Author : Abhijit Singh

Published on Aug 17, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत अपने 77वें स्वाधीनता दिवस का जश्न मना रहा है, इस बीच भारत इंडो-पैसिफिक इलाके में मज़बूत रणनीतिक साझेदारियां निर्मित करने की दिशा में भी तेज़ी से अग्रसर है.

भारत की समुद्री ताक़त बढ़ रही है, लेकिन कई चुनौतियां भी सामने मंडरा रही हैं!

प्रख्यात नौसेना इतिहासकार अल्फ्रेड थायर महान ने समुद्र को एक ऐसे “व्यापक हाईवे” और एक “व्यापक साझा सीमा” के तौर पर देखा था, जिसके ऊपर व्यावसायिक जहाज़ और सैन्य पोत स्वतंत्र रूप से चलते-फिरते हैं या कहा जाए कि मुक्त रूप से आवाजाही किया करते हैं. जाने-माने अमेरिकी सिद्धांतकार ने “समुद्री ताक़त” को किसी देश या उसकी सरकार के दबदबे और प्रभुत्व का एक अनिवार्य माध्यम बताया था, इसके साथ ही उन्होंने वाणिज्यिक, राजनयिक एवं सैन्य तौर पर “समुद्री पहुंच” को महासागर से जुड़ी रणनीति का एक अहम और ख़ास हिस्सा बताया था. उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि विशाल और दूर-दूर तर फैले समुद्री स्थानों तक विस्तृत पहुंच किसी भी राष्ट्र को महाशक्ति का रुतबा दिलाने का सामर्थ्य रखती है.

बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड जैसे सभी देश चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से लाभान्वित हुए हैं, इसके साथ ही दक्षिण एशिया में चीन के सदाबहार मित्र पाकिस्तान को भी इससे फायदा हुआ है.

जैसा कि भारत अपना 77वां स्वाधीनता दिवस मना रहा है, ऐसे में यह अवसर भारत की बढ़ती समुद्री ताक़त पर ध्यान देने के लिहाज़ से न केवल देश की बढ़ती रणनीतिक शक्ति का आकलन करने के लिए उपयुक्त है, बल्कि यह अवसर ये परखने के लिए भी अनुकूल है कि भारत का समुद्री सामर्थ्य “पहुंच के व्यापक सामान्य” (“access to the great commons”) के महानियन सिद्धांत, अर्थात अल्फ्रेड थायर महान के सिद्धांत के अनुरूप है या नहीं. व्यापार और वाणिज्य के लिए समुद्र पर भारत की निर्भरता के मद्देनज़र संचार की समुद्री लाइनों की सुरक्षा बहुत ज़रूरी है. ऐसे में इस तथ्य की जांच करना बेहद आवश्यक हो जाता है कि क्या इंडियन नेवी (IN) का समुद्र पर प्रभावशाली तरीक़े से नियंत्रण है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि अल्फ्रेड थायर महान ने किसी नौसैनिक संघर्ष में क़ामयाबी हासिल करने के लिए इसे बेहद महत्त्वपूर्ण माना है. साथ ही इसकी भी पड़ताल करना ज़रूरी है कि नई दिल्ली की इंडो-पैसिफिक रणनीति ने समुद्र में बढ़ते पारंपरिक और गैर-पारंपरिक ख़तरों का सामना किस प्रकार से किया है?

इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि समुद्री क्षेत्र में नई दिल्ली की सबसे बड़ी चुनौती चीन है. वर्ष 2008 में जब बीजिंग ने पहली बार अपने युद्धपोतों को एंटी-पाइरेसी तैनाती के लिए यानी समुद्र में होने वाली डकैती की घटनाओं को रोकने के मकसद से अदन की खाड़ी में भेजा था, उसके बाद से पूर्वी हिंद महासागर में चीन की सैन्य मौज़ूदगी में व्यापक रूप से विस्तार हुआ है. निवेश और बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाओं के माध्यम से बीजिंग ने बंगाल की खाड़ी के देशों पर प्रभाव स्थापित करने का प्रयास किया है. बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड जैसे सभी देश चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से लाभान्वित हुए हैं, इसके साथ ही दक्षिण एशिया में चीन के सदाबहार मित्र पाकिस्तान को भी इससे फायदा हुआ है. कुछ देशों ने अपने क्षेत्र में चीन द्वारा बनाई गईं व्यावसायिक सुविधाओं को अर्ध-सैनिक उद्देश्यों, अर्थात आंशिक तौर पर सैन्य कार्रवाइयों के लिए उपयोग करने की भी इजाज़त दी है.

भारत में नौसेना का कैपिटल बजट न सिर्फ़ बहुत कम है, बल्कि निर्माण की गति भी चीन की तुलना में बहुत कम है. यद्यपि, भारत पहले की अपेक्षा ज़्यादा संख्या में युद्धपोतों का निर्माण कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (PLAN) की तुलना में भारत में युद्धपोतों के निर्माण की गति असंतुलित है, यानी कि मेल नहीं खाती है और बहुत ही कम है

ज़ाहिर है कि चीन का मुक़ाबला करने के लिए भारत द्वारा अपनी समुद्री ताक़त को बढ़ाने और हिंद महासागर में व्यापक स्तर पर अपनी नौसैनिक मौज़ूदगी सुनिश्चित करने की कोशिशें की गई हैं. इंडियन नेवी ने स्वदेशीकरण को प्रोत्साहन देने एवं विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर अपनी निर्भरता को समाप्त करने के उद्देश्य के लिए एक बड़ा उदाहरण स्थापित करते हुए वर्ष 2035 तक 175-शिप फोर्स बनाने की महत्वाकांक्षी योजना प्रारंभ की है. निर्माणाधीन 43 जहाज़ों में से 41 का निर्माण भारतीय शिपयार्डों में किया जा रहा है, जबकि 49 अन्य जहाजों एवं पनडुब्बियों के निर्माण के प्रस्ताव मंजूरी के लिए विचाराधीन हैं. भारतीय नौसेना को वर्ष 2047 तक आत्मनिर्भर बनाने के लिए नौसेना कमांडर न केवल भविष्य की क्षमता विकसित करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, बल्कि समुद्री क्षेत्र में मुश्किल सुरक्षा चुनौतियों पर काबू पाने के लिए भी योजनाएं बना रहे हैं. कई स्तरों पर प्रभावी कार्रवाई करने में सक्षम एक बहुमुखी, साधन संपन्न और व्यवस्था के अनुकूल फोर्स बनाने के लिए कई वॉर फाइटिंग प्लेटफार्म्स और संपत्तियों को अर्जित किया जा रहा है, हासिल किया जा रहा है.

हालांकि, फिलहाल जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए यह कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि नौसैनिक जहाज निर्माण की जो मौज़ूदा गति है, वह रणनीतिक जरूरतों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रही है. भारत में नौसेना का कैपिटल बजट न सिर्फ़ बहुत कम है, बल्कि निर्माण की गति भी चीन की तुलना में बहुत कम है. यद्यपि, भारत पहले की अपेक्षा ज़्यादा संख्या में युद्धपोतों का निर्माण कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (PLAN) की तुलना में भारत में युद्धपोतों के निर्माण की गति असंतुलित है, यानी कि मेल नहीं खाती है और बहुत ही कम है. जहां तक चीन की बात है तो वह हर साल लगभग 14 युद्धपोतों का निर्माण करता है, जबकि भारत सिर्फ़ चार युद्धपोत ही निर्मित कर पाता है.

 दक्षिण एशिया में स्थापित मिशन पारंपरिक और अनियमित ख़तरों के बीच का अंतर लगभग समाप्त होने की वजह से बेहद पेचीदा हो गया है. ज़ाहिर है कि अगर नौसेना ने तटीय सुरक्षा पर विषम कार्रवाइयों और संसाधनों पर ध्यान केंद्रित किया है, तो इसकी वजह यह है कि नौसेना रणनीतिकारों के पास विकल्प बहुत सीमित है.

भारत के लिहाज़ से देखा जाए, तो समुद्र के नीचे के क्षेत्र में (undersea) यह कमी ख़ास तौर दिखाई देती है. भारतीय नौसेना द्वारा पांच स्कॉर्पीन (कलवरी) श्रेणी की पनडुब्बियों को अपने बेड़े में शामिल करने के बावज़ूद, नेवी के वर्ष 2012-27 के मैरीटाइम कैपेबिलिटी पर्सपेक्टिव प्लान (MCPP) के मुताबिक़ वर्ष 2030 तक 24 पनडुब्बियों को अपने बेड़े में शामिल करने के निर्धारित लक्ष्य से 8 कम है. पुरानी किलो एंड HDW/शिशुमार (Kilo and HDW/Shishumar) श्रेणी की पनडुब्बियों के बंद होने की वजह से भारतीय नौसेना ने प्रोजेक्ट 75-I पर अपनी उम्मीदें टिकाई हुई हैं, जिसकी शुरुआत होना अभी बाक़ी है. इतना ही नहीं परमाणु हमला करने में सक्षम पनडुब्बियों को देश में ही निर्मित करने की योजना अभी भी सिर्फ़ कागज़ों पर ही है.

