Author : Vikas Kathuria

Published on Aug 03, 2021 Updated 23 Days ago

सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं और घर से बाहर निकलने पर लगी पाबंदियों के चलते लॉकडाउन में डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म पर यूनिक विज़िटर्स की तादाद दोगुनी हो गई.

भारत में डिजिटल मीडिया को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों से कैसे बचाया जाये? क्या है ऑस्ट्रेलियाई तरीका..

मीडिया को परेशान करने वाली बीमारी

डिजिटल बाज़ारों ने उस वैल्यू चेन को बदल डाला है जिसके ज़रिए वस्तु और सेवाएं उपभोक्ताओं तक पहुंचती हैं. हालांकि मोटे तौर पर ये बदलाव उपयोगकर्ताओं के लिए सुखद रहे हैं.बहरहाल उत्पादकों और वितरकों के बीच प्रोत्साहनों का नए सिरे से समायोजन सार्वजनिक नीति के लिए चिंता का सबब रहा है. प्रोत्साहनों के असमान वितरण को रेखांकित करने वाला एक उदाहरण डिजिटल न्यूज़ उद्योग से है.ये उद्योग वित्तीय दबावों में अपनी व्यावहारिकता सुनिश्चित करने के लिए जद्दोजहद कर रहा है. 

ज़्यादातर पाठक ख़बरें पढ़ने के लिए इंटरनेट खंगालते हैं. समाचार उद्योग के डिजिटलाइज़ेशन से यही मायने निकलते हैं. इस तथ्य ने दो प्रवृतियों को सबके सामने ला खड़ा किया है. पहला, ज़्यादातर यूज़र्स समाचारों के लिए ऑनलाइन माध्यमों का रुख़ कर रहे हैं. ख़ासतौर से कोविड-19 महामारी के बाद ऐसा ही देखा जा रहा है. सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं और घर से बाहर निकलने पर लगी पाबंदियों के चलते लॉकडाउन में डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म पर यूनिक विज़िटर्स की तादाद दोगुनी हो गई. विशेषज्ञों का मानना है कि महामारी का असर कम होने के बावजूद इसका 50-60 प्रतिशत हिस्सा या असर आगे भी यूं ही बरकरार रहेगा. दूसरा, कई ऑनलाइन यूज़र्स गूगल, फ़ेसबुक या व्हॉट्सऐप जैसे डिजिटल प्लैटफ़ॉर्मों के ज़रिए समाचार और ख़बरिया जानकारी हासिल करते हैं. पहले कारक की वजह से परंपरागत प्रिंट मीडिया को अधिक से अधिक ऑनलाइन माध्यमों की ओर रुख़ करना पड़ा है. दूसरा कारक अभी नया-नया है. इसने पत्रकारिता के मुख्य रूप से विज्ञापन-संचालित राजस्व प्रणाली को ख़तरे में डाल दिया है. डिजिटल माध्यमों पर ख़बरें ढूंढने के बाद ज़्यादातर पाठक हाइपरलिंक पर क्लिक कर प्रकाशक के वेबपेज तक जाने की ज़हमत नहीं उठाते. ऐसे पाठक उन प्लैटफ़ॉर्मों पर उपलब्ध ‘प्रीव्यू’ से ही संतुष्ट हो जाते हैं. लिहाज़ा उन्हें प्रकाशक के पेज तक पहुंचने के लिए लिंक पर क्लिक करने की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती. इसके नतीजे के तौर पर डिजिटल माध्यमों को विज्ञापनों का प्रदर्शन कर कमाई करने का मौका मिल जाता है.  

कई ऑनलाइन यूज़र्स गूगल, फ़ेसबुक या व्हॉट्सऐप जैसे डिजिटल प्लैटफ़ॉर्मों के ज़रिए समाचार और ख़बरिया जानकारी हासिल करते हैं. पहले कारक की वजह से परंपरागत प्रिंट मीडिया को अधिक से अधिक ऑनलाइन माध्यमों की ओर रुख़ करना पड़ा है. दूसरा कारक अभी नया-नया है.

