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मध्यपूर्व में बढ़ते तनावों के बीच भारत ने इस क्षेत्र में अपनी सुरक्षा से जुड़े हितों को देखते हुए कूटनीतिक स्तर पर एक संदिग्धता की स्थिति बनाए रखी है.
तेह़रान में हमास के पोलित ब्यूरो के प्रमुख इस्माइल हानिया की हत्या कर दी गई. यह हत्या उनके ईरान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मसूद पेज़ेशकियान के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के महज़ कुछ घंटों बाद ही की गई थी. यह घटनाक्रम बेहद नाटकीय था. 07 अक्टूबर को इज़राइल के ख़िलाफ़ हुए आतंकी हमले के बाद होने वाली विभिन्न सौदेबाज़ी और बातचीत में हानिया ही राजनीतिक अगुवाई कर रहे थे. वे ही इस समूह की ओर से तय होने वाले नैरेटिव को प्रमुखता से आगे रखने वाले एक महत्वपूर्ण किरदार बन गए थे. हानिया, क़तर के दोहा में विशालकाय और चमकीले टॉवर में रहते थे. वे मिस्र और ईरान के बीच लगातार हवाई यात्राएं करने में लगे हुए थे. इसका कारण यह था कि वे अब हमास का चेहरा बन चुके थे. हमास अब ख़ुद को फिलिस्तीनी संघर्ष का केंद्रीय बिंदु मानने लगा है.
ईरान के बीचों-बीच हानिया की हत्या का करारा जवाब देने की तैयारी तेह़रान की ओर से निश्चित ही की जाएगी. इसका कारण यह है कि शिया सत्ता अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी के समक्ष कमज़ोर नहीं दिखना चाहेगी.
उनकी हत्या के बाद मध्य पूर्व में एक बार फिर अस्थिरता की ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जिसके अब लगातार ख़राब होने की संभावना ही कही जा रही है. ईरान के बीचों-बीच हानिया की हत्या का करारा जवाब देने की तैयारी तेह़रान की ओर से निश्चित ही की जाएगी. इसका कारण यह है कि शिया सत्ता अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी के समक्ष कमज़ोर नहीं दिखना चाहेगी. ईरान समर्थित ‘एक्सिस ऑफ़ रेजिस्टटेंस’ यानी ‘प्रतिरोध की धुरी’, जो विभिन्न मिलिशिया यानी सेनाओं का समूह है, भी ग़ाज़ा में चल रहे युद्ध के आसपास ही मंडरा रहा है. यह समूह भी ईरान को सैन्य स्तर पर सीधे और निर्णायक जवाब देने के लिए दबाव बना रहा है. लेबनान में हिजबुल्लाह के नेता हसन नसरल्लाह ने दो सप्ताह में अपने दूसरे संबोधन में कहा है कि, जवाबी कार्रवाई ‘‘मज़बूत और असरदार’’ होगी. नसरल्लाह जब अपना संबोधन कर रहे थे उसी दौरान इज़राइली लड़ाकू विमानों ने लेबनान की राजधानी बेरुत के ऊपर अपने ‘सॉनिक बूम्स’ करते हुए चक्कर लगाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया था. इसी बीच हमास ने अपने नए नेता के रूप में याह्या सिनवर के नाम की घोषणा की है. वे हमास के ग़ाज़ा में प्रमुख है. वे मोस्ट वांटेड भी है. उन्हें 7 अक्टूबर के हमलों का प्रमुख योजनाकार माना जाता है.
क्षेत्रीय उथल-पुथल को अंतराराष्ट्रीय समुदाय थामने की कोशिश में जुटा हुआ है. इसी बीच भारत ने कूटनीतिक स्तर पर एक संदिग्धता की स्थिति बनाए रखी है. हानिया की हत्या और उससे जुड़ी घटनाओं को लेकर अब तक भारत की ओर से कोई भी सीधा बयान जारी नहीं किया गया है. यहां तक कि सऊदी प्रशासन ने भी ईरान की सार्वभौमिकता के पक्ष में बयान जारी कर दिया है. भारत का यह रुख़ एक आतंकी संगठन के प्रमुख की हत्या को लेकर कोई भी सहानुभूति न रखने की नीति को साफ़ करता है. भारत ने अपने आतंकी समूहों की सूची में हमास को शामिल नहीं किया है. लेकिन संदिग्धता बनाए रखना वर्तमान सरकार की अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को लेकर कड़ा रुख़ अपनाने की भूमिका को जारी रखने जैसा ही है. यह ऐसे वक़्त में आवश्यक भी है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद से लड़ने का लक्ष्य कमज़ोर पड़ता जा रहा है. फिलिस्तीनी दृष्टि से नई दिल्ली ने ऐतिहासिक रूप से 1974 से ही फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) को राजनीतिक समर्थन दे रखा है.
भारत का यह रुख़ एक आतंकी संगठन के प्रमुख की हत्या को लेकर कोई भी सहानुभूति न रखने की नीति को साफ़ करता है. भारत ने अपने आतंकी समूहों की सूची में हमास को शामिल नहीं किया है.
