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अफ्रीकी देशों पर लदा ऋण का बोझ उनके आर्थिक विकास और ग़रीबी उन्मूलन के रास्ते की एक बड़ी बाधा थी.
‘अफ्रीका के उदय’ से जुड़े विमर्श के लोकप्रिय होने से पहले तक विकास अर्थशास्त्र के तहत अध्ययन का एक बड़ा विषय अफ्रीका का कर्ज़ संकट था. 1980 के दशक में अफ्रीका के ज़्यादातर देश कर्ज़ के भयानक संकट से घिरे हुए थे. अर्थशास्त्रियों जोशुआ ग्रीन और मोहसिन ख़ान के अनुसार अफ्रीकी देशों का कुल कर्ज़ 1970 में 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर था जो 1987 का अंत होते-होते 174 अरब डॉलर तक पहुंच गया. वस्तुओं और सेवाओं के कुल निर्यात के अनुपात के हिसाब से देखें तो अफ्रीकी देशों का कर्ज़ 1970 के 73 प्रतिशत से बढ़कर 1987 में 322 फ़ीसदी तक पहुंच गया. 1990 के दशक के मध्य में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अफ्रीका के कर्ज़ संकट से निपटने के लिए उदार रुख़ अपनाने की ज़रूरत समझी. तब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक ने कर्ज़ से बुरी तरह घिरे निर्धन देशों (एचआईपीसी) के लिए एक कार्यक्रम की शुरुआत की. इसका लक्ष्य इन निर्धन देशों के विदेशी सार्वजनिक कर्ज़ों के बोझ को कम करना था. अफ्रीकी देशों पर लदा ऋण का बोझ उनके आर्थिक विकास और ग़रीबी उन्मूलन के रास्ते की एक बड़ी बाधा थी.
चीन पर अक्सर ये आरोप लगते हैं कि वो अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज़ के जाल में फंसाने के लिए बुनियादी ढांचे से जुड़ी बेकार की परियोजनाओं का झांसा देकर अनाप-शनाप कर्ज़ मुहैया कराता है.
विश्व बाज़ार में उपयोगी वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी और चीन में इनकी बढ़ती मांग के चलते अफ्रीका के ज़्यादातर देशों ने साल 2000 की शुरुआत के बाद से अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं में तेज़ बढ़ोतरी दर्ज की. ‘अफ्रीका के उदय’ से जुडे़ विमर्श की यहीं से शुरुआत हुई थी. हालांकि, पश्चिमी विद्वान-जगत और मीडिया में शुरू से ही अफ्रीका में चीन की बढ़ती उपस्थिति को लेकर चिंताएं व्यक्त की जाने लगी थीं, लेकिन अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में चीनी व्यापार, निवेश और वित्त के प्रवाह और उसके प्रभाव की अनदेखी करना आसान नहीं था. धीरे-धीरे चीन अफ्रीकी देशों के लिए सबसे बड़ा बाज़ार, आयात-निर्यात का सबसे बड़ा स्रोत, निवेशक, बिल्डर और दान प्रदाता बन गया. अपनी एक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने अफ्रीकी देशों को बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए चीन की ओर से मुहैया कराए जा रहे निवेश से विकास की अपार संभावनाओं के खुलने को रेखांकित किया था. अफ्रीका में चीन द्वारा खड़े किए जा रहे बुनियादी ढांचे के लिए चीन की एक्ज़िम बैंक या चाइना डेवलपमेंट बैंक द्वारा कर्ज़ मुहैया कराई जाती रही है. इन ऋणों को अक्सर ‘संसाधनों के बदले बुनियादी ढांचा’ का नाम दिया जाता रहा है क्योंकि इन ऋणों को अफ्रीका से चीन को होने वाले संसाधनों के निर्यात से जोड़कर देखा जाता रहा है. डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो और अंगोला जैसे देश, जो एक लंबे गृह युद्ध के बाद अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर रहे थे, उन्होंने चीन से मिलने वाली वित्तीय मदद को हाथोंहाथ लिया क्योंकि उन्हें पश्चिमी वित्तीय संस्थानों से सहायता पाने में कठिनाई आ रही थी. चीनी ऋणों ने ज़्यादातर अफ्रीकी देशों में रेलवे, हवाई अड्डे, सड़क, पुल, ऊर्जा से जुड़े बुनियादी ढांचे, फुटबॉल के मैदान, अस्पताल, राष्ट्रपति भवनों आदि के निर्माण के लिए ज़रूरी रकम जुटाने में मदद की है. इतना ही नहीं चीन ने अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से लगभग पूरे अफ्रीका को पाट दिया है. अब-तक अफ्रीका महादेश के 49 देशों ने चीनी सरकार के साथ इससे जुड़े समझौता पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं.
