Published on Sep 01, 2023 Updated 0 Hours ago

जन विश्वास बिल एक बड़े बदलाव की परिकल्पना है जो नियमों का पालन करने के निरंकुश बर्फ के पहाड़ (आइसबर्ग) के शीर्ष पर स्थित है.  

भविष्य के सुधारों के लिए रूप-रेखा मुहैया कराता जन विश्वास बिल!

एक आइसबर्ग का 90 प्रतिशत हिस्सा पानी के नीचे होता है जबकि 10 प्रतिशत हिस्सा पानी के ऊपर. अगस्त के पहले हफ्ते में संसद के द्वारा पारित जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2023 आइसबर्ग के शीर्ष के बराबर भी नहीं है. बिल जितने प्रावधानों पर ध्यान देता है वो उसके सामने रखी गई चुनौतियों की संख्या के हिसाब से महत्वपूर्ण नहीं है. फिर भी ये नीतिगत मामलों में सबसे दूरगामी असर वाले विधेयकों में से एक है, सबसे बड़े सुधारों में से एक है और हाल के समय में उदीयमान (राइज़िंग) भारत के लिए संभावित रूप से एक गेम-चेंजर है.

गेम-चेंजर

संसद के द्वारा जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2023 के पारित होने से चार महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं. पहला, व्यक्तिगत नेतृत्व सुधारों में प्रमुख अंतर लाने वाला और प्रेरक साबित हो रहा है. दूसरा, मज़बूत राजनीतिक जनादेश के बावजूद अहम सुधारों के लिए बदलाव धीरे-धीरे हो रहे हैं. तीसरा, संस्थागत बल सुधारों पर अमल के साथ जानकारी को ताकत देता है. चौथा सबक ये है कि अच्छी तरह से रिसर्च किए गए आइडिया सुधार लाने के लिए नए मंच हैं. ये सभी मिलकर कम्प्लायेंस (नियमों का पालन) में सुधार के लिए एक रूप-रेखा मुहैया कराते हैं. हालांकि बड़े पैमाने पर ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस (कारोबार करने में आसानी) पर असर के लिए इस सुधार को एक लंबा सफर तय करने की ज़रूरत है. बिल को अभी राष्ट्रपति की मंज़ूरी का इंतज़ार है जिसके बाद ये क़ानून में बदल जाएगा.

ये बिल आधुनिक अर्थव्यवस्था, जो कि सभी संकेतों के मुताबिक इस दशक में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकती है, की ज़रूरतों के साथ कानूनी ढांचे को जोड़ने के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है.

ये बिल कारावास की धाराओं (क्लॉज़) को हटाने या उन्हें आर्थिक दंड और जुर्माने में बदलने की दिशा में एक प्रायोगिक लेकिन महत्वपूर्ण कदम है. प्रायोगिक इसलिए है क्योंकि बिल मुश्किल से सतह को कुरेदता है. ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि व्यवसायों पर असर डालने वाली कुल 26,134 कारावास की धाराएं है लेकिन ये बिल उनमें से आधा प्रतिशत से भी कम को अपराधमुक्त करता है. फिर भी ये बिल अहम है क्योंकि छोटे-छोटे कम्प्लायेंस को अपराध की श्रेणी से मुक्त करना पिछले 75 वर्षों से छोटे व्यवसायों से जबरन वसूली का रैकेट चलाने वाले खूंखार इंस्पेक्टर राज को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए नहीं तो कम करने के लिए एक महत्वपूर्ण नीतिगत कदम है. इसके अलावा, ये बिल आधुनिक अर्थव्यवस्था, जो कि सभी संकेतों के मुताबिक इस दशक में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकती है, की ज़रूरतों के साथ कानूनी ढांचे को जोड़ने के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है.

