Author : Naghma Sahar

Published on Sep 28, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत के लिए हाल के वर्षों में मालदीव की सामरिक अहमियत और बढ़ी है। एक तो चीन का बढ़ता दबदबा, दुसरे मालदीव में कट्टरपंथ का फैलाव।

मालदीव से भारत कितना दूर, चीन कितने पास — क्या सोलीह बनेगा भारत की उम्मीद?

मालदीव में अब्दुल्लाह यमीन की हार और विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार इब्राहीम मोहम्मद सोलीह की जीत ज़्यादातर लोगों के लिए हैरानी भरा नतीजा था। माना जा रहा था कि इन चुनावों में अब्दुल्लाह यामीन की जीत होगी जिन्हों ने इसी साल फरवरी में देश में आपातकाल लगाया था भारत की चिंता बढ़ने के लिए ये काफी था क्यूंकि यमीन ने अपने पांच सालों के दौरान चीन से सम्बन्ध भारत की कीमत पर घनिष्ठ किये थे। इब्राहीम मोहम्मद सोलीह मालदीव में भारत के लिए उम्मीद बन कर आये हैं। क्या इस मौके का फायदा भारत उठा पायेगा?

भारत से दूर होता गया मालदीव

भारत पिछले कुछ सालों से मालदीव से दूर होता गया। इसकी वजह ये रही कि अब्दुल्ला यामीन को चीन की सरकार ज्यादा रास आई और उन्हों ने भारत के साथ बेरुखी दिखाई। मार्च 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मालदीव का दौरा रद्द कर दिया था। कहा गया कि मोदी मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद को निर्वासित करने को लेकर नाराज़ थे। नशीद को भारत समर्थक राष्ट्रपति कहा जाता था।

भारत ने मालदीव को इस साल मिलान में आठ दिवसीय सैन्य अभ्यास में शामिल होने का आमंत्रण दिया था, लेकिन मालदीव ने इनकार कर दिया था।

मालदीव में कानूनी तरीके से काम कर रहे भारतियों के वीजा को दोबारा नया करने से भी यामीन सरकार ने इंकार कर दिया और अपने इस रवैय्ये के लिए कोई तर्क नहीं दिया।

मार्च 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मालदीव का दौरा रद्द कर दिया था। कहा गया कि मोदी मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद को निर्वासित करने को लेकर नाराज़ थे।

2012 में भारतीय कंपनी GMR का एअरपोर्ट बनाने का कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर दिया गया और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के 2015 दौरे पर इसे चीन को दे दिया गया। हालाँकि यामीन भारत को ये कह कर आश्वासन दिलाते रहे हैं कि मालदीव भारत को प्राथमिकता देने की नीति पर चलता है, लेकिन चीन की कहानी में नया अध्याय FTA पर हुए हस्ताक्षर के साथ जोड़ा गया जो मालदीव की संसद ने जल्दी में पास किया।

एक तरफ भारत से दूरी बढ़ रही थी दूसरी तरफ बढ़ रही थी मालदीव में चीन की मौजूदगी। भारत की फ़िक्र तब और बढ़ी जब मालदीव में कई परियोजनाओं में चीन के पैसे लगने लगे।

मालदीव में चीन

मालदीव और चीन के बीच कई समझौते हुए। चीन ने यहाँ भरी निवेश किया, जिसमें माले का एअरपोर्ट भी शामिल है। चीन मालदीव में 25 मंजिला अपार्टमेंट और हॉस्पिटल भी बना रहा है। यामीन के शासन काल में मालदीव ने चीन को कई ऐसे द्वीप लीज़ पर दिए हैं जो चीन की स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल रणनीति के तहत भारत के चारों ओर घेरा बना कर यहाँ भारत के प्रभुत्व को कम करता है। मालदीव में चीन के निवेश के अलावा वो मालदीव की सबसे बड़ी उद्योग पर्यटन का भी बड़ा हिस्सा है। साउथ चाइन मॉर्निंग पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल तीन लाख 6,000 चीनी पर्यटक मालदीव गए जो कुल पर्यटकों का 21 फ़ीसदी है।