7 अक्टूबर के बाद भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्काल ही आतंकी हमले की निंदा कर दी थी. यह पिछले अनेक वर्षों से आतंकवाद के ख़िलाफ़ चल रही भारत की नीति के अनुरूप ही था. ‘X’ (जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था) पर मोदी के संदेश को कुछ लोगों ने गलती से इस क्षेत्र को लेकर भारत की नीति में बदलाव के रूप में ले लिया था. हक़ीकत यह है कि नई दिल्ली ने हमेशा से दो राष्ट्र वाले समाधान की वकालत की है. भारत के फ़िलिस्तीन के साथ कूटनीतिक संबंध हैं. भारत के यहां फ़िलीस्तीनी दूतावास भी है और वह 1988 से फ़िलीस्तीनी राष्ट्र को आधिकारिक रूप से मान्यता दे चुका है.
हालांकि, भू-राजनीतिक तौर पर काफ़ी कुछ बदल चुका है और इसके साथ ही भारत के हितों में भी परिवर्तन आया है. भारत दोनों ही अरब देशों और उनके हितों के साथ ईरान के साथ भी अपने संबंधों को प्राथमिकता देता है. यह स्थिति 1992 तक बनी रही, जब तेल अवीव में भारत का पहला दूतावास खोला गया. इज़राइल ने हमेशा से भारत के साथ पूर्ण राजनायिक संबंध स्थापित करने की कोशिश की है. वह पाकिस्तान के ख़िलाफ़ एक मित्र के नाते भारत के पाले में रहना चाहता है. लेकिन हाल ही में भारत की विदेश नीति में भूआर्थिक मुद्दों ने केंद्रीय स्थान हासिल कर लिया है. ऐसे में अरब देश विशेषत: संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और सऊदी अरब बेहद अहम हो गए हैं. ये दोनों ही देश अब बड़े कारोबारी और निवेश सहयोगी बनकर अपनी अहमियत बढ़ाने में सफ़ल हो गए हैं. इस आर्थिक योजना के साथ ही नए समूह जैसे I2U2 और इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप कॉरिडोर (IMEC) को देखकर ही यह तय होता है कि भारत अब इस क्षेत्र में क्या और कैसे करना चाहता है.
यह अकेले नई दिल्ली का ही दृष्टिकोण नहीं है. अबु धाबी तथा रियाद की ओर से अपनाई गई संदिग्धता के स्तर को देखकर यह साफ़ हो जाता है कि वे दोनों भी संतुलन साधने की कोशिश कर रहे हैं. इसका उद्देश्य पहले तो दोनों की आर्थिक उन्नति को बचाना है. इसके साथ ही दुबई जैसे सफ़ल वैश्विक व्यापार केंद्र के साथ-साथ अबु धाबी और रियाद के आकांक्षी व्यापार केंद्रों की सुरक्षा करनी है. दूसरी और अपने घरेलू नागरिकों के लिए शांति बनाए रखना भी बेहद महत्वपूर्ण बात है. इसका कारण यह है कि उनके यहां घरेलू नागरिकों में फिलिस्तीनी लोगों के लिए समर्थन बहुत ज़्यादा है. इन दोनों ही मुद्दों पर चर्चा में रहे अरब देशों को पिछले कुछ महीनों में अच्छी ख़ासी सफ़लता मिली है.
सीधे तौर पर ईरान को दो मसलों पर भारतीय कूटनीतिक सोच के तहत अहम स्थान दिया जाता है. मध्य एशिया में भू-आर्थिक दृष्टि से वह बेहद अहम है. इसी प्रकार अफ़गानिस्तान के मामले में भी वह महत्वपूर्ण है
भारतीय सुरक्षा के विचार की दृष्टि से ईरान भी बेहद अहम है. सैद्धांतिक रूप से नई दिल्ली अब भी ईरान को अपने पड़ोसी राष्ट्र के रूप में ही देखता है. नई दिल्ली 1947 की स्थिति को ही ध्यान में रखकर काम करता है. सीधे तौर पर ईरान को दो मसलों पर भारतीय कूटनीतिक सोच के तहत अहम स्थान दिया जाता है. मध्य एशिया में भू-आर्थिक दृष्टि से वह बेहद अहम है. इसी प्रकार अफ़गानिस्तान के मामले में भी वह महत्वपूर्ण है, क्योंकि क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए अफ़गानिस्तान बेहद अहम है. इसका कारण यह है कि 2024 के ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स में अफ़गानिस्तान ही पहले नंबर पर आया है.
हितों की इस तिकड़ी के बीच कूटनीतिक संतुलन बनाए रखना बेहद चुनौतीपूर्ण साबित हो रहा है. क्षेत्र की राजनीतिक उठापटक में शामिल न होने की भारत की गुटनिरपेक्षता वाली नीति को आमतौर पर सकारात्मक रूप से लिया जा रहा है. इस नीति को बनाए रखना समझदारी है. इसमें किसी भी तरह का बदलाव, फिर वह चाहे हस्तक्षेप के नाम पर हो अथवा वैश्विक व्यवस्था में भारत का दबदबा बढ़ाने के नाम पर हो, एक चूक ही साबित होगा. लेकिन मध्य पूर्व की भू-राजनीति और सांप्रदायिक राजनीति भारतीय विदेश नीति के लिए सवाल और विकल्पों तक ही सीमित नहीं है. अन्य क्षेत्रों के साथ ये भी देश के घरेलू विचार-विमर्श में शामिल हैं.