कैनबरा विश्वविद्यालय के न्यूज़ एंड मीडिया रिसर्च सेंटर ने एक सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण में शामिल 62 प्रतिशत लोगों ने ऑनलाइन ज़रिए से ख़बरें हासिल करने के लिए सोशल मीडिया, न्यूज़ एग्रीगेटर्स, ईमेल न्यूज़लेटर्स और मोबाइल अलर्ट जैसे अप्रत्यक्ष उपायों का सहारा लिया.[1] भारत में सिर्फ़ 18 प्रतिशत यूज़र्स ही ऐसे हैं जो ऑनलाइन समाचार हासिल करने के लिए सीधे प्रकाशकों के वेबपेज का रुख़ करते हैं. ख़बरें हासिल करने के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल में आने वाले माध्यम फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप हैं. सर्वेक्षण में शामिल 75 फ़ीसदी प्रतिभागी फ़ेसबुक और 82 प्रतिशत व्हाट्सऐप का इस्तेमाल कर रहे थे.[2]   

राज्यसत्ता के दख़ल देने का वक़्त 

आमतौर पर राज्यसत्ता बाज़ार में तभी दख़ल देती हैं जब या तो बाज़ार ठीक ढंग से काम करने में नाकाम साबित हो रहे हों या फिर धन का नए सिरे से वितरण करने की ज़रूरत आ पड़ी हो. यक़ीनन मौजूदा सूचना क्रांति वाले युग में सेवा प्रदाताओं (डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म्स) और समाचार प्रकाशकों के बीच धन के वितरण में मुफ़्तख़ोरी के स्वरूप में बाज़ार की नाकामी का कोई उत्प्रेरक मौजूद नहीं है. इसकी बजाए इन दोनों में सहजीवी रिश्ता है. जहां एक ओर डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म्स उपयोगकर्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए समाचार सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं, वहीं दूसरी ओर समाचार प्रकाशकों (ख़ासतौर से छोटे आकार वाले) को इन प्लैटफ़ॉर्म्स के ज़रिए इंटरनेट पर परोक्ष ट्रैफ़िक हासिल होता है. हालांकि, ये बात भी सच है कि इन दोनों के रिश्तों में डिजिटल माध्यमों का पलड़ा भारी होता है. विज्ञापन से हुई कमाई में उन्हें मोटा हिस्सा हासिल होता है. 

एक स्वस्थ लोकतंत्र और सेहतमंद मानव समाज के लिए पत्रकारिता का क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है. लिहाज़ा पत्रकारिता के वित्तीय रूप से टिकाऊ न रहने की स्थिति में राज्यसत्ता मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकती. इसी पृष्ठभूमि में राज्यसत्ता द्वारा दख़ल दिए जाने को जायज़ ठहराया जाता है. एक स्वस्थ समाज के संरक्षण और पोषण के नेक मकसद से उसमें स्वस्थ और विविध स्वरूप वाले मीडिया क्षेत्र की मौजूदगी सुनिश्चित करना ज़रूरी समझा गया है.

अतीत में क्या प्रयास किए गए हैं

डिजिटल पत्रकारिता को सहारा देने के लिए नीतिगत स्तर पर कई उपायों पर विचार किया गया. इस दिशा में यूरोपीय संघ ने एक ठोस क़दम उठाया था. ईयू ने प्रेस प्रकाशनों में ‘फुटकर समाचारों’ समेत एक नए ‘नेबरिंग राइट’ का प्रावधान किया. इसके ज़रिए उम्मीद की गई थी कि डिजिटल माध्यमों द्वारा समाचारों का इस्तेमाल किए जाने पर प्रकाशकों को भी अपने आईपी-संरक्षित सामग्रियों के बदले कमाई करने का मौका मिल जाएगा. ‘फुटकर समाचार’ में प्रकाशकों के हाइपरलिंक्ड वेबपेज से लिए गए लेखों के संक्षिप्त अंश, तस्वीरें, इंफ़ोग्राफिक्स और वीडियो शामिल होते हैं. ईयू से पहले जर्मनी ने इसी तरह का क़दम उठाया था. 

