Published on Aug 24, 2023 Updated 0 Hours ago

ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनने की अपनी कोशिशों के अंतर्गत भारत ने अपनी अध्यक्षता के दौरान G20 में अफ्रीकन यूनियन की सदस्यता के लिए दबाब बनाना जारी रखा है.

इंडिया @76: G20 में अफ्रीकी यूनियन की सदस्यता के लिए भारत की ज़बरदस्त पैरोकारी!

जैसे कि हम भारत की आज़ादी के 76 साल पूरे होने की ख़ुशियां मना रहे हैं और एक राष्ट्र के रूप में हिन्दुस्तान की उपलब्धियों का जश्न मना रहे हैं, ऐसे में हमें यह भी सोचना चाहिए कि पूरी दुनिया के लिए भारत की आज़ादी के क्या मायने हैं. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ उपनिवेशी व्यवस्था यानी अंग्रेजी हुकूमत का रुतबा एक हिसाब से ख़त्म हो गया था और ब्रिटिश साम्राज्य के समर्थकों की संख्या भी कम हो गई थी, इतना ही नहीं अंग्रेजी शासन से आज़ादी मिलना भी लगभग स्पष्ट हो गया था. भारत के राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रता के लिए भारत की लड़ाई को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध वैश्विक आंदोलन के हिस्से के रूप में देखा. महात्मा गांधी का मानना था कि जब तक अफ्रीका के देश अंग्रेजी शासन के अधीन रहेंगे, तब तक भारत की आज़ादी अधूरी रहेगी. एक नए स्वतंत्र देश के रूप में भारत अपनी ज़िम्मेदारी को भली-भांति जानता और समझता था, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी एक विशेष भूमिका निभाने को लेकर इच्छुक भी था. भारत ने उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ रहे अफ्रीकी देशों को नैतिक और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की कोशिश की और अंग्रेजी शासन की बुराइयों एवं कमियों को उजागर करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा समेत विभिन्न मंचों का उपयोग किया.

भारत ने उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ रहे अफ्रीकी देशों को नैतिक और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की कोशिश की और अंग्रेजी शासन की बुराइयों एवं कमियों को उजागर करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा समेत विभिन्न मंचों का उपयोग किया.

व्यापक स्तर पर अपनी तमाम विकास चुनौतियों के बावज़ूद भारत ने आज़ादी मिलने के दो साल बाद ही अपना विकास सहयोग कार्यक्रम शुरू कर दिया था. भारत के विकास सहयोग के संस्थापक सिद्धांतों में उपनिवेशवाद का विरोधी, विकास के अपने अनुभव को साझा करना और ‘तीसरी दुनिया’ को एकजुट करना शामिल था. ये सारे सिद्धांत उस वक़्त बहुत महत्त्वपूर्ण थे क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात वैश्विक सहायता के फ्रेमवर्क पर काफ़ी हद तक पश्चिमी देशों का प्रभुत्व था, जो मुख्य रूप से ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के बीच गैर-बराबरी के संबंधों को बरक़रार रखने वाला था. अफ्रीकी देश भारत की क्षमता-निर्माण पहलों के प्रमुख लाभार्थी रहे हैं, साथ ही भारत की विदेश नीति में अफ्रीका महाद्वीप को हमेशा से एक विशेष स्थान मिलता रहा है. वर्ष 2018 में युगांडा की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की थी कि भारत की प्राथमिकताओं में अफ्रीका सबसे ऊपर है.

आज India@76 विश्व की शीर्ष आर्थिक ताक़तों में से एक है और भारत ने हाल के दशकों में लाखों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला है. दूसरी ओर, अफ्रीका एक ऐसा क्षेत्र हैं जहां फिनटेक में अहम इनोवेशन्स और विकास के असीमित अवसरों के साथ दुनिया की सबसे युवा आबादी निवास करती है. हालांकि, वहां कई बड़ी चुनौतियां बनी हुई हैं. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो इन दिनों भारत और अफ्रीका में आर्थिक आज़ादी का कार्य तेज़ी के साथ प्रगति पर है. देखा जाए तो ज़्यादातर अफ्रीकी देश कोविड-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और यूक्रेन-रूस युद्ध की वजह से उनकी सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की उपलब्धि पूरी तरह से पटरी से उतर गई है. विकसित देशों के विपरीत, अधिकतर अफ्रीकी देशों के पास अपने नागरिकों को कोरोना महामारी से होने वाले आर्थिक नुक़सान और उसके बाद महामारी के रोकथाम के लिए किए गए उपायों के प्रभाव से लोगों को बचाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन पैकेज प्रदान करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन मौज़ूद नहीं थे. कई अध्ययनों के मुताबिक़ अफ्रीका को बहुत सुस्त आर्थिक विकास दर और वैश्विक आर्थिक संबंधों के बदले हुए तौर-तरीक़ों के कारण महामारी की वजह से होने वाले दीर्घकालिक आर्थिक दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ेगा. अफ्रीका सस्टेनेबल डेवलपमेंट रिपोर्ट 2022 के अनुसार ज़्यादातर अफ्रीकी देश SDGs हासिल करने के लिहाज़ से उचित रास्ते पर नहीं हैं, यहां तक कि कोरोना महामारी ने अफ्रीकी देशों में पिछले दशक में प्राप्त किए गए कई विकास लाभों को उलट कर रख दिया है. और तो और यूक्रेन-रूस युद्ध ने अफ्रीका महाद्वीप पर ज़बरदस्त असर डाला है, जो कि पहले से ही महामारी के प्रतिकूल प्रभावों से जूझ रहा है. इतना ही नहीं कई अफ्रीकी देश अत्यधिक खाद्य असुरक्षा का भी सामना कर रहे हैं क्योंकि वे रूस और यूक्रेन से खाद्य और उर्वरक आयात पर बहुत ज़्यादा निर्भर थे.

