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चूंकि नियमनों से उपभोक्ता की निर्णय प्रक्रिया और उपभोग के रुझान प्रभावित हो सकते हैं, लिहाज़ा वित्तीय नियमनों और उपभोक्ताओं द्वारा अपनी रकम आवंटित करने के तरीक़े के बीच एक सहजीवी संबंध मौजूद होता है. विस्तार से कहें तो, वित्तीय नियमनों का निर्माण स्थिरता को बढ़ावा देने और उपभोक्ताओं का बचाव करने के दृष्टिकोण से किया जाता है. इसके लिए वित्तीय संस्थानों और उनकी गतिविधियों को लेकर मानक और दिशा निर्देश निर्धारित किए जाते हैं. ये नियम वित्तीय उत्पादों के साथ-साथ सेवाओं की लागत, उपलब्धता और पहुंच पर असर डाल सकते हैं, जो बदले में उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं.
जैसे-जैसे वित्तीय नियम विकसित होते जा रहे हैं, वो उपभोक्ताओं द्वारा रकम आवंटित किए जाने के तौर-तरीक़ों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं. इस कड़ी में हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) वर्किंग पेपर की मिसाल ले सकते हैं, जो बताता है कि व्यवहार संबंधी तत्व, वित्तीय पर्यवेक्षण, विनियमन और केंद्रीय बैंकिंग के लिए कैसे प्रासंगिक होते हैं.
इसलिए, जैसे-जैसे वित्तीय नियम विकसित होते जा रहे हैं, वो उपभोक्ताओं द्वारा रकम आवंटित किए जाने के तौर-तरीक़ों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं. इस कड़ी में हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) वर्किंग पेपर की मिसाल ले सकते हैं, जो बताता है कि व्यवहार संबंधी तत्व, वित्तीय पर्यवेक्षण, विनियमन और केंद्रीय बैंकिंग के लिए कैसे प्रासंगिक होते हैं. इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि वित्तीय पर्यवेक्षकों, नियामकों और केंद्रीय बैंकों को अभी तक व्यावहारिक तत्वों द्वारा धारण की गई संपूर्ण क्षमता का एहसास नहीं हुआ है.
अनिवार्य रूप से, उपभोक्ता संरक्षण नियमनों से लेकर वित्तीय संस्थानों को शासित करने वाले नियमों तक, ये नियमन विभिन्न तरीक़ों से उपभोक्ता निर्णय प्रक्रिया और उपभोग से जुड़े रुझानों को प्रभावित कर सकते हैं. प्लेटफॉर्म व्यवसायों के विकास के साथ आगे और मुद्दे उभरकर सामने आते हैं, जो ग़ैर-पारंपरिक भागीदारों के साथ सहयोग की छूट देते हैं. साथ ही विभिन्न श्रेणियों के ग्राहकों (यानी बचतकर्ताओं और निवेशकों या कर्ज़दाताओं और उधारकर्ताओं) को एक साथ लाते हैं. इस तरह उपयोगकर्ताओं के विशाल और मापनीय (scalable) नेटवर्क तैयार होते हैं, जो नियामक निरीक्षण के लिए चुनौती पैदा करते हैं.
भारतीय संदर्भ में, जनसांख्यिकी (demographics) ने अतिरिक्त रूप से उपभोक्ता वित्तीय व्यवहार को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भारत की आबादी 1.4 अरब से ज़्यादा है और देश का उपभोक्ता आधार बड़ा और विविधताओं भरा है. युवा उपभोक्ताओं द्वारा डिजिटल भुगतान के तौर-तरीके अपनाए जाने की अधिक संभावना होती है, जबकि बुज़ुर्ग उपभोक्ता बैंकिंग के पारंपरिक तौर-तरीकों के साथ अधिक सहज हो सकते हैं. इसके अतिरिक्त, भारत में एक बड़ी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जिसकी औपचारिक बैंकिंग सेवाओं तक सीमित पहुंच हो सकती है. तेज़ी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था वित्तीय उत्पादों और सेवाओं के साथ-साथ ई-कॉमर्स तक पहुंच के मामले में देश की विशाल और नौजवान आबादी के लिए भारी-भरकम अवसर पैदा कर रही है. फिनटेक, बिग डेटा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग तेज़ गति वाली इसी अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं. संयोग से भारत में फिनटेक अपनाए जाने की दर 87 प्रतिशत है, जो विश्व में सबसे ज़्यादा है. ये आंकड़ा वैश्विक औसत दर 64 प्रतिशत से काफ़ी अधिक है. हाल के वर्षों में लोगों द्वारा वित्तीय सेवाओं और उत्पादों के उपभोग के तौर-तरीक़ों में नाटकीय बदलाव आया है. ख़ासतौर से भारत की युवा आबादी में इस सिलसिले में भारी परिवर्तन देखा गया है.
