Author : Akanksha Khullar

Published on Oct 18, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सभी महिलाएं, उनकी वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बगैर गर्भधारण के 24 सप्ताह तक का गर्भपात का विकल्प चुन सकती हैं.

‘भारत’ में संशोधित गर्भपात अधिकार क़ानून के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण हस्तक्षेप!

29 सितंबर को, 25 वर्षीय अविवाहित महिला के मामले के जवाब में – जिसकी 24 वें सप्ताह में गर्भावस्था को समाप्त करने की याचिका को दिल्ली उच्च न्यायालय ने ठुकरा दिया था – भारत के सर्वोच्च न्यायालय (एससी) ने फैसला सुनाया कि सभी महिलाएं, उनकी वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बगैर गर्भधारण के 24 सप्ताह तक का गर्भपात का विकल्प चुन सकती हैं. शीर्ष अदालत ने कहा कि गर्भावस्था को आगे ले जाने या इसे समाप्त करने का निर्णय एक महिला की शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार और उसे अपनी ज़िंदगी का रूख़ तय करने में निहित है जहां विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच कृत्रिम भेद को क़ायम नहीं रखा जा सकता है.

शीर्ष अदालत के हालिया फैसले से साबित होता है कि भारत में गर्भपात कानून एक लंबा सफर तय कर चुका है और अधिक प्रगतिशील दिशा की ओर बढ़ रहा है. 1860 में ब्रिटिश शासन के तहत भारत के कानून में गर्भपात को जेल की सज़ा, या ज़ुर्माना, या दोनों के साथ दंडित किया जाता था.

कानून में बदलाव का कई महिलाओं और प्रजनन अधिकार कार्यकर्ताओं ने स्वागत किया है, जो इसके पक्षधर हैं कि अदालत का फैसला भेदभाव नहीं करता है बल्कि हर एक महिला को सुरक्षित और कानूनी गर्भपात के अधिकार को सुनिश्चित करता है, जो आने वाले वर्षों में लाखों लोगों का जीवन प्रभावित करेगा. लेकिन इस तथ्य को देखते हुए कि भारत में गर्भपात के अधिकार हमेशा इतने सरल और आज़ाद नहीं रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश यह सवाल उठाता है कि मौज़ूदा अधिनियमों और नियमों का विस्तार-वास्तव में – भारतीय महिलाओं की प्रजनन और शारीरिक स्वायत्तता के लिए लंबे समय से चली आ रही लड़ाई में कैसे योगदान देगा.

क्या बदल गया है?

शीर्ष अदालत के हालिया फैसले से साबित होता है कि भारत में गर्भपात कानून एक लंबा सफर तय कर चुका है और अधिक प्रगतिशील दिशा की ओर बढ़ रहा है. 1860 में ब्रिटिश शासन के तहत भारत के कानून में गर्भपात को जेल की सज़ा, या ज़ुर्माना, या दोनों के साथ दंडित किया जाता था. यह केवल साल 1971 में हुआ जब प्रजनन अधिकारों के लिए एक अलग कानून- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) अधिनियम के रूप में – भारतीय संसद द्वारा मसौदा बनाया गया और इसे पारित किया गया था.

हालांकि, कानून की सीमाओं को स्वीकार करते हुए  भारतीय संसद ने पहले साल 2003 में इस अधिनियम में संशोधन किया और फिर 2021 में विशेष श्रेणियों की महिलाओं जैसे रेप सर्वाइवर्स, नाबालिगों, मानसिक रूप से पीड़ित महिलाओं,  विकलांग, भ्रूण की असामान्यताओं वाली महिलाओं के लिए 24 सप्ताह तक के लिए गर्भधारण की चिकित्सा समाप्ति का प्रावधान जोड़ा. फिर भी  इस अधिनियम ने व्यवस्थित रूप से एकल महिलाओं को इसके दायरे से अलग रखा  और उन्हें उनकी शारीरिक स्वायत्तता से वंचित कर दिया.

इन ख़ामियों के बावज़ूद यह कहना शायद सुरक्षित होगा कि एससी के 2022 के फैसले में महिलाओं को शामिल करके – चाहे उनकी वैवाहिक स्थिति कुछ भी हो – एमटीपी अधिनियम के तहत, जो उन्हें 24 सप्ताह तक गर्भधारण को समाप्त करने की अनुमति देता है, सुरक्षित और कानूनी गर्भपात के लिए भारत की प्रतिबद्धता की ओर इशारा करता है जो हर महिला का संवैधानिक अधिकार है. 

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा 2022 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार  भारत में लगभग 67 प्रतिशत गर्भपात असुरक्षित माना गया जो एक दिन में औसतन आठ महिलाओं की हत्या करने के बराबर है, इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट का नया आदेश असुरक्षित गर्भपात को लेकर महिलाओं की निर्भरता को काफी कम कर सकता है.  

इसके अलावा, सर्वोच्च अदालत द्वारा महिलाओं की समानता के अधिकार और उनकी पसंद की पहचान करना उस देश के लिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां अक्सर महिलाओं को लेकर पितृसत्तात्मक निगरानी हावी रहती है – ऐसे में यह रूढ़िवादी-पारंपरिक धारणा कि केवल विवाहित महिलाएं ही संभोग में शामिल होती हैं, लिहाज़ा कानून को केवल उन्हें ही फायदा पहुंचाना चाहिए, इससे उलट यह एक स्वागत योग्य कदम है. इस प्रकार, हालिया निर्णय परिवर्तन की अंतर्धाराओं और सोच के बदलाव को दर्शाता है जो पारंपरिक भारतीय समाज में व्यापक है. 