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समर्थन

हालांकि, अफ़सोस की बात यह है कि वैश्विक स्तर पर अफ्रीका को अलग-थलग कर के रखा जा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में अफ्रीका महाद्वीप की हिस्सेदारी बहुत कम है, जाहिर है कि इन संस्थाओं पर ऋणदाता देशों (creditor countries) का दबदबा है. अफ्रीका को वर्ष 2021 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी किए गए 650 बिलियन अमेरिकी डॉलर के विशेष आहरण अधिकारों में से सिर्फ़ 5 प्रतिशत (33 बिलियन अमेरिकी डॉलर) मिला था. अफ्रीकी नेताओं को अब अगले दो वर्षों में विश्व बैंक की डेवलपमेंट आर्म यानी विकास शाखा, इंटरनेशनल डेवलपमेंट एसोसिएशन से कम मात्रा में रियायती ऋण मिलने की संभावना से भी दो-चार होना पड़ रहा है. इसके अलावा, अफ्रीका महाद्वीप यूक्रेन और मोल्दोवा के साथ तेज़ी से प्रतिस्पर्धा कर रहा है, ये ऐसे देश हैं जो सामान्य तौर पर संसाधनों के लिए रियायती फाइनेंस या आर्थिक मदद के लिए योग्य नहीं होंगे. विश्व बैंक की नई संकट सुविधा (crisis facility) का लगभग आधा हिस्सा इन देशों की तरफ मुड़ने की संभावना है. वैश्विक द्विपक्षीय सहायता में वर्ष 2022 में 15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन सच्चाई यह है कि सब-सहारन अफ्रीका में इस प्रकार की मदद में 8 प्रतिशत की गिरावट देखी गई. इसकी बड़ी वजह यह है कि अधिकांश सहायता या तो यूक्रेन को भेजी जा रही है, या फिर यूक्रेनी शरणार्थियों की देखरेख और उनके बंदोबस्त में घरेलू स्तर पर ख़र्च की जा रही है.

दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो इन दिनों भारत और अफ्रीका में आर्थिक आज़ादी का कार्य तेज़ी के साथ प्रगति पर है. देखा जाए तो ज़्यादातर अफ्रीकी देश कोविड-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और यूक्रेन-रूस युद्ध की वजह से उनकी सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की उपलब्धि पूरी तरह से पटरी से उतर गई है.

भारत ने अपनी G20 अध्यक्षता के माध्यम से ग्लोबल गवर्नेंस इंस्टीट्यूशन्स एवं वैश्विक वित्तीय प्रणाली के लोकतंत्रीकरण का आह्वान किया है. भारत की G20 अध्यक्षता की एक बड़ी उपलब्धि G20 में अफीकी यूनियन के लिए स्थाई सदस्यता या कहा जाए कि अफ्रीकी सीट के लिए ज़बरदस्त समर्थन करना रही है. वर्तमान में दक्षिण अफ्रीका G20 समूह में एकमात्र अफीकी सदस्य देश है. G20 में अफ्रीकन यूनियन (AU) सीट के लिए भारत की कोशिश वैश्विक मंचों पर अफ्रीका का समर्थन करने की भारत की नीति के मुताबिक़ है. G20 में अफ्रीकन यूनियन को शामिल करने से न केवल इस वैश्विक मंच में अफ्रीकी महाद्वीप का अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होगा, बल्कि G20 स्तर पर अफ्रीका से संबंधित आर्थिक एवं विकास के मुद्दों को प्रमुखता भी मिलेगी. यूरोपियन यूनियन (जिसका प्रतिनिधित्व यूरोपीय आयोग और यूरोपियन काउंसिल द्वारा किया जाता है) की G20 सदस्यता अफ्रीकन यूनियन की सदस्यता के लिए एक मिसाल बन सकती है, क्योंकि EU और AU दोनों ही एक समान उद्देश्यों को पूरा करते हैं. G20 समूह में अफ्रीकन यूनियन की पूर्ण सदस्यता से न सिर्फ़ अफ्रीका के उन मुद्दों पर विचार-विमर्श में योगदान करने में मदद मिलेगी, जो सीधे तौर पर अफ्रीका महाद्वीप को प्रभावित करते हैं, बल्कि G20 समूह की विश्वसनीयता में भी इज़ाफ़ा होगा. ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर G20 समूह वर्तमान के 60 प्रतिशत के मुक़ाबले, वैश्विक जनसंख्या के लगभग 80 प्रतिशत हिस्से की नुमाइंदिगी करेगा.


मलांचा चक्रबर्ती ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च) हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.