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हिंद-प्रशांत में सहयोग बढ़ाने के लिए अमेरिका अपने औपचारिक गठबंधन साथियों को एकजुट करते हुए सुरक्षा ढांचे का एक नया संजाल स्थापित कर रहा है.
हाल ही में अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया “2+2” मीटिंग का आयोजन किया गया. AUSMIN के नाम से जानी जाने वाली इस बैठक में “सशस्त्र बलों के अंतर-संपर्कों से जुड़ी पहल के साथ एकीकृत होने” के लिए जापान को न्योता देने का फ़ैसला लिया गया. इसे एशिया-प्रशांत (यानी हिंद-प्रशांत) में केंद्र और शाखा वाले अमेरिकी ढांचे के हिसाब से गढ़ा गया है. ये व्यवस्था हिंद-प्रशांत में सुरक्षा ढांचे के नए संजाल के लिए रास्ता साफ़ कर रही है. व्यापक तौर पर अमेरिका ही इसकी अगुवाई कर रहा है. 2007 का ऑस्ट्रेलिया-जापान सुरक्षा घोषणा पत्र और 2021 में AUKUS (ऑस्ट्रेलिया-यूके-अमेरिका सैन्य गठजोड़) के निर्माण से जुड़ा घटनाक्रम भी इसी कड़ी में शामिल है.
पिछले सालों में ऑस्ट्रेलिया-जापान सहयोग में गोपनीय ख़ुफ़िया जानकारियां साझा करने की क़वायद शामिल रही है. इसी साल जनवरी में जापान और ऑस्ट्रेलिया ने एक क़रार पर दस्तख़त किए जिससे दोनों देशों के सैन्य बलों को एक-दूसरे के अड्डों पर प्रशिक्षण हासिल करने और मानवतावादी अभियानों में गठजोड़ करने के अधिकार मिल गए हैं. अक्टूबर में ऑस्ट्रेलिया दौरे पर पहुंचे जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष एंथनी अल्बनीज़ ने एक साझा घोषणापत्र जारी किया. इसमें कहा गया है कि उनकी द्विपक्षीय साझेदारी “अमेरिका के साथ हमारे अपने-अपने गठजोड़ों को और ताक़त देती है.” इसमें आगे कहा गया कि ये त्रिपक्षीय सहयोग “हमारे सामरिक तालमेल, नीतिगत समन्वय, अंतर-संपर्कों और साझा क्षमताओं को आगे बढ़ाने के लिहाज़ से बेहद अहम है.”
ये व्यवस्था हिंद-प्रशांत में सुरक्षा ढांचे के नए संजाल के लिए रास्ता साफ़ कर रही है. व्यापक तौर पर अमेरिका ही इसकी अगुवाई कर रहा है.
अमेरिका, हिंद-प्रशांत के केंद्र में है, जिसकी तमाम शाखाएं औपचारिक तौर पर उसके मित्रदेशों से जुड़ती हैं. इनमें जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया और थाईलैंड शामिल हैं. ताइवान के साथ उसका अनिश्चित और अस्पष्ट रिश्ता और सिंगापुर और भारत के साथ “सामरिक साझेदारी” भी इसी क़वायद का हिस्सा हैं.
“2+2” के स्वरूप में विदेश और रक्षा मंत्रियों की साझा बैठकें इन रिश्तों को आकार देने से जुड़ी व्यवस्था का अहम औज़ार हैं. पहली अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया AUSMIN वार्ताएं 1985 में हुई थीं. उधर, जापान के साथ पहली “2+2” बैठक (जिसे जापान-अमेरिका सुरक्षा सलाहकार समिति के नाम से भी जाना जाता है) सितंबर 2000 में आयोजित हुई थी. भारत और अमेरिका के बीच “2+2” स्तर की पहली बैठक दिसंबर 2018 में संपन्न हुई.
