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IPSOS वैश्विक सर्वेक्षण के मुताबिक़ 70 प्रतिशत भारतीयों का मानना है कि उनका देश जलवायु कार्रवाई के मामले में वर्ल्ड लीडर है. देखा जाए तो यह आंकड़ा चीन को छोड़कर 29 विकसित देशों एवं उच्च एवं निम्न-मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है. वैश्विक स्तर पर औसतन 31 प्रतिशत लोगों की ही अपने देशों के बारे में ऐसी राय है, जबकि स्वीडन के 41 प्रतिशत एवं सिंगापुर के 38 प्रतिशत लोगों को विश्वास है कि उनका देश क्लाइमेट एक्शन में अग्रणी है. भारत में प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन सबसे कम है, और यह भारतीयों में अपने देश को लेकर इस आत्मविश्वास की वजह हो सकती है. भारत ने वर्ष 2007 में आश्वासन दिया था कि वह कभी भी वैश्विक औसत उत्सर्जन की दहलीज़ को पार नहीं करेगा और उसने अपनी इस प्रतिबद्धता को पूरा किया है. IPSOS फ्रांस की एक बहुराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च एंड कंसल्टिंग फर्म है, जो हर साल यह सर्वेक्षण करती है. रिसर्च फर्म द्वारा इस सर्वे में भारत के 2,200 शहरी निवासियों को शामिल किया गया है, जबकि दूसरे देशों में 500 से 1,000 लोगों से सवाल पूछे गए हैं.
भारत ने वर्ष 2007 में आश्वासन दिया था कि वह कभी भी वैश्विक औसत उत्सर्जन की दहलीज़ को पार नहीं करेगा और उसने अपनी इस प्रतिबद्धता को पूरा किया है.
भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के लिए ख़ुशी का क्षण है, क्यों कि इस सर्वेक्षण के मुताबिक़ 64 प्रतिशत भारतीय जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का समाधान करने के लिए अधिक टैक्स देने को तैयार हैं. ज़ाहिर है कि अगले दो दशकों तक यह टैक्स देश के ख़जाने पर बोझ डालने वाला है. इसके साथ ही दुनिया भर के देशों में भारतीयों द्वारा क्लाइमेट एक्शन के लिए अधिक टैक्स देने की रज़ामंदी का प्रतिशत सबसे अधिक है. भारत द्वारा देखा जाए तो प्रत्यक्ष तौर पर कार्बन उत्सर्जन पर इस तरह का टैक्स नहीं लगाया जाता है, लेकिन अप्रत्यक्ष टैक्स ज़रूर लगाया जाता है. वैश्विक स्तर पर कार्बन की प्रचुरता वाले सघन पेट्रोलियम उत्पादों, जो तेल के रूप होते हैं, उन पर संचयी कर और शुल्क वसूला जाता है. घरेलू स्तर पर कोयला एक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध संसाधन है, जो अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन करता है और इस प्रकार से कोयले पर उत्पादन-आधारित अधिक टैक्स एवं शुल्क लगाया जाता है. यह अधिक टैक्स ही कहीं न कहीं स्वच्छ नवीकरणीय ऊर्जा में परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन की बड़ी वजह है. हैरानी की बात यह है कि मध्यम आय वाले देश विकसित देशों की तुलना में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए अधिक टैक्स देने के अधिक इच्छुक हैं. वैश्विक स्तर पर औसतन 30 प्रतिशत लोगों द्वारा अधिक टैक्स देने की इच्छा की तुलना में थाईलैंड में 48 प्रतिशत लोग अधिक टैक्स देना चाहते हैं, जबकि इंडोनेशिया में 42 प्रतिशत लोग ऐसा चाहते हैं. विकसित देशों की बात करें तो अमेरिका (25 प्रतिशत), कनाडा (20 प्रतिशत), यूके (33 प्रतिशत), जर्मनी (28 प्रतिशत), ऑस्ट्रेलिया (26 प्रतिशत) और फ्रांस (25 प्रतिशत) में वैश्विक औसत से कम लोग उच्च कर देने के इच्छुक हैं, जबकि जापान में सबसे कम केवल 12 प्रतिशत लोग ही ऐसा चाहते हैं.
