Author : Rahul Mazumdar

Published on Mar 06, 2017 Updated 0 Hours ago

यह भारत के लिए अत्‍यंत महत्वपूर्ण है कि वह अब और भी अधिक बारीकी से अपनी आसियान रणनीति का विश्लेषण करे, क्‍योंकि इससे अच्‍छा-खासा लाभ होने की प्रबल संभावना है।

आसियान रणनीति में अब ‘निवेश’ पर फोकस करे भारत

भारत की ‘पूरब की ओर देखो नीति’ में आसियान की अहमियत

पिछले दो दशकों में दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ अपनी साझेदारी बढ़ाने के विशेष प्रयासों के तहत भारत बहु-क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिम्सटेक), दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के रूप में बने विभिन्न गठबंधनों में शामिल रहा है। भारत बिम्सटेक और सार्क दोनों का ही सदस्य है, लेकिन वह आसियान में शामिल नहीं है। इसके बावजूद आसियान के साथ जो समझौता करने में भारत कामयाब रहा है उसकी गिनती इसके सबसे बड़े व्यापार समझौतों में की जाती है। आसियान में दस दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र शामिल हैं। वर्ष 2009 में आसियान के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद भारत वर्ष 2012 में सेवाओं को लेकर भी इसी तरह का एक सौदा करने में कामयाब रहा। हालांकि, आसियान के कुछ सदस्य देशों द्वारा इसका अनुमोदन किया जाना अभी बाकी है।

भारत का व्यापार घाटा

आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद से ही भारत को इस क्षेत्रीय समूह के साथ ऋणात्‍मक या नकारात्मक व्यापार संतुलन का सामना करना पड़ रहा है, जिससे इस तरह का सौदा करने के पीछे निहित उसके उद्देश्य को शुरू में ही तगड़ा झटका लग गया है। दरअसल, आसियान के साथ भारत का व्यापार घाटा वर्ष 2010 के 6.7 अरब अमेरिकी डॉलर से दोगुने से भी ज्‍यादा बढ़कर वर्ष 2015 में 15.1 अरब अमेरिकी डॉलर के स्‍तर पर पहुंच गया। इसका मुख्‍य कारण यह है कि भारत को विनिर्माण और बागान क्षेत्रों में दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। यह असंतुलन इन आंकड़ों से और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है: भारत की कुल आयात मांग के लगभग 11 प्रतिशत को आसियान पूरा करता है, जबकि आसियान की कुल आयात मांग के महज 3 प्रतिशत को ही भारत पूरा करता है। इस क्षेत्र से भारत की भौगोलिक निकटता के बावजूद यह स्थिति देखने को मिल रही है।

सक्रि‍यता के साथ निवेश की संभावनाएं तलाश करना

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यही प्रतीत होता है कि भारत वाणिज्यिक वस्‍तुओं के मामले में आसियान के साथ अपने व्यापार आंकड़ों में अनुकूल तब्‍दीली लाने में संभवत: तब तक असमर्थ रहेगा जब तक कि हस्ताक्षरित एफटीए में कुछ विशेष संशोधन करने का मार्ग प्रशस्‍त नहीं कर दिया जाता है। हालांकि, इन संशोधनों की संभावना अभी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। ऐसे में भारत को इस क्षेत्र में और भी अधिक निवेश करने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

वैसे तो विभिन्‍न देशों एवं क्षेत्रों के बीच व्यापार संबंध तुलनात्मक लाभ को देखते हुए ही और ज्‍यादा मजबूत होते हैं, लेकिन सीमा पार निवेश के निर्णय संभावित बाजारों, संसाधनों की उपलब्धता, दक्षता इत्‍यादि को ध्‍यान में रखते हुए ही लिए जाते हैं। भारत को आसियान में निवेश करने की व्‍यापक संभावनाओं को संज्ञान में लेना चाहिए और इसके साथ ही इस क्षेत्र में अपना निवेश बढ़ाने के लिए और अधिक सक्रिय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। चार सूत्री सुधारात्‍मक कदम से भारत के उद्देश्‍य की पूर्ति में मदद मिलेगी।

सबसे पहले, यह आश्चर्य की बात हो सकती है कि दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र में विदेश से भारी-भरकम निवेश होता रहा है। वहीं, भारतीय कारोबारी अक्‍सर या तो अपने देश में ही या पश्चिमी देशों की ओर टकटकी लगाए रहते हैं और जब बिल्‍कुल अपने पड़ोस में ही निवेश करने की बात आती है तो वे उलझन में पड़ जाते हैं। आसियान के सदस्‍य देशों में वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2016 तक की अवधि के दौरान 1,252 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) हुआ है।

कंबोडिया, लाओस, म्यांमार और वियतनाम वाले सीएलएमवी क्षेत्र ने लगभग आठ फीसदी की वृद्धि दर हासिल की है और यह आसियान में हुए कुल निवेश का 33 फीसदी आकर्षित करने में कामयाब रहा है। कंबोडिया, लाओस, म्यांमार और वियतनाम दरअसल आसियान के सर्वाधिक भरोसेमंद देश माने जाते हैं।

