Author : C. Raja Mohan

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

चीनी मोर्चे पर लगातार जारी सीमा विवाद अमेरिका के साथ सामरिक तालमेल बढ़ाने को लेकर भारत की पुरानी हिचक को दूर करने में मददगार साबित हुआ.

अंतरराष्ट्रीय संबंध: भारत और महामारी के दौर की भू-राजनीति
अंतरराष्ट्रीय संबंध: भारत और महामारी के दौर की भू-राजनीति

ये लेख इंडिया@75: एस्पिरेशंस, एंबिशंस, एंड एप्रोचेज़ सीरीज़ का हिस्सा है.


 शीत युद्ध के बाद के कालखंड में वैश्विक राजनीति और आर्थिक व्यवस्था में बिखराव आ गया है. चीन के उभार और उसकी विस्तारवादी नीतियों के साथ-साथ रूस की ओर से भी दोबारा आक्रामकता दिखाई जा रही है. वैश्विक मंच पर अमेरिका भी नए सिरे से अपनी प्राथमिकताएं तय कर रहा है. इन तमाम हालातों ने भारत के लिए अभूतपूर्व चुनौतियां और अवसर पैदा कर दिए हैं. चीन के साथ भारत के बढ़ते टकराव से चुनौतियां साफ़ ज़ाहिर होती हैं. दूसरी ओर, भारत के निरंतर गहन होते जा रहे सामरिक सहयोग नए अवसरों की झलक देते हैं. एक रसूख़दार ताक़त के तौर पर भारत के उभार से नई संभावनाओं का लाभ लेने और चुनिंदा नकारात्मक नतीजों का असर सीमित करने की क़ाबिलियत में सुधार आया है. जल्द से जल्द अपने पारंपरिक नज़रिए में ज़रूरी बदलाव कर पाने की क्षमता पर ही भारत की कामयाबी निर्भर करती है.

चीन के साथ अमेरिका के व्यापारिक विवादों से अमेरिकी नीति-निर्माताओं में नई समझ विकसित हुई है. उन्हें अपने घरेलू औद्योगिक और तकनीकी क्षमताओं को और मज़बूत बनाने की ज़रूरत समझ में आ गई है.  

आपूर्ति श्रृंखला में और मज़बूती लाने के सियासी मंसूबे

कोविड-19 महामारी 2 साल से भी ज़्यादा वक़्त से दुनिया को अपनी गिरफ़्त में लिए हुए है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के पहले से मौजूद रुझानों में तेज़ी आ गई है. महामारी ने विनिर्मित वस्तुओं (फ़ॉर्मास्यूटिकल्स, दवाइयों और मेडिकल उपकरणों समेत) के मामले में चीन पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता के ख़तरों से जुड़ी जागरूकता और बढ़ा दी है. आपूर्ति श्रृंखला में और मज़बूती लाने के सियासी मंसूबों में भी और तेज़ी आ गई है. इसके साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे बहुपक्षीय संस्थानों पर चीन का बढ़ता प्रभाव भी स्पष्ट रूप से सबके सामने आ गया है. चीन के साथ अमेरिका के व्यापारिक विवादों से अमेरिकी नीति-निर्माताओं में नई समझ विकसित हुई है. उन्हें अपने घरेलू औद्योगिक और तकनीकी क्षमताओं को और मज़बूत बनाने की ज़रूरत समझ में आ गई है.  

चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिरोध 

सुरक्षा के क्षेत्र में चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिरोध महामारी के प्रसार से पहले ही शुरू हो चुका था. इस क़वायद में अब और धार आ गई है. अमेरिका के बाइडेन प्रशासन ने हिंद-प्रशांत में पूर्ववर्ती ट्रंप प्रशासन द्वारा शुरू की गई पहलों को पूरी तरह से अपनाते हुए चार देशों के मंच क्वॉड को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जताई है. ग़ौरतलब है कि ये पहल ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका को एक मंच पर लाती है. बाइडेन ने एक क़दम और आगे बढ़ाकर ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका के बीच एक नई फ़ौजी भागीदारी ऑकस को वजूद दिया है. इसके तहत ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम की ओर से परमाणु क्षमता से लैस पनडुब्बियों की सप्लाई होनी है. साइबर और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जैसे उभरते सामरिक तकनीकों में त्रिपक्षीय सहयोग की शुरुआत भी हुई है.     