एक स्वस्थ लोकतंत्र और सेहतमंद मानव समाज के लिए पत्रकारिता का क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है. लिहाज़ा पत्रकारिता के वित्तीय रूप से टिकाऊ न रहने की स्थिति में राज्यसत्ता मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकती. इसी पृष्ठभूमि में राज्यसत्ता द्वारा दख़ल दिए जाने को जायज़ ठहराया जाता है.

दरअसल दोनों ही मामलों में मूल विचार यही था कि ‘फुटकर समाचारों’ के रूप में एक नई तरह के संपदा अधिकारों को मान्यता देकर डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म्स को सामग्रियों की लाइसेंसिंग प्राप्त करने के अधिकार दिए जाएं. आम तौर पर बौद्धिक संपदा कानून में ‘फुटकर समाचारों’ के लिए किसी तरह के संपदा अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती है. बहरहाल नेक-नीयत से बनाया गया ये कानून काफ़ी हद तक बेअसर साबित हुआ. इस कानून के रास्ते में आई अड़चनों का ब्योरा नीचे दिया गया है.

दिलचस्प तौर पर यूरोपीय संघ के कई सदस्य देशों में गूगल ने मुफ़्त में मुहैया न होने की सूरत में फुटकर समाचारों के इस्तेमाल से साफ़ मना कर दिया. इस अजीब समस्या से घिरे प्रकाशकों ने गूगल पर ऑनलाइन सर्च मार्केट में अपने दबदबे का बेज़ा फ़ायदा उठाने का इल्ज़ाम लगाया. बहरहाल जर्मन बाज़ार में प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने वाली एजेंसी Bundeskartellamt को गूगल की कार्रवाई में कुछ भी ग़लत नज़र नहीं आया. हालांकि इसके विपरीत फ़्रांस के प्रतिस्पर्धा प्राधिकरण Autorité de la concurrence ने गूगल के रवैए को अनुचित करार दिया. निश्चित रूप से फ़्रेंच अथॉरिटी का फ़ैसला प्रतिस्पर्धा क़ानून से जुड़े न्यायशास्त्र पर आधारित न होकर ईयू द्वारा बनाए गए संबंधित क़ानून के उद्देश्यों (प्रोत्साहन का ‘वाजिब’ पुनर्वितरण सुनिश्चित करना) से प्रभावित था.   

Bundeskartellamt और Autorité के परस्पर विरोधी नज़रिए से ईयू की तरक़ीब के प्रभावी होने को लेकर सवाल खड़े होते हैं. ईयू में इसको अमल में लाने का ज़िम्मा प्रतिस्पर्धा क़ानून पर छोड़ दिया गया था.

ऑस्ट्रेलियाई प्रणाली

ऑस्ट्रेलिया ने 25 फ़रवरी 2021 को न्यूज़ मीडिया एंड डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म्स मैंडेटरी बारगेनिंग कोड तैयार किया. आस्ट्रेलियाई न्यूज़ मीडिया कारोबार और व्यक्तिगत तौर पर फ़ेसबुक व गूगल के बीच सौदेबाज़ी या तोल-मोल की क्षमता का असंतुलन ही इस कोड या संहिता के निर्माण के पीछे का प्रमुख उत्प्रेरक था. इस संहिता के तहत समुचित क्षतिपूर्ति तय करने को लेकर अनिवार्य वार्ताओं के लिए अधिकतम 90 दिनों का प्रावधान किया गया है. इसके मुताबिक अगर संबंधित पक्षों में समझौता नहीं होता है तो उन्हें मध्यस्थता के लिए जाना होगा. फ़ेसबुक ने इस अनिवार्य संहिता पर प्रतिक्रिया जताते हुए अपने यूज़र्स द्वारा ख़बरिया जानकारियां देखने और उन्हें साझा करने की सुविधा पर अंकुश लगा दिया है. गूगल ने भी ऐसे ही उपायों की चेतावनी दी है