स्मार्टफोन और इंटरनेट तक पहुंच के प्रसार ने उपभोक्ता व्यवहार में एक बड़े बदलाव को संभव कर दिया है. टेक्नोलॉजी, आसान निवेशों और विकल्पों की सुविधा प्रदान करती है, हालांकि ये विकल्प जानकारियों से लैस हो पाते हैं या नहीं, ये बिलकुल अलग मसला बन जाता है. उदाहरण के लिए, तकनीकी रूप से कुशल भारतीय युवा, बीमा पॉलिसी का चुनाव कैसे करता है? क्या वो स्वतंत्र शोध की दिशा में आगे बढ़ते हैं या सर्च इंजन द्वारा प्रस्तुत विज्ञापनों से प्रभावित हो जाते हैं? इस मामले में क्या वे प्रीमियमों, कवरेज, दावा निपटान में आसानी आदि का मूल्यांकन करने की बजाए चकाचौंध भरे वादों से आकर्षित हो जाते हैं?
भारत ने हाल के वर्षों में ज़बरदस्त वृद्धि देखी है. महामारी के दौरान भी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में उम्मीद से ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से बढ़त दर्ज की गई. देश के युवा और तेज़ी से समृद्ध हो रही आबादी इस वृद्धि को काफी हद तक हवा दे रही है.
भारत ने हाल के वर्षों में ज़बरदस्त वृद्धि देखी है. महामारी के दौरान भी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में उम्मीद से ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से बढ़त दर्ज की गई. देश के युवा और तेज़ी से समृद्ध हो रही आबादी इस वृद्धि को काफी हद तक हवा दे रही है. ज़्यादा से ज़्यादा भारतीय युवा, कार्यबल (workforce) में प्रवेश कर रहे हैं और व्यय-योग्य आय (disposable income) तक पहुंच हासिल कर रहे हैं. हालांकि, यह वृद्धि अपने साथ चुनौतियां भी लाती है, जिसमें वित्तीय बाज़ारों की स्थिरता सुनिश्चित करने की ज़रूरत भी शामिल है. साथ ही उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी और अपराधों से बचाने की ज़िम्मेदारी भी होती है. इस परिदृश्य में एक केंद्रीय मसला वित्तीय विनियमन का है, जो भारत की वित्तीय प्रणाली की स्थिरता की रक्षा करते हुए उपभोक्ता व्यवहार और विकल्पों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. वित्तीय नियमनों का उद्देश्य उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी से बचाना, निष्पक्ष और पारदर्शी वित्तीय लेनदेन सुनिश्चित करना और वित्तीय प्रणाली की स्थिरता को बढ़ावा देना है. वित्तीय क्षेत्र के विभिन्न उत्पादों की देखरेख करने वाली विभिन्न नियामक संस्थाओं को फिनटेक के ज़रिए लालच देकर धोखाधड़ी किए जाने की वारदातों की रोकथाम के प्रति सजग और तत्पर रहने की आवश्यकता है. इन संस्थाओं में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI), भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI), और बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (IRDA) शामिल हैं.
सवाल है कि वित्तीय नियमन किस प्रकार मददगार साबित होते हैं? शुरुआत के तौर पर, नियमन, वित्तीय उत्पादों की उपलब्धता और ऋण की लागत को प्रभावित कर सकते हैं. इसके अलावा विभिन्न प्रकार के वित्तीय लेन-देन से जुड़े जोख़िम के स्तर पर भी विनियम असर डाल सकते हैं, जिससे उपभोक्ता की निर्णय प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है. भारत में हाल में किए गए नियामक परिवर्तनों से उपभोक्ता के वित्तीय व्यवहार पर अहम प्रभाव पड़ा है. मिसाल के तौर पर क्रेडिट कार्ड कंपनियों को नियंत्रित करने वाले नियम, कर्ज़दारों को शिकार बनाने और उपभोक्ताओं को लूटने वाले तौर-तरीक़ों की रोकथाम में मदद कर सकते हैं. साथ ही ये सुनिश्चित भी कर सकते हैं कि बेईमान ऋणदाता, उपभोक्ताओं का फ़ायदा ना उठा सकें. मिसाल के तौर पर बढ़ाई गई ब्याज़ दरों का ऋण तक पहुंच और उपयोग से जुड़ी क़वायद पर असर हो सकता है. इसी प्रकार निवेश इकाइयों को शासित करने वाले नियम ये सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि उपभोक्ता धोखाधड़ी वाली निवेश योजनाओं या अन्य भ्रामक तौर-तरीक़ों से गुमराह न हों. उदाहरण के रूप में नियामक संस्थाएं अपने बाज़ारों में BNPL ऋण के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर चिंतित हो सकती हैं. दरअसल इससे कोई समाज उपभोग की जीवन शैली के स्रोत के रूप में ऋण पर निर्भरता के साथ आगे बढ़ने का आदी बन सकता है. इससे एक बाज़ार के तौर पर व्यापक ऋणग्रस्तता (indebtness) का जोख़िम खड़ा हो सकता है.