चीन की ओर से दिखाई जा रही शत्रुता के चलते भारतीय पक्ष के पास अपनी चीन नीति पर पुनर्विचार करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था. लिहाज़ा भारत ने चीन के उभार के चलते पैदा नए भू-राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से ढलने की नीति अपना ली है.

बहरहाल, भारत और चीन के सैनिक संकट का अब तक कोई समाधान नहीं हो सका है. 2020 की गर्मियों में लद्दाख में चीन की आक्रामक गतिविधियों से इस संकट की शुरुआत हुई थी. हिमालय की ऊंची चोटियों पर भारत और चीन के बीच की फ़ौजी रस्साकशी जून 2020 में दोनों देशों की सैनिक टुकड़ियों के बीच जानलेवा भिड़ंत में बदल गई. दशकों बाद पहली बार इस तरह का ख़ूनख़राबा देखने को मिला था. सैनिक, राजनयिक और राजनीतिक स्तरों पर निरंतर जारी संवादों के बावजूद भारतीय पक्ष चीन को अपनी आक्रामकता छोड़ने के लिए रज़ामंद नहीं कर पाया है. लिहाज़ा लद्दाख में भूक्षेत्रों को लेकर यथास्थिति बहाल नहीं हो सकी है. चीन अतीत में द्विपक्षीय जुड़ावों को लेकर तय हो चुकी शर्तों के हिसाब से आगे बढ़ने को तैयार नहीं दिखता. चीन की ओर से दिखाई जा रही शत्रुता के चलते भारतीय पक्ष के पास अपनी चीन नीति पर पुनर्विचार करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था. लिहाज़ा भारत ने चीन के उभार के चलते पैदा नए भू-राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से ढलने की नीति अपना ली है.

औपनिवेशक दौर के फ़ौरन बाद के कालखंड में भारत ने भू-राजनीति के विचार को ख़ारिज कर दिया था. शक्ति की सर्वोच्चता और उसके वितरण के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय संबंधों को आकार देने पर दिए जा रहे ज़ोर से भारत रज़ामंद नहीं था. वैश्विक मसलों पर भारत का विचार सबसे जुदा था. भारत सबको साथ लेकर चलने के विचार का समर्थक रहा. भारत “एक विश्व” की कल्पना के साथ शीत युद्ध के दौर में परस्पर विरोधी गुटों के बीच सह-अस्तित्व और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की वक़ालत करता रहा. इसके अलावा भारत गठजोड़ों के भी ख़िलाफ़ था. भारत ने औपनिवेशिक दौर के बाद की दुनिया में साम्राज्यवाद-विरोधी ताक़तों के साथ भाईचारा दिखाते हुए रंगभेद के ख़िलाफ़ और परमाणु शक्ति के त्याग के हक़ में चल रहे अभियानों का समर्थन किया. 

21वीं सदी की शुरुआत के बाद से ऊंची विकास दरों ने भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के रास्ते पर ला दिया. ऐसे में भारत ने शीतयुद्ध के बाद की दुनिया के मिज़ाज और उसमें अपने मुकाम को लेकर पुनर्विचार शुरू कर दिया.  

हालांकि, वास्तविक दुनिया की खींचतान और दबावों के बीच इस महत्वाकांक्षी रुख़ के साथ आगे बढ़ना कतई आसान नहीं था. अपने आसपड़ोस के उपमहाद्वीपीय दायरे में भारत ब्रिटिश राज से विरासत में मिले प्रभाव के दायरे को संभल कर रखने की क़वायद करता रहा. चीन के साथ 1962 की जंग ने 1950 के दशक के आदर्शवाद को जड़ से हिला दिया. नतीजतन जवाहर लाल नेहरू ने सैनिक सहायता के लिए अमेरिका का रुख़ कर लिया. भारत के क्षेत्रीय सुरक्षा वातावरण को महाशक्तियों के बीच के बदलते रिश्ते आकार देने लगे. नेहरू की उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी ने चीन और अमेरिका के बीच के दोस्ताना संपर्कों के साथ संतुलन बिठाने के लिए रूस का सहारा लिया. भारत के लिए अपने घोषित आदर्शवाद और विदेश नीति के तौर-तरीक़ों में तालमेल बिठाना हमेशा ही बेहद मुश्किलों भरा सबब बना रहा. ग़ौरतलब है कि कूटनीतिक मोर्चे पर कामयाबी के लिए यथार्थवादी राजनीतिक दृष्टिकोण और ज़रूरत पड़ने पर समझौताकारी रुख़ अपनाना ज़रूरी होता है. 