ऑस्ट्रेलियाई कोड समाचार सामग्रियों द्वारा डिजिटल माध्यमों के लिए तैयार समस्त मूल्य पर आधारित है. इस तरह से ये संहिता फुटकर समाचारों पर नए ‘नेबरिंग’ अधिकार के निर्माण से जुड़े विवादों को टालने में कामयाब रही है. हालांकि इस क़ानून के नेक इरादों के बावजूद इसको अमल में लाने को लेकर कई तरह की मुश्किलें आ खड़ी हुई हैं.  

अब ये बात पूरी तरह से साफ़ हो चुकी है कि डिजिटलाइज़ेशन ने पत्रकारिता के विज्ञापन-संचालित कारोबारी मॉडल पर विपरीत प्रभाव डाला है. न्यूज़ मीडिया सेक्टर का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने और उसे बहुआयामी बनाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए जाने की ज़रूरत को स्वीकार किया गया है.

‘सौदेबाज़ी या तोलमोल करने की क्षमता में असंतुलन’ किसी पक्ष की बाज़ार शक्ति का नतीजा होता है. इस मसले से निपटने के लिए अक्सर प्रतिस्पर्धा क़ानून को अमल में लाया जाता है ताकि किसी भी पक्ष को अपने दबदबे का बेज़ा इस्तेमाल करने से रोका जा सके. यूरोप के अनुभवों से फुटकर समाचारों के मामले में प्रतिस्पर्धा क़ानून के ज़रिए ‘नेबरिंग राइट्स’ को अमल में लाने से जुड़ी दिक्कतें उजागर हुई हैं. 

ऐसा लगता है कि ये संहिता पहले ही गूगल और फ़ेसबुक को वार्ताओं की मेज़ तक ले आई है. पिछले दिनों नाइन एंटरटेनमेंट कंपनी को उसकी समाचार सामग्रियों के इस्तेमाल की एवज में गूगल ने सालाना 3 करोड़ अमेरिकी डॉलर से भी अधिक का भुगतान करने पर हामी भरी थी.

संहिता की प्रमुख विशेषताएं

  • ये रजिस्टर्ड न्यूज़ बिज़नेस कॉरपोरेशंस और अधिकृत डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म कॉरपोरेशंस के लिए समाचार सामग्री के इस्तेमाल और रिप्रोडक्शन को लेकर वित्तीय मेहनताना तय करने के लिए विश्वसनीय तरीके से सौदेबाज़ी करने से जुड़े ढांचे का निर्माण करता है.
  • मध्यस्थता के दायरे से बाहर वाणिज्यिक सौदा होने की स्थिति में संबंधित पक्षों के लिए मध्यस्थता से जुड़ी ज़रूरतों, सौदेबाज़ियों और अनिवार्य मध्यस्थता नियमों का पालन करने की ज़रूरत नहीं होती. 
  • अधिकृत डिजिटल मीडिया कॉरपोरेशंस के लिए रजिस्टर्ड न्यूज़ बिज़नेस कॉरपोरेशंस को कई तरह की सूचनाएं पहुंचाना अनिवार्य कर दिया गया है. मिसाल के तौर पर एलगोरिथम में योजनाबद्ध तरीके से किए जाने वाले बदलावों के बारे में एडवांस नोटिफ़िकेशन जारी करना ज़रूरी होगा. रेफ़रल ट्रैफ़िक पर इन बदलावों से बड़ा प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है, लिहाज़ा ये नियम बनाया गया है. कवर की गई समाचार सामग्रियों से जुड़े विज्ञापनों पर भी इसके संभावित असर को देखते हुए इस बारे में अग्रिम सूचना देना आवश्यक बना दिया गया है.    
  • अगर कभी संबंधित पक्ष मेहनताने को लेकर किसी सौदे या समझौते तक पहुंचने में नाकाम रहते हैं तो एक मध्स्थता पैनल सौदेबाज़ी में शामिल पक्षों द्वारा प्रस्तुत आख़िरी दो प्रस्तावों में से ही अंतिम चयन करेगा. 
  • ज़िम्मेदार डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म कॉरपोरेशंस संहिता में भागीदारी करने या न करने को लेकर उभरने वाले मामलों में कोड में हिस्सा लेने वाले न्यूज़ बिज़नेसों यानी प्रतिभागियों या ग़ैर-प्रतिभागियों के बीच कतई भेदभाव नहीं करेंगे.
  • डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म कॉरपोरेशंस समाचार कारोबारियों (ख़ासतौर से छोटे समाचार कारोबारों) के लिए सौदेबाज़ियों से जुड़े लागत और लगने वाले वक़्त को कम करने के लिए आदर्श प्रस्ताव भेज सकते हैं. 