चीन के महत्वकांक्षी बेल्ट और रोड पहल के लिए मालदीव एक महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति में है। चीन अपने इस प्रोजेक्ट के ज़रिये अपने कारोबार का जाल एशिया से लेकर यूरोप और अफ्रीका में फैलाना चाहता है।

राष्ट्रपति यामीन के दौर में दोनो देशों ने जो विकास के नाम पर जो समझौते किये हैं उस से मालदीव जैसे छोटे देश पर चीन का भीमकाय क़र्ज़ पहले ही लद चुका है, 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर, जो समाचार एजेंसी रोय्टर के मुताबिक मालदीव के सकल घरेलू उत्पाद के एक चौथाई से भी ज्यादा है।

चीन के महत्वकांक्षी बेल्ट और रोड पहल के लिए मालदीव एक महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति में है। चीन अपने इस प्रोजेक्ट के ज़रिये अपने कारोबार का जाल एशिया से लेकर यूरोप और अफ्रीका में फैलाना चाहता है।

मालदीव का भारत और चीन के लिए सामरिक महत्त्व

मालदीव पिछले कुछ सालों में दक्षिण एशिया की दो बड़ी ताक़तों, भारत और चीन की प्रतिद्वंदविता के रणक्षेत्र के तौर पर सामने आया है। हिन्द महासागर में चीन अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र के कई देशों में मौजूदगी बढ़ा रहा है। इसके तहत चीन इन देशों के साथ कारोबार और मूलभूत ढाँचे के विकास में सहयोग कर रहा है। श्रीलंका और नेपाल के साथ साथ मालदीव भी ऐसा ही देश है जहाँ चीन की पकड़ बढ़ी है। इन सभी देशों के साथ पारंपरिक तौर पर भारत के घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं, लेकिन चीन की मौजूदगी ने संतुलन बिगड़ दिया है।

मालदीव दक्षिण एशिया का सबसे छोटा देश है लेकिन हिन्द महासागर में इसकी भौगोलिक स्थिति की वजह से इसका सामरिक महत्त्व काफी है। मालदीव कई अहम् समुद्री मार्गों पर स्थित है। यही मालदीव की परेशानी की भी वजह रहा है क्यूंकि बड़ी वैश्विक शक्तियां यहाँ अपने हित तलाशने लगी हैं। वो उसकी घरेलु राजनीती में हस्तक्षेप कर एक ऐसी सरकार चाहते रहे जो उनके हितों को बढ़ावा दे।

चीन इसे अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट वन रोड में एक अहम रूट के तौर पर देख रहा है। चीन की बढ़ती दिलचस्पी से भारत का असहज होना लाजिमी था। भारत को लगता है कि चीन मालदीव में कोई निर्माण कार्य करता है तो उसके लिए यह सामरिक रूप से झटका होगा।

वैश्विक संबंधों में यह आम राय बन रही है कि जहां-जहां चीन होगा वहां-वहां भारत मज़बूत नहीं रह सकता है। मालदीव से लक्षद्वीप की दूरी महज 1,200 किलोमीटर है। ऐसे में भारत नहीं चाहता है कि चीनी पड़ोसी देशों के ज़रिए और क़रीब पहुंचे।

मालदीव दक्षिण एशिया का सबसे छोटा देश है लेकिन हिन्द महासागर में इसकी भौगोलिक स्थिति की वजह से इसका सामरिक महत्त्व काफी है।

भारत के लिए हाल के वर्षों में मालदीव की सामरिक अहमियत और बढ़ी है। एक तो चीन का बढ़ता दबदबा, दुसरे मालदीव में कट्टरपंथ का फैलाव। कट्टर वहाबी विचारधारा यहाँ मज़बूत हुई है और खबर है कि लश्कर-इ-तैबा और इस्लामिक स्टेट भी अपने बेस यहाँ बना रहे हैं। यहाँ से भी सैकड़ों नौजवान सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने जा रहे हैं। भारत के लिए सुरक्षा की दृष्टि से पड़ोस में कट्टर इस्लाम का तेज़ी से फैलना आंतरिक सुरक्षा के लिए भी चिंता है।

नