Author : Jitendra Bisht

Published on Jun 01, 2021 Updated 27 Days ago
“पोस्ट-नॉर्मल युग” में टिकाऊ विकास को नई दिशा देना, भारत की नीतिगत अनिवार्यता

2010 में दुनिया के ज़्यादातर इलाक़े 2008 के वित्तीय संकट के बाद के प्रभावों से जूझ रहे थे. स्वाइन फ़्लू महामारी, एक के बाद एक कई आतंकवादी हमलों और परमाणु हथियारों के प्रसार का कभी न ख़त्म होने वाला ख़तरा भी हम सबके सामने था. इतना ही नहीं उसी समय जलवायु को लेकर भी कई गंभीर घटनाएं देखने को मिली थीं. इन्हीं चुनौतियों के बीच उस साल जून में ब्रिटेन के भविष्यवादी ज़ियाउद्दीन सरदार ने फ्यूचर्स जर्नल में लिखे अपने एक लेख के ज़रिए अपने पाठकों का “पोस्ट-नॉर्मल कालखंड” से परिचय कराया. उनके मुताबिक पोस्ट-नॉर्मल वो वक़्त है जिसमें “हमारी जानकारी में मौजूद किसी भी भूतकालीन परिस्थिति की ओर लौटने के प्रति हमारा विश्वास” बरकरार न रहे. ये वो वक़्त है जो “एक वांछित, प्राप्त करने योग्य और सतत या टिकाऊ भविष्य के बारे में किसी भी तरह के भरोसे से महरूम हो.”

सरदार द्वारा गढ़े गए इस सूत्र के एक दशक बाद आज भारत कोविड-19 के परिवर्तनकारी झटकों का सामना कर रहा है. इसके साथ ही बेतरतीब अर्थव्यवस्था, अनिश्चित और समय के साथ और शत्रुतापूर्ण होते जा रहे पड़ोसियों, एक सतत गतिशील वैश्विक व्यवस्था और जलवायु परिवर्तन के मौजूदा और भावी प्रभावों से भी भारत को जूझना पड़ रहा है. इन परिस्थितियों में 2030 के “दुनिया को बदल देने” से जुड़े एजेंडे को लेकर आशावाद अचानक से ठहर सा गया है. 

बहरहाल, इन सबके बीच राजनीतिक और औद्योगिक नेतृत्व के एक हिस्से ने पूंजीवाद को “वृहत तरीके से पुनर्स्थापित” किए जाने की मांग उठाई है. दावोस समूह के इतर हम जैसे लोगों के लिए ये शब्दावली भ्रामक और चिंताजनक है. वैसे यहां उल्लेखनीय है कि इस सिद्धांत के प्रतिपादकों के हिसाब से ये वैश्विक पुनर्स्थापना सार्वजनिक और निजी निवेश के ज़रिए टिकाऊ विकास की ओर एक चरम मोड़ लेगी. हालांकि इससे जुड़े बारीक मसलों पर अभी और स्पष्टता लाई जानी बाक़ी है. मौजूदा पहचान योग्य पोस्ट-नॉर्मल कालखंड में एक वांछनीय भविष्य की ओर कदम बढ़ाते हुए हमारे लिए भारत समेत दुनिया भर में टिकाऊ उपभोग और उत्पादन (एसडीजी 12) से जुड़े मौजूदा विमर्श को समझना ज़रूरी है. इस लेख के ज़रिए हम टिकाऊ उपभोग और उसको नई दिशा देने की ज़रूरतों पर होने वाली चर्चाओं और नीतियों की कामचलाऊ प्रवृत्ति को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे. 

मौजूदा विमर्श

2015 के बाद के सतत विकास के एजेंडे (इसे आगे चलकर एजेंडा ही कहा जाएगा) ने आवश्यकताओं पर आधारित टिकाऊपन की समझ को एक व्यापक-दृष्टिकोण प्रदान किया. इसके तहत आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण से जुड़े आयामों के लिए 17 “एकीकृत और अविभाज्य” लक्ष्य तय किए गए. एसडीजी 12 के अंतर्गत मानवीय जीवनशैली से पृथ्वी पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिए उपभोग और उत्पादन को सतत और टिकाऊ बनाने के प्रयास किए जाने ज़रूरी बताए गए हैं. वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक 2020 में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि उपभोक्ता व्यवहार में ज़रूरी बदलाव लाए बिना 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य पर लाना संभव नहीं होगा. 