जिस प्रकार से जापान के सबसे कम नागरिकों ने जलवायु कार्रवाई के लिए अधिक टैक्स भुगतान करने की इच्छा जताई है, उसका मतलब कहीं यह तो नहीं है कि वहां वरिष्ठ नागरिकों की आबादी सर्वाधिक है. इसी तरह से दूसरे विकसित देशों में भी कम संख्या में नागरिकों द्वारा अधिक कार्बन टैक्स देने की इच्छा जताई गई है, इसके पीछे भी मुख्य वजह वहां की आबादी में बुजुर्गों की अधिक संख्या हो सकती है. ज़ाहिर है कि रिटायरमेंट के बाद वरिष्ठ नागरिकों की आय इतनी नहीं होती है कि वे लंबे समय तक जलवायु कार्रवाई के लिए टैक्स का भुगतान कर सकें और उन्हें इसके लिए अलग से कोई वित्तीय प्रोत्साहन भी नहीं मिलता है. यह स्थित ग्रेटा थुनबर्ग की भावुक दलील को सिद्ध करता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि युवा और आने वाली पीढ़ियों द्वारा क्लाइमेट एक्शन के लिए अपनी तरफ से योगदान दिया जाना चाहिए. अफसोस की बात यह है कि विकसित देशों द्वारा जलवायु कार्रवाई से जुड़े मुद्दों को लेकर बातें बहुत की जाती हैं, लेकिन वास्तविकता में इसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया जाता है, यानी उन्हें सिर्फ़ अपने हितों की चिंता होती है. यूनाइटेड किंगडम (यूके) में ऋषि सुनक के नेतृत्व वाली टोरी सरकार ने हाल ही में कोयला खनन के लिए नई पॉलिसी को मंज़ूरी दी है, यानी ब्रिटेन में कोयला खनन का दौर वापस आ गया है, इससे कहीं न कहीं उनकी पार्टी के समर्थकों को फायदा पहुंच सकता है, क्योंकि वे काफ़ी दिनों से इसकी मांग कर रहे थे. सुनक सरकार ने ऐसा निर्णय तब लिया है, जब महज दो साल पहले ही ग्लासगो में COP26 के दौरान “कोयले का अंत” करने जैसी बड़ी-बड़ी बातें कही गई थीं.
हैरानी की बात यह है कि मध्यम आय वाले देश विकसित देशों की तुलना में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए अधिक टैक्स देने के अधिक इच्छुक हैं. वैश्विक स्तर पर औसतन 30 प्रतिशत लोगों द्वारा अधिक टैक्स देने की इच्छा की तुलना में थाईलैंड में 48 प्रतिशत लोग अधिक टैक्स देना चाहते हैं
सवाल यह है कि क्या सभी देशों को मिलकर जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान तलाशने के लिए अधिक प्रयास नहीं करने चाहिए? दरअसल, सच्चाई यह है कि IPSOS सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाली मिडिल इनकम इकोनॉमीज के नागरिक विकसित देशों के निवासियों की तुलना में अधिक उदार नज़र आए हैं. सर्वे में शामिल भारत और थाईलैंड के 76 प्रतिशत नागरिकों ने कहा है कि उनके देश को इस दिशा में और अधिक कोशिश करनी चाहिए. देखा जाए तो जलवायु कार्रवाई को लेकर अमेरिका के गैर-अंग्रेजी भाषी देशों के लोग और अधिक संवेदनशील दिखाई दिए. इन देशों में मेक्सिको 80 प्रतिशत नागरिकों के समर्थन के साथ चोटी पर है, उसके बाद कोलंबिया, अर्जेंटीना, चिली और पेरू का नंबर आता है, जबकि 75 प्रतिशत के साथ ब्राज़ील अंत में है. जहां तक विकसित अर्थव्यवस्थाओं की बात है, तो वहां के नागरिकों में जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर कम दिलचस्पी दिखी. इनमें से सिर्फ़ इटली और स्पेन में ही 66 प्रतिशत लोग ऐसा चाहते हैं और जो वैश्विक औसत से थोड़ा ऊपर है. जहां तक यूरोपियन यूनियन की बात है, तो वहां इस मुद्दे पर लोगों का समर्थन, यहां तक कि आर्थिक रूप से संपन्न नीदरलैंड और जर्मनी जैसे देशों में भी क्रमशः केवल 51 और 55 प्रतिशत ही है, जो अमेरिका के 57 प्रतिशत से कम है. ऐसे में सवाल यही है कि क्या यह सर्वे EU को अपने सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन से संबंधित उत्तरदायित्वों को बेहतर तरीक़े से बांटने के लिए प्रोत्साहित करेगा.