ऐसा ना हो कि हम इस बात को भूल जाएं कि भारत में, जहां 73 मिलियन अविवाहित महिलाएं हैं, जिन्हें अब तक 20 सप्ताह से अधिक के कानूनी और सुरक्षित गर्भपात से वंचित रखा गया है, एमटीपी अधिनियम का विस्तार बेहद ही असरदार साबित होगा. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा 2022 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार  भारत में लगभग 67 प्रतिशत गर्भपात असुरक्षित माना गया जो एक दिन में औसतन आठ महिलाओं की हत्या करने के बराबर है, इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट का नया आदेश असुरक्षित गर्भपात को लेकर महिलाओं की निर्भरता को काफी कम कर सकता है.  संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा 2022 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 67 प्रतिशत गर्भपात को असुरक्षित माना गया है जो एक दिन में औसतन आठ महिलाओं की हत्या करने के बराबर है. 

क्या बदलना अभी बाक़ी है?

इन सकारात्मक पहलुओं के बावज़ूद, सच तो यह है कि शीर्ष अदालत का फैसला भारतीय महिलाओं की प्रजनन और शारीरिक स्वायत्तता के संघर्ष  में पहला कदम है. अभी और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. ख़ास तौर पर  संशोधित अधिनियम और नियम, एलजीबीटीक्यूआईए + समुदाय की एक बड़ी आबादी को – जिसमें ट्रांसजेंडर, नॉन-बाइनरी और जेंडर डाइवर्स लोग शामिल हैं, जिन्हें जन्म के समय महिला या इंटरसेक्स के रूप में वर्गीकृत किया गया था – भारतीय गर्भपात कानूनों और स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के दायरे से बाहर रखता है. 

उदाहरण के लिए, संशोधित एमटीपी अधिनियम सीआईएस-जेंडर वुमेन को अपने दायरे में रखता है  – जो स्वास्थ्य सेवा तक पहुंचने में सबसे अधिक संघर्ष करती हैं – लेकिन ऐसे ख़ास नियमों पर यह कोई स्पष्टता प्रदान नहीं करती है जो उन पर लागू होते हैं. वास्तव में, इस निर्णय में विशेष रूप से गर्भवती ‘महिला’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जिससे इसके दायरे में कौन शामिल है और कौन नहीं इसे लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है. 

यहां यह ध्यान रखना अहम है कि बहुत से लोग जो महिलाओं के रूप में पहचान नहीं रखते हैं लेकिन गर्भावस्था का अनुभव कर सकते हैं और उन्हें सुरक्षित गर्भपात के साथ-साथ यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की आवश्यकता होती है. इस प्रकार एमटीपी अधिनियम में “महिलाओं” को ‘व्यक्ति’ के साथ बदलकर इस कानूनी ढांचे को और अधिक समावेशी बनाने की आवश्यकता है.

यहां यह ध्यान रखना अहम है कि बहुत से लोग जो महिलाओं के रूप में पहचान नहीं रखते हैं लेकिन गर्भावस्था का अनुभव कर सकते हैं और उन्हें सुरक्षित गर्भपात के साथ-साथ यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की आवश्यकता होती है. इस प्रकार एमटीपी अधिनियम में “महिलाओं” को ‘व्यक्ति’ के साथ बदलकर इस कानूनी ढांचे को और अधिक समावेशी बनाने की आवश्यकता है.

इस कानूनी ढांचे को और अधिक समावेशी बनाने के अलावा  इसके बारे में अधिक जागरूकता बढ़ाने की भी ज़रूरत है. भले ही भारत में प्रजनन कानून एक उदार दिशा में आगे बढ़ रहा है लेकिन गर्भपात को अभी भी एक कलंक के रूप में देखा जाता है,  ख़ासकर समाज के निचले तबके में जहां मातृत्व के विषय को नैतिक चश्मे से देखा जाता है. नतीज़तन, परिवार और कभी-कभी, यहां तक कि चिकित्सक भी, महिलाओं को गर्भपात कराने से रोकते हैं.

जबकि अपने हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया है कि भारत में पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर्स को गर्भावस्था ख़त्म करने की मांग करने वाली महिलाओं पर ज़्यादा कानूनी शर्तों को लागू करने से बचना चाहिए. इसके साथ ही समाज को भी महिलाओं के अधिकार और उनकी गर्भावस्था को बनाए रखने या समाप्त करने की उनकी पसंद की स्वतंत्रता के प्रति संवेदनशील होना होगा जो अंततः उसकी शिक्षा, उसके करियर को बाधित करके या उसके मानसिक कल्याण को प्रभावित करके उसके पूरे जीवन को प्रभावित कर सकती है. 

निष्कर्ष


इस तथ्य के बारे में कोई संदेह नहीं है कि भारत का निर्णय हर हाल में सराहनीय है, ख़ास तौर पर यह देखते हुए कि यह ऐसे समय में आया है जब यौन और प्रजनन अधिकारों को दुनिया भर में एक विवादास्पद मुद्दा माना जा रहा है, ख़ासकर जब अमेरिका ने  ऐतिहासिक रो बनाम वेड फैसले को उलट दिया है, जिसने गर्भपात के अधिकार को संवैधानिक वैधता प्रदान की थी. दो राय नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भारत और देश में महिलाओं के अधिकारों के मुद्दे को प्रगतिशीलता के रास्ते पर ला खड़ा किया है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.