Published on Apr 17, 2017 Updated 0 Hours ago

पड़ोसी मुल्कों में समझदारी बढ़ाने में मीडिया की भूमिका भी है और जिम्मेदारी भी।

भारतीय मीडिया और चीन: संवाद में बढ़ती समझदारी

एन हक्सर, 1967 से 1973 तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव थे। उन्होंने एक बार कहा था: “ये सच है कि हम भारतीयों ने चीन को पश्चिम के चश्मे से देखा है। चीन की एक रटी रटाई छवि हमें उनसे विरासत में मिली है..यही बात भारत के बारे में चीनियों के दृष्टिकोण पर भी लागू होती है। वक्त आ गया है जब ये ज़रूरत है कि हम एक दूसरे को सीधे समझने की कोशिश शुरू कर दें।”

चीन को समझने के लिए ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन का प्रोजेक्ट गहराई से यही शोध करता है कि दोनों देश एक दूसरे को किस तरह से देखते हैं। हाल ही में प्रकाशित — इंडियन मीडिया’ज़ पर्सेप्शन ऑफ़ चाइना: एनॉलिसिस ऑफ़ एडिटोरियल्स (चीन को लेकर भारतीय मीडिया का परिप्रेक्ष्य: संपादकीयों का विश्लेषण)’ इसी शोध का हिस्सा है। ये इस बात को समझने की कोशिश है कि साल 2012 से 2014 के बीच हमारे राष्ट्रीय प्रिंट मीडिया का चीन के प्रति क्या दृष्टिकोण था।

प्रसार के आधार पर भारत के जिन राष्ट्रीय अख़बारों को चुना गया उनमें हैं: द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द इकोनॉमिक टाइम्स और द फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस। हर अख़बार में लेखक ने ­चीन पर आए संपादकीय का अध्ययन किया — क्योंकि ये लेख अख़बार की मज़बूत सोच का इशारा करते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मज़बूत उपस्थिति के बावजूद भारत में प्रिंट मीडिया की बेहिसाब पहुंच है और ये अपने पाठकों के दिमाग़ पर गहरा असर छोड़ता है, उनकी जानकारी को समृद्ध करता है, उनकी सोच बनाता है और उन्हें विकल्पों से रूबरू कराता है। लिहाज़ा मीडिया पर पड़ोसी मुल्कों के बारे सही सोच बनाने की जिम्मेदारी है और इसमें उसकी भूमिका भी है। भारत के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब विदेश मंत्री थे तब उन्होंने मीडिया को दिए अपने संबोधन में इसे रेखांकित किया था। उन्होंने कहा था, “मेरे हिसाब से मीडिया जनता के स्तर पर संवाद और संपर्क बनाने में कई तरीके से पथप्रदर्शक है,आप में से किसी के भी एक वाक्य के लाखों लोगों तक पहुंचने की क्षमता है। वो किसी ग़लत बात को सही कर सकता है, वो कोई छवि गढ़ सकता है, वो एक समझ का बीज बो सकता है।”

इस रिपोर्ट में 3 साल की समय सीमा को चुना गया है क्योंकि इस दौरान दोनों ही देशों ने नेतृत्व में बदलाव देखा, और शी जिनपिंग तथा नरेंद्र मोदी,दोनों देशों के रिश्तों को मजबूत करने के मामले में एक जैसी मज़बूत इच्छाशक्ति वाले दिखते हैं। वे दोनों सीमा विवाद और व्यापार से जुड़े विवादों को सुलझाने की कोशिश में जुटे हैं। तीन साल के इस वक्त ने एक तरफ़ चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) की पहल को देखा और दूसरी तरफ़ भारत की पहले वाली ‘लुक ईस्ट’ नीति को ‘एक़्ट ईस्ट’ नीति में बदलते हुए भी देखा।

ये रिपोर्ट भारत की मीडिया में चीन की छवि के बारे में बनी अाम सोच के ख़िलाफ़ दलील पेश करती है। इन तीन वर्षों के दौरान इन पांच अख़बारों के वेब संस्करण पर उपलब्ध चीन से जुड़े जो संपादकीय छपे उनकी संख्या 167 है। इनमें से 30 संपादकीय 2012 में छपे, और 2013 में 41 छपे। साल 2014 में संपादकीय की संख्या में तेज बढोतरी हुई जिनकी संख्या 96 तक पहुंची। भारतीय प्रिंट मीडिया के चुने गए इस हिस्से ने चीन के बारे में लगातार अपनी दिलचस्पी दिखाई। ये दिलचस्पी इतनी थी कि इस शोध में जिस अवधि को चुना गया उस दौरान चीन पर आए संपादकीय 15 प्रतिशत से कुछ ज़्यादा तक पहुंच गए थे। और चीन पर इनका ध्यान लगातार बढ़ रहा है।