वैश्विक स्तर पर ऐसे प्रयासों का मुख्य ज़ोर संसाधनों के इस्तेमाल में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने पर रहा है. इसमें खाद्य पदार्थों की बर्बादी को कम करना भी शामिल है. एफएओ के मुताबिक आज दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की जो बर्बादी हो रही है अगर उसे एक देश के नज़रिए से देखें तो वो चीन और अमेरिका के बाद उत्सर्जन का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत साबित होगा. इसके साथ ही इन लक्ष्यों में ऊर्जा के इस्तेमाल में दक्षता लाने, उत्पादक से उपभोक्ता तक आपूर्ति श्रृंखला में सुधार करने और टिकाऊ जीवनशैली को प्रोत्साहित करने जैसे विकल्प शामिल हैं. इस रुख़ की अंतर्निहित मान्यता यही है कि तकनीकी उन्नति और बेहतर तरीके से बनाए गए सुघड़ उत्पादों की मांग बढ़ाकर उत्पादन और उपभोग में कुशलता लाई जा सकती है. लॉरेक और फुच्स (2013) ने इसे कमज़ोर सतत उपभोग (डब्ल्यूएससी) के रुख़ की संज्ञा दी है. ये बाज़ार-केंद्रित और प्रकट तौर पर तकनीकी समाधानों पर टिकी है. मिसाल के तौर पर अगर कोई वस्त्र निर्माता इकाई समय के साथ ऊर्जा के इस्तेमाल में सुधार करने के साथ-साथ कच्चे माल के टिकाऊ स्रोत पर निवेश करने लगे तो भी उसका अंतिम लक्ष्य कारोबार में टिके रहना ही होगा. इसके लिए वह वस्त्रों का उत्पादन जारी रखने और उपभोक्ताओं तक उसे पहुंचाने के हिसाब से ही काम करता रहेगा चाहे उपभोक्ता की वो दसवीं या सौवीं खरीद ही क्यों न हो. इकाई मुख्य रूप से उपभोक्ताओं के कभी तृप्त न होने वाले स्वभाव को आधार बनाकर कार्य करती है. ऐसा उपभोक्ता जो निरंतर अंतहीन तरीके से खरीदारी करने की ताक़त रखता है और जो अधिक से अधिक ख़रीद के ज़रिए संतुष्टि महसूस करता है. इसे अर्थशास्त्र में सीमांत उपयोगिता कहा जाता है. 

उपभोक्ताओं की ख़रीद क्षमता आर्थिक वर्गों और भौगोलिक संदर्भों के हिसाब से बदलती रहती है. विकसित देशों के उपभोक्ताओं द्वारा विकासशील देशों के उपभोक्ताओं के मुक़ाबले अतृप्त व्यवहार के प्रदर्शन की अधिक संभावना रहती है. इनमें भी समृद्ध तबके की क्रयशक्ति ज़्यादा होती है. एसडीजी12 के तहत विकसित देशों से ये उम्मीद लगाई गई है कि वो इस मामले में अग्रणी भूमिका निभाएंगे. हालांकि सीमांत उपयोगिता के हिसाब से उपभोग को केद्रित कर कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है. सरकारों से टिकाऊ जीवनशैली पर सिर्फ़ सूचनाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की ही उम्मीद रखी गई है. ऐसे में इन व्यवहारों को स्वीकारने की ज़िम्मेदारी उपभोक्ताओं के विवेक पर छोड़ दी गई है, चाहे उनकी क्रय क्षमता कुछ भी हो. शायद यही वजह है कि भले ही अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने समय के साथ अपने उत्सर्जन के स्तर को कम किया है लेकिन उनका प्रति व्यक्ति उपभोग आधारित कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन भारत, चीन समेत ज़्यादातर विकासशील देशों के मुक़ाबले अब भी काफ़ी अधिक है. 

