Author : Ajay K Mehra

Published on Aug 18, 2022 Updated 0 Hours ago

लगातार बदलती दलगत व्यवस्था और उभरते हुए नेतृत्व के मिज़ाज के हिसाब से भारत की कैबनेट सरकार व्यवस्था ने अपना अलग किरदार और फ़ैसले लेने की प्रक्रिया को विकसित किया है.

इंडिया@75: भारत की कैबिनेट (मंत्रिमंडलीय) व्यवस्था

ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया @75: एसेसिंग की इंस्टीट्यूशंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी का एक हिस्सा है.


15 अगस्त 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ तो, जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने, सरदार वल्लभभाई पटेल उप-प्रधानमंत्री बने और उनके साथ कैबिनेट में 12 और सदस्य भी शामिल हुए. इस तरह, आज जब भारत अपनी आज़ादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है, तो हम ये देख सकते हैं कि इसकी कैबिनेट व्यवस्था ने तजुर्बे का कितना लंबा सफर तय कर लिया है.

एक संक्षिप्त इतिहास

जब 1946 में जवाहरलाल नेहरू ने वाइसरॉय लॉर्ड वेवेल के आमंत्रण पर ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार का गठन किया, तो उन्होंने कैबिनेट व्यवस्था के तहत सरकार के गठन और उसे चलाने के प्रति अपनी मज़बूत प्रतिबद्धता को दिखाया था. ये वही कैबिनेट व्यवस्था थी, जो सरकार के वेस्टमिंस्टर मॉडल के साथ विकसित हुई थी. 19 जुलाई 1946 से 14 अगस्त 1947 के बीच कांग्रेस और अन्य समान विचारधारा वाले नेताओं की अंतरिम सरकार ने सरकार चलाई थी. स्वतंत्र भारत के लिए नए संस्थान बनाने को लेकर नेहरू की प्रतिबद्धता उस वक़्त खुलकर ज़ाहिर हुई, जब उन्होंने वायसरॉय लॉर्ड वेवेल को 1 सितंबर 1946 को लिखा कि, ‘ये सरकार कैबिनेट की तरह काम करेगी और अपने फ़ैसलों के लिए सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार होगी’. इस तरह देश की आज़ादी से पहले और यहां तक कि संविधान सभा की पहली बैठक होने से भी पहले देश में कैबिनेट व्यवस्था की शुरुआत हो गई थी.

बैगहॉट ने लिखा है कि, ‘एक कैबिनेट, असल में एक साझा समिति है- ये वो कड़ी है जो सत्ता के विधायी अंग को उसकी कार्यपालिका से जोड़ने का काम करती है. इसकी उत्पत्ति तो विधायिका से होती है. मगर इसका काम-काज सरकार चलाना होता है’. 

जैसा कि वाल्टर बैगहॉट ने लिखा है: ‘एक शब्द में कहें  तो कैबिनेट, देश की हुकूमत चलाने का एक ऐसा बोर्ड ऑफ कंट्रोल है, जिसे विधायिका ने उन लोगों में से चुना है, जिस पर वो विश्वास करती है और जानती है’. कैबिनेट की सबसे अहम ख़ूबी के बारे में बताते हुए बैगहॉट ने लिखा है कि, ‘एक कैबिनेट, असल में एक साझा समिति है- ये वो कड़ी है जो सत्ता के विधायी अंग को उसकी कार्यपालिका से जोड़ने का काम करती है. इसकी उत्पत्ति तो विधायिका से होती है. मगर इसका काम-काज सरकार चलाना होता है’. इस तरह से कैबिनेट सरकार की तीन अहम ख़ूबियां इस तरह से हैं- साझा जवाबदेही, समकक्षों में अव्वल प्रधानमंत्री और राजनीतिक एकरूपता. साझा ज़िम्मेदारी, कैबिनेट के सदस्यों को इस बात पर सहमत होने के लिए बाध्य करती है कि वो कोई फ़ैसला होने के बाद सार्वजनिक रूप से अपने मतभेद न ज़ाहिर करें. साझा जवाबदेही के साथ साथ प्रधानमंत्री के प्राइमस इंटर पेयर्स (समकक्षों में अव्वल) होने की भूमिका पिछले कई दशकों में विकसित हुई है, जो असल में ब्रितानी राजशाही के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चे का काम करती है.

