Published on Sep 23, 2022 Updated 0 Hours ago

बाक़ी दुनिया में ब्याज़ दरों में जल्दबाज़ी में बढ़ोतरी हो रही है. भारत को इसकी नक़ल उतारने से परहेज़ करना चाहिए क्योंकि इससे महामारी के बाद पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था पर सीधा दुष्प्रभाव पड़ सकता है.

भारत की वित्तीय और मौद्रिक नीति: विकास की रफ़्तार रोके बिना महंगाई पर नकेल कसने की चुनौती

आर्थिक नीति-निर्माताओं को अक्सर दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है. दरअसल वो वैकल्पिक समाधानों के बीच सामंजस्य बिठाते हैं, लेकिन इनमें से कुछ ही समाधान हर मायने में लाभदायक होते हैं. ज़्यादातर क़वायदों में आर्थिक नुक़सान को मुनाफ़ों के बदले अनुकूलित करने की नीति अपनाई जाती है. बदक़िस्मती से प्री-क्वॉन्टम कंप्यूटिंग के मौजूदा दौर में सामंजस्यकारी उपायों की गणना का काम डेटा और कंप्यूटिंग से जुड़ी रुकावटों की चपेट में आ गया है. ऐसे में आंतरिक सहज ज्ञान, विचारधारा या नक़लची समाधानों पर भरोसा करने का ही विकल्प बचता है. हालांकि इनमें से कोई भी कामयाबी की गारंटी नहीं देता. 

बदक़िस्मती से प्री-क्वॉन्टम कंप्यूटिंग के मौजूदा दौर में सामंजस्यकारी उपायों की गणना का काम डेटा और कंप्यूटिंग से जुड़ी रुकावटों की चपेट में आ गया है. ऐसे में आंतरिक सहज ज्ञान, विचारधारा या नक़लची समाधानों पर भरोसा करने का ही विकल्प बचता है. हालांकि इनमें से कोई भी कामयाबी की गारंटी नहीं देता.

समसामयिक संसार में मुद्रास्फीति प्रबंधन इसकी सटीक मिसाल है. वित्तीय मोर्चे पर दशकों के कट्टरवादी रुख़ से मंझे सहज ज्ञान में वित्तीय घाटे में कमी लाना, तरलता में कटौती करना और ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी करने की क़वायद शामिल होगी, ताकि आपूर्ति के साथ संतुलन बिठाने के लिए मांग में सिकुड़न लाई जा सके. अमेरिका यही करने का प्रयास कर रहा है. फ़ेडरल फंड्स के दर 2021 के आख़िर में शून्य प्रतिशत था जिन्हें 2022 में बढ़ाकर 1.5 से 1.75 प्रतिशत के बीच लाया गया. फ़ेडरल रिज़र्व ने महंगाई को 2 प्रतिशत (दीर्घकालिक लक्ष्य) तक सीमित रखने के लिए इसमें और बढ़ोतरी की प्रतिबद्धता जताई है. हालांकि 2022 में महंगाई के 7.9 प्रतिशत तक पहुंच जाने का अंदेशा है.  

ये रणनीति तार्किक लगती है. महंगाई 8.3 प्रतिशत को छू रही है (अगस्त 2022 में मूलभूत महंगाई दर 7.4 प्रतिशत), नियोक्ता खाली पड़े पदों को भर नहीं पा रहे, क़ीमतों में बढ़ोतरी के चलते मेहनताने में होने वाली वृद्धि का असर फीका होता जा रहा है. अर्थव्यवस्था 1.7 प्रतिशत (2022 की दूसरी तिमाही) की अपेक्षाकृत ऊंची दर से बढ़ रही है. 2022 में विकास दर के 2.3 प्रतिशत रहने का पूर्वानुमान है, हालांकि 2023 में इसके सुस्त पड़कर 1 प्रतिशत तक हो जाने का अंदेशा जताया गया है.  