संक्षेप में कहें तो ये बिल 183 कम्प्लायेंस को अपराध की श्रेणी से बाहर करता है. इनमें से 113 कम्प्लायेंस व्यवसाय करने में नियोक्ताओं (इम्प्लायर) से जुड़े हैं. इस तरह ये व्यवसायों के सामने मौजूद 26,134 कारावास की धाराओं का 0.4 प्रतिशत है. दूसरे शब्दों में कहें तो 26,021 धाराओं को अभी व्यवस्थित करना बाकी है. हम ‘व्यवस्थित’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं न कि ‘हटाने’ का क्योंकि सभी धाराओं को अपराधमुक्त करने की आवश्यकता नहीं है. जान-बूझकर लापरवाही या गलत व्यवहार करने वाले उद्यमियों (एंटरप्रेन्योर) को ज़िम्मेदार ठहराने की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, अगर जान-बूझकर टैक्स की चोरी की जाती है, जान-बूझकर पर्यावरण को खराब किया जाता है, कामगारों के जीवन या उनके अंगों को नुकसान पहुंचाया जाता है या खाद्य या फार्मास्यूटिकल उत्पादों की क्वालिटी से समझौता किया जाता है तो जेल भेजने की धाराओं की आवश्यकता है.

इस तरह, 100 साल पुराने बॉयलर्स एक्ट, 1923 के तहत धारा 24 के अधीन छह प्रावधानों के लिए दो साल के कारावास को हटा दिया गया है और बॉयलर के गैर-कानूनी उपयोग के लिए अब 1 लाख रुपये का जुर्माना कर दिया गया है. इसी तरह अपेक्षाकृत नये कानून खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम (फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स एक्ट), 2006 के तहत दो प्रावधानों- झूठी जानकारी प्रदान करना (धारा 61) जिसमें तीन महीने की जेल की सज़ा का प्रावधान है और बिना लाइसेंस के व्यापार करना (धारा 63) जिसमें छह महीने की जेल की सज़ा का प्रावधान है- को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. ऐसे ही लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट (कानूनी माप विज्ञान अधिनियम), 2009 के तहत धारा 25 (नॉन-स्टैंडर्ड बाट और माप का उपयोग) और आधार (टारगेटेड डिलीवरी ऑफ फाइनेंशियल एंड अदर सब्सिडीज़, बेनिफिट्स एंड सर्विसेज़) एक्ट, 2016 के तहत धारा 41 (सूचना आवश्यकताओं का पालन नहीं करने) को अपराधमुक्त कर दिया गया है.

एक महीने से भी कम समय में अलग-अलग सचिवों के साथ बैठकों के दौर के बाद नीति आयोग के तत्कालीन CEO अमिताभ कांत के तहत “भारत में ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस को आगे बढ़ाने के लिए नॉन-कम्प्लायेंस को अपराध से बाहर रखने पर कमेटी” का गठन हुआ.

जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2023 का व्यवसायों को प्रभावित करने वाली धाराओं को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने से ज़्यादा असर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66A को हटाने में है. 24 मार्च 2015 को अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया था. लेकिन इसके बावजूद पुलिस ने लोगों को गिरफ्तार करने के लिए इस धारा का इस्तेमाल करना जारी रखा था. लेकिन अब जन विश्वास बिल के पास होने के साथ ही इस धारा के तहत गिरफ्तारी आख़िरकार ख़त्म हो जाएगी.

जन विश्वास बिल से चार सबक

ये बिल हमें चार सीख देता है.

पहला सबक: व्यक्तिगत नेतृत्व मायने रखता है

पहली सीख है नेतृत्व (लीडरशिप) का सुधार के लिए दृढ़ विश्वास. भारत के कारोबार से जुड़े कानूनों में ज़रूरत से ज़्यादा जेल भेजने की धाराओं पर प्रकाश डालने वाली रिपोर्ट ‘जेल्ड फॉर डूइंग बिज़नेस (कारोबार करने के लिए कारावास)’ के लॉन्च के सात दिन से कम समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्यक्तिगत तौर पर कमान संभाली और इन कम्प्लायेंस से जुड़े सुधारों का नेतृत्व किया. रिपोर्ट के नतीजों से उन्हें झटका लगा और उन्होंने तुरंत सुधारों की शुरुआत की. उन्होंने न सिर्फ़ रिफॉर्म पर ज़ोर दिया बल्कि उसके दायरों का भी विस्तार करते हुए बिज़नेस के साथ-साथ ईज़ ऑफ लाइफ (मिसाल के तौर पर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के सेक्शन 66A) को भी शामिल किया. एक महीने से भी कम समय में अलग-अलग सचिवों के साथ बैठकों के दौर के बाद नीति आयोग के तत्कालीन CEO अमिताभ कांत के तहत “भारत में ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस को आगे बढ़ाने के लिए नॉन-कम्प्लायेंस को अपराध से बाहर रखने पर कमेटी” का गठन हुआ. कांत ने एक छतरी के नीचे संबंधित मंत्रालयों को लाने का काम किया और राजनीतिक इच्छा शक्ति को नीतिगत रूप दिया. हालांकि G20 के शेरपा की भूमिका निभाने के लिए उन्हें बीच में अपना पद छोड़ना पड़ा लेकिन ये काम जारी रहा और 10 महीने से भी कम समय में बिल को सबसे पहले 23 दिसंबर 2022 को संसद में पेश किया गया.