2000 के दशक से अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया त्रिपक्षीय सुरक्षा वार्ताओं के ज़रिए आपस में जुड़ने लगे थे. बाक़ी शाखाओं ने भी एक-दूसरे के साथ जुड़ने की क़वायद चालू कर दी थी. इसके कई सबूत भी तत्काल मिलने लगे. इनमें 2007 का ऑस्ट्रेलिया-जापान सुरक्षा घोषणापत्र और 2009 का ऑस्ट्रेलिया-दक्षिण कोरिया सुरक्षा घोषणापत्र शामिल हैं. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया-एशिया (Australasia) को उत्तर-पूर्वी एशिया के साथ जोड़ने के लिए नए क़िस्म के सुरक्षा ढांचे के निर्माण की कोशिशें भी निरंतर जारी हैं. इसी मक़सद से दक्षिण कोरिया और जापान को सुरक्षा संपर्कों में जोड़ने की क़वायद चलती आ रही है. सुरक्षा से जुड़े ये तमाम घोषणापत्र, चीन के उभार के जवाब में सधी हुई प्रतिक्रिया के तौर पर सामने आए. ये सारी व्यवस्थाएं अब तक ग़ैर-बाध्यकारी रही हैं. साथ ही इनसे तमाम क्षेत्रों में सहयोग के अवसर हासिल हुए हैं. इनमें अंतरराष्ट्रीय अपराध, आतंकवाद, सामुद्रिक और वायु सुरक्षा में विस्तार से निपटने की क़वायद और HADR शामिल हैं.
अमेरिकी समीकरण में भारत एक नया कारक था, लेकिन उसने त्रिपक्षीय दलील के हिसाब से आगे बढ़ना मंज़ूर किया. इस कड़ी में 2015 में भारत-अमेरिका द्विपक्षीय मालाबार अभ्यासों में जापान के दोबारा शामिल होने की मिसाल दी जा सकती है.
2016 में ओबामा प्रशासन ने इस इलाक़े के साथ अमेरिका के रिश्तों में नई जान फूंकने के लिए दोहरे कार्यक्रमों का सहारा लिया. पहली व्यवस्था के तहत अमेरिका ने ट्रांस पेसिफ़िक पार्टनरशिप (TPP) के ज़रिए नए सिरे से क्षेत्र के आर्थिक नियम-क़ायदे गढ़ने की कोशिश की. दूसरी ओर अमेरिका ने अपने केंद्र और शाखा सिद्धांत का नया रूप तैयार करने का मंसूबा जताया. अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने इसे “सिद्धांतों पर आधारित सुरक्षा नेटवर्क” क़रार दिया.
त्रिपक्षीय व्यवस्थाएं इस नेटवर्क का अहम हिस्सा थीं. इनसे उन देशों को एकजुट किया गया जो पहले सिर्फ़ द्विपक्षीय तौर पर सहयोग किया करते थे. इस क़वायद में अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया संपर्कों के साथ-साथ अमेरिका-जापान-दक्षिण कोरिया भागीदारी पर निरंतर ज़ोर दिया गया. ज़ाहिर तौर पर उत्तर कोरिया से मिसाइल और भारी विनाशकारी हथियारों के ख़तरों पर ख़ास तवज्जो दिया गया. अमेरिकी समीकरण में भारत एक नया कारक था, लेकिन उसने त्रिपक्षीय दलील के हिसाब से आगे बढ़ना मंज़ूर किया. इस कड़ी में 2015 में भारत-अमेरिका द्विपक्षीय मालाबार अभ्यासों में जापान के दोबारा शामिल होने की मिसाल दी जा सकती है.
2016 में सिंगापुर में 15वें शांगरी ला डायलॉग में अपने संबोधन में कार्टर ने कहा था कि सुरक्षा के मोर्चे पर सहयोग की ये क़वायद एक दिन अमेरिका-चीन-भारत साझा समुद्री अभ्यास के नतीजे में भी तब्दील हो सकती है. दरअसल, वो अमेरिका-चीन जुड़ावों और RIMPAC अभ्यासों में चीन की भागीदारी वाला दौर था.
एक साल बाद डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यभार संभाला और अपने चिर-परिचित अंदाज़ में तमाम उलटफेरों को अंजाम दे दिया. अमेरिका TPP से बाहर निकल गया और राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन के साथ व्यापार युद्ध छेड़ दिया. आगे चलकर इस रस्साकशी ने दोनों देशों के बीच सामरिक प्रतिस्पर्धा का रूप ले लिया. ट्रंप ने जापान और दक्षिण कोरिया जैसे साथियों से उनकी सुरक्षा में अमेरिकी भागीदारी को लेकर पहले से ज़्यादा भुगतान की मांग भी रख दी. इसके अलावा वो शांति स्थापना के मक़सद से उत्तर कोरिया की ओर भी मुख़ातिब हुए. हालांकि उनके प्रयासों ने आख़िरकार इस इलाक़े में अमेरिकी भूमिका को और पुख़्ता कर दिया.