ये सिरदर्दी एक और वजह से काफ़ी बढ़ गई. वो वजह थी- आर्थिक मोर्चे पर भारत की गिरती ताक़त और उसके साथ कम होता सामरिक रसूख़. अंतर्मुखी नीतियां अपनाने और दुनिया के साथ वाणिज्यिक जुड़ावों को सीमित कर देने के चलते ऐसे हालात बन गए थे. आख़िरकार 1990 के दशक में घरेलू आर्थिक तानेबाने में बदलाव के साथ भारत की सापेक्षिक गिरावट की प्रक्रिया पलटनी शुरू हुई. 21वीं सदी की शुरुआत के बाद से ऊंची विकास दरों ने भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के रास्ते पर ला दिया. ऐसे में भारत ने शीतयुद्ध के बाद की दुनिया के मिज़ाज और उसमें अपने मुकाम को लेकर पुनर्विचार शुरू कर दिया.  

भावात्मक मानकों और वैश्विक सिद्धांतों के मुखर समर्थक के तौर पर ख़ुद को देखने का भारत का अंदाज़ बदलने लगा. इसकी जगह शक्ति को तवज्जो देने वाली ज़्यादा यथार्थवादी धारणा और वैश्विक व्यवस्था को नया आकार देने में भारत की भूमिका जगह बनाने लगी. 1990 के दशक की एकध्रुवीय व्यवस्था से निपटने और बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देने के लिए भारत ने रूस और चीन का साथ दिया. हालांकि भारत ने अमेरिका के साथ भी संबंधों में सुधार की क़वायद जारी रखी. आगे चलकर 21वीं सदी में चीन के उभार से भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक क़दमताल में गंभीर रुकावटें आने लगी. ऐसे में भारत ने अमेरिका से नज़दीकियां बढ़ा ली. चीनी मोर्चे पर लगातार जारी सीमा विवाद अमेरिका के साथ सामरिक तालमेल बढ़ाने को लेकर भारत की पुरानी हिचक को दूर करने में मददगार साबित हुआ.  

अमेरिका के साथ अपनी सामरिक भागीदारी में तेज़ी लाने के साथ-साथ भारत मझौली ताक़तों का गठजोड़ खड़ा करने की जुगत भी लगा रहा है. अमेरिकी भागीदारी के पूरक के तौर पर ऐसे गठजोड़ों से अमेरिका, चीन और रूस के बीच की प्रतिद्वंदिता से पैदा होने वाले उतार-चढ़ावों पर क़ाबू पाने में मदद मिलेगी. अमेरिका की घरेलू राजनीति की दशादिशा अनिश्चित है. साथ ही चीन के मोर्चे पर संभावित अप्रत्याशित घटनाओं के मद्देनज़र ये क़वायद ख़ासतौर से अहम हो जाती है. भारत यूरोप में फ़्रांस और एशिया में जापान जैसी मझौली ताक़तों के साथ सामरिक साझेदारियों के विकास में ज़्यादा ऊर्जा खपाने लगा है. 

अमेरिका द्वारा शीत-युद्ध के बाद के कालखंड में अपनी वैश्विक प्रतिबद्धताओं में कमी लाए जाने की संभावनाओं से उसके कई मित्र देश मायूस हैं. हालांकि भारत इस मसले को सकारात्मक रूप से ले सकता है. 

