Author : Roshani Jain

Published on Jun 19, 2024 Updated 0 Hours ago

सुंदरबन के पर्यावरणीय तंत्र को सुरक्षित रखने के लिए भारत और बांग्लादेश पूरी कोशिश कर रहे हैं. संस्थागत स्तर पर भी काम किया जा रहा है. लेकिन इसके संरक्षण के लिए की जा रही कोशिशें ज़मीनी स्तर पर प्रभावी साबित नहीं हो पा रही हैं.

सुंदरबन के ‘जंगलों’ के पर्यावरणीय तंत्र में आ रही गिरावट की पड़ताल

सुंदरबन में दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन इस वक्त पारिस्थितिकीय संकट का सामना कर रहा है. पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में इसकी अहम भूमिका को देखते हुए इस वन को अक्सर ‘लंग्स ऑफ एशिया’ यानी एशिया का फेफड़ा भी कहा जाता है. भारत और बांग्लादेश द्वारा ‘संरक्षित क्षेत्र’ घोषित होने के बावजूद ये महत्वपूर्ण पर्यावरणीय तंत्र ख़तरे का सामना करना है  हालांकि, दिल्ली और ढाका ने इस वन के संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई है लेकिन यहां इस बात को उजागर करना ज़रूरी है कि मैंग्रोव वन की सुरक्षा के संस्थागत उपायों को आखिर ज़मीन पर लागू क्यों नहीं किया जा सका है. इसकी जांच में ये समाने आया है कि इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए ईमानदार शासन के अभाव के कई कारण हैं. इसमें टॉप डाउन फैक्टर, जैसे कि संस्थागत कमियां, भारत और बांग्लादेश के बीच के द्विपक्षीय रिश्तों के रूझान से लेकर ज़मीनी क्षमता और कार्यान्वय के मुद्दे शामिल हैं. 

हालांकि, दिल्ली और ढाका ने इस वन के संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई है लेकिन यहां इस बात को उजागर करना ज़रूरी है कि मैंग्रोव वन की सुरक्षा के संस्थागत उपायों को आखिर ज़मीन पर लागू क्यों नहीं किया जा सका है.

संस्था से जुड़े सुरक्षात्मक उपाय


अपनी समृद्ध जैविक विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता, चक्रवाती तूफान और दूसरी आपदाओं से प्राकृतिक बचाव का माध्यम होने की वजह से सुंदरबन राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इतना ही नहीं रॉयल बंगाल टाइगर भी सिर्फ सुंदरबन में ही पाए जाते हैं. भारत के 45 लाख लोगों के जीवन में इस जीवमंडल की काफी अहमियत है. इस क्षेत्र में कई स्थानीय उद्योग और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिला है. इसी तरह बांग्लादेश के आर्थिक विकास में भी सुदंरबन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. बांग्लादेश भी ये कोशिश कर रहा है कि वो 2026 तक ‘कम विकसित देश की स्थिति’ से बाहर निकलकर विकासशील देशों की श्रेणी में पहुंच जाए. बांग्लादेश के लिए ये वन उत्पाद का सबसे बड़ा स्रोत है. एक अनुमान के मुताबिक वित्त विर्ष 2023 में सुंदरबन ने जो पर्यावरणीय सेवाएं मुहैया कराईं, उसका वार्षिक मूल्य 27.71 अरब डॉलर से ज़्यादा था. इतना ही नहीं सुदंरबन एक हज़ार से ज़्य़ादा तरह की वनस्पतियों और जीवों का घर है.  

भारतीय बंगाल डेल्टा (IBD) को पहले से ही वैश्विक स्तर पर सबसे कमज़ोर क्षेत्रों में से एक माना जाता है. अब जबकि इस क्षेत्र के पर्यावारण में भी लगातार गिरावट आ रही है तो जलवायु पलायन के रूप में मानव सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता पर इसके विनाशकारी प्रभाव पड़ने तय हैं.