अंतरिम सरकार के दौरान नेहरू ने जो बुनियाद रखी, उसके साथ साथ, हमारे देश की संविधान सभा ने भी सरकार के उस वेस्टमिंस्टर मॉडल को तरज़ीह दी, जिसमें कैबिनेट व्यवस्था एक अहम संस्था हो. इसे दो कारणों के चलते स्वीकार किया गया. पहला, जैसा कि आंबेडकर ने संविधान सभा में समझाते हुए कहा था कि, ये व्यवस्था अमेरिकी मॉडल की तुलना में कहीं ज़्यादा ‘जवाबदेही वाली’ है. और दूसरा ये कि भारत के नेताओं ने इस व्यवस्था के साथ काम किया था और उन्हें इसका तजुर्बा था. केंद्रीय संविधान समिति और प्रांतीय संविधान समिति, दोनों अपने साझा सत्र में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि, ‘देश के लिए संविधान की संसदीय व्यवस्था या ब्रिटिश मॉडल वाला संविधान अपनाना ज़्यादा मुफ़ीद होगा क्योंकि हम इससे परिचित हैं’. संविधान की धारा 74 (1), 75 (1) और (3) और 77 (3) में समकक्षों में प्रथम प्रधानमंत्री और मंत्रियों की परिषद (कैबिनेट) की साझा जवाबदेही पर ज़ोर दिया गया है. हमारे संविधान में कैबिनेट को मंत्रियों की परिषद की एक समिति, मगर उससे ज़्यादा ताक़तवर बनाने की व्यवस्था है.

आज़ादी के बाद भारत में कैबिनेट व्यवस्था का विकास

राष्ट्रीय आंदोलन के बाद 1946 में नेहरू द्वारा रखी गई आधारशिला के बाद भारत की कैबिनेट व्यवस्था अपने ख़ास राजनीतिक माहौल के हिसाब से विकसित हुई है. 15 अगस्त 1947 से अब तक देश में 14 प्रधानमंत्री बन चुके हैं. नेहरू के मंत्रिमंडल- जो 1947 से उनके निधन के दौरान पांच बार बने- पहले राष्ट्रीय रहे (1947-50)- फिर समावेशी और सभी वर्गों की नुमाइंदगी वाले बने (नेहरू के पूरे कार्यकाल में), जो प्रधानमंत्री और कैबिनेट के काम-काज के अलग अलग तरीक़ों की मिसाल हैं; फिर नेहरू कैबिनेट का मिज़ाज सबको साथ लेकर चलने वाला (1947-1957) हुआ और उसके बाद, नेहरू सब पर हावी होने लगे (1957-1962) और आख़िर में ख़ुद की राजनीतिक कमज़ोरी के चलते नेहरू ज़िद्दी चालों वाली कैबिनेट के अगुवा हो गए. नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने अपने 18 महीने के संक्षिप्त कार्यकाल के दौरान कैबिनेट को एक सच्ची सामूहिक संस्था के तौर पर चलाया और प्रधानमंत्री की समकक्षों में अव्वल वाली भूमिका को विनम्रता से स्वीकार किया.

पार्टी में टूट के बाद 1971 के मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी ने दो तिहाई बहुमत से जीत हासिल की. जिसके बाद, उनकी कैबिनेट प्रधानमंत्री वाली व्यवस्था के तहत काम करने लगी. 1980 से 1984 के अपने दूसरे कार्यकाल में भी इंदिरा गांधी उसी तरह सरकार चलाती रहीं.

शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी असल में ‘ज़िद्दी’ माने जाने वाले मोरारजी देसाई की दावेदारी ख़त्म करने के लिए रणनीतिक रूप से स्वीकार्य उम्मीदवार बनी थीं. शुरुआत में तो इंदिरा गांधी कांग्रेस संगठन के अपने उन आक़ाओं पर निर्भर थीं, जिन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया था. हालांकि, पार्टी में टूट के बाद 1971 के मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी ने दो तिहाई बहुमत से जीत हासिल की. जिसके बाद, उनकी कैबिनेट प्रधानमंत्री वाली व्यवस्था के तहत काम करने लगी. 1980 से 1984 के अपने दूसरे कार्यकाल में भी इंदिरा गांधी उसी तरह सरकार चलाती रहीं. इंदिरा की हत्या के बाद कुर्सी उनके बड़े बेटे राजीव गांधी ने संभाली; राजीव को इंदिरा से विरासत में पार्टी का वही ढांचा मिला, जो इंदिरा ने बनाया था. राजीव ने उसी को बरकरार रखा. ज़ाहिर है कि 1980 के पूरे दशक के दौरान, सरकार प्रधानमंत्री वाली व्यवस्था के तौर पर चलाई गई और कैबिनेट व्यवस्था कोमा में ही रही.