अमेरिका फ़िलहाल यूरोप, मध्य पूर्व और एशिया में अपने गठजोड़ों की भूमिका पर पुनर्विचार कर रहा है. ऐसे मौक़े पर ख़ास अहमियत रखने वाली मझौली ताक़तों के बीच गठजोड़ की ये क़वायद भी सामने आई है. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के मित्र देशों को “मुफ़्तख़ोर” बताते हुए उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई थी. हालांकि जो बाइडेन ने दुनिया में दोबारा अमेरिका का नेतृत्व स्थापित करने में साथी देशों की अहमियत को रेखांकित किया है. हालांकि, बाइडेन भी गठजोड़ों से आगे के लक्ष्य पर नज़र टिकाए हुए हैं. वो क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए समान सोच वाले साथियों के साथ ज़्यादा से ज़्यादा ज़िम्मेदारियां बांटना चाहते हैं. इसके साथ ही बाइडेन मध्य पूर्व में लंबे समय से की जा रहे दख़लों से ध्यान हटाकर हिंद-प्रशांत में चीन की चुनौती से निपटने पर ज़्यादा तवज्जो दे रहे हैं. पूरब में अमेरिका अपने साथियों से क्षेत्रीय सुरक्षा पर ज़्यादा योगदान देने की उम्मीद लगाए है.   

भारत के लिए अवसर

अमेरिका द्वारा शीत-युद्ध के बाद के कालखंड में अपनी वैश्विक प्रतिबद्धताओं में कमी लाए जाने की संभावनाओं से उसके कई मित्र देश मायूस हैं. हालांकि भारत इस मसले को सकारात्मक रूप से ले सकता है. यूरोप और एशिया में अमेरिका की रक्षा भूमिका में बदलावों से भारत के लिए अवसरों के नए दरवाज़े खुलते हैं. भारत अपने आसपड़ोस और उससे आगे भी सुरक्षा के मोर्चे पर और ज़्यादा ज़िम्मेदारी ले सकता है. इसके लिए भारत को एकला चलो रे  की अपनी पारंपरिक सोच से आगे निकलते हुए क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर दूसरी ताक़तों के साथ मिलकर काम करने के तरीक़े ढूंढने होंगे. इस सिलसिले में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यवस्थाओं का सहारा लेना होगा.

दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका और चीन के बीच जारी टकरावों के चलते अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में तनाव आ गया है. साथ ही नई तकनीक और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव भी बाधाएं खड़ी कर रहे हैं. भारत आर्थिक वैश्वीकरण का बड़ा लाभार्थी रहा है. ऐसे में भारत को इस व्यवस्था को बेपटरी होने से रोकने में सक्रिय रूप से काम करना चाहिए. नई वैश्विक आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए विकसित और विकासशील दुनिया के पारंपरिक नज़रिए की बजाए नया रुख़ अपनाना ज़रूरी है. भारत को टिकाऊ वैश्विक प्रगति के साथ-साथ मुनाफ़ों और लागतों के जायज़ वितरण की क़वायद से जुड़ना चाहिए. इसके लिए उसे प्रमुख आर्थिक किरदारों के बीच नई सहमति तैयार कर उसे टिकाऊ बनाने की दिशा में योगदान देना चाहिए. महामारी की चपेट में आई दुनिया में उभरते विचारों पर लोकतांत्रिक राज्यसत्ताओं के साथ भारत का राजनीतिक जुड़ाव देखने को मिला है. इनमें मज़बूत आपूर्ति श्रृंखला तैयार करने और क्वॉड (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान) जैसे अस्थायी सुरक्षा गठजोड़ों में मज़बूती लाने की क़वायद शामिल है. 

नई वैश्विक चुनौतियों से निपटने की जुगत 

भारत नई वैश्विक चुनौतियों से निपटने की जुगत में लगा है. ऐसे में देश के सामने बाहरी मोर्चे से ज़्यादा घरेलू मंच पर बाधाएं मौजूद हैं. पहले से ज़्यादा तेज़ रफ़्तार और ऊंची गुणवत्ता वाली आर्थिक वृद्धि के बिना अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन फ़ीका ही रहेगा. आंतरिक मोर्चे पर सामंजस्य और अनुकूल परिस्थितियां क़ायम रखना भी उतना ही ज़रूरी है. भारत जैसे विशाल देश की विविधता एक लंबे अर्से से देश निर्माण की चुनौतियों को पेचीदा बनाती आ रही है. आंतरिक सियासी बंटवारे से न सिर्फ़ वैश्विक संभावनाओं का लाभ उठाने की भारत की क़ाबिलियत में गिरावट आएगी, बल्कि बाहरी ताक़तों को घरेलू राजनीति में दख़लंदाज़ी करने का मौका भी मिलेगा.

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