हालांकि, अच्छी बात यह है कि नई दिल्ली ने साझेदारी के माध्यम से अपनी समुद्री रणनीतिक स्थिति को सशक्त किया है. भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने क्षेत्रीय साझेदारों के साथ समन्वय में सुधार करने की कोशिशों के साथ ‘नियम-आधारित सुरक्षा‘ को प्राथमिकता दी है. भारतीय नौसेना, जो हिंद महासागर में किसी संकट की परिस्थिति में खुद को सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वाले के तौर पर देखती है, वो बंगाल की खाड़ी के राष्ट्रों, आसियान देशों और क्वाड समूह के देशों के साथ मिले-जुले सहयोगी प्रयासों में सबसे आगे रही है. ज़ाहिर है कि इस प्रकार के समन्वित प्रयासों का मुख्य उद्देश्य साझेदार देशों की नौसेनाओं के साथ पारस्परिक संचालन में सुधार करना और छोटी साझेदार क्षमताओं का सृजन करना है. तट-आधारित रडार श्रृंखला, उपग्रह प्रणाली और हरियाणा के गुरुग्राम में एक सूचना समेकन सेंटर ने क्षेत्रीय नौसेनाओं और तटरक्षक बलों को संकट की परिस्थितियों के दौरान अपनी प्रतिक्रिया में सुधार करने में मदद की है.

हालांकि, गैर-पारंपरिक क्षेत्र और इलाक़ों में चुनौतियां बनी रहती हैं. जबकि तटीय इलाकों में स्थितिपरक जागरूकता में काफ़ी सुधार हुआ है, भारतीय नेवी खुद को तटीय क्षेत्रों में विस्तारित होती हुई पाती है. जैसा कि बड़ी संख्या में लोग बताते हैं कि एक व्यापक समस्या क़ानून का पालन कराने की क्षमता की कमी है. नशीली दवाओं एवं प्रतिबंधित पदार्थों की तस्करी, हथियारबंद डकैती, मानव तस्करी और अवैध माइग्रेशन जैसे ख़तरों से निपटने के लिए सीमाओं की लगातर निगरानी किए जाने की ज़रूरत होती है. लेकिन भारत के कई पड़ोसी देशों के पास नौसेना और तटरक्षक क्षमताएं बेहद सीमित हैं. दक्षिण एशिया में स्थापित मिशन पारंपरिक और अनियमित ख़तरों के बीच का अंतर लगभग समाप्त होने की वजह से बेहद पेचीदा हो गया है. ज़ाहिर है कि अगर नौसेना ने तटीय सुरक्षा पर विषम कार्रवाइयों और संसाधनों पर ध्यान केंद्रित किया है, तो इसकी वजह यह है कि नौसेना रणनीतिकारों के पास विकल्प बहुत सीमित है.

समुद्री ख़तरों और चुनौतियों का सामना करने के लिए आज तटीय क्षेत्रों में सुरक्षा पहलों को बनाए रखने हेतु साझेदारी एवं पारस्परिक सहयोग की सख़्त ज़रूरत है. ऐसे में देखा जाए, तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थापित साझेदारियां ठीक वैसी ही हैं, जैसा कि भारत चाहता है.

