Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 13, 2022 Updated 0 Hours ago

जापान के दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय विरासत पर एक नज़र

जापान के दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे के भारतीय सरोकार: एक स्थायी विरासत

सबसे लंबे समय तक जापान के प्रधानमंत्री रहे शिंज़ो आबे का 8 जुलाई 2022 को निधन हो गया. कुछ घंटे पहले ही आबे को उस वक़्त गोली मार दी गई थी, जब वो जापान की संसद के ऊपरी सदन के चुनाव के लिए प्रचार कर रहे थे. भारत और जापान के रिश्तों को मज़बूत बनाने में शिंजो आबे ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. इसीलिए, शिंज़ो आबे के प्रति सम्मान जताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके निधन पर 9 जुलाई को एक दिन के राजकीय शोक का ऐलान किया था.

28 अगस्त 2020 को जापान के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देते हुए शिंजो आबे ने अपने देश की जनता से कहा कि, ‘मुझे माफ कर दीजिए कि मैं प्रधानमंत्री पद का अपना कार्यकाल ख़त्म होने से एक साल पहले ही पद छोड़ रहा हूं. वो भी कोरोना वायरस के संकट काल में. जबकि अभी भी इस महामारी से निपटने की नीतियों पर अमल शुरू ही हो रहा है.’ शिंज़ो आबे ने प्रधानमंत्री पद से उस वक़्त इस्तीफ़ा दिया था, जब वो एक के बाद एक लगातार छह बार चुनाव जीत चुके थे. 

शिंज़ो आबे अपने पीछे एक ऐसा जापान छोड़कर गए हैं, जो पूरी तरह से बदल चुका है. फिर चाहे घरेलू राजनीति हो या जापान की विदेश नीति. और ऐसा तब दिख रहा है, जब शिंज़ो आबे ऐसी कई नीतियों को लागू नहीं कर पाए, जो उनके दिल के बेहद क़रीब थीं.

शिंजो आबे ने 2007 में प्रधानमंत्री पद के अपने पहले कार्यकाल के बाद पहली बार इस्तीफ़ा दिया था. इसके बावजूद वर्ष 2012 में उन्होंने दोबारा बहुमत हासिल करके अपनी सरकार बनाई थी. ये जापान की राजनीति में एक दुर्लभ उपलब्धि थी. इसके बाद शिंज़ो आबे ने 2014 और 2017 के चुनावों में भी जीत हासिल की थी. अपनी लगातार चुनावी जीत के चलते शिंजो आबे जापान को वो राजनीतिक स्थिरता दे पाने में सफल हुए थे, जिसकी उनके देश को सख़्त दरकार थी. शिंज़ो आबे अपने पीछे एक ऐसा जापान छोड़कर गए हैं, जो पूरी तरह से बदल चुका है. फिर चाहे घरेलू राजनीति हो या जापान की विदेश नीति. और ऐसा तब दिख रहा है, जब शिंज़ो आबे ऐसी कई नीतियों को लागू नहीं कर पाए, जो उनके दिल के बेहद क़रीब थीं. जैसे कि, उत्तर कोरिया से उन जापानी नागरिकों को वापस लाने की बातचीत में उन्हें सफलता नहीं मिली, जिन्हें कई दशक पहले अगवा कर लिया गया था; न ही वो रूस के साथ सीमा विवाद को हल कर सके. यही नहीं, शिंज़ो आबे अपने सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट यानी दूसरे विश्व युद्ध के बाद बने जापान के संविधान में बदलाव करके जापान की सेना को और अधिकार देने के अपने सपने को भी नहीं पूरा कर सके.

जापान एक ऐसा देश है, जहां बदलाव की रफ़्तार बेहद धीमी होती है. लेकिन, शिंज़ो आबे ने अपने कार्यकाल के पहले दिन से ही देश की मौजूदा व्यवस्था में बदलाव की शुरुआत कर दी थी. 

महिला उन्मुख आर्थिक नीतियां

आर्थिक मोर्चे की बात करें, तो उनकी मशहूर अर्थनीति को ‘अबेनॉमिक्स’ का नाम दिया गया था. जिसमें उन्होंने बड़े उदारीकरण, वित्तीय व्यय बढ़ाने के साथ साथ अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलाव लाने के लिए बेहद साहसिक क़दम उठाए, जिससे कि वो अपने देश की ठप पड़ी अर्थव्यवस्था में नई जान डाल सकें. कोविड-19 महामारी के चलते विकास की दर पूरी तरह ठप पड़ने से पहले, शिंज़े आबे के नेतृत्व में जापान ने अपने आर्थिक विकास के सबसे लंबे दौर को देखा था.