अफ्रीकी देश अपने यहां चीनी वित्त के अभूतपूर्व प्रसार के एक दशक बाद अब लाज़िमी तौर पर अपने ऊपर चढ़े कर्ज़ के बोझ को लेकर चिंतित हैं. चीन द्वारा अफ्रीकी देशों को दिए गए ऋण में पिछले कुछ समय से अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है हालांकि, ये धनराशि कितनी है और ये कर्ज़े किन शर्तों पर दिए गए हैं इसको लेकर सार्वजनिक रूप से काफी कम जानकारी उपलब्ध है. नतीजतन चीन द्वारा दिए गए विदेशी ऋणों के बारे में पक्के तौर पर जानकारी का अभाव है. चीन के ऋण-वादों की पड़ताल करने वाले चाइना अफ्रीका रिसर्च इनिशिएटिव के आंकड़ों के हिसाब से चीनी सरकार, वहां के बैंकों और वहां के ठेकेदारों द्वारा अफ्रीकी देशों की सरकारों और सरकारी उद्यमों के साथ 148 अरब डॉलर के ऋण समझौतों पर दस्तख़त किए गए हैं. अफ्रीकी देशों में चीन से कर्ज़ समझौतों के मामले में अंगोला सबसे ऊपर है. अंगोला ने पिछले 18 वर्षों के दौरान 43 अरब अमेरिकी डॉलर के चीनी कर्ज़ समझौते पर दस्तख़त किए हैं. अफ्रीका के 32 देशों के लिए चीन द्विपक्षीय तौर पर सबसे बड़ा ऋण-प्रदाता है. यहां तक कि इन देशों को कर्ज़ मुहैया कराने के मामले में ये विश्व बैंक से भी आगे निकल गया है. हॉर्न, रीनहार्ट और ट्रेबेश्च जैसे शोधकर्ताओं के मुताबिक चीन द्वारा विदेशों में बांटे जाने वाले कर्ज़ की एक बड़ी रकम कभी उजागर ही नहीं की जाती. एशिया में चीन के कुछ पड़ोसी देशों और कई संसाधन-संपन्न अफ्रीकी देशों के लिए चीन के इस ‘गुप्त’ ऋण की समस्या वाकई में विकराल है. इन कर्ज़ों के बारे में अस्पष्टता और अपारदर्शिता भरा ये वातावरण अफ्रीकी देशों के लिए ख़ासतौर से एक बड़ी समस्या है क्योंकि पहले से ही इन देशों में संस्थागत और प्रशासनिक ढांचा बेहद लचर है.
