनी ज़िंदगी का सफर अनूठे तरीक़े से पूरा करते हैं. अप्रवासियों की पहली पीढ़ी आम तौर पर आर्थिक अवसरों की तलाश करती है. हालांकि अपनी असली पहचान को लेकर उनकी सोच बड़ी गहराई से अपनी मातृभूमि से जुड़ी होती है. नज़दीकी पारिवारिक और सांस्कृतिक संबंध होने की वजह से विदेशों जाने का उनका सफ़र आम तौर पर उम्मीदें पूरी करने की मंज़िल तलाशने का होता है. हालांकि, इन अप्रवासियों की दूसरी पीढ़ी अपनी पहचान को लेकर भटकाव की शिकार रहती है. एक तरफ तो उनका अपनी पुश्तैनी ज़मीन से बहुत सीमित पारिवारिक और सांस्कृतिक संबंध होता है. वहीं दूसरी तरफ, वो जिस देश में रह रहे होते हैं, वहां के पूर्वाग्रहों और सांस्कृतिक अलगाव की वजह से वो अपने चुने हुए देश के साथ पूरी तरह जुड़ नहीं पाते हैं. दो अलग और विपरीत पहचानों वाली दुनिया के बीच फंसने के कारण, ये अप्रवासी पीढ़ी अपनी असली पहचान परिभाषित करने के लिए संघर्ष करते हैं. पहचान की इसी तलाश का जिहादी संगठन अपने दुष्प्रचार के ज़रिए फ़ायदा उठाते हैं. वो अप्रवासियों की दूसरी पीढ़ी को खुलकर समझाते हैं कि जिहाद ही उनकी पहचान है और अपने मज़हब के लिए लड़ना उनका फ़र्ज़ है. जिहादी संगठन अप्रवासियों की इस नई पीढ़ी को ये समझा पाने में कामयाब हो जाते हैं कि असली पहचान एक बड़े नैतिक मक़सद के लिए लड़ने की है. इस तरह उनको जिहाद में ज़िंदगी का एक बड़ा मक़सद होने का ख़्वाब और उस ख़्वाब को पूरा करने की ताक़त दिखाई जाती है. जिहाद के नाम पर इन अप्रवासियों के बीच पहचान के संकट की खाई भरी जाती है. फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले कट्टर मौलाना अनवर अल-अवलकी, जिसे पश्चिम में अल क़ायदा के लिए भर्तियां और प्रचार करने वाला कहा जाता है, से लेकर लंदन में 7/7 के हमले के सबसे नौजवान आतंकवादी हसीब हुसैन तक, और 2015 में शार्ली हेब्दो के दफ़्तर पर हमला करने के लिए ज़िम्मेदार चेरिफ और सईद कोउआची भाइयों तक, ये सब के सब दूसरी पीढ़ी के अप्रवासी थे, जो पश्चिमी समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे. फिर भी, समाज में समावेश न हो पाने और कट्टरपंथ के बीच सीधा सकारात्मक संबंध होने के बावजूद, पश्चिमी समाज इस मसले से निपटने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है. ये उन देशों की उस सोच पर आधारित है कि अप्रवासियों को अपने अपनाए गए देश का हिस्सा बनने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए, ताकि वो बहुत आराम से नए समाज का हिस्सा बन सकें.