बाइडेन प्रशासन ने मोटे तौर पर ट्रंप द्वारा शुरू की गई क़वायदों को ही मज़बूती से आगे बढ़ाने का काम किया है. अमेरिकी अगुवाई में AUKUS के नाम से एक नया त्रिपक्षीय सैन्य गठजोड़ सितंबर 2021 में उभरकर सामने आया. इसके ज़रिए ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और यूके का जुड़ाव हुआ.
अमेरिका ने भी अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने रुख़ को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर दिया है. इस कड़ी में जनवरी 2021 में एक नीतिगत दस्तावेज़ जारी किया गया. इसमें अमेरिकी प्रशासन ने कहा है कि अमेरिकी नीति का लक्ष्य “हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका का सामरिक वर्चस्व बरक़रार रखना” है. इस मक़सद को हासिल करने के लिए वो इस क्षेत्र में “उदारवादी आर्थिक व्यवस्था” को बढ़ावा देते हुए चीन को “हितों का अनुदारवादी दायरा” तैयार करने से रोकेगा.
अमेरिका के लिए एक अहम लक्ष्य अपने गठजोड़ों की “विश्वसनीयता और प्रभाव को बढ़ावा” देना था. ढीले-ढाले त्रिपक्षीय ढांचे से चार पक्षों वाली संरचना तैयार करने की क़वायद 2017 में क्वॉड्रिलैट्रल समूह या क्वॉड (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत) के उभार के तौर पर सामने आई. अब इस समूह को इलाक़े की नई सुरक्षा संरचना के “प्रमुख केंद्र” के तौर पर देखा जाने लगा है.
बाइडेन प्रशासन ने मोटे तौर पर ट्रंप द्वारा शुरू की गई क़वायदों को ही मज़बूती से आगे बढ़ाने का काम किया है. अमेरिकी अगुवाई में AUKUS के नाम से एक नया त्रिपक्षीय सैन्य गठजोड़ सितंबर 2021 में उभरकर सामने आया. इसके ज़रिए ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और यूके का जुड़ाव हुआ. फ़रवरी 2022 में बाइडेन प्रशासन की हिंद-प्रशांत रणनीति का ख़ुलासा किया गया. इसमें “लोकतांत्रिक मज़बूती” की अहमियत बताते हुए सुरक्षा के साथ-साथ क्षेत्रीय समृद्धि को बढ़ावा देने की अहमियत पर ज़ोर दिया गया है.
इसमें कहा गया है कि “आज़ाद और मुक्त हिंद प्रशांत” के लिए गठजोड़ों, संगठनों और नियम-क़ायदों का जाल तैयार किए जाने की दरकार है. इन क़वायदों में अमेरिका के साथ मैत्री संधियों के ज़रिए जुड़े मुल्कों के साथ-साथ भारत, इंडोनेशिया, वियतनाम समेत अन्य देश शामिल होंगे. इसमें एक और अहम बात ये जोड़ी गई है कि अमेरिका “अपने साथियों और भागीदार देशों को एक-दूसरे के साथ रिश्ते मज़बूत करने के लिए प्रोत्साहित” करेगा.
दरअसल, दस्तावेज़ में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि इस व्यवस्था का एक प्रमुख लक्ष्य जापान और दक्षिण कोरिया के साथ त्रिपक्षीय सहयोग को बढ़ावा देना है. साथ ही ये भी कहा गया है कि “धीरे-धीरे हम अपनी क्षेत्रीय रणनीतियों का त्रिपक्षीय संदर्भों में समन्वय करने की कोशिश करेंगे.” अमेरिका के इस नए रुख़ की आर्थिक तस्वीर हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचा (IPEF) की स्थापना के तौर पर सामने आई, जो TPP का ही एक ढीला-ढाला संस्करण है.