विकसित अर्थव्यवस्थाओं से अलग संदर्भ वाला देश है भारत

अमेरिका के विपरीत भारत, दीर्घकालिक रूप से निम्न रोज़गार, ऊंचे वित्तीय घाटे (वित्तीय वर्ष 2022-23 में लक्षित 6.4 प्रतिशत बनाम जीडीपी के 4 प्रतिशत के स्तर पर रहने का मानक), निम्न निजी पूंजी निवेश और महामारी के बाद के कालखंड में सुस्त आर्थिक उभार से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहा है. स्थिर दरों पर भारत की जीडीपी, महामारी से पूर्व के स्तरों (वित्त वर्ष 2019-20) को इस वित्तीय वर्ष के अंत तक ही हासिल कर सकेगी. 2022-23 में महंगाई के 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो 4 प्रतिशत के स्वीकार्य मानक से ऊपर है. साथ ही भारत में बेरोज़गारी और सामाजिक सहायता से जुड़ी व्यवस्थाएं बेहद छिछली और भ्रष्ट हैं, जो अमेरिका या यूरोप से बिल्कुल जुदा हैं. भारत की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका और यूरोपीय संघ की प्रति व्यक्ति आय का क्रमश: 10 प्रतिशत और 15 प्रतिशत है. प्रति व्यक्ति आय का इतना निम्न स्तर आर्थिक झटकों से निपटने के लिए ज़रूरी व्यक्तिगत लोच में भारी कमी ला देता है. 

भारत की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका और यूरोपीय संघ की प्रति व्यक्ति आय का क्रमश: 10 प्रतिशत और 15 प्रतिशत है. प्रति व्यक्ति आय का इतना निम्न स्तर आर्थिक झटकों से निपटने के लिए ज़रूरी व्यक्तिगत लोच में भारी कमी ला देता है.

महामारी की आमद के बाद से केंद्र और राज्य की सरकारें एक विशाल आबादी को प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण की सुविधा मुहैया करवा रही हैं. इनमें 7 करोड़ किसान शामिल हैं. दूसरी ओर भोजन के अधिकार क़ानून के ज़रिए 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त अनाज और दलहन दिए जा रहे हैं. आय सहायता मुहैया कराने के लिए ग्रामीण कार्यों से जुड़े कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. इसके अलावा ऊर्वरकों के फुटकर भाव को स्थिर कर दिया गया. खुदरा क़ीमतों में कमी लाने के मक़सद से ईंधन पर उत्पाद करों में कटौती कर दी गई. महंगाई के चलते कर राजस्व में आंशिक बढ़ोतरी के बावजूद ऊपर के तमाम उपायों से वित्तीय मोर्चे पर दबाव पड़ा है. 

वैश्विक परिदृश्य

वैश्विक आर्थिक परिदृश्य अनिश्चित हैं. 2022 में आर्थिक उत्पाद का अनुमानित आंकड़ा 3.2 प्रतिशत है जिसके 2023 में घटकर 2.9 प्रतिशत हो जाने का अंदेशा है. न्यूनतम रूप से इन दोनों ही आंकड़ों के क्रमश: 2.6 प्रतिशत और 2 प्रतिशत तक चले जाने की आशंका है. बहरहाल यूक्रेन से खाद्य निर्यातों के बहाल होने और यूक्रेन और रूस में सैन्य क्षमता का पुनर्संतुलन हो जाने से टकराव की जगह कूटनीतिक क़वायदों की ओर रुझान होता दिखाई दे रहा है. चीन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग को तीसरा कार्यकाल मिलना भी लगभग तय है. ये भी एक सकारात्मक घटनाक्रम है. घरेलू मोर्चे पर देखें तो “वास्तविक नियंत्रण रेखा” पर मौजूद टकराव बिंदुओं पर भारत और चीनी फ़ौज के बीच लगातार कम होता तनाव परिपक्व कूटनीति का इज़हार करता है.  

हम अगले पांच वर्षों में 6 प्रतिशत से भी ज़्यादा रफ़्तार वाले तेज़ विकास के दौर की उम्मीद कर सकते हैं, जबकि इसी कालखंड में वैश्विक वृद्धि दर के तक़रीबन 3 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है.  

सौ बात की एक बात ये है कि भारत की विकास यात्रा पर बाहर की व्यवस्थागत रुकावटों का असर कमज़ोर पड़ सकता है. हम अगले पांच वर्षों में 6 प्रतिशत से भी ज़्यादा रफ़्तार वाले तेज़ विकास के दौर की उम्मीद कर सकते हैं, जबकि इसी कालखंड में वैश्विक वृद्धि दर के तक़रीबन 3 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है.  