इसके साथ-साथ वित्तीय नियमनों के अनचाहे परिणाम भी सामने आ सकते हैं. दरअसल वित्तीय संस्थानों की जोख़िम लेने की क्षमता को सीमित करने वाले विनियमों से ऋण देने और निवेश गतिविधि में कमी आ सकती है. इसके नतीजतन आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार सुस्त पड़ सकती है. वित्तीय सेवाएं मुहैया कराने वाली संस्थाओं का मुख्य व्यवसाय है जोख़िम का मूल्य निर्धारण करना. इसी प्रकार, उपभोक्ताओं द्वारा उधार लेने की क़वायद पर सख्त सीमाएं लगाने वाले विनियमों से ऋण तक पहुंच सीमित हो सकती है. इससे व्यक्तियों और कारोबारों के लिए उस पूंजी तक पहुंच बनाना कठिन हो जाएगा जिसकी उन्हें आगे बढ़ने और सफल होने के लिए दरकार है. इस सिलसिले में हम इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर के लिए बैंकों द्वारा ली जाने वाली फीस को सीमित करने के RBI के फ़ैसले की मिसाल ले सकते हैं. नियामक मोर्चे पर किए गए इस बदलाव ने उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित किया है. इससे बैंकों और भुगतान सेवा प्रदाताओं के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है, जिसके नतीजतन उपभोक्ताओं के लिए लेन-देन शुल्क कम हो गया है. इस बदले हालात ने कई उपभोक्ताओं को नक़द लेन-देन से हटकर डिजिटल भुगतान के तौर-तरीक़े अपनाने को प्रोत्साहित किया है.
वित्तीय समावेशन और वित्तीय साक्षरता साथ-साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं. भारत में प्रधानमंत्री जन धन योजना जैसे वित्तीय समावेशन कार्यक्रम के विस्तार के साथ इसकी प्रासंगिकता जुड़ी है. ये पहल निम्न आय वाले व्यक्तियों और परिवारों को लक्षित करती है. उपभोक्ताओं के बीच ज़िम्मेदार वित्तीय व्यवहार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हाल के वर्षों में कई नियामक परिवर्तन हुए हैं. उदाहरण के तौर पर RBI के कुछ नियमों के तहत बैंकों को ख़राब ऋणों और अन्य नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स की रिपोर्ट अधिक पारदर्शी तरीक़े से सामने रखने की आवश्यकता होती है. कर्ज़ बांटने में धोखाधड़ी वाले तौर-तरीक़ों के जोख़िम को कम करने के लिए इस तरह के उपाय किए गए हैं. इसी प्रकार पिछले कुछ वर्षों में वित्तीय साक्षरता को भी काफ़ी बढ़ावा दिया गया है.