इस दिशा में चीज़ें कैसे काम कर रही हैं ये इस बात से ज़ाहिर होता है कि अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया AUSMIN के बाद बीते 9 दिसंबर को पहली बार आमने-सामने बैठकर जापान-ऑस्ट्रेलिया 2+2 वार्ताओं का आयोजन किया गया. इससे पहले जून 2021 में दोनों पक्षों के बीच वर्चुअल मीटिंग हो चुकी थी. 9 दिसंबर को हुई बैठक का मक़सद जनवरी 2022 में सुरक्षा सहयोग को लेकर साझा घोषणापत्र पर हुए दस्तख़त से आगे की राह तैयार करना है.
शायद सबसे असरदार और अहम बदलाव जापान में देखने को मिल रहे हैं. 16 दिसंबर 2022 को जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (NSC) द्वारा तैयार नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (NSS) को वहां की कैबिनेट ने अपनी मंज़ूरी दे दी. नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के आधार पर राष्ट्रीय रक्षा रणनीति (NDS) और प्रतिरक्षा निर्माण कार्यक्रम (DBP) को भी स्वीकार कर लिया गया है. अब तक शांतिवादी नीतियां अपनाने वाले जापान ने नीतिगत मोर्चे पर इन नाटकीय उपायों के ज़रिए अपने रक्षा क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव का लक्ष्य रखा है. इस काम के लिए अभूतपूर्व रूप से 320 अरब अमेरिकी डॉलर ख़र्च करने की योजना तैयार की गई है. दरअसल प्रधानमंत्री किशिदा चाहते हैं कि 2027 तक जापान अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत हिस्सा रक्षा पर ख़र्च करना शुरू कर दे. ऐसे में जापान द्वारा दुश्मन के अड्डों और परिसरों पर जवाबी हमला करने की क्षमता हासिल करने पर ज़ोर दिए जाने के पूरे आसार हैं. नई नीति में इलाक़े के सुरक्षा वातावरण में सुधार की क़वायद पर ज़ोर देते हुए जापान-अमेरिका गठजोड़ को और मज़बूत करने की बात कही गई है.
भारत न तो औपचारिक तौर पर अमेरिका का गठबंधन साथी है और ना ही उसकी सुरक्षा अमेरिकियों के आसरे है. इसके बावजूद अमेरिका की तमाम योजनाओं और हाल के सभी बयानों और दस्तावेज़ों (मसलन राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति) में भारत को ऊंचा स्थान दिया गया है. जनवरी 2021 के हिंद-प्रशांत दस्तावेज़ में चीन की “हैसियत को संतुलित करने” के लिए भारत को अहम देश के तौर पर देखा गया है.
हिंद-प्रशांत में सुरक्षा का जाल तैयार करने की प्रक्रिया का भारत निश्चित रूप से एक हिस्सा है.
इसकी जड़ें सोवियत संघ के विघटन के बाद 1990 के दशक के मध्य के 2 अहम कार्यक्रमों से जुड़ती हैं. दरअसल, उस वक़्त भारत को ये दिखाने की ज़रूरत थी कि वो किसी भी तरह से सोवियत संघ वाले गठजोड़ का हिस्सा नहीं था, साथ ही अमेरिका के साथ भरोसे का रिश्ता भी खड़ा करना था. ऐसे में उसने मालाबार अभ्यास चालू किए. इसके अलावा दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों को आश्वस्त करने के लिए अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में MILAN नौसैनिक अभ्यास की भी शुरुआत की गई. पिछले सालों में इन दोनों अभ्यासों का विस्तार हुआ है और इन्होंने अपनी सामरिक अहमियत पुख़्ता कर ली है.
भारत-जापान या भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों में जापान-ऑस्ट्रेलिया रिश्तों जैसे तेज़ रफ़्तार बदलाव के आसार नहीं हैं. इसके बावजूद मौजूदा वार्ता प्रक्रियाओं से विदेश और रक्षा संबंधों के क्षेत्र में धीरे-धीरे अहम कामयाबियां मिल रही हैं. आगे चलकर ये बदलाव गुणात्मक मोड़ ले सकते हैं, जैसा फ़िलहाल ऑस्ट्रेलिया-जापान रिश्तों में दिखाई दे रहा है.