बेशक, चीन के बारे में प्रिंट मीडिया की सोच अभी भी मुख्य रूप से नकारात्मक है, लेकिन अब मुद्दों पर ज़्यादा समझदारी दिखाने का रुझान बढ़ा है और जिन मामलों में सहयोग बढ़ाना संभव है उन्हें ज़्यादा बेबाक़ी से सामने भी लाया जा रहा है।

संपादकीयों के संख्यात्मक और गुणात्मक विश्लेषण के दौरान हमने पाया कि एक मुद्दा जो सीमा विवाद का है, उसे लेकर न तो स्थाई शत्रुता का भाव है और न ही उस पर ज़रूरत से ज़्यादा चिंता ही है।

हमने पाया कि चीन का उदय साल 2012 में भारतीय मीडिया में मोटे तौर पर चिंता का बड़ा विषय था। साल 2013 में चीन को एक ख़तरे की तरह ही देखा गया: सीमा पर घुसपैठ शायद वो वजह थी जिसकी वजह से चीन को अच्छे ढंग से नहीं दिखाया गया। हालांकि 2014 में बदलाव दिखा जब संपादकीय दोनों देशों के बीच आर्थिक संपर्क और राजनयिक रिश्तों पर ज्यादा केंद्रित हो गए। रिपोर्ट कहती है कि एक बड़ी ताक़त के रूप में चीन के उदय के प्रति टाइम्स ऑफ इंडिया का रुख खासतौर पर अलोचनात्मक था। वो इस वजह से भारत पर पड़ने वाले भू-राजनैतिक असर की तरफ़ ध्यान खींचने की कोशिश करता था जबकि द इकोनॉमिक्स टाइम्स ने सीमा विवाद का ज्यादा विवेकपूर्ण हल पेश किया।

यहां ये जानना दिलचस्प है कि देबाशिष रॉय चौधरी ने 2015 में चाइना रिपोर्ट में भारत के दो प्रमुख अंग्रेजी दैनिक द टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान में छपी ख़बरों (संपादकीय नहीं) का विश्लेषण किया। 2012 के पहले छह महीने में चीन पर छपीं इन ख़बरों में उकसाने वाला अंध राष्ट्रवाद होता था। उन्होंने कहा, “अगर कोई भारत के मीडिया में चीन पर छपीं खबरों को ही सही मान ले तो उसे ये सोचने के लिए माफ़ किया जा सकता है कि जंग तो तय है।” हालांकि अंग्रेजी के पांच राष्ट्रीय अखबारों के साल 2012 समेत तीन साल के संपादकीय को पढ़ने से ऐसा असर नहीं पड़ता। इन अखबारों में उन दो अखबारों में से एक वो भी है जिसका अध्य्यन रॉय चौधरी ने भी किया था। इसके अपेक्षाकृत मीडिया उत्तरोत्तर ये सुझाने लगा कि भारत और चीन सकारात्मक और बेहतर नतीजे देने वाले अंदाज में एक दूसरे से संपर्क भी रख सकते हैं और लगे हाथ अपने सीमा विवाद को भी संतोषजनक तरीके से सुलझा सकते हैं। आपस में भरोसा और सहयोग भारत-चीन संबंधों पर कई गुना सकारात्मक असर डालेगा। यहां पर जिन संपादकीयों का अध्य्यन किया गया उससे लगता है कि मोटे तौर पर मीडिया चीन को लेकर पहले से ज्यादा परिपक्व भी हुआ है और जिम्मेदार भी। जहां भेड़िया न हो वहां भी भेड़िया होने का हौव्वा खड़ा करने के बजाए मीडिया चीन से रिश्ते के मामले में ज़रूरत और मौके दोनों के बारे में बताने से नहीं चूकता।

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Authors

Rakhahari Chatterji

Rakhahari Chatterji

Professor in Political Science, Calcutta University (Retired 2008). Formerly Dean, Faculty of Arts, Calcutta University; Visiting Fellow in Political Science and Associate, Committee on South ...

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Anasua Basu Ray Chaudhury

Anasua Basu Ray Chaudhury

Anasua Basu Ray Chaudhury is Senior Fellow with ORF’s Neighbourhood Initiative. She is the Editor, ORF Bangla. She specialises in regional and sub-regional cooperation in ...

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