इस क्षेत्र के महत्व को देखते हुए भारत और बांग्लादेश ने इसकी सुरक्षा और जलवायु के हिसाब से लचीलेपन के निर्माण के लिए कई कदम उठाए हैं. दोनों देशों ने रामसर कन्वेंशन पर दस्तख़त किए हैं. उन्होंने सुंदरबन के कुछ हिस्सों को संरक्षित स्थल और कुछ हिस्सों को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल (भारत ने 1987 में और बांग्लादेश ने 1997 में) घोषित किया है. भारत और बांग्लादेश ने 2011 में एक समझौता ज्ञापन पर भी हस्ताक्षर किए, जिसमें सुंदरबन के संरक्षण के लिए मिलकर काम करने को समय की ज़रूरत बताया गया है. समझौते में इस बात को स्वीकार किया गया है कि सुंदरबन का इलाका भले ही दोनों देशों के तहत आता हो लेकिन ये एकल पर्यावरणीय तंत्र है, इसलिए यहां संसाधानों की निगरानी और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सहयोग आवश्यक है. इस समझौते के तहत सूचना इकट्ठा करने, संरक्षण और विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए एक संयुक्त कार्यकारी समूह (JWG) बनाया गया. इस साझा कार्यक्रम के क्रियान्वयन ने ज़ोर पकड़ा 2015 में, जब दोनों देशों के मंत्री स्तरीय प्रतिनिधिमंडल पार्टियों के सम्मेलन (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ 21) में मिले और इस इलाके के साझा संसाधनों और जलवायु संवेदनशीलता के निर्माण पर चर्चा की.
 


साझा कोशिशों का नहीं निकला कोई नतीजा

अगर उपरोक्त सभी घटनाओं को सिलसिलेवार तरीके से देखें तो ये बात साफ है कि दोनों देशों ने इस साझा जीवमंडल के संरक्षण के लिए ज़रूरी इच्छाशक्ति तो दिखाई है, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर अभी काफी कुछ किए जाने की ज़रूरत है. ज़मीन स्तर पर कार्रवाई की कमी ने इस जीवमंडल को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) के मानकों के हिसाब से “लुप्तप्राय” की श्रेणी में ला दिया है.

पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर मानवजनित और जलवायु दोनों तरह के कारक का असर पड़ता है. इसमें अनियंत्रित औद्योगिक गतिविधियां से पैदा हुए वायु प्रदूषण, गैर जिम्मेदार वन व्यवस्था और अनैतिक लाभ कमाने की इच्छा की वजह से होने वाली जंगल की आग जैसी घटनाएं शामिल हैं. दोनों देशों में तेज़ी से बढ़ रही आबादी ने भी वन संसाधन पर काफी दवाब डाला है. इससे ताज़े पानी की उपलब्धता और कृषि उत्पादन में कमी आई है. प्राकृतिक आपदाओं का ख़तरा भी बढ़ा है. ये निचला तटीय क्षेत्र हाइड्रोलॉजिकल चक्रों में बहुत ज़्यादा बदलावों की वजह से सबसे कमज़ोर है. इससे विनाशकारी चक्रवर्ती तूफान और बाढ़ आती है. समुद्र के स्तर में लगातार बढ़ोत्तरी से इसमें खारापन बढ़ रहा है. तटीय इलाकों की ज़मीन डूब रही है. इससे लोगों की आजीविका और वनस्पति और जीवों के आवास पर असर पड़ रहा है. भारतीय बंगाल डेल्टा (IBD) को पहले से ही वैश्विक स्तर पर सबसे कमज़ोर क्षेत्रों में से एक माना जाता है. अब जबकि इस क्षेत्र के पर्यावारण में भी लगातार गिरावट आ रही है तो जलवायु पलायन के रूप में मानव सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता पर इसके विनाशकारी प्रभाव पड़ने तय हैं. जब इस तरह के अस्थिर रूझान सामने आ रहे हैं तो इसकी गिरावट की जांच करनी ज़रूरी हो जाती है.

The Indian Sundarbans has been accorded the status of 'Wetland of  International Importance' under the Ramsar Convention. The part of the  Sundarbans delta, which lies in Bangladesh, was accorded the status of

स्रोत : सुंदरबन के मानचित्र

 