भारत क्वॉड्रिलैट्रल डायलॉग (क्वॉड) का संस्थापक सदस्य है. जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने 2007 में इसकी शुरुआत की थी. इस संगठन को चार सदस्य देशों (जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका) की लोकतांत्रिक पहचान पर खड़ा किया गया था. हालांकि तमाम वजहों के चलते क्वॉड का पहला स्वरूप ठंडे बस्ते में चला गया. 2017 में इसमें दोबारा जान फूंकी गई और भारत इस प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा रहा.
भारत-जापान के बीच 2+2 स्तर की पहली बैठक नवंबर 2019 में नई दिल्ली में और दूसरी सितंबर 2022 में टोक्यो में आयोजित की गई. दोनों देशों ने सुरक्षा सहयोग पर 2008 के साझा घोषणापत्र की बुनियाद पर अपनी बातचीत को आगे बढ़ाया. साथ ही 2009 की कार्य योजना के हिसाब से सहयोग को आगे बढ़ाने पर मंथन किया गया. जून 2020 में भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों में एक नई ऊंचाई आई. इस महीने दोनों देशों के बीच व्यापक सामरिक भागीदारी पर हुई रज़ामंदी के बाद सितंबर 2020 में पहली बार 2+2 वार्ताओं का आयोजन किया गया.
भारत-जापान या भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों में जापान-ऑस्ट्रेलिया रिश्तों जैसे तेज़ रफ़्तार बदलाव के आसार नहीं हैं. इसके बावजूद मौजूदा वार्ता प्रक्रियाओं (चाहे 2+2 स्वरूप में या क्वॉड्रिलैट्रल या द्विपक्षीय तौर-तरीक़ों में) से विदेश और रक्षा संबंधों के क्षेत्र में धीरे-धीरे अहम कामयाबियां मिल रही हैं. आगे चलकर ये बदलाव गुणात्मक मोड़ ले सकते हैं, जैसा फ़िलहाल ऑस्ट्रेलिया-जापान रिश्तों में दिखाई दे रहा है. भू-राजनीतिक संदर्भ में भारत अनोखे मुकाम पर है. उसकी अमेरिका के साथ कोई मैत्री संधि नहीं है. ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया मित्र देशों के अमेरिकी गठजोड़ का हिस्सा हैं, लेकिन भारत इसमें शामिल नहीं है. अमेरिकी सरकार, भारत की प्रमुख सुरक्षा प्रदाता नहीं है. अमेरिका के मंसूबे चाहे कुछ भी रहे हों, भारतीय पक्ष ने हमेशा से अमेरिका के साथ अपने सुरक्षा रिश्तों की लक्ष्मण रेखा साफ़ कर रखी है. क्वॉड के बाकी साथी भले ही “आज़ाद और मुक्त हिंद-प्रशांत” के विचार को आगे बढ़ा रहे हों, लेकिन भारत इससे पूरी तरह से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता.
ऐसा लगता है कि हाल के वर्षों में अमेरिका को भी इस बात का एहसास हो गया है कि भारत की अहमियत उसके अनोखे दर्जे की बदौलत है. आज तमाम अमेरिकी नेता ये कहने लगे हैं कि शायद अमेरिका का सबसे महत्वपूर्ण द्विपक्षीय रिश्ता भारत के साथ ही है. यही वजह है कि अमेरिका उन क्षेत्रों में भारत को लगातार भारी रियायत देता आ रहा है जहां हमारे विचार मेल नहीं खाते. इनमें पहले ईरान और अब रूस का मसला शामिल है.
हिंद महासागर पर दबदबे वाला आर्थिक रूप से समृद्ध हिंदुस्तान, ख़ुद ही चीन के ख़िलाफ़ संतुलनकारी कारक होगा. हाल ही में एस्पेन सुरक्षा फ़ोरम में अपने संबोधन में हिंद-प्रशांत के लिए व्हाइट हाउस के को-ऑर्डिनेटर कर्ट कैंपबेल ने दो टूक कहा कि भारत भले ही औपचारिक तौर पर अमेरिका का गठजोड़ साथी नहीं है, बल्कि अपने आप ही महाशक्ति है, लेकिन तमाम वजहों से उसके अमेरिका के साथ रणनीतिक रूप से जुड़ने के पूरे आसार हैं.
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Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...
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