चीन पर अक्सर ये आरोप लगते हैं कि वो अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज़ के जाल में फंसाने के लिए बुनियादी ढांचे से जुड़ी बेकार की परियोजनाओं का झांसा देकर अनाप-शनाप कर्ज़ मुहैया कराता है. क्रिस्टोफ ट्रेबेश्च जैसे विश्लेषकों का मानना है कि अफ्रीका के देश अगले कई दशकों तक चीन के कर्ज़दार बने रहेंगे और भविष्य में इन ऋणों को चुका पाने की उनकी क्षमता भी नहीं रहेगी. आज के समय में अफ्रीका के लोग चीन के साथ कारोबार को लेकर उतने उत्साहित नहीं रह गए हैं. अतीत में जो हुआ सो हुआ लेकिन अब अफ्रीका के देशों की सरकारें भी चीनी रकम को लेकर सशंकित हो गई हैं और भूतकाल में किए गए ऋण समझौतों की शर्तों पर फिर से सौदेबाज़ी करने लगे हैं. मिसाल के तौर पर तंज़ानिया के राष्ट्रपित जॉन मेगाफुली ने चीन के साथ प्रतिकूल शर्तों पर किए गए 10 अरब अमेरिकी डॉलर के ऋण समझौते के लिए अपने पूर्ववर्ती की घोर आलोचना करते हुए इस करार को रद्द कर दिया. चीन तंज़ानिया में बागामायो के बेगनी क्रीक में बंदरगाह के निर्माण के लिए ये कर्ज़ दे रहा था. कीनिया, ज़ाम्बिया, तंज़ानिया और नाइजीरिया में कई कार्यकर्ताओं ने चीनी कर्ज़ों से जुड़ी शर्तों पर सवाल खड़े करते हुए इनका खुलासा किए जाने की मांग उठाई है. अंगोला एक समय चीन के ‘ऑयल फॉर इंफ्रास्ट्रक्टर’ ऋण योजना का चहेता बना हुआ था, लेकिन आज ये देश विदेशी कर्ज़ की विकराल होती समस्या से जूझ रहा है. तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट ने अंगोला की हालत और पतली कर दी है. अनुमानों के हिसाब से अंगोला पर चीन का करीब 20 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर का कर्ज़ है. हालांकि अंगोला ने अभी हाल ही में चीन के साथ कर्ज़ों पर फिर से सौदेबाज़ी की है, लेकिन जैसा कि शुरू से ही चीन की चाल रही है ऋण के मोल-भाव से जुड़े तथ्यों को सार्वजनिक नहीं किया गया है.
चीन पर अक्सर ये आरोप लगते हैं कि वो अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज़ के जाल में फंसाने के लिए बुनियादी ढांचे से जुड़ी बेकार की परियोजनाओं का झांसा देकर अनाप-शनाप कर्ज़ मुहैया कराता है.
बहरहाल, देबोरा ब्राउटिगम जैसे कुछ शिक्षाविदों का कहना है कि अफ्रीका में चीन के कर्ज़ों से जुड़ी समस्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है. उनका मानना है कि अफ्रीकी देशों के लिए चीन से कर्ज़ों पर राहत पाना कोई मुश्किल बात नहीं है. हालांकि, ये बात भी साफ़ है कि कर्ज़ देने के चीनी तौर-तरीके अफ्रीका के ज़्यादातर देशों के लिए प्रतिकूल हैं. कर्ज़ देने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है. नतीजतन अफ्रीकी देशों को मिलने वाले भारी भरकम कर्ज़ों की सार्वजनिक तौर पर कभी समीक्षा भी नहीं हो पाती. कई मामलों में तो कर्ज़ की रकम का भी ठीक-ठीक पता नहीं चल पाता. ज़्यादातर अफ्रीकी देशों के पास सौदेबाज़ी कर पाने की क्षमता नहीं होती लिहाजा वो अब अपने आप को प्रतिकूल शर्तों वाले ऋण के बोझ तले दीर्घकालिक तौर पर फंसा हुआ पा रहे हैं. चीनी रकम द्वारा शुरू की गई ज़्यादातर परियोजनाएं भी पर्याप्त लाभ दे पाने में नाकाम रही हैं.