‘विकास’ और ‘महंगाई पर नकेल’ के बीच सामंजस्य

महंगाई पर नकेल कसने के मक़सद से रिज़र्व बैंक द्वारा ब्याज़ दरों में की गई बढ़ोतरी और विकास को बढ़ावा देने वाले खुदरा ब्याज़ दर के स्तरों में सामंजस्य का सही स्तर क्या है? हाल ही में ICRIER के सेमीनार में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सहज अनुभूति से टिप्पणी करते हुए कहा कि भारतीय संदर्भ में एकाकी रूप से संचालित मौद्रिक नीति महंगाई पर नकेल कसने के लिहाज़ से एक बेअसर औज़ार साबित हो सकती है. 

हमें विकसित अर्थव्यवस्थाओं में केंद्रीय बैंकों द्वारा आधारभूत दरों में किए गए बदलावों के साथ आंख मूंदकर तालमेल बिठाने की ज़रूरत नहीं है. भारत में ब्याज़ दरें बेलोचदार होती हैं और वित्तीय संकेतकों के हिसाब से उनमें बदलाव की रफ़्तार सुस्त रहती है. मिसाल के तौर पर 2015 से 2019 के बीच महंगाई दर 6 प्रतिशत (मानक बाहरी सीमा) से नीचे थी और 2 वर्षों के दौरान तो 4 प्रतिशत के मानक से भी नीचे थी. बहरहाल रेपो रेट को 8 फ़ीसदी (अप्रैल 2014) से 7 फ़ीसदी (अप्रैल 2016) तक आने में 2 साल लग गए. ये दर अप्रैल 2019 तक 6 प्रतिशत से ऊपर बना रहा. 

RBI के आधारभूत दर के बेलोचदार रुख़ से भावी आर्थिक संभावनाओं पर ग्रहण

अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व के फ़ंड्स रेट 2009 से दिसंबर 2015 तक 0.25 प्रतिशत पर बरक़रार रहे. मार्च 2017 तक ये 1 प्रतिशत से नीचे और जून 2018 तक 1 से 2 फ़ीसदी के बीच रहा. दिसबंर 2018 में ये बढ़कर 2.5 प्रतिशत तक पहुंच गया, जबकि मार्च 2020 तक ये दोबारा घटकर शून्य प्रतिशत तक पहुंच गया. 

अब भी बैंकों द्वारा छोटे कारोबारों को कर्ज़ देने में आनाकानी किए जाने के क़िस्से सुनाई दे रहे हैं. दूसरी ओर “सुरक्षित माने जाने वाले” बड़े उद्योगों में परिसंपत्तियां इकट्ठी होती जा रही हैं. ऐसे हालात नौकरियों, विकास और साख के मोर्चे पर जोख़िम प्रबंधन की दमदार व्यवस्था के लिए कतई शुभ संकेत नहीं हैं.   

2014-15 तक भारत में महंगाई दर 9 से 10 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर रही थी. लिहाज़ा उस कालखंड में फ़ेड रेट और रेपो रेट में 5 से 6 प्रतिशत का अंतर समझ में आता है. बहरहाल 2014 के बाद वैश्विक ईंधन क़ीमतों और महंगाई में गिरावट आने के बावजूद रेपो रेट 8 प्रतिशत (मार्च 2014) के ऊंचे स्तर से 6 प्रतिशत (अप्रैल 2019) तक बरक़रार रहा. स्थिर दरों पर विकास की रफ्तार में सुस्ती के पीछे इसका हाथ हो सकता है. ग़ौरतलब है कि स्थिर दरों पर विकास की दर 2015-16 में 8 प्रतिशत थी जो 2019-20 में गिरकर 3.7 फ़ीसदी तक गिर गई. 