इन सभी में, हालांकि, भारत कहीं भी नजर नहीं आ रहा है। एशिया में एक उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2016 तक की अवधि के दौरान आसियान में हुए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में महज तीन फीसदी और सीएलएमवी में हुए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में केवल दो फीसदी का ही योगदान दे पाया। भारतीय कारोबारियों को इस तथ्‍य से अवगत होने की जरूरत है कि यहां से केवल कुछ सौ मील दूर ही व्‍यापक अवसर उपलब्‍ध हैं। इसका कारण यह है कि अन्य देश इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को और विस्‍तृत करने में लगे हुए हैं। आसियान में शीर्ष दस निवेशकों में से सात विकसित देश हैं जो लगभग 55 फीसदी का योगदान कर रहे हैं और जो इस क्षेत्रीय व्यापार ब्लॉक की विकास गाथा में पूरी सक्रि‍यता के साथ भाग ले रहे हैं। अमेरिका और जापान के बाद रैंकिंग में आने वाले चीन की 10 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। इसे देखते हुए निश्चित रूप से कुछ ऐसी व्‍यवस्‍था की जानी चाहिए जिससे कि भारतीय कारोबारियों को उभरते सीएलएमवी सहित आसियान में निवेश करने से जुड़ी सफलता की गाथाओं के बारे में भलीभांति पता चल सके।

दूसरा, भारतीय कारोबारियों को तरह-तरह के उन बाजारों के आकार के बारे में अहसास होना चाहिए जिनका दोहन वे इस क्षेत्र में निवेश करके बाकायदा कर सकेंगे। आसियान में किसी भी क्षेत्र के किसी भी देश में निवेश करने से इस क्षेत्र के समृद्धिशाली मध्यम वर्ग के बाजार तक पहुंच संभव हो जाती है जिसका आकार वर्ष 2020 तक 400 मिलियन के स्‍तर पर पहुंच जाने की उम्मीद है और वैसी स्थिति में विशेष रूप से अधिकाधि‍क खपत पर अपना ध्‍यान केंद्रित करने वाले कारोबारियों के लिए माल आपूर्ति के मामले में व्‍यापक गुंजाइश रहेगी। इसके अलावा निवेशकों के लिए उन अन्य ज्यादातर विकसित देशों तक भी अपनी पहुंच सुनिश्चित करना संभव हो जाएगा जिनके साथ आसियान ने एफटीए पर हस्ताक्षर किए हैं। इन देशों में ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। इतना ही नहीं, ‘अल्प विकसित देश’ का दर्जा प्राप्‍त करने की बदौलत म्यांमार, कंबोडिया और लाओस में निवेश करने वाले भारतीय कारोबारियों अथवा कंपनियों को यूरोपीय संघ (ईयू) की ‘हथियारों को छोड़ सब कुछ’ स्‍कीम के तहत उपलब्‍ध सर्वाधिक अनुकूल व्यवस्था से भी काफी लाभ होना तय है, क्‍योंकि इस स्‍कीम के तहत हथियारों और गोला-बारूद को छोड़कर अन्‍य सभी वस्तुओं के निर्यात के लिए यूरोपीय संघ में शुल्क मुक्त और कोटा मुक्त पहुंच सुलभ है।

भारतीय कारोबारियों को तरह-तरह के उन बाजारों के आकार के बारे में अहसास होना चाहिए जिनका दोहन वे इस क्षेत्र में निवेश करके बाकायदा कर सकेंगे।

तीसरी बात है लागत में अंतर, जिसका लाभ उठाया जाता है। दरअसल, उभरती अर्थव्यवस्थाओं जैसे कि आसियान के अंतर्गत आने वाले सीएलएमवी में मूल वेतन भारत की तुलना में बेहद कम है और ऐसे में इन देशों को कामगार लागत की प्रतिस्‍पर्धी क्षमता के मामले में बढ़त हासिल है। सबसे उपयुक्त उदाहरण सिले-सिलाये (रेडीमेड) परिधानों का है, जिनके मामले में भारत अपने प्रमुख बाजारों में कंबोडिया, इंडोनेशिया और वियतनाम जैसे देशों से काफी तेजी से पीछे छूटता जा रहा है। आसियान के इन तीनों देशों की भी गिनती अमेरिका को रेडीमेड परिधानों का निर्यात करने वाले शीर्ष दस निर्यातकों में की जाती है। उदाहरण के लिए, 104 अरब अमेरिकी डॉलर के इस बाजार में भारत के छह फीसदी की तुलना में वियतनाम की 10 फीसदी हिस्सेदारी है। अन्य आसियान अर्थव्यवस्थाएं भी भारत को इस मामले में कड़ी टक्‍कर दे रही हैं, क्‍योंकि इस बाजार में इंडोनेशिया की पांच फीसदी हिस्सेदारी और कंबोडिया की दो फीसदी हिस्सेदारी है। अपने समकक्ष एशियाई देशों से इस तरह बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण दुनिया को भारत से कपड़ा निर्यात वर्ष 2001 के 24.26 फीसदी से लगभग आधा गिरकर वर्ष 2016 में 13.71 फीसदी रह गया। अन्‍य हितधारकों के साथ-साथ भारत की कपड़ा कपंनियों को भी काफी सक्रि‍यता के साथ आसियान बाजार की तलाश करनी चाहिए, ताकि वहां हो रहे वृहद कारोबार से लाभ उठाया जा सके और इसके साथ ही राजस्‍व नुकसान से खुद को बचाया जा सके।