भारत में टिकाऊ उपभोग

भारत में इस पर हो रही वार्ताएं अब भी बेहद शुरुआती दौर में हैं. इसकी वजह ये है कि टिकाऊ विकास को लेकर प्रभावी विमर्श न्यायोचित रूप से इस दिशा में विकसित देशों की बड़ी ज़िम्मेदारियों को लेकर ही है. भारत के 2020 स्वैच्छिक राष्ट्रीय समीक्षा (वीएनआर) से जुड़े दस्तावेज़ में इस संदर्भ में साफ़ तस्वीर पेश की गई है. वीएनआर में एसडीजी 12 के तहत दर्शाए गए कार्यक्षेत्रों में प्रमुख रूप से आपूर्ति पक्ष और ख़रीद में संसाधनों के इस्तेमाल से जुड़ी दक्षता में सुधार लाने से जुड़े प्रयास शामिल हैं. इनमें खेतीबाड़ी के टिकाऊ तरीकों, सार्वजनिक खरीद के दौरान ऊर्जा की कार्यकुशलता से जुड़े विचारों, भवन निर्माण में हरित तकनीकी अपनाए जाने, पर्यटन क्षेत्र के टिकाऊ विकास के लिए नियामक तंत्रों, संसाधनों की निकासी और उत्पादन में दक्षता और कचरा प्रबंधन शामिल हैं. अंत में एसडीजी 12 को समेटने वाले अध्याय में दो बातों को स्वीकार किया गया है: 

  • देश में उत्पादित कुल खाद्य पदार्थों का 40 प्रतिशत बर्बाद हो जाता है, और
  • सतत आपूर्ति श्रृंखला बेहद अहम है. इसके लिए उत्पादकों में आपसी सहयोग की ज़रूरत होती है. इसके साथ-साथ टिकाऊ उपभोग के लिए उपभोक्ताओं में जागरूकता बढ़ाने की भी आवश्यकता है.

फ़ौरी तौर पर ऐसी स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि नीतिगत स्तर पर इसे बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है. हमारा तर्क ये है कि समृद्धि पर आधारित सतत उपभोग के विकल्पों पर पृथक रुख़ फ़िलहाल समय की मांग है. इसके लिए सीमांत उपयोगिता की परिकल्पना और उसपर आधारित सिद्धांतों पर चलने की ज़रूरत है. इसका मतलब ये है कि निम्न सीमांत उपयोगिता वाले लोगों (उच्च क्रय शक्ति) को टिकाऊ जीवनशैली अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने या सबके लिए एक समान नीति अपनाने की बजाए सरकार को नीतिगत स्तर पर सचेत होकर कुछ बातें सुनिश्चित करनी होंगी:

  • समृद्ध वर्ग के लिए ऐसे विकल्पों को प्रोत्साहित करना और,
  • उच्च सीमांत उपयोगिता वाले लोगों (कम क्रय शक्ति) की ओर संसाधनों की उपलब्धता को नई दिशा देना.

भारतीय अनिवार्यता

एक बार संस्थागत स्तर पर ऐसी समझ विकसित हो जाने पर निकट भविष्य को ध्यान में रखते हुए कुछ नीतिगत कार्ययोजनाएं बनाई जा सकती हैं.