दूसरा सबक: संस्थागत संरचनाएं सक्षम बनाती हैं

दूसरी सीख है ज़रूरी संस्थानों का एक साथ आना. कमेटी की सिफारिशों और फिर संसद में बिल को पेश करने के बाद उसे संसद के दोनों सदनों की संयुक्त समिति के पास भेजा गया. नौ बैठकों और पी. पी. चौधरी की अध्यक्षता वाली 31 सदस्यों की समिति के द्वारा 19 मंत्रालयों एवं विभागों की हर धारा की छानबीन के बाद 105 सिफारिशें की गईं. इनमें से सात सामान्य हैं जिनमें से छह को स्वीकार कर लिया गया और बाकी 98 विशेष प्रावधान हैं. ट्रायल के साथ जुर्माने के प्रावधान को पैसे के दंड से बदल दिया गया है; जहां कारावास और जुर्माना दोनों के प्रावधान थे उनमें से अधिकतर मामलों में उन्हें पैसे के दंड में बदल दिया गया है और जहां लोगों का बहुत ज़्यादा हित दांव पर था वहां और कठिन प्रावधान किए गए हैं. बिल को एक बार फिर मॉनसून सत्र में पेश किया गया जहां लोकसभा और राज्यसभा ने इसे पारित कर दिया. इस तरह लोकतांत्रिक संस्थानों की सभी आवाजों को एक जगह लाया गया है.

तीसरा सबक: धीरे-धीरे बदलाव बीते दौर की बात है

तीसरी सीख है धीरे-धीरे नीतिगत बदलाव. संसद में राजनीतिक मौजूदगी की ताकत की वजह से राजनीतिक इच्छा शक्ति और अमल में लाने के लिए काफी ज़ोर के बावजूद बिल ने ज़बरदस्त साहसिक सुधार के बदले धीरे-धीरे आगे बढ़ने के रास्ते को अपनाया है- कुल 26,134 में से 113 (0.4 प्रतिशत) धाराओं और संघीय स्तर पर 5,239 धाराओं (2.2 प्रतिशत) को अपराध के दायरे से बाहर किया गया है. इसके अलावा अगर हम संघीय श्रम कानूनों में 534 कारावास की धाराओं को बाहर कर दें, जो कि लेबर कोड (श्रम संहिता) के अधिसूचित होने के बाद बदल जाएगा, तो संसद से मंज़ूरी का इंतज़ार करने वाली 4,705 कारावास की धाराएं बच जाती हैं; 113 क्लॉज़ कुल का महज़ 2.4 प्रतिशत हैं. ये एक मौका गंवाने की तरह है, न सिर्फ़ ज़मीनी असर के मामले में बल्कि किसी सरकार के लिए नैरेटिव के मामले में भी जो कि एंटरप्रेन्योर के लिए काफी हद तक दोस्त की तरह है. शायद 2024 के चुनाव से पहले राजनीतिक निर्णयों में सावधानी की घुसपैठ हो गई है और इसने विधायी जोखिम के साथ हाथ मिला लिया है जो न तो मौजूदा समय की राजनीति के अनुकूल है न ही एक अन्यथा मज़बूती से सुधार करने वाली सरकार के काम-काज के अनुसार है.