संस्थागतवाद और प्राथमिकताओं का असंतोष

सुंदरबन के शासन को कमज़ोर करने वाला प्राथमिक कारक तो 2011 का समझौता ज्ञापन ही है. सुंदरबन की भौगोलिक स्थिति में क्या-क्या शामिल है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है. बांग्लादेश में ये शब्द वन क्षेत्र तक ही सीमित है, जबकि भारत सुंदरबन के पूरे जीवमंडल रिज़र्व को इसमें शामिल करता है. भारत में इसने दो दोहरी समस्याओं को जन्म दिया है. एक तरफ जहां सुंदरबन जीवमंडल का इलाका केंद्र सरकार के विशेषाधिकार में आता है, वहीं यहां का आवासीय क्षेत्र पश्चिम बंगाल सरकार के अधिकार क्षेत्र में है. केंद्र और राज्य सरकार के बीच सुंदरबन से जुड़े दायित्वों और जिम्मेदारियों के विभाजन ने कई समस्याएं पैदा की हैं. इसकी वजह से खंडित प्रबंधन, सूचना और संचार के आदान-प्रदान में देरी, काम को दोहराव और प्राधिकरण की कमियों से मुनाफाखोरी करने वालों द्वारा भूमि का अतिक्रमण होता है. एक समस्या और है. इस समझौते को सिर्फ वन क्षेत्र के संरक्षण तक सीमित रखा गया है. यानी ये समझौता मानव सुरक्षा और विकास के गठजोड़ से उभरने वाली व्यापक चुनौतियों का समाधान निकालने में नाकाम है. उदाहरण के लिए ये समझौता ज्ञापन जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने और इस क्षेत्र में लचीलेपन के निर्माण के लिए एक साझा दृष्टिकोण की बात करता है, लेकिन समुद्र स्तर में वृद्धि, तलछट प्रवाह में कमी, ज़मीन में बाढ़ और धारा प्रवाह की कमी जैसे गंभीर पर्यावरणीय मुद्दों का इस समझौता ज्ञापन में कोई ज़िक्र नहीं किया गया है.

ये चुनौतियां ना सिर्फ़ इस क्षेत्र की वनस्पतियों और जीवों को प्रभावित करती हैं बल्कि मानव सुरक्षा पर भी इनका व्यापक असर पड़ता है. ये सभी चीजें इस समझौते में कवर किए गए ‘संरक्षित क्षेत्र’ के दायरे से बाहर हैं. तूफानी लहरों, ताज़े पानी में कमी, समुद्र के स्तर में वृद्धि और भारतीय बंगाल डेल्टा इलाके में ज़मीन डूबने की घटनाओं ने हज़ारों लोगों को बेघर कर दिया है. इससे पलायन बढ़ा है. कृषि भूमि नष्ट हुई है और इसने लोगों को मोनो-क्रॉपिंग की संस्कृति अपनाने पर मज़बूर किया है. इसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि इस समझौते का प्रभावी संचालन हो पाने में कई बाधाएं हैं क्योंकि इसमें सभी संबंधित हितधारकों की पहचान नहीं की गई है और जिन लोगों की आजीविका इस पर्यावरणीय तंत्र पर निर्भर है, उनकी समस्याओं को भी संबोधित नहीं किया गया है. 

सुंदरबन के शासन को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक इस बात से जुड़ा है कि सीमापार संसाधन संरक्षण का मुद्दा भारत और बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय वार्ता में रक्षा, आर्थिक वृद्धि, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विकास जैसे मुद्दों की तुलना में कहां ठहरता है. 

शोधकर्ताओं का भी कहना है कि रामपाल बिजली संयंत्र की वजह से सुंदरबन की जैव विविधता को इतना नुकसान होगा कि उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी. लेकिन भारत और बांग्लादेश की सरकार इस पावर प्लांट के भू-आर्थिक फायदों पर ज़ोर दे रहे हैं. उनका कहना है कि इस परियोजना से दोनों देशों को फायदा होगा. 


दोनों देशों के बीच एक प्रवृति स्पष्ट दिखती है. वो पर्यावरण संरक्षण की तुलना में विकास परियोजनाओं को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं. उदाहरण के लिए 2022 के जिस साझा बयान में सुंदरबन पर संयुक्त कार्यकारी समूह बनाने की बात कही गई जिससे कि “इस पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायी तौर पर बनाए रखा जा सके”, उसी साझा बयान में मैत्री (रामपाल) बिजली परियोजना के अनावरण की भी बात कही गई थी. बांग्लादेश में स्थापित और कोयले से चलने वाला ये पावर प्लांट दोनों देशों के बीच का सबसे बड़ा संयुक्त उपक्रम है. इस संयत्र से 1320 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा. भारत और बांग्लादेश में इस परियोजना को दोनों पड़ोसी देशों के बीच ऊर्जा सहयोग के एक बेहतरीन उदाहरण के रूप में सराहा गया.