दूसरे न्यायक्षेत्रों के लिए सबक

अब ये बात पूरी तरह से साफ़ हो चुकी है कि डिजिटलाइज़ेशन ने पत्रकारिता के विज्ञापन-संचालित कारोबारी मॉडल पर विपरीत प्रभाव डाला है. न्यूज़ मीडिया सेक्टर का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने और उसे बहुआयामी बनाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए जाने की ज़रूरत को स्वीकार किया गया है. हालांकि, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नीतिगत स्तर पर समुचित उपाय अपनाने में मदद की तौर पर अतीत से कुछ ख़ास उदाहरण नहीं मिलते. इस लेख ने दो वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किए हैं. पहला ईयू और दूसरे हलकों से जबकि दूसरा ऑस्ट्रेलिया से, जो कि अभी नया और ताज़ा है. वैसे तो इन दोनों ही उपायों का मकसद पुनर्वितरण सुनिश्चित करना है, लेकिन ईयू का मॉडल कई ख़ामियों का शिकार है. दोनों मॉडलों के इस तुलनात्मक अध्ययन से भारत जैसे दूसरे न्यायक्षेत्र निम्नलिखित सबक ले सकते हैं. 

  • सार्वजनिक नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी ख़ास क़ानून को अमल में लाने का विचार पेचीदा है. इसके साथ न्यायशास्त्र से जुड़ी सीमाएं भी लागू होती हैं. इससे नई समस्याएं आ खड़ी हो सकती हैं. इस नज़रिए से ऑस्ट्रेलिया का कोड ईयू के मॉडल से बेहतर है. ऑस्ट्रेलियाई संहिता के प्रभावी होने की तस्दीक इसी बात से होती है कि इसने डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म्स को सौदेबाज़ी की मेज़ पर ला खड़ा किया है. 
  • ऑस्ट्रेलियाई संहिता में संभावित ख़ामियों को आगे चलकर सुधारा जा सकता है.
  • भारत जैसे विकासशील देश में विज्ञापन प्रोत्साहनों का समान वितरण सुनिश्चित करना और भी अहम हो जाता है. इसकी वजह ये है कि विकासशील देशों में कई यूज़र्स पेड सब्सक्रिप्शन का चयन करने की स्थिति में नहीं होते. विज्ञापन राजस्व के विकल्प के तौर पर यूज़र्स द्वारा समाचार के बदले भुगतान करने की व्यवस्था (पे-वॉलिंग) होती है. साफ़ है कि विकासशील देशों में ऐसी व्यवस्था समस्या का आधा-अधूरा समाधान ही पेश करती है. दुर्भाग्यवश भारत में टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिंदू और दैनिक जागरण ने अपनी सामग्रियों को पहले से ही पे-वॉल की चारदीवारी में डाल रखा है. लिहाज़ा भारत को सूझबूझ के साथ आगे बढ़ते हुए ऑस्ट्रेलियाई मॉडल का पालन करना चाहिए. 


[1] Page 207. https://www.accc.gov.au/system/files/Digital%20platforms%20inquiry%20-%20final%20report.pdf

[2] https://reutersinstitute.politics.ox.ac.uk/sites/default/files/2019-03/India_DNR_FINAL.pdf

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