जहां तक समुद्री ताक़त की बात है, तो यह सीमाओं पर चौकसी या निगारानी करने या फिर तटीय इलाक़ों में सैन्य बल एकत्र करने और प्रस्तुत करने के मामलों से कहीं अधिक है. समुद्री ताक़त का मतलब है कि लोगों के लिए समृद्धि लाना और राष्ट्रीय विकास की आवश्यकताओं को पूरा करना. यहां, भारत के मैरीटाइम विज़न 2030 के गुणों और उसकी विशेषताओं का उल्लेख है. समुद्री क्षेत्र के लिए 10 वर्षीय ब्लूप्रिंट में बंदरगाहों, शिपिंग और अंतर्देशीय जलमार्गों के विकास की परिकल्पना की गई है. फरवरी 2021 में इस ब्लूप्रिंट की घोषणा के बाद से भारत के बंदरगाहों और समुद्री लॉजिस्टिक्स सेक्टर में महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी दिखाई दी है. हाल ही में जारी की गई विश्व बैंक की लॉजिस्टिक परफॉर्मेंस इंडेक्स (LPI) रिपोर्ट 2023 के मुताबिक़ भारत “इंटरनेशनल शिपमेंट्स” श्रेणी में वैश्विक रैंकिंग में 22वें स्थान पर है (वर्ष 2014 में 44वें स्थान से ऊपर). इसके साथ ही LPI स्कोर पर भारत 38वें स्थान पर है, जो कि किसी भी लिहाज से देखा जाए तो एक उल्लेखनीय सुधार है. यह महज संयोग नहीं है कि इस साल भारत की अध्यक्षता में जी20 की चर्चाओं में महासागर आधारित अर्थव्यवस्था पर न केवल बहुत दिलचस्पी दिखाई दी है, बल्कि इस विषय पर खूब बहस भी हुई है.

उल्लेखनीय है कि अगर बंदरगाह-संचालित औद्योगीकरण नई दिल्ली के लिए एक ब्राइट स्पॉट यानी प्रमुखता वाले क्षेत्र की तरह है, तो मैरीटाइम गवर्नेंस एक समस्या वाला एरिया बना हुआ है, ख़ास तौर पर संसाधनों के अवैध और अत्यधिक दोहन का पेचीदा मुद्दा एक बड़ी दिक़्क़त बना हुआ है. देखा जाए, तो हाल के वर्षों में हिंद महासागर के तटीय इलाक़ों में अवैध मछली पकड़ने में तेज़ी के साथ बढ़ोतरी हुई है. किसी ख़ास क्षेत्र से बाहर जाकर समुद्र में दूर तक मछली पकड़ने वाले बेड़े इसके लिए मुख्य रूप से दोषी हैं, लेकिन ऐसी समस्याओं के लिए नियम-क़ानूनों को लागू करने में कमी और दोषपूर्ण नीतियों को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो मछली पकड़ने की गैर-टिकाऊ प्रथाओं को प्रोत्साहित करने का काम करते हैं. समुद्री हैबिटेट और जैव विविधता में तेज़ी से गिरावट एवं जलवायु परिवर्तन व चरम मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी के साथ भारतीय नौसेना और इंडियन कोस्ट गार्ड को संवेदनशील समुद्री स्थानों पर निगरानी करने और तटवर्ती इलाकों में रहने वाले समुदायों को मानवीय एवं आपदा राहत पहुंचाने के लिए तेज़ी के साथ तैनात किया जा रहा है. इससे दूरस्थ समुद्री अभियानों के लिए नौसेना की ऑपरेशनल बैंडविड्थ काफ़ी कम हो जाती है.

भारत के समुद्री सिद्धांतकार और विशेषज्ञ इस सच्चाई को बखूबी समझने लगे हैं कि वे अब प्रख्यात नौसेना इतिहासकार अल्फ्रेड थायर महान के युग में नहीं हैं, जब सैन्य ताक़त और समुद्र पर नियंत्रण को ही महाशक्ति बनने का एक पक्का रास्ता माना जाता था. आज का समय न सिर्फ़ वैश्वीकरण और आर्थिक तौर पर परस्परिक निर्भरता की वजह से, बल्कि बढ़ती गैर-पारंपरिक चुनौतियों एवं नौसैनिक संघर्ष के लिए समुद्र तटीय देशों के बीच घटती इच्छा (काला सागर और दक्षिण चीन सागर में विभिन्न गतिविधियों के बावज़ूद) की वजह से भी अत्यधिक जटिल हो चुका है. समुद्री ख़तरों और चुनौतियों का सामना करने के लिए आज तटीय क्षेत्रों में सुरक्षा पहलों को बनाए रखने हेतु साझेदारी एवं पारस्परिक सहयोग की सख़्त ज़रूरत है. ऐसे में देखा जाए, तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थापित साझेदारियां ठीक वैसी ही हैं, जैसा कि भारत चाहता है.

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