1977 के चुनावों के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी असल में, देश के राजनीतिक मैदान में कांग्रेस के विकल्प के तौर पर जैसे तैसे खड़ी की गई थी, जो उस वक़्त मौजूद नहीं था. अंदरूनी उठा-पटक के बाद, जयप्रकाश नारायण ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया. देसाई ने 24 मार्च 1977 को अपनी कैबिनेट का गठन किया, जिसमें हर भागीदार दल के लिए मंत्रियों का तयशुदा कोटा था. मोरारजी देसाई को अंदाज़ा था कि वो वैचारिक रूप से कितनी विविधता भरी और विरोधाभासी सरकार को चला रहे हैं. ऐसे में उन्होंने अपनी कैबिनेट को भागीदारी और आम सहमति की भावना से चलाया. पर चूंकि, देसाई कैबिनेट के सदस्य अक्सर एक दूसरे के विपरीत चालें चलते रहते थे, तो साझा जवाबदेही के विचार की हमेशा ही अग्निपरीक्षा होती रहती थी. आख़िरकार, राजनीतिक दुश्मनियों, वैचारिक मतभेदों और कई नेताओं की सत्ता की महत्वाकांक्षा के चलते ये गठबंधन सरकार समय से पहले गिर गई. 

भारत की राजनीति में गठबंधन सरकारों के दौरान कैबिनेट व्यवस्था ने जिस तरह काम किया, उसकी गहराई से पड़ताल करने की ज़रूरत है. राष्ट्रीय मोर्चा (1989), चंद्रशेखर (1990), संयुक्त मोर्चा (1996 और 1997), NDA (1998 और 1999), और UPA (2004 और 2009) के शासन काल के दौरान न सिर्फ़ कैबिनेट के गठन के प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार से समझौता होते देखा गया, बल्कि कैबिनेट सरकार की तीन ज़रूरी ख़ूबियों के साथ भी ऐसा ही किया गया. इनमें से पांच, वीपी सिंह की अगुवाई वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार, चंद्रशेखर सरकार, यूपीए की दो सरकारें और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली UPA-I सरकारें, कई पार्टियों के बाहर से समर्थन पर निर्भर थीं. वैसे तो इसका असर उनकी कैबिनेट के गठन पर नहीं पड़ा. लेकिन, सरकार का काम काज और फ़ैसले लेने की प्रक्रिया, ख़ास तौर से विवादित मुद्दों पर, सरकार में शामिल दलों और बाहर से समर्थन देने वाली पार्टियों के बीच ज़बरदस्त मतभेद देखने को मिले, जिनके चलते इन सरकारों का पतन हो गया.

विविधता को महत्व

भारत के विविधता भरे समाज को देखते हुए, कैबिनेट के गठन की सबसे अहम शर्तों में से एक, देश के तमाम इलाक़ों के अलग अलग सामाजिक समूहों की नुमाइंदगी होनी ज़रूरी थी. शुरुआती दौर से कैबिनेट व्यवस्था की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि हर प्रधानमंत्री ने बड़ी सावधानी से अपनी कैबिनेट का गठन इस तरह से किया, ताकि वो अपने मंत्रिमंडल में देश और समाज के हर वर्ग को नुमाइंदगी दे सकें. हालांकि, कैबिनेट के आकार को देखते हुए, इस शर्त को पूरा कर पाना कभी भी आसान नहीं रहा. आज़ादी के बाद के वर्षों में मंत्रिमंडल का आकार पहले 22 से 31 (इंदिरा गांधी), फिर 32 (राजीव गांधी 1984) और मनमोहन सिंह (32, 36) तक पहुंच गया. लेकिन, मंत्रियों की ये तादाद भी सभी तबक़ों की नुमाइंदगी पूरी करने में नाकाम साबित हुई है.

शुरुआती दौर से कैबिनेट व्यवस्था की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि हर प्रधानमंत्री ने बड़ी सावधानी से अपनी कैबिनेट का गठन इस तरह से किया, ताकि वो अपने मंत्रिमंडल में देश और समाज के हर वर्ग को नुमाइंदगी दे सकें. 

सैद्धांतिक रूप से कैबिनेट एक सामूहिक फ़ैसले लेने वाली संस्था है, जिसमें प्रधानमंत्री अपने समकक्षों में अव्वल के रूप में नेता होते हैं. लेकिन, कैबिनेट का सामूहिक निर्णय का मिज़ाज काफ़ी हद तक किसी प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व और उनकी राजनीतिक हैसियत पर निर्भर रहा है. इसी वजह से फिर चाहे नेहरू के शासन काल का दूसरा दौर रहा हो, 1971 के बाद इंदिरा गांधी की सरकार रही हो, या फिर राजीव गांधी अपने पूरे कार्यकाल में, या 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी, कैबिनेट को एक ताक़तवर प्रधानमंत्री के दिशा-निर्देश में चलाया जाता रहा है. 1960 के दशक से ही ये मॉडल पूरी दुनिया में देखा गया है.