रुपए के भाव में गिरावट का डर

RBI की दरों को निर्णायक रूप से घटाने से परहेज़ करने की नीति के पीछे भारत में महंगाई के ऊंचे स्तरों से मुक़ाबले के लिए रक्षा-कवच बरक़रार रखने की ज़रूरत और विदेशी निवेशकों की जोख़िम धारणाओं से निपटने की सोच काम करती है. विदेशी निवेशकों की विदाई से मुद्रा के भाव में भारी उतार आ सकता है. इसके अलावा 2017-2020 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ऊंचा मार्जिन सुरक्षित करने की समझ काम कर रही थी. दरअसल इसके पीछे इन बैंकों की आरक्षित पूंजी को दोबारा खड़ा करने की नीति थी. सालों से जमा ग़ैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (non-performing assets) के ऊंचे स्तरों और उन्हें बट्टे खाते में डालने से होने वाले नुक़सान के लिए इन बैंकों को तैयार करने के उद्देश्य से ये रास्ता अख़्तियार किया गया. इससे खुदरा कर्ज़ दरों को एक निचली सीमा मिल गई.   

बैंकों की ग़ैर-निष्पादित परिसंपत्तियां 2016 में दहाई अंकों के स्तर पर थीं जो मार्च 2022 तक गिरकर 5.9 प्रतिशत तक पहुंच गई हैं. बहरहाल, अब भी बैंकों द्वारा छोटे कारोबारों को कर्ज़ देने में आनाकानी किए जाने के क़िस्से सुनाई दे रहे हैं. दूसरी ओर “सुरक्षित माने जाने वाले” बड़े उद्योगों में परिसंपत्तियां इकट्ठी होती जा रही हैं. ऐसे हालात नौकरियों, विकास और साख के मोर्चे पर जोख़िम प्रबंधन की दमदार व्यवस्था के लिए कतई शुभ संकेत नहीं हैं.   

बैंक ऋणों के ऊंचे मार्जिन महंगाई को हवा देते हैं

सार्वजनिक क्षेत्र के वाणिज्यिक बैंकों के कोष इकट्ठा करने की लागत और उनके द्वारा बांटे जाने वाले ऋणों से कमाई जाने वाली ब्याज़ के बीच का अंतर कम करने की क़वायद अब भी अधूरी है. कार्यसंचालन की ऊंची लागतों के चलते पैदा इन हालातों से महंगाई का दबाव बढ़ जाता है. भारत में “बड़े आकार वाली” सरकार के उभरते सिद्धांतों से निजीकरण के विचार का तालमेल नहीं हो रहा है. ऐसे में निजी क्षेत्र की दक्षता में सुधार की क़वायद बेहद नाज़ुक हो जाती है. डिजिटल बैंकिंग, प्रतिस्पर्धी दबाव पैदा कर सकती है और कार्यसंचालन की लागतों को कम कर सकती है.  

वित्त मंत्री ने महंगाई पर लगाम लगाने के लिए ग़ैर-मौद्रिक नीतिगत व्यवस्था के प्रयोग की वक़ालत की है. फ़िलहाल महंगाई को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं (जैसे पेट्रोलियम) पर टैक्स वसूलने के मामले में केंद्र और तमाम राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव है. मौजूदा व्यवस्था “कर उगाही” को हवा दे रही है. इस सिलसिले में तालमेल हासिल करने का एक कार्यकुशल तरीक़ा है- पेट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाना. बदक़िस्मती से राजनीतिक टकरावों से भरे मौजूदा दौर में ये क़वायद सिरे ना चढ़ पाए! 

मौजूदा व्यवस्था “कर उगाही” को हवा दे रही है. इस सिलसिले में तालमेल हासिल करने का एक कार्यकुशल तरीक़ा है- पेट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाना. बदक़िस्मती से राजनीतिक टकरावों से भरे मौजूदा दौर में ये क़वायद सिरे ना चढ़ पाए! 

ऐसे में क्यों ना जीएसटी काउंसिल की तर्ज पर एक कार्बन टैक्स काउंसिल का गठन कर दिया जाए? इसमें राज्यों के वित्त और पर्यावरण मंत्रियों के साथ-साथ केंद्रीय वित्त मंत्री और केंद्रीय पर्यावरण मंत्री को सह-अध्यक्ष के रूप में शामिल किया जा सकता है. ये परिषद पेट्रोलियम ईंधनों पर वैट और उत्पाद करों की व्यवस्था में समग्रता स्थापित करने की दिशा में काम कर सकती है. ऐसे ईंधन पर वसूला जाने वाला कर, कार्बन उत्सर्जन पर लागू कर के समान होता है, जिसके वैश्विक फ़ायदे हो सकते हैं.  