विकसित अर्थव्यवस्थाएं जो कभी जलवायु कार्रवाई के मामले में अग्रिम पंक्ति पर खड़ी नज़र आती थीं, लेकिन आज काफ़ी पीछे दिखाई दे रही हैं. इसकी बड़ी वजह यह है कि वर्ष 2008-2010 के दौरान पश्चिमी देशों में आए वित्तीय संकट के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है. इसकी वजह से वैश्विक स्तर कई बदलाव आए हैं, साथ ही कहीं न कहीं ओपन इकोनॉमी यानी खुली अर्थव्यवस्था का पतन और नियम क़ानून पर आधारित वैश्विक व्यापार प्रभावित हुआ है. इतना ही नहीं चीन द्वारा आक्रामकता के साथ किए जा रहे निवेश फ्रेमवर्क पर एक रणनीतिक प्रतिक्रिया के तहत टैक्स लगाया जा रहा है, ताकि उसे नियंत्रित किया जा सके, यह सिर्फ़ ऐसे ही नहीं कहा जा रहा है, बल्कि यह एक सच्चाई है. यूक्रेन संकट के कारण वैश्विक स्तर पर बढ़ी महंगाई एवं पश्चिम एशिया में 2020 के “अब्राहम समझौते” जैसी पहल ने इन सभी परिस्थितियों को और बिगाड़ दिया है. ये सारे हालात साफ इशारा करते हैं कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने के लिए जो अभियान चल रहा है, उसका समर्थन करने के लिए विकसित देशों के पास पैसों की तंगी है. ऐसे में सवाल है कि क्या विकासशील देशों के नागरिकों द्वारा विकसित दुनिया की तरफ से क्लाइमेट चेंज के प्रति कमज़ोर होती प्रतिबद्धता को महसूस किया जा रहा है और इसीलिए वे अपने दीर्घकालिक हितों का संरक्षण खुद करने के लिए तैयार हो रहे हैं? जलवायु परिवर्तन को लेकर किए गए इस वैश्विक सर्वे से अगर लोगों की यह सोच सामने आती है, तो यह न सिर्फ़ सराहनीय है, बल्कि यह इस सर्वे का एक बड़ा निष्कर्ष होगा. ज़ाहिर है कि यह सर्वेक्षण कम से कम इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए तो नहीं किया गया था.