जब हम इस छोटी लेकिन संभावित रूप से कायापलट करने वाली जीत का जश्न मना रहे हैं, उस समय कुछ आंकड़े हैं जो दिखाते हैं कि भारत के आर्थिक नीति निर्माता एंटरप्रेन्योर को अपनी धुन पर नचाने के लिए ऊर्जा खर्च कर रहे हैं.

चौथा सबक: एक अच्छा आइडिया अपनी जगह खुद बना लेगा

आख़िरी सीख है एकेडमिक जगत और सिविल सोसायटी की आवाज़ को सुनने के सरकार के मुखर इरादे के साथ-साथ साबित योग्यता. 75 वर्षों तक हमने “इंस्पेक्टर राज” शब्द सुना है. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की रिपोर्ट, जेल्ड फॉर डूइंग बिज़नेस, समस्या के बारे में गौर से बताती है और विशेष नीतिगत समस्या की पेशकश करती है. वास्तव में ये आगे का रास्ता है जैसा कि एक विचार से कानून की तरफ कदम, जो कि भविष्य के सुधार के लिए एक रूप-रेखा है, ने दिखाया है. दूसरे शब्दों में अगर नागरिकों की आवाज़ सुनने की ज़रूरत है तो उन्हें बड़बड़ाना बंद करना होगा और रिसर्च शुरू करना होगा. एक अच्छी तरह सोच-विचार कर बनाया गया आइडिया अपने लिए नीतिगत जगह बना लेगा.

जब हम इस छोटी लेकिन संभावित रूप से कायापलट करने वाली जीत का जश्न मना रहे हैं, उस समय कुछ आंकड़े हैं जो दिखाते हैं कि भारत के आर्थिक नीति निर्माता एंटरप्रेन्योर को अपनी धुन पर नचाने के लिए ऊर्जा खर्च कर रहे हैं. पिछले साल 6,870 कम्प्लायेंस में बदलाव हुए हैं; 1,964 में पिछली तिमाही के दौरान; 652 में जुलाई 2023 में; और 225 में अगस्त के पहले हफ्ते में. 7 अगस्त 2023 को जब ये विश्लेषण लिखा गया उस दिन अलग-अलग मंत्रालयों (ऊर्जा, श्रम एवं रोज़गार, रसायन एवं उर्वरक और विधि एवं न्याय); रेगुलेटर (जैसे कि RBI, SEBI और CBIC) और राज्यों (महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और कर्नाटक) से 18 कम्प्लायेंस में परिवर्तन हुए. ये रोकने की आवश्यकता है. नीतिगत अनिश्चितता से किसी को मदद नहीं मिलती.

हमारे रोज़गार निर्माता और रोज़गार मांगने वाले बेहतर पाने के हक़दार हैं. भारत के 6 करोड़ 30 लाख उद्यमों (एंटरप्राइजेज़) में से सिर्फ 10 लाख (1.5 प्रतिशत) सामाजिक सुरक्षा के लिए रजिस्टर्ड हैं; सिर्फ 5 लाख (0.8 प्रतिशत) सक्रिय तौर पर सामाजिक सुरक्षा का भुगतान करते हैं; केवल 70,000 या 0.1 प्रतिशत का राजस्व 5 करोड़ रुपये से ज़्यादा है; और महज़ 22,500 (0.04 प्रतिशत) का पेड-अप शेयर कैपिटल 10 करोड़ रुपये से अधिक है. कल्पना कीजिए कि अगर ये संख्याएं सिर्फ दोगुनी हो जाएं तो भारत कैसा दिखेगा. 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की GDP के अरमान के लिए हमारे कानून बनाने वालों को अपनी कोशिशें और बढ़ानी होंगी. जन विश्वास बिल एक अच्छी शुरुआत है, इसका ढांचा ठोस है और एक मज़बूत राजनीतिक इच्छा शक्ति का इसे समर्थन हासिल है. लेकिन नियमों के पालन के आइसबर्ग को पिघलाने और सांचे में ढालने का सफर लंबा, तीव्र ढलानवाला और मुश्किल है.


गौतम चिकरमाने ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट हैं.

ऋषि अग्रवाल AvantisRegTechके को-फाउंडर और CEO हैं.

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