ये इकाई, जीवाश्म ईंधनों (कोयला पहले से ही जीएसटी के दायरे में है) पर लगने वाले टैक्स के भारतीय ढांचे की समीक्षा करने और उनके एकीकरण की क़वायद से अपने कामकाज का आग़ाज़ कर सकती है. इसके बाद वो 2030 तक कार्बन प्राइसिंग की साझा रूपरेखा पर विचार करने का बीड़ा उठा सकती है. प्रधानमंत्री मोदी “सहकारी संघवाद” का समर्थन करते रहे हैं. केंद्र सरकार द्वारा ईंधनों पर आयद आयात और निर्यात कर और सेस इस भावना के साथ जुड़े “करों को साझा करने की क़वायद” के साथ किस प्रकार तालमेल बिठाते हैं, परिषद इसका भी निर्धारण कर सकती है.  

एक राष्ट्र, एक टैक्स

मुक्त और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के कुछ बुनियादी कारक हैं. इनमें मज़बूत आर्थिक संजाल (बिजली और गैस ग्रिड, राजमार्गों के ग्रिड, रेल सेवाएं और हवाई अड्डे) और “एक राष्ट्र, एक टैक्स” का मंत्र (जिसका ठोस उदाहरण जीएसटी है) शामिल हैं. बहरहाल, जीवाश्म ईंधनों पर आधारित कर स्रोतों को इस एकजुट कर व्यवस्था से अलग रखना एकीकृत अर्थव्यवस्था के लिए कतई मुनासिब नहीं है. वित्त वर्ष 2021-22 में इस स्रोत से संघीय उत्पाद शुल्क के तौर पर 3.6 खरब रु और राज्यों के वैट के तौर पर 2.6 खरब रु की वसूली हुई थी. इस तरह केंद्र और राज्यों के स्तर पर हुई कुल वसूली जीडीपी के तक़रीबन 3 फ़ीसदी हिस्से के बराबर है. 

चालू खाते के घाटे से जुड़े ग़ैर-मौद्रिक नीतिगत पहलों (जिसमें वित्तीय घाटे को कम करना शामिल है) से RBI को अपनी ब्याज़ दर नीति सटीक रूप से तैयार करने में मदद मिलेगी. ये विकास की मंद-मंद बढ़ती रफ़्तार को दबाने और मौद्रिक नीति के ज़रिए महंगाई के मोर्चे पर न्यूनतम आवश्यक क़दम उठाने के बीच, बारीक़ संतुलन बिठाने की क़वायद करता है. हालांकि इस मोर्चे पर धुंधलापन बरक़रार है. दरअसल मौद्रिक नीति के तहत खुदरा ब्याज़ दरों का असर एक लंबी मियाद में ही दिखाई देता है जबकि निवेशकों की धारणाओं का तात्कालिक असर होता है. 

वैश्विक रुझानों के मुक़ाबले ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी की सुस्त, बग़ैर तालमेल वाली क़वायद से विदेशी मुद्रा भंडारों में गिरावट की आशंका पैदा होती है. दरअसल मुद्रा की क़ीमतों में गिरावट की रोकथाम के लिए विदेशी मुद्रा भंडारों के इस्तेमाल से ऐसे हालात पैदा होते हैं. महंगाई की संभावित ऊंची दरों और बेलगाम वित्तीय घाटे के चलते चौकस विदेशी निवेशक बाज़ार से हाथ खींचने लगते हैं. नतीजतन चालू खाते का घाटा बढ़ने लगता है. RBI के पूर्व गवर्नर के विचारों के मुताबिक मई से अगस्त 2013 के बीच तीन महीनों में रुपए के भाव में 17 प्रतिशत की गिरावट के पीछे यही तमाम कारक ज़िम्मेदार रहे थे.  

ये तमाम समीकरण आज भी चिंता का सबब बने हुए हैं. वैश्विक स्तर पर ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी की दिशा में तालमेल बिठाते हुए धीरे-धीरे क़दम बढ़ाने से विकास की शुरुआती रफ़्तार को बेपटरी किए बिना विदेशी निवेशकों के भरोसे को बढ़ावा देना मुमकिन हो सकता है. 

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