हालांकि इस परियोजना का विरोध भी शुरू हो गया है. पर्यावरणवादी कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि इस बिजली संयंत्र की वजह से सुंदरबन के पर्यावरणीय तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा क्योंकि ये परियोजना सुंदरबन रिज़र्व फॉरेस्ट की सीमा से सिर्फ 14 किलोमटर दूर है. शोधकर्ताओं का भी कहना है कि रामपाल बिजली संयंत्र की वजह से सुंदरबन की जैव विविधता को इतना नुकसान होगा कि उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी. लेकिन भारत और बांग्लादेश की सरकार इस पावर प्लांट के भू-आर्थिक फायदों पर ज़ोर दे रहे हैं. उनका कहना है कि इस परियोजना से दोनों देशों को फायदा होगा.

आखिर में ये समझना भी ज़रूरी है कि सीमा पार साझा क्षेत्र की कोई भी बात ऐसे इलाकों में शासन करने में आने वाली जटिलताओं पर बात किए बिना पूरी नहीं होती. ऐसे क्षेत्रों में सफलतापूर्वक प्रबंधन के लिए अलग-अलग संस्थाओं में सहयोग और अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है. जैसा कि इस लेख में भी बताया गया है कि सुंदरबन को प्रभावित करने वाले दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं ताज़े पानी के स्तर में आ रही कमी और ज़मीन का डूबना. फरक्का बांध में इन दोनों मुद्दों को खोजा जा सकता है. 1975 में अपनी स्थापना के बाद से ही इस विवादित बांध ने इस क्षेत्र के पर्यावरणीय परिदृश्य को बदलकर रख दिया है. इससे गंगा नदी के तलछट साफ करने की गतिविधि में बाधा पैदा हुई है. इस बांध की वजह से सुंदरबन क्षेत्र में ही नहीं बल्कि बांग्लादेश में भी ताज़ा जल के स्तर में गिरावट आई है. दो संधियों, कई समझौता ज्ञापन और संयुक्त राष्ट्र में ये मुद्दा उठने के बावजूद दोनों देश पानी को साझा करने के सहमति के ऐसे बिंदु पर नहीं पहुंच सके हैं, जो दोनों देशों को मान्य हो. ये मुद्दा किसी राजनीतिक समाधान की राह देख रहा है और इसका नुकसान सुंदरबन को उठाना पड़ रहा है. 

संस्थागत ढांचा मौजूद है. बस एक चीज की कमी है. अवांछित व्यक्तियों और संस्थाओं की सफाई करके मौजूदा स्वदेसी मानव क्षमता का फायदा उठाने के लिए एक ज़ोरदार कोशिश करने की आवश्यकता है.


सीमापार पर्यावरणीय तंत्र, क्षेत्र और संसाधनों को अक्सर दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है. ये एक सर्वमान्य तथ्य है कि ऐसा प्राकृतिक संसाधनों के विकास और सार्थक संरक्षण को इसके पूरे खर्च से पूरा करना चाहिए. लेकिन जो क्षेत्र इस तरह सीमापार में फैले होते हैं, वो अक्सर इन देशों की राष्ट्रीय नीतियों और उद्देश्यों को पूरा करने की प्रतिस्पर्धा में फंस जाते हैं. यहां तक की सुंदरबन जैसे मामलों में भी, जहां दोनों देशों ने इस क्षेत्र की साझा प्रकृति को स्वीकार किया है, इसके संरक्षण के कामों को नीतियों के गतिरोध और क्रियान्वयन की बाधाओं का सामना करना पडता है. इतना ही नहीं इस तरह के समझौते ज़मीनी हक़ीकतों को उलझा देते हैं. ये संरक्षण के मुद्दे को भारत और बांग्लादेश के बीच एक समरूप मुद्दे के तौर पर पेश करते हैं, जो इस क्षेत्र में मानव सुरक्षा की ख़तरनाक स्थिति के प्रतिनिधित्व को कमज़ोर करता है. कोई भी हितधारक इस बात पर असहमत नहीं होगा कि लंग्स ऑफ एशिया के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण दख़ल की आवश्यकता है. इसके लिए शोध मौजूद हैं. संस्थागत ढांचा मौजूद है. बस एक चीज की कमी है. अवांछित व्यक्तियों और संस्थाओं की सफाई करके मौजूदा स्वदेसी मानव क्षमता का फायदा उठाने के लिए एक ज़ोरदार कोशिश करने की आवश्यकता है.


(रोशनी जैन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं). 

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