भारत में धार्मिक पहचान, राष्ट्रीय अस्मिता में घुल-मिल जाती है, और ‘भारतीय होना’ किसी मज़हबी पहचान के ऊपर भारी पड़ता है. भारत का अनुभव यहां के मुसलमानों को खुलकर मज़हबी पहचान ज़ाहिर करने या फिर अपने धर्म के उसूलों पर चलने के बजाय देश के नागरिक के तौर पर एक ऐतिहासिक पहचान और विरासत से ज़्यादा जोड़ता है. मिसाल के तौर पर, सूफ़ी संतों और भक्ति आंदोलन चलाने वालों के बीच विचारों के सौहार्दपूर्ण आदान-प्रदान ने एक मिले-जुले आध्यात्मिक इकोसिस्टम को जन्म दिया है. दक्षिण भारत में हिंदू ज़मोरिन शासकों ने अपने यहां ऐसे माहौल को बढ़ावा दिया जहां मुसलमानों और हिंदुओं के बीच आपस में शादी ब्याह भी होते रहे और इसके साथ साथ दोनों समुदाय, अपनी अनूठी परंपराओं का पालन भी करते रहे. एक मुस्लिम संत वावर को हिंदू देवता अयप्पा के अनुयायी भी पूरी श्रद्धा से सम्मान देते हैं और हर साल लाखों हिंदू वावर के मज़ार पर अपना अक़ीदा पेश करने जाते हैं. शिरडी के साईं बाबा, अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, नरसी के संत नामदेव और कैंची के नीम करौली बाबा जैसे कई संत हैं, जिनके अनुयायी और श्रद्धालु अलग अलग धर्मों से आते हैं. ऐसी मज़हबी बहुलता वाली जगह, संस्कृतियों, मूल्यों और आस्थाओं के मेल-जोल को बढ़ावा देती है, जिससे साझा सामाजिक ताना-बाना खड़ा होता है और एक दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहने और एक दूसरे के रीति रिवाजों को अपनाने से समाज सामूहिक पहचान को मज़बूती देता है. ये मेल-जोल ख़ास मज़हबी पहचान के आकर्षण को कम कर देता है. अहम बात ये है कि भारत में क़ौमों के इस मेल जोल ने ऐसा आयाम तैयार किया है जहां कट्टरपंथ के प्रति सतर्कता अब समुदायों की सामूहिक ज़िम्मेदारी बन गई है, जिससे जिहादी ताक़तों द्वारा वरगलाने की कोशिशों के ख़िलाफ़ एक मज़बूत ढांचा खड़ा हो गया है.
भारत का अनुभव यहां के मुसलमानों को खुलकर मज़हबी पहचान ज़ाहिर करने या फिर अपने धर्म के उसूलों पर चलने के बजाय देश के नागरिक के तौर पर एक ऐतिहासिक पहचान और विरासत से ज़्यादा जोड़ता है.
इन बातों के साथ साथ कुछ और साफ़ दिखने वाले तत्व भी हैं. एक तरफ़ तो आर्थिक उन्नति और क्षमता के निर्माण के लिए प्रभावी नीतियां लागू की जा रही हैं. प्रधानमंत्री विरासत का संवर्धन (PMVIKAS) और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम (NMDFC) जैसे संस्थानों द्वारा दी जाने वाली सहयोगात्मक वित्तीय व्यवस्थाएं इस पहलू की नुमाइंदगी करती हैं. ये प्रयास ख़ास तौर से समुदाय के सबसे कमज़ोर और कम शिक्षित तबक़े को ध्यान में रखकर किए जाते हैं, जिनके जिहादी विचारों की तरफ़ आकर्षित होने की आशंका सबसे अधिक होती है. वहीं दूसरी ओर, भारतीय समाज में सामने दिखने वाली मुसलमानों की कामयाबी-फिर चाहे वो सरकार में हों, कारोबार में, मनोरंजन के क्षेत्र में, वित्त या फिर राजनीति में- उनकी समृद्धि और उपलब्धियां भी एक अलग माहौल बनाती हैं. भारतीय मुसलमानों की ये स्थिति, मुसलमानों का हक़ छीने जाने के तर्क को ग़लत साबित करती है, जिससे ज़मीनी स्तर पर जिहाद के लिए भड़काए जाने की गुंजाइश नहीं बचती. इसका नतीजा ये होता है कि देश की आबादी का लगभग 14 प्रतिशत और दुनिया भर के मुसलमानों का दस प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद, भारत के मुसलमान, जिहादी दुष्प्रचार में दिलचस्पी लेने से दूर ही रहे हैं. ये भारत की एक दूसरे से जोड़ने वाली सामूहिक पहचान की ताक़त ही है, जो विभाजनकारी शोर-गुल से बचाकर रखती है. 2002 में रस्किन बॉन्ड ने अपने लेख, ऑन बीइंग इंडियन में भारतीयता की इस पहचान को बख़ूबी पेश किया था, जब उन्होंने लिखा था कि, ‘नस्ल ने मुझे नहीं बनाया. धर्म ने मेरी पहचान नहीं गढ़ी, मगर इतिहास ने ऐसा किया. और लंबी अवधि में ये इतिहास ही है, जो सबसे अहम साबित होता है.’