हालांकि, भारत में एक संस्था के तौर पर कैबिनेट व्यवस्था को चोट सिर्फ़ प्रधानमंत्री के शक्तिशाली होने से नहीं पहुंची है. मनमोहन सरकार के एक दशक के कार्यकाल के दौरान कुछ संस्थागत व्यवस्थाएं, जैसे कि- राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) और मंत्रियों के समूह (GoM) और मंत्रियों के सशक्त समूह (E-GoM) जैसी व्यवस्थाओं ने कैबिनेट व्यवस्था पर ग्रहण लगाने का काम किया है. वैसे तो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) कांग्रेस और UPA की अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में बनाई गई एक सलाहकार समिति ही थी, जिसमें नागरिक समूहों के नेता, शिक्षा विशेषज्ञ और अन्य मामलों के एक्सपर्ट शामिल थे. ये परिषद नीतिगत मामलों में सरकार को सलाह दिया करती थी. हालांकि, सोनिया गांधी के हस्ताक्षर वाली किसी भी सलाह को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी अनदेखा नहीं किया. अपने नएपन के बाद भी, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने कैबिनेट की औपचारिक ताक़त और उसके काम-काज पर गहरा असर डाला. इसी तरह मंत्रियों के समूह (GoM और E-GoM) भी कैबिनेट मंत्रियों की अगुवाई में कुछ ख़ास कामों के लिए गठित किए गए थे. लेकिन, उनके सुझाव भी आम तौर पर कैबिनेट स्वीकार कर लिया करती थी. E-GoM ने तो कई बार संबंधित मंत्रियों और विभागों को दिशा-निर्देश तक जारी किए थे.

भारत की उभरती दलगत व्यवस्था के हिसाब से कैबिनेट व्यवस्था ने भी विकास का लंबा सफर तय किया है. इसने हमारे अनूठे माहौल और राजनीतिक नेतृत्व की विशेषताओं के हिसाब से फ़ैसले लेने अपनी अलग ख़ूबियां विकसित की हैं. 

जहां तक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का सवाल है, तो 2014 में UPA की हार के बाद इसे भंग कर दिया गया था. वहीं, 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने मंत्रियों के समूहों (GoM और E-GoM) को भी भंग कर दिया था. हालांकि, दिसंबर 2020 में नरेंद्र मोदी ने भी GoM और E-GoM की व्यवस्था को फिर से ज़िंदा कर दिया.

निष्कर्ष

इस तरह से देखें, तो भारत में कैबिनेट व्यवस्था एक विकसित होते हुए संस्थान के तौर पर दिलचस्प तस्वीर पेश करती है. पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सितंबर 1946 में अंतरिम सरकार के दौर से ही इसे पाला पोसा था. आज़ादी के बाद यही व्यवस्था बनाए रखी गई और देश की आज़ादी और बंटवारे के बाद इस कैबिनेट को लेकर नेहरू और पटेल के बीच ज़बरदस्त परिचर्चा होती रही. इस काम में नेहरू और पटेल को संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर बी. आर. आंबेडकर से भी सहयोग मिला. इस तरह से वेस्टमिंस्टर की ये संस्थागत व्यवस्था जो 18वीं सदी से ब्रिटेन में एक अलिखित संविधान और ऐतिहासिक विरासत के ज़रिए विकसित होती आ रही थी, उसे आज़ादी के बाद भारत में भी ज़बरदस्त उत्साह के साथ लागू किया गया. भारत की उभरती दलगत व्यवस्था के हिसाब से कैबिनेट व्यवस्था ने भी विकास का लंबा सफर तय किया है. इसने हमारे अनूठे माहौल और राजनीतिक नेतृत्व की विशेषताओं के हिसाब से फ़ैसले लेने अपनी अलग ख़ूबियां विकसित की हैं. ये बेहद महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली हुकूमत की व्यवस्था को लेकर बहस, ब्रिटेन में 1960 के दशक में शुरू हुई, जहां पर कैबिनेट व्यवस्था पिछली दो सदियों में विकसित हुई थी. वहीं, भारत में प्रधानमंत्री वाली व्यवस्था को लेकर परिचर्चा की शुरुआत 1950 के दशक में ही हो गई थी और 1970 के दशक से इस परिचर्चा ने और ज़ोर पकड़ा है. गठबंधन सरकारों के दौर ने कैबिनेट व्यवस्था को तो मज़बूत नहीं किया. उल्टे इस परिचर्चा को ज़रूर कमज़ोर कर दिया. नरेंद्र मोदी की सरकार निर्णायक रूप से प्रधानमंत्री वाली व्यवस्था है. इसने कैबिनेट सरकार को एक बार फिर पर्दे के पीछे धकेल दिया है.

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