शिंजो आबे ने वो क़दम उठाने का साहस दिखाया, जो क़दम उठाने से उनके देश के रूढ़िवादी नेता इससे पहले डरते आए थे. जापान में घटते कामगारों की चुनौती से निपटने के लिए शिंजो आबे ने देश की अप्रवासी और लैंगिक नीतियों में सुधार की कोशिश की. महिलाओं को कामकाजी वर्ग में शामिल करने के लिए, शिंजो आबे ने कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वो महिलाओं को अधिक से अधिक नौकरियां दें. इसके लिए उन्होंने सरकार की ऐसी नीतियां बनाईं, जिनसे उन कंपनियों को इनाम दिए गए, जो महिलाओं को नौकरी पर रखती थीं. उन्होंने इन कंपनियों में बच्चों की रखवाली के लिए डे केयर सेंटर सरकार के ख़र्चे पर चलाने की व्यवस्था की. इन क़दमों से भले ही जापान में रोज़गार की तस्वीर पूरी तरह से न बदली हो. लेकिन, शिंजो आबे ने अपनी नीतियों से जापान के कॉरपोरेट सेक्टर को महिलाओं के प्रति अपने गहरी जड़ें जमाए बैठे पक्षपाती व्यवहार को बदलने को मजबूर किया. इसे शिंजो आबे की ‘वोमेनिक्स’ यानी महिलावादी नीति का नाम दिया गया.

जापान में घटते कामगारों की चुनौती से निपटने के लिए शिंजो आबे ने देश की अप्रवासी और लैंगिक नीतियों में सुधार की कोशिश की. महिलाओं को कामकाजी वर्ग में शामिल करने के लिए, शिंजो आबे ने कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वो महिलाओं को अधिक से अधिक नौकरियां दें.

जापान की सुरक्षा नीति पर भी शिंजो आबे ने गहरी छाप छोड़ी. शिंजो आबे राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर जापान के रवैये को ‘सामान्य बनाने’ में कामयाब रहे. ये परिवर्तन भले ही धीरे धीरे आया हो, लेकिन अब जापान के लोगों की सोच अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर निश्चित रूप से बदल चुकी है. शिंजो आबे का मानना था कि जापान को क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर अपनी सामरिक भूमिका को बढ़ाना चाहिए. उन्होंने इसके लिए जापान के रक्षा बजट में इज़ाफ़ा किया.  उन्हें ये कहने में भी कोई संकोच नहीं था कि जापान को अपनी सामरिक शक्ति को बढ़ाना ही नहीं चाहिए. बल्कि उसे प्रदर्शित भी करना चाहिए. शिंजो आबे की सरकार ने देश के संविधान की नए सिरे से व्याख्या की, जिससे कि जापान की सेनाओं को दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार अन्य देशों में युद्ध में शामिल होने का रास्ता खुला. इसके अलावा जापान ने शिंजो आबे के राज में ही अपने किसी दोस्त देश पर हमले के समय उसकी रक्षा के अधिकार को दोबारा हासिल किया, जिस पर लंबे समय से प्रतिबंध लगा हुआ था.

घरेलू मोर्चे पर जापान की नीतियों में इन बदलावों की मदद से शिंजो आबे ने अपने देश के लिए क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर मज़बूती से अपने संबंध विकसित करने का अवसर बनाया. डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में अमेरिका ने अपने सहयोगी देशों के प्रति भी लेन-देन वाली ही नीति अपनाए रखी. इसके बावजूद, शिंजो आबे ने अमेरिका और जापान के संबंधों का संतुलन बनाए रखा. विश्व के सुरक्षा ढांचे में अब जापान की भूमिका इतनी बढ़ गई है कि अब उसके फाइव आईज़ (Five Eyes) ख़ुफ़िया साझेदारी का हिस्सा बनाने को लेकर भी चर्चा हो रही है. फ़ाइव आईज़, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूज़ीलैंड का ऐसा गठबंधन है, जिसके तहत वो ख़ुफ़िया जानकारियां आपस में शेयर करते हैं. 

