Published on Oct 16, 2023 Updated 0 Hours ago

बांग्लादेश के सियासी मंज़र में जमात-ए-इस्लामी क वापसी को हम वहां अमेरिका द्वारा लोकतंत्र की बहाली की कोशिशों के नतीजे के रूप में देख सकते हैं. लेकिन, आगे चलकर इसका असर भारत पर पड़ने की आशंका है. 

बांग्लादेश के चुनाव में जमात-ए-इस्लामी: भारत और अमेरिका की सोच में अंतर

क़रीब एक दशक तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी झेलने के बाद, बांग्लादेश की सबसे बड़ी इस्लामिक पार्टी जमातइस्लामी ने इस साल जून में ढाका की सड़कों पर अपनी पहली सियासी रैली आयोजित की थी. जमातइस्लामी की तीन प्रमुख मांगें हैं: एक रोज़मर्रा के ज़रूरी सामानों के दामों पर क़ाबू पाया जाए; उसके अमीर शफ़ीक़ुर रहमान और दूसरे नेताओं को रिहा किया जाए; और अगले आम चुनाव कार्यवाहक सरकार की निगरानी में हों. अन्य तमाम कारणों के अलावा, माना जा रहा है कि जमात ने सियासी मैदान में वापसी करने के लिए, बांग्लादेश में लोकतंत्र की बहाली सुनिश्चित करने में अमेरिका की बढ़ती दिलचस्पी का भी फ़ायदा उठाया है. क्योंकि देश में दिसंबर 2023 से जनवरी 2024 के बीच होने वाले आम चुनावों का काउंटडाउन शुरू हो चुका है.

बांग्लादेश के उन नागरिकों को वीज़ा जारी करने पर भी पाबंदियां लगाई हैं, जिन पर ये इल्ज़ाम है कि वो बांग्लादेश में लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया को चोट पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार हैं, या फिर उसमें शामिल रहे हैं.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, अमेरिका ने कई मौक़ों पर शेख़ हसीना सरकार से संबंधों की शर्तों को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की है. अमेरिका ने मानव अधिकारों के उल्लंघन के आरोप में बांग्लादेश की रैपिड एक्शन बटालियन के सात पूर्व और मौजूदा अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाए हैं; बांग्लादेश में अमेरिका के राजदूत  पीटर हास ने तथाकथित अपहरणों के पीड़ित परिवारों के सदस्यों से मुलाक़ातें की हैं. इनमें विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) के नेता सजेदुल इस्लाम सुमोन का परिवार भी शामिल है; अमेरिका ने बांग्लादेश को अपने लोकतांत्रिक शिखर सम्मेलनों में भी आमंत्रित नहीं किया है; और, उसने बांग्लादेश के उन नागरिकों को वीज़ा जारी करने पर भी पाबंदियां लगाई हैं, जिन पर ये इल्ज़ाम है कि वो बांग्लादेश में लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया को चोट पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार हैं, या फिर उसमें शामिल रहे हैं.

ढाका में जमात की रैली पुलिस और सरकार की इजाज़त से हुई थी. इसको रैली को अमेरिका की नीतियों के बांग्लादेश की घरेलू राजनीति पर असर की मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि, जमात पर प्रतिबंध हटने का असर बांग्लादेश के पासपड़ोस और ख़ास तौर से भारत पर पड़ने की आशंका है.