  1. किराए और साझा-उपयोग वाले कारोबारों के लिए प्रोत्साहन: इस समय भारत में किराए के घरों का बाज़ार 20 अरब अमेरिकी डॉलर है. इसमें से 13.5 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर का हिस्सा शहरी क्षेत्रों में है. इसके साथ ही देश के फर्नीचर, इलेक्ट्रॉनिक्स और दोपहियों का मिलाजुला किराया बाज़ार 1.5 अरब अमेरिकी डॉलर है. किराए पर आधारित अर्थव्यवस्था मूल रूप से वस्तुओं पर मालिकाना हक़ या जमाख़ोरी के विचार के ख़िलाफ़ है. शहरों में रहने वाले प्रगतिशील युवाओं में इसका प्रचलन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. इस क्षेत्र में उद्यमिता को आगे बढ़ाने के लिए ख़ासतौर से अगर प्रोत्साहन के उपाय किए जाते हैं तो इससे न सिर्फ़ रोज़गार के अवसर पैदा होंगे बल्कि कम से कम शहरी उपभोक्ताओं के बीच साझा-उपयोग की मनोवृति का प्रसार हो सकेगा.
  2. वृत्ताकार अर्थव्यवस्था की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाने को प्रोत्साहन: एक पारंपरिक रेखाकार अर्थव्यवस्था में मूल्य उत्पादन को उत्पादन और विक्रय की अंतहीन प्रक्रिया के समानार्थी के तौर पर देखा जाता है. इससे आर्थिक प्रगति को संसाधनों के इस्तेमाल से अलग कर पाना लगभग असंभव हो जाता है. एक वृत्ताकार अर्थव्यवस्था में इस तरह अलगाव लाना ज़्यादा सुसंगत होता है. इसके लिए उत्पादों के मूल्य संरक्षण को प्राथमिकता दी जा सकती है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नए कच्चे मालों की आवश्यकताओं को न्यूनतम स्तर पर लाते हुए उत्पादों को अधिकतम रूप से दोबारा इस्तेमाल में लाया जा सकता है. इसके अलावा वृताकार कारोबारों को प्रोन्नत कर, उनमें निवेश को प्रोत्साहित करने की बात शामिल है. ख़ासतौर से नए एमएसएमई अब काफ़ी आवश्यक हो गए हैं. इस बात को सरकार की प्रमुख वैचारिक संस्था नीति आयोग के सीईओ ने भी स्वीकार किया है.
  3. परिसीमा संगठनों की स्थापना: सतत विकास से जुड़े साहित्य में परिसीमा संगठनों को प्रभावी पर्यावरणीय प्रशासन के लिए पहली शर्त माना जाता है. ऐसे संगठनों में वैज्ञानिक, राजनीतिक और नीतियों पर शोध करने वाले समूहों से जुड़े सदस्य शामिल रहते हैं. वो मिलकर विज्ञान और नीतियों में उनके प्रयोगों से जुड़े संवादों को सुगम बनाते हैं. भारत में इस तरह के संगठनों के सबसे करीबी उदाहरण थिंक टैंक्स और शोध संस्थाएं हैं. हालांकि ज़्यादातर ऐसी संस्थाओं में राजनीतिक वर्गों से स्थायी प्रतिनिधित्व का अभाव होता है. इसके अलावा ये भी ज़रूरी नहीं है कि इन संस्थाओं का ध्यान सदैव पर्यावरण के क्षेत्र में अत्याधुनिक शोध कार्यों पर ही हो. ऐसे में इन संगठनों के लिए न केवल शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं के बीच जानकारी के आदान-प्रदान सुनिश्चित करने की सख्त आवश्यकता है बल्कि उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता के प्रसार की भी ज़रूरत है.

2020 के जी20 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत पेरिस समझौते के लक्ष्यों को न सिर्फ़ हासिल कर रहा है बल्कि उनसे आगे निकल रहा है. आगे चलकर नवंबर 2020 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) की ओर से पेरिस समझौते पर अमल के लिए उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालय शीर्ष समिति (एआईपीए) के गठन को लेकर एक गजट अधिसूचना जारी की गई. एआईपीए का मकसद जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर समन्वित प्रतिक्रिया सुनिश्चित करना है ताकि राष्ट्रीय स्तर पर तय किए गए योगदानों (एनडीसी) के साथ-साथ पेरिस समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं के निर्वहन में भारत सही दिशा में आगे बढ़ता रहे. पेरिस समझौते के तहत समय-समय पर वैश्विक स्तर पर हासिल उपलब्धियों की समीक्षा किए जाने की बात कही गई है. ऐसे में बेहतर पारदर्शिता की ज़रूरतों के मद्देनज़र ये एक स्वागतयोग्य कदम है. बहरहाल पेरिस समझौते के तहत वैश्विक और राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उपभोग के स्तर में कमी लाने के लिए नीतियों को और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है. इस सिलसिले में जीवनशैली के टिकाऊ विकल्पों का सामान्यीकरण करने की ज़रूरत होती है. ये बात उच्च आय वाले देशों पर ख़ासतौर से लागू होती है. राष्ट्रपति जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका दोबारा पेरिस समझौते से जुड़ गया है. ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि टिकाऊ उपभोग को लेकर दुनिया भर के उपभोक्ताओं और उत्पादकों के नज़रिए में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा. 

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