लगभग सभी देशों में क्लाइमेट एक्शन को कार्यान्वित करने के लिए सरकार की ऊपर से नीचे तक की कार्रवाई के विरुद्ध लगभग सभी हिस्सों में विरोध देखने को मिला है. सर्वेक्षण में सामने आए नतीज़ों के मुताबिक़ दुनिया भर में जलवायु कार्रवाई के लिए सरकारी क़दमों को लेकर जनता का बहुत कम समर्थन मिला है. सर्वे के अनुसार यह समर्थन औसतन 4 से 8 प्रतिशत के बीच है, जबकि भारत में केवल 3 प्रतिशत लोगों का ही समर्थन हासिल है. वहीं, सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि ज़्यादातर लोगों ने माना है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर व्यक्तिगत स्तर पर की गई कार्रवाई महत्वपूर्ण है. ऐसा मानने वालों का वैश्विक औसत 63 प्रतिशत है, जबकि भारत में 69 प्रतिशत लोग ऐसा मानते हैं. अगर इस सर्वेक्षण के इन दोनों नतीज़ों को जोड़कर देखा जाए, तो स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि लोगों की प्राथमिकताएं क्या हैं, जिन पर मिलजुल कर आगे बढ़ना चाहिए. यह प्राथमिकताएं हैं जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाना, जलवायु-अनुकूल नीतिगत विकल्प प्रदान करना, उच्च स्तर की पारदर्शिता दिखाना और निर्णय लेने में लोगों की सहभागिता को बढ़ावा देना. इस मसले पर आगे की राह तय करने का सबसे बेहतर और उपयोगी तरीक़ा लोगों द्वारा अपनी इच्छा से इस मुहिम में शामिल होना है, जिसे सरकारी सिस्टम की तरफ से भरपूर मदद मिले और इसके लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया का विकेंद्रीकरण किया जाए.
जहां तक यूरोपियन यूनियन की बात है, तो वहां इस मुद्दे पर लोगों का समर्थन, यहां तक कि आर्थिक रूप से संपन्न नीदरलैंड और जर्मनी जैसे देशों में भी क्रमशः केवल 51 और 55 प्रतिशत ही है, जो अमेरिका के 57 प्रतिशत से कम है.
उम्मीद के मुताबिक़, दुनिया के तमाम देशों और क्षेत्रों में जलवायु कार्रवाई का सहयोग करने के लिए टैक्स में छूट जैसे वित्तीय प्रोत्साहनों को व्यापक समर्थन मिला है. सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में इसके समर्थन में सबसे कम 33 प्रतिशत लोग हैं, जबकि दक्षिण कोरिया में सबसे अधिक 55 प्रतिशत लोग इसका समर्थन करते हैं, वहीं अपवाद स्वरूप भारत में 26 प्रतिशत और थाईलैंड में 18 प्रतिशत लोग ही कर छूट के पक्ष में हैं. सर्वेक्षण में जीवन शैली को लेकर बदलाव से जुड़े सवालों, जैसे कि पालतू जानवरों को नहीं रखने पर वैश्विक स्तर पर औसतन सिर्फ 2 से 9 प्रतिशत लोगों का की समर्थन मिला है, लेकिन भारत में 17 प्रतिशत से अधिक समर्थन मिला. सर्वे में रहने के लिए जगह से जुड़ा सवाल भी पूछा गया था, जिसमें आमतौर पर लोगों ने छोटी जगह पर रहने से मना किया. ऐसा कहने वाले वैश्विक स्तर पर औसतन 1 से 7 प्रतिशत लोग थे, जबकि भारत में 4 प्रतिशत लोगों ने ऐसा कहा. वैश्विक स्तर पर शाकाहारी खान-पान अपनाने पर भी इच्छा जानी गई है, इसमें दुनिया भर में औसतन 4 से 14 प्रतिशत लोग समर्थन में दिखाई दिए, जबकि भारत में 26 प्रतिशत लोग इसके समर्थन में थे.