राष्ट्रीय पहचान में नागरिक का अपना वर्गीकरण और इससे जुड़े अनुभव शामिल होते हैं. भारत जैसी व्यापक राष्ट्रीय पहचान से अपनी सकारात्मक सामुदायिक पहचान बनती है. इस ख़ासियत ने साबित किया है कि वो तबाही लाने वाली विचारधाराओं को ख़ारिज कर सकती है. अलग अलग समाजों में कट्टरपंथ के प्रति जो आकर्षण दिखता है, वो मज़बूत राष्ट्रीय पहचानों की अहमियत को साबित करता है. क्योंकि, इनसे संकीर्ण और उधार की पहचान वाली विचारधाराएं धूमिल पड़ जाती हैं. पश्चिमी देश, भारत के तजुर्बे से सीख सकते हैं कि वो किस तरह समाज में लचीलापन लाएं, वो सिंगापुर से सीख सकते हैं कि वो इस प्रक्रिया को कैसे तेज़ करें. सिंगापुर में सावधानी से तैयार किए गए स्कूल के पाठ्यक्रमों में उसकी संस्कृति और विविधता भरी आबादी की ख़ूबियों का बखान करके, जातीय एकीकरण के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जो अलग अलग सांप्रदायिक पहचानों को मिटा देते हैं. सिंगापुर ने तमाम संस्कृतियों की अलग अलग पहचानों को एकजुट करके एक ठोस राष्ट्रीय पहचान को बहुत ही कम समय में विकसित कर लिया है. ऐसी कोशिशों ने जिहादी प्रोपेगैंडा की अपील को कमज़ोर कर दिया है. इसी वजह से जिहादी संगठनों के विदेशी लड़ाकों में सिंगापुर के नागरिकों की संख्या बहुत कम है, जबकि वहां पर अप्रवासियों की आबादी लगातार बढ़ रही है.
अनुमान इशारा करते हैं कि जिहाद लड़कर लौटे 11 से 26 प्रतिशत लड़ाके दोबारा आतंकवाद का हिस्सा बन जाते हैं. इस चुनौती का केंद्र बिंदु अपनी पहचान की तलाश ही है. ये चुनौती बताती है कि देशों को एक मज़बूत राष्ट्रीय पहचान विकसित करने की ज़रूरत है, जो ज़्यादा समावेशी हो और जो विभाजनकारी विचारधाराओं के आकर्षण को कमज़ोर कर सके.
जैसे जैसे जंग के पुराने मोर्चे ख़त्म हो रहे हैं, और कट्टरपंथी लड़ाके अपने घर वापस आ रहे हैं, तो उनको लेकर हर देश में अलग प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. लेकिन, जैसा कि हमने एसप की कहानी ‘किसान और वाइपर’ के वाइपर के मामले में देखा था कि सांप ने उसी किसान को डस लिया था, जिसने भयंकर ठंड में उसकी जान बचाई थी. उसी तरह, ये बस वक़्त की बात है, जब दूसरे देशों में जिहाद लड़कर लौटने वाले ये लड़ाके अपने ही समुदायों के दुश्मन बन जाएं, जो उन्हें दोबारा अपनाने की कोशिश कर रहे हैं. इससे इन जिहादियों के अपने देशों में जंग के नए मोर्चे बन जाएंगे. अनुमान इशारा करते हैं कि जिहाद लड़कर लौटे 11 से 26 प्रतिशत लड़ाके दोबारा आतंकवाद का हिस्सा बन जाते हैं. इस चुनौती का केंद्र बिंदु अपनी पहचान की तलाश ही है. ये चुनौती बताती है कि देशों को एक मज़बूत राष्ट्रीय पहचान विकसित करने की ज़रूरत है, जो ज़्यादा समावेशी हो और जो विभाजनकारी विचारधाराओं के आकर्षण को कमज़ोर कर सके. आज जब हम ये सोच रहे हैं कि भविष्य में धार्मिक कट्टरपंथ का मुक़ाबला कैसे होगा, तो एक सवाल अहम बना हुआ है: देश अपने नागरिकों के लिए कैसे एक लचीली, समावेशी पहचान विकसित कर सकते हैं, जो कट्टरपंथी विचारधाराओं की पुकार का विरोध कर सके? हम इस चुनौती से किस तरह निपटते हैं, यही बात एक ऐसे भविष्य के निर्माण की हमारी सामूहिक कोशिश की दशा-दिशा तय करेगी, जो संकीर्ण सांप्रदायिकता और नफ़रत पर जीत हासिल कर सके.
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Jaibal is Vice President and Senior Fellow of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank. His research focuses on issues of cross cultural ...
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