जमातइस्लामी की जड़ें भारत में

जमातइस्लामी के बारे में कहा जाता है कि वोकट्टर भारत विरोधीऔर पाकिस्तान की इतनी ज़बरदस्त समर्थकरही है कि उसको पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) की कठपुतली तक कहा जाता है. हालांकि, जमात की जड़ें भारत से जुड़ी रही हैं. जमातइस्लामी की स्थापना 1941 में हैदराबाद के इस्लामिक विचारक अबुल अला मौदूदी ने उस वक़्त की थी, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा पार्टी के भीतर हिंदू महासभा के तत्वों को प्राथमिकता देने की वजह से उनका कांग्रेस से मोहभंग  हो गया था. मौदूदी इस्लामिक प्रशासनिक व्यवस्था में यक़ीन रखते थे, और बाद में उन्होंने जमातइस्लामी की स्थापनाहकीमियाके उसूल पर की थी, जिसके मुताबिक़ किसी देश की संप्रभुता इंसानों के पास नहीं, बल्कि अल्लाह की मिल्कियत थी. देश के बंटवारे के बाद मौलाना मौदूदी पाकिस्तान चले गए थे, ताकि अपने विचारों का प्रचार कर सकें. उन्होंने, बांग्लादेश के नागरिकों द्वारा पाकिस्तान से मुक्ति का युद्ध लड़ने का कड़ा विरोध किया था, क्योंकि उनकी नज़र में बांग्लादेशी राष्ट्रवाद, इस्लामिक पहचान के ख़िलाफ़ था. बांग्लादेश के उदय के बाद वैसे तो जमातइस्लामी ने देश की दोनों बड़ी पार्टियों अवामी लीग और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) के साथ अलग अलग समय (1986 और 1995-1996) पर मिलकर काम किया था. लेकिन, जब 2008 में शेख़ हसीना ने चुनाव जीतकर सरकार बनाई, तो जमात के बहुत से नेताओं पर, ‘मुक्ति युद्धके दौरान पाकिस्तानी फ़ौज का समर्थन करने के आरोप पर युद्ध के मुक़दमे चले और उन्हें मौत क़ैद की सज़ाएं सुनाई गई थीं. आख़िरकार, 2013 में ढाका हाई कोर्ट ने संविधान का उल्लंघन करने के जुर्म में जमातइस्लामी को अवैध क़रार दिया था, जिसके बाद उसके चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई थी. हालांकि, इस बात की उम्मीद तो बहुत कम है कि जमात अपने दम पर सरकार बनाने का बहुमत हासिल कर सकेगी. मगर, इसकी मदद से बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की ताक़त बढ़ सकती है. पूर्व में भारत के साथ BNP के रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं.

देश के बंटवारे के बाद मौलाना मौदूदी पाकिस्तान चले गए थे, ताकि अपने विचारों का प्रचार कर सकें. उन्होंने, बांग्लादेश के नागरिकों द्वारा पाकिस्तान से मुक्ति का युद्ध लड़ने का कड़ा विरोध किया था, क्योंकि उनकी नज़र में बांग्लादेशी राष्ट्रवाद, इस्लामिक पहचान के ख़िलाफ़ था.

 

भारत के लिए तनाव बढ़ा

बांग्लादेश की मौजूदा शेख़ हसीना सरकार से भारत के संबंध बहुत अच्छे रहे हैं. लेकिन, जमात की ताक़त बढ़ना उसके हक़ में नहीं है. ख़ास तौर से इसलिए भी क्योंकि बांग्लादेश, भारत की नेबरहुड फर्स्ट और एक्ट ईस्ट नीतियों की धुरी रहा है. विदेशी संबंधों के अलावा बांग्लादेश, भारत के घरेलू विकास के लिए भी अहम रहा है, क्योंकि उत्तरी पूर्वी भारत के इलाक़ों तक समुद्र के रास्ते पहुंचने की कनेक्टिविटी और कारोबार बढ़ाने में बांग्लादेश आसान रास्ता मुहैया कराता है. दक्षिण एशिया में बांग्लादेश, भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार भी है और इस क्षेत्र में उसका सबसे नज़दीकी साथी भी माना जाता है. सुरक्षा के नज़रिए से देखें तो अवैध रूप से मछली मारने, जलवायु परिवर्तन और मानव तस्करी जैसी साझा चुनौतियों से निपटने के लिए बांग्लादेश का सहयोग भारत के लिए बहुत अहम है.

भारत के नज़रिए से देखें, तो विपक्ष में कट्टरपंथी ताक़तों को मज़बूती देने के लिए बांग्लादेश पर पड़ने वाला किसी भी तरह के दबाव से क्षेत्रीय स्थिरता को नुक़सान पहुंच सकता है. अब तक तो शेख़ हसीना की सरकार इन दबावों के आगे झुकने से इनकार करती रही है. यहां इस बात का ज़िक्र करना अहम होगा कि 2006 में अमेरिका के विदेश विभाग ने अपनी कंट्री रिपोर्ट ऑन टेररिज़्म में इस्लामी बैंक पर, आतंकवादी संगठन जमातउलमुजाहिदीन की फंडिंग करने का इल्ज़ाम लगाया था. जमातइस्लामी के कई नेता इस्लामी बैंक के बोर्ड में शामिल हैं. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना अगर सियासी तौर पर कमज़ोर होती हैं, तो चीन के प्रति उनका झुकाव भी बढ़ जाएगा. ये ऐसी स्थिति होगी, जिससे भारत और अमेरिका, दोनों ही बचने की कोशिश कर रहे हैं. वैसे तो चीन कई तरह के निवेशों और परियोजनाओं के ज़रिए बांग्लादेश में अपनी जड़ें जमा रहा है. लेकिन, बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने संतुलित कूटनीति से चीन के साथ अपने रिश्तो को कारोबार तक सीमित रखने में सफलता हासिल की है.