अख़िर में इस सर्वेक्षण में सबसे हैरान करने वाली बात यह सामने आई है कि भारत में नवीकरण ऊर्जा को लेकर लोगों की दिलचस्पी बहुत कम दिखाई दी है. भारत एक ऐसा देश है, जहां नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर व्यापक स्तर पर कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन यहां सिर्फ़ 18 प्रतिशत लोगों ने ही नवीकरणीय ऊर्जा से पैदा हुई बिजली ख़रीदने की इच्छा जताई है, यह आंकड़ा वैश्विक स्तर पर सबसे कम है. दूसरे देशों की बात करें तो अर्जेंटीना में 58 प्रतिशत लोग, कनाडा में 28 प्रतिशत, फ्रांस में 27 प्रतिशत और जापान में 25 प्रतिशत लोगों ने नवीकरणीय ऊर्जा के प्रति सकारात्मक रुख दिखाया है. भारत में ऐसा इसलिए है कि यहां नवीकरणीय ऊर्जा को बेहतर, किफायती और विश्वसनीय स्रोत के रूप में तो खूब प्रचारित किया गया है, लेकिन इसके उपयोग को बढ़ाने के लिए क़ानूनी स्तर पर उस लिहाज़ से पहल नहीं की गई है. सर्वे के अनुसार मटेरियल रीसाइक्लिंग के मामले में भी भारत पिछड़ा हुआ है, इस विषय पर सिर्फ़ 7 प्रतिशत लोगों ने समर्थन किया है, जबकि वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों में इस मामले में समर्थन कोलंबिया के 50 प्रतिशत से लेकर दक्षिण कोरिया के 23 प्रतिशत के बीच है. वर्ष 2021 में ग्लासगो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा परिवर्तनकारी कार्यक्रम LiFE (Lifestyle for Environment) की शुरुआत की गई थी, लेकिन भारत में यह ज़मीनी स्तर पर कहीं नज़र नहीं आ रहा है. ज़ाहिर है कि LiFE के बारे में पूरी दुनिया में चर्चा करने से पहले भारत को घरेलू स्तर पर इसे लागू करने एवं विभिन्न राज्य सरकारों व स्थानीय स्तर पर इसे संस्थागत तौर पर मुख्यधारा में शामिल किए जाने की ज़रूरत है.
निश्चित तौर पर इस वैश्विक सर्वेक्षण में जिस प्रकार से तमाम देशों में शहरों और बड़े मेट्रो सिटीज़ में विभिन्न विषयों पर सैंपल एकत्र किए गए हैं, उनसे कोई ऐसा व्यापक रुझान मिलने की उम्मीद नहीं है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि किस देश में किस प्रकार के नीतिगत सुधारों की ज़रूर है. लेकिन इस सर्वे से जो भी आंकड़े मिले हैं, उनसे मोटे तौर पर देशों के रुझानों के बारे में जानकारी ज़रूर मिलती है. इसके साथ ही सर्वे के नतीज़े देश में आने वाले व्यापक व्यावहारिक परिवर्तन का पता लगाने के लिए भी बेहद उपयोगी हैं. सर्वेक्षण में जिस तरह से विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लोगों ने कार्बन टैक्स के रूप में अधिक भुगतान करने की इच्छा जताई है, उसकी गहनता से पड़ताल किए जाने की ज़रूरत है. सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या वर्तमान में जो भू-राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है, यह अस्थाई रुझान इसकी वजह से सामने आए हैं, या फिर मिडिल इनकम वाले देशों के नागरिकों के भीतर वैश्विक ज़िम्मेदारियों के प्रति सोच में व्यापक परिवर्तन आया है? ज़ाहिर है कि वैश्विक स्तर पर कुल GDP में विकासशील देशों की भागीदारी 38 प्रतिशत है, जबकि उत्सर्जन में भागीदारी 63 प्रतिशत है. यदि बात मिडिल इनकम वाले देशों के लोगों की सोच में आए बदलाव की है, तो फिर यह कहना उचित होगा कि जलवायु कार्रवाई के लिए पेरिस एग्रीमेंट के तहत सभी की सहमति से जो फैसला लिया गया था, उसने बड़ी ही कुशलता से क्योटो समझौते के पहले के एनेक्सचर-II में शामिल देशों के बीच ज़िम्मेदारी एवं जवाबदेही की भावना जागृत की है. इस सर्वेक्षण के जो भी परिणाम सामने आए हैं, वे कहीं न कहीं वैश्विक स्तर पर सहभागिता एवं पारस्परिक विश्वास के लिए एक बेहद उपयोगी घटनाक्रम है और काफ़ी सकारात्मक भी है. उल्लेखनीय है कि रास्ते चाहे अलग-अलग हों, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए ऊर्जा परिवर्तन की दिशा में यह प्रगति अत्यंत आवश्यक है.
संजीव अहलूवालिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एडवाइज़र हैं.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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