वहीं, क्षेत्रीय स्तर पर शिंजो आबे पहले नेता थे, जिन्होंने वर्ष 2007 में ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर एक सामरिक दृष्टिकोण दिया था. उस साल शिंज़ो आबे ने भारतीय संसद में दिए गए अपने भाषण में हिंद प्रशांत क्षेत्र के दृष्टिकोण को दो महासागरों के संगम का नाम दिया था. शिंजो आबे ने अपनी इसी सामरिक दूरदृष्टि के आधार पर अपने देश की विदेश नीति को आगे बढ़ाया. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने तमाम क्षेत्रीय शक्तियों के साथ संबंधों को नए सिरे से ढालने की कोशिश की. इस दौरान जापान ने भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ अपने संबंध और मज़बूत किए. तो, दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ रक्षा साझेदारी विकसित की.

भारत-जापान के रिश्तों में नई जान 

भारत के लिए शिंजो आबे, हमेशा बेहद ख़ास जापानी नेता बने रहेंगे. भारत को लेकर शिंजो आबे के दिल में बहुत लगाव रहा था, और इसी वजह से हिंद प्रशांत क्षेत्र के अपने सामरिक नज़रिए में आबे, जापान और भारत के रिश्तों को बहुत अहमियत देते थे. अपने पहले कार्यकाल में भारत का दौरा करने के बाद, शिंजो आबे ने जापान और भारत के संबंधों को नई धार और रफ़्तार दी. वो भारत का चार बार दौरा करने वाले जापान के पहले प्रधानमंत्री बने. 

क्षेत्रीय स्तर पर शिंजो आबे पहले नेता थे, जिन्होंने वर्ष 2007 में ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर एक सामरिक दृष्टिकोण दिया था. उस साल शिंज़ो आबे ने भारतीय संसद में दिए गए अपने भाषण में हिंद प्रशांत क्षेत्र के दृष्टिकोण को दो महासागरों के संगम का नाम दिया था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ शिंजो आबे के अच्छे रिश्ते और दुनिया को लेकर दोनों नेताओं की एक जैसी दृष्टि होने के कारण, हाल के वर्षों में भारत और जापान के संबंधों ने नई ऊंचाइयां हासिल की हैं. शिंजो आबे के कार्यकाल के दौरान ही भारत और जापान के संबंधों की राह का आख़िरी कांटा भी निकल गया. जब जापान ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश मानने से अपने इनकार को इकरार में बदला. 2016 मे भारत और जापान के बीच नागरिक परमाणु समझौते पर दस्तख़त किए गए.

चीन के आक्रामक रुख़ को देखते हुए जापान और भारत ने आपसी संबंधों को और अधिक महत्वाकांक्षी स्तर पर ले जाने का फ़ैसला किया. आज जापान, भारत के साथ मिलकर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया में कई साझा प्रोजेक्ट चला रहा है. इसके अलावा, 2017 में जापान और भारत ने चार देशों के गठबंधन (QUAD) में नई जान फूंकने का फ़ैसला किया. इसके अलावा जापान और भारत साथ मिल कर संपर्क बढ़ाने के साझा प्रोजेक्ट जैसे कि एशिया अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर विकसित कर रहे हैं. आज जब भारत पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में अपनी पहुंच का विस्तार कर रहा है, तो उसे जापान से पूरा सहयोग मिल रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद में भी जापान ने खुलकर भारत का साथ दिया है. ये शिंज़ो आबे ही थे, जिनके नेतृत्व में ही जापान और भारत के संबंधों का दायरा इतना व्यापक हुआ है.

.आज जब भारत पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में अपनी पहुंच का विस्तार कर रहा है, तो उसे जापान से पूरा सहयोग मिल रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद में भी जापान ने खुलकर भारत का साथ दिया है. ये शिंज़ो आबे ही थे, जिनके नेतृत्व में ही जापान और भारत के संबंधों का दायरा इतना व्यापक हुआ है.

शिंजो आबे अपने पीछे एक भारी भरकम विरासत छोड़ गए हैं. वो जापान के एक ऐसे नेता थे, जिनकी नीतियों ने न केवल जापान के घरेलू राजनीति और अर्थनीति के माहौल को बदला, बल्कि उन्होंने वैश्विक सामरिक नीति पर भी गहरी छाप छोड़ी. शिंज़ो आबे ख़ुद को एक रूढ़िवादी नेता कहते रहे थे. और उनके इस स्वघोषित बयान को देखते हुए शिंज़ो आबे की उपलब्धियां बेहद शानदार रही हैं.

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