व्यापक बदलाव से बचने की कोशिश

इस साल 22 सितंबर को अमेरिका के विदेश विभाग ने बांग्लादेश के उन नागरिकों पर वीज़ा संबंधी प्रतिबंध लगाने के लिए नए क़दम उठाए थे, जिन्होंनेलोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया में बाधा डालने में कोई भूमिका निभाईहै. इन प्रतिबंधों के दायरे में बांग्लादेश की क़ानून व्यवस्था की एजेंसियों के अधिकारी, सत्ताधारी दल के सदस्य और विपक्षी दलों के नेता शामिल थे. साफ़ है कि बाइडेन प्रशासन को पता है कि इस मामले पर वो बांग्लादेश पर किस हद तक दबाव डाल सकता है. हाल ही में ये बात उस समय साफ़ हो गई थी, जब अमेरिका ने जापान में अपने राजदूत को चीन के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करने से बाज़ आने का आदेश दिया था. दक्षिण एशिया की भूराजनीति में बांग्लादेश की अहमियत भी कम नहीं है. क्योंकि वो बाइडेन प्रशासन के हिंद प्रशांत विज़न के दो अहम बिंदुओं यानी जापान और भारत के मध्य में पड़ता है. वैसे तो वीज़ा की पाबंदियां और ऐसे ही दूसरे क़दम, अमेरिकी सरकार की सोच को ज़ाहिर करते हैं. लेकिन, लोकतंत्र के नाम पर शेख़ हसीना सरकार पर बहुत अधिक दबाव डालने से बांग्लादेश के लिए घरेलू राजनीति में और सख़्त क़दम उठाने की मजबूरी हो जाएगी, जिसे पचाना शायद अमेरिका के लिए और भी मुश्किल हो जाए. इसके अलावा, बांग्लादेश में अंदरूनी सियासी समीकरण बदलने का असर, उसके पासपड़ोस ही नहीं दूर स्थित के देशों के साथ रिश्तों पर भी पड़ेगा.

भारत के नज़रिए से देखें, तो विपक्ष में कट्टरपंथी ताक़तों को मज़बूती देने के लिए बांग्लादेश पर पड़ने वाला किसी भी तरह के दबाव से क्षेत्रीय स्थिरता को नुक़सान पहुंच सकता है. अब तक तो शेख़ हसीना की सरकार इन दबावों के आगे झुकने से इनकार करती रही है.

ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देना बाइडेन प्रशासन की एक बड़ी ख़ूबी रही है, जो उनकी अपनी डेमोक्रेटिक पार्टी के सिद्धांतों से रेखांकित होती है. लेकिन, अक्सर इन उसूलों को दूसरे देशों पर लागू करते वक़्त, इनका तालमेल क्षेत्रीय जटिलताओं और प्राथमिकताओं के साथ मिलाने की ज़रूरत होती है. विकसित और विकासशील देशों में एक समान लोकतांत्रिक सिद्धांतों और आदर्शों को लागू करने की परियोजना का नाकाम होना तय है. इतिहास ऐसी असफलताओं की मिसालों से भरा पड़ा है. इसकी सबसे ताज़ा मिसाल तो अफ़ग़ानिस्तान ही है. अमेरिका को चाहिए कि वो लोकतंत्र के एक ही सिद्धांत को सब पर थोपने के बजाय, उसके अलग अलग स्वरूपों के साथ मिलकर रहने की आदत डाल ले. जैसे जैसे विकासशील देशों की आर्थिक ताक़त बढ़ रही है, वैसे वैसे वो पश्चिमी देशों पर अपनी बातें मनवाने का दबाव भी बढ़ा रहे हैं; इस दबाव का ज़्यादातर ताल्लुक़ तो ग्लोबल साउथ के लिए लोकतंत्र, मानव अधिकारों, बोलने की आज़ादी और अन्य सिद्धांतों के अलग पैमाने लागू करने से है.

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Authors

Sohini Bose

Sohini Bose

Sohini Bose is an Associate Fellow at Observer Research Foundation (ORF), Kolkata with the Strategic Studies Programme. Her area of research is India’s eastern maritime ...

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Vivek Mishra

Vivek Mishra

Vivek Mishra is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. His research interests include America in the Indian Ocean and Indo-Pacific and Asia-Pacific regions, particularly ...

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