उपभोक्ता विज्ञापनों में निवेशकों को सावधान करने वाले संदेश लिखे होते हैं, भले ही उनका प्रभाव सीमित रहा हो. उपभोक्ताओं का बचाव करने के मक़सद से तैयार विनियमों ने ग्राहकों का विश्वास बढ़ाया है और उन्हें वित्तीय उत्पादों और सेवाओं से जुड़ने को लेकर प्रोत्साहित किया है. इन नियमों में बैंकों के लिए उचित ऋण प्रथा संहिता और बैंकिंग लोकपाल योजना शामिल हैं. इसके अलावा नियामक वातावरण, वित्तीय क्षेत्र में नवाचार को भी आगे बढ़ा रहा है. रेगुलेटरी सैंडबॉक्स फ्रेमवर्क जैसी नीतियों के शुरुआत के साथ ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं. इस पहल ने फिनटेक कंपनियों को बैंकिंग, बीमा, परिसंपत्ति प्रबंधन और बाज़ार मध्यस्थों आदि में नियंत्रित वातावरण में नए उत्पादों और सेवाओं का परीक्षण करने में सक्षम बनाया है. इससे किसी उत्पाद को बाज़ार में लॉन्च किए जाने से पहले उससे जुड़े संभावित मसलों और जोख़िमों की पहचान करने में मदद मिल सकती है. इसके अलावा वित्तीय क्षेत्र में नवाचार को प्रोत्साहित करने वाले विनियम (जैसे नियामक सैंडबॉक्स की शुरुआत ) उपभोक्ताओं के लिए नवाचार भरे वित्तीय उत्पादों और सेवाओं तक पहुंचने के नए अवसर पैदा कर सकते हैं. इससे उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव आ सकता है और ग्राहकों द्वारा नई तकनीकों और सेवाओं को अपनाने की अधिक संभावना बन सकती है.
इसके बावजूद, उपभोक्ता व्यवहार को विनियमित करने की क़वायद में चुनौतियां भी हैं. उदाहरण के तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र और ग़ैर-बैंक वित्तीय मध्यस्थों (जैसे माइक्रोफाइनेंस संस्थानों) को विनियमित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. एक और बात, भले ही विनियम, वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन उनके अनचाहे परिणाम (मसलन, बाज़ार में प्रतिस्पर्धा और नवाचार को सीमित करना) भी हो सकते हैं. हालांकि इस दिशा में कई चुनौतियां हैं, जिन पर क़ाबू पाए जाने की दरकार है. इसमें क्रियान्वयन के बेहतर तंत्र की आवश्यकता और उभरती टेक्नोलॉजियों का अधिक प्रभावी विनियमन शामिल है. बहरहाल, भारत की विशाल और नौजवान आबादी द्वारा प्रस्तुत अवसर बेहद अहम हैं.
वित्तीय उत्पादों के इर्द-गिर्द उपभोक्ता व्यवहार कई अन्य कारकों से भी आकार लेता है, जो नियमनों के दायरे से परे हैं. उदाहरण के लिए, ऋण और बचत से जुड़े सामाजिक मानक, व्यक्तियों के वित्तीय निर्णय लेने के तौर-तरीक़ों पर असर डाल सकते हैं.
अंत में, ये ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित करने की दिशा में वित्तीय नियमन ही एकमात्र कारक नहीं हैं. वित्तीय उत्पादों के इर्द-गिर्द उपभोक्ता व्यवहार कई अन्य कारकों से भी आकार लेता है, जो नियमनों के दायरे से परे हैं. उदाहरण के लिए, ऋण और बचत से जुड़े सामाजिक मानक, व्यक्तियों के वित्तीय निर्णय लेने के तौर-तरीक़ों पर असर डाल सकते हैं. उनकी वित्तीय साक्षरता और आत्मविश्वास का स्तर भी इस प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है. आर्थिक परिस्थितियां (जैसे मुद्रास्फीति और बेरोज़गारी) भी उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित कर सकती हैं. इसी प्रकार टेक्नोलॉजी या बाज़ार के रुझानों में आने वाले बदलावों का भी असर हो सकता है.
कुल मिलाकर वित्तीय विनियमों और व्यवहार के बीच के संबंध जटिल और बहुआयामी हैं. ऐसे में एक ऐसे संतुलित और लचीले नियामक वातावरण की आवश्यकता है, जो उपभोक्ताओं की बदलती ज़रूरतों को समायोजित करते हुए उनके हितों की रक्षा कर सके. इसके लिए नीति निर्माताओं, नियामकों और वित्तीय उद्योग के बीच एक सहयोगात्मक क़वायद की दरकार है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी नियम प्रभावी और आनुपातिक हों. विनियम का लचीला, आनुपातिक और प्रभावी होना बेहद अहम है. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि ये तमाम विनियम नवाचार को बाधित नहीं करें और ना ही बाज़ार में प्रतिस्पर्धा को सीमित करें. इसके साथ ही सामाजिक आचरण को लंबे समय तक सुरक्षित बनाए रखना भी निहायत ज़रूरी है.
श्रीनाथ श्रीधरन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विजिटिंग फेलो हैं
दक्षिता दास इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंसिंग, सार्वजनिक वित्त और वित्तीय क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और वर्तमान में जेंडर बजटिंग पर एक सरकारी समिति की प्रमुख हैं.
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