आसियान के तीन देशों की भी गिनती अमेरिका को रेडीमेड परिधानों का निर्यात करने वाले शीर्ष दस निर्यातकों में की जाती है। उदाहरण के लिए, 104 अरब अमेरिकी डॉलर के इस बाजार में भारत के छह फीसदी की तुलना में वियतनाम की 10 फीसदी हिस्सेदारी है।

चौथी बात का वास्‍ता भू-रणनीतिक स्थिति से है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत के आर्थिक हितों और पहुंच का विस्तार करने के लिहाज से आसियान भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मार्ग है। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के आसपास बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश करने के साथ-साथ म्यांमार एवं थाईलैंड से इसे जोड़ते हुए आसियान के साथ भारत को कनेक्‍ट करने के लिए बनाई गई प्राथमिकताओं की सूची में राजनीतिक प्रतिबद्धता और आम सहमति काफी ऊपर रही है। हालांकि, कार्यान्वयन की गति कोई खास उत्साहजनक नहीं रही है। भारत को सीएलएमवी देशों से जोड़ने के लिए प्रस्‍तावित मेकांग-भारत आर्थिक गलियारा (एमआईईसी) अधर में लटका हुआ है। इस बीच, कलादान मल्टीमोडल पारगमन परिवहन परियोजना में अत्यधिक विलंब देखा गया है और थाईलैंड-म्यांमार-भारत त्रिपक्षीय राजमार्ग का निर्माण रुक-रुक कर होता रहा है। भारत को इन बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं को पर्याप्त प्राथमिकता प्रदान करते हुए उन्‍हें पूरा करने पर विशेष जोर देना चाहिए। इन रणनीतिक परियोजनाओं से लोगों के साथ-साथ व्यापार एवं निवेश के प्रवाह को भी बढ़ाने में मदद मिलेगी।

आखिर में, चूंकि आसियान के साथ वाणिज्यिक वस्‍तुओं के व्‍यापार में भारत को कोई खास कामयाबी नहीं मिली है, इसलिए उसे आसियान के सेवा बाजार में अपनी पैठ बढ़ाने पर ध्‍यान देना चाहिए। कुल मिलाकर, भारत को सूचना प्रौद्योगिकी, स्‍वास्‍थ्‍य सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में तुलनात्‍मक दृष्टि से बढ़त हासिल है। ये सामान्‍य कदम हैं जिन पर यदि सतत रूप से अमल किया गया तो उससे व्‍यापक सामाजिक-आर्थिक बढ़त हासिल होगी।

सार

भारत में पिछले 25 वर्षों से भी अधिक समय से अपनाई जा रही ‘पूरब की ओर देखो’ नीति (जिसका नाम बाद में बदल कर ‘एक्‍ट ईस्‍ट’ नीति रख दिया गया है) के और ज्‍यादा सकारात्‍मक नतीजे सामने आने चाहिए। अपने करीबी पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक रिश्‍तों में बेहतरी से ही इस तरह की नीति की सफलता या विफलता के बारे में पता चलेगा। यह दुर्भाग्‍यपूर्ण बात है कि पूरब की तरफ अपनाई जा रही भारत की पुरानी नीति अंतरराष्‍ट्रीय जगत का पर्याप्‍त ध्‍यान आकर्षित करने में विफल रही है। चीन द्वारा अभी हाल ही में की गई पहल ‘वन बेल्‍ट वन रोड’ से तुलना करने पर यही प्रतीत होता है। भारत को आसियान के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों का उपयोग करने के साथ-साथ अपनी ‘सनक (ऑब्‍सेशन)’ पर नियंत्रण पाने की भी आवश्‍यकता है।

भारत सरकार ने 500 करोड़ रुपये का ‘परियोजना विकास कोष’ बनाने की घोषणा की है जो वाणिज्‍य विभाग में अवस्थित होगा और जिसका परिचालन एक्जिम बैंक के जरिए होगा। इसका उद्देश्‍य भारतीय कारोबारियों या कंपनियों को सीएलएमवी देशों में उद्यमों की स्‍थापना करने के लिए प्रोत्‍साहित करना है। यह भारत के लिए अत्‍यंत महत्वपूर्ण है कि वह अब और भी अधिक बारीकी से अपनी आसियान रणनीति का विश्लेषण करे, क्‍योंकि इससे आर्थिक, राजनीतिक और भू-रणनीतिक जैसे अनेक मोर्चों पर अच्‍छा-खासा लाभ होने की प्रबल संभावना है।

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