मध्य पूर्व में चाहे जो हो, भारत की असल चिंता, वहां की घटनाओं को लेकर घरेलू स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर है. ग़ाज़ा युद्ध के बाद इसका घरेलू स्तर पर असर तुरंत दिखाई दिया था. हमास के पूर्व प्रमुख ख़ालिद मशाल के एक भाषण का वीडियो कांफ्रेंसिंग के मार्फ़त केरल के मलप्पुरम में सॉलिडैरिटी यूथ मूवमेंट की ओर से सीधा प्रसारण करवाया गया था. केरल एक ऐसा राज्य है जहां के नागरिक बड़ी संख्या में अरब में काम करने जाते हैं.
भारतीय मुस्लिम समुदाय में सांप्रदायिकता सैद्धांतिक रूप से तो प्रचलित है, लेकिन यह राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं है. इस स्थिति को जस की तस बनाए रखना ज़रूरी है. इसके साथ ही इस्लाम की राजनीति में ‘राजनीतिक इस्लाम’ के पुनरुत्थान के ख़तरे को रोकना भी ज़रूरी हो गया है.
इस्लामिक पवित्र महीने मोहर्रम में जातिय विभाजन जैसे शिया और सुन्नी को अलग रखकर अनेक समूहों ने फिलिस्तीनी एकजुटता का समर्थन किया और कुछ मामलों में मोहर्रम जुलूस के दौरान इज़राइल विरोधी जनभावना भी प्रदर्शित होती देखी गई. कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में शिया मातमकारों को श्रीनगर में एक रैली के दौरान फिलिस्तीनी झंडा बुलंद करने के लिए भारतीय आतंकवाद-विरोधी कानून के तहत नामजद किया गया. इसके पहले 2020 में राज्य में शिया समुदाय ने ईरानी सेना के नेता कासिम सुलेमानी की हत्या के बाद रैली निकालकर इसका विरोध किया था. यही मुद्दा इस अशांत इलाके में गाहे-बगाहे विवाद का कारण बनता रहता है. यह मुद्दा बेहद अहम है, क्योंकि इसका अंतर-राज्य गतिविज्ञान से कोई लेना देना नहीं है. इसी प्रकार इसका पाकिस्तान की ओर से होने वाली सीमा-पार आतंकवाद से कोई वास्ता नहीं है. भारतीय मुस्लिम समुदाय में सांप्रदायिकता सैद्धांतिक रूप से तो प्रचलित है, लेकिन यह राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं है. इस स्थिति को जस की तस बनाए रखना ज़रूरी है. इसके साथ ही इस्लाम की राजनीति में ‘राजनीतिक इस्लाम’ के पुनरुत्थान के ख़तरे को रोकना भी ज़रूरी हो गया है. फिलिस्तीन का मुद्दा वैसे भी अंदरुनी तौर पर विभाजन का कारण है. यह केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दक्षिण पंथ और वामपंथियों के बीच वैचारिक विवादों का कारण भी है. ये नैरेटिव केवल भारत तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि ये वैश्विक प्रकृति वाले नैरेटिव हैं. हमास की ओर से गढ़े जाने वाले सकारात्मक नैरेटिव से सिर्फ अंदरुनी स्तर पर ही चिंताएं नहीं बढ़ने वाली हैं बल्कि इस नैरेटिव के साथ ही कुछ अन्य बातों की वजह से भी चिंताएं बढ़ने वाली हैं. इसमें अफ़गानिस्तान में तालिबान के सत्ता में वापस लौटने का मुद्दा शामिल है. इसके अलावा इस्लामिक स्टेट ऑफ़ ख़ुरासान का बढ़ता वैचारिक प्रभाव और वैश्विक स्तर पर डिजिटल सूचना के प्रसार ने भी सुरक्षा प्रबंधन से जुड़े लोगों के समक्ष एक बड़ी चुनौती खड़ी कर रखी है.
मध्य पूर्व में भू-राजनीतिक पैंतरेबाज़ी के साथ जुड़ी घरेलू मुद्दों के पेंच की वजह से भारत की अपने पड़ोस को लेकर चुनौतियां पहले से ज़्यादा गहरी हो गई हैं. चीन और पाकिस्तान उसे परंपरागत रूप से परेशान करने वाले पड़ोसी ही रहे है. अब म्यांमार के साथ बांग्लादेश और श्रीलंका में दांव पर लगी कूटनीति और मालदीव की चुनौती भारत की क्षमताओं की कड़ी परीक्षा ले रही है. ऐसे में मध्य पूर्व में एक नई स्थिति पर विचार करने से उसे बचना ही चाहिए.
(कबीर तनेजा, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फेलो हैं.)
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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