चीन और अफ्रीका के रिश्ते आज चौराहे पर खड़े हैं. हाल तक अफ्रीका में चीन की छवि एक ऐसे मित्र-देश की रही थी जो उनसे आर्थिक विकास के अपने अनुभव साझा करना चाहता था और अफ्रीका के आर्थिक कायापलट के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचे के विकास के लिए उसकी मदद करना चाहता था. लेकिन अब ज़्यादातर अफ्रीकी देशों की सरकारें चीनी ऋणों पर फिर से विचार करने लगी हैं. जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है ज़्यादातर विश्व बाज़ार में उपयोगी वस्तुओं की कीमतों में 2014 में आई गिरावट का ज़्यादातर अफ्रीकी देशों पर बड़ा बुरा असर हुआ था. अब कोविड-19 महामारी की वजह से आर्थिक गतिविधियों में आई सुस्ती अफ्रीकी देशों को पिछले 25 सालों की सबसे बड़ी मंदी की ओर ले गई है. विश्व बैंक का अनुमान है कि सब-सहारा अफ्रीका क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं में -3.3 फ़ीसदी की गिरावट देखने को मिलेगी. क्या इस मोड़ पर आकर चीन और अफ्रीका की दोस्ती ख़त्म हो जाएगी या फिर चीन अफ्रीका को एक विशाल कर्ज़-राहत प्रदान करेगा? जी20 डेट रिलीफ़ सर्विस सस्पेंशन इनिशिएटिव के तहत चीन ने 1 मई 2020 से दिसंबर 2020 की अवधि तक सब-सहारा क्षेत्र के 40 देशों को अपने कर्ज़ पर मूलधन और ब्याज़ की रकम वापसी नहीं करने की छूट दे दी थी. हालांकि, अंगोला जैसे देश जिन्होंने चाइना डेवलपमेंट बैंक से व्यापारिक शर्तों पर कर्ज़ के रूप में बड़ी धनराशि ले रखी थी, उन्हें इस छूट से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. ये देश चीन के साथ कर्ज़ों को लेकर द्विपक्षीय तौर पर सौदेबाज़ी कर रहे हैं. अफ्रीकी देशों को चीन से कर्ज़ों पर इससे कहीं बड़ी और इससे कहीं ज़्यादा अवधि के लिए राहत की दरकार है ताकि वो कोविड-19 महामारी से उपजी सामाजिक-आर्थिक परेशानियों से पार पा सकें.
आज हालत ये है कि अफ्रीकी देश एक और कर्ज़ संकट की कगार पर खड़े हैं और इसके चलते उनकी विकास-यात्रा के रास्ते में बड़ी चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं. वहीं दूसरी ओर चीन को देखें तो उसके लिए परिस्थितियां सर्वथा अनुकूल हैं.
आज हालत ये है कि अफ्रीकी देश एक और कर्ज़ संकट की कगार पर खड़े हैं और इसके चलते उनकी विकास-यात्रा के रास्ते में बड़ी चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं. वहीं दूसरी ओर चीन को देखें तो उसके लिए परिस्थितियां सर्वथा अनुकूल हैं. इसके पास कर्ज़ के बोझ तले दबे अफ्रीकी देशों पर अपनी दादागीरी चलाने का मौका है. लेकिन अगर उसने इस समय ऐसा किया तो वैश्विक स्तर पर उसकी छवि पर और बट्टा लगने का ख़तरा है. ख़ासकर एक ऐसे समय पर जब कोविड-19 महामारी के बारे में दुनिया को सही समय पर सटीक जानकारी न देने और महामारी के दौरान भारत पर फ़ौजी हमला करने को लेकर उसकी चौतरफा आलोचना हो रही है. धीरे-धीरे ही सही लेकिन कई देश अब अपनी आपूर्ति श्रृंखला में ज़्यादा से ज़्यादा विविधता ला रहे हैं ताकि चीन पर उनकी निर्भरता कम हो सके. ऐसे मौके पर क्या चीन अफ्रीका के लिए एक और ऋण-संकट खड़ा कर वैश्विक स्तर पर अपनी छवि को और धूमिल होने देना चाहेगा या फिर वो अफ्रीकी देशों के लिए कर्ज़-माफ़ी या ऋण की शर्तों को फिर से तय करने की ओर आगे बढ़ेगा? अफ्रीका को दिए गए चीनी कर्ज़ों से चीन की खुद की आर्थिक सेहत पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता है लेकिन अगर अफ्रीकी देश एक और ऋण-संकट में फंसे तो उन देशों की आबादी के सामने बड़ी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी. ऐसे में चीन द्वारा कर्ज़ माफ़ी या ऋण की शर्तों को फिर से तय करने का विकल्प चुने जाने की ही ज़्यादा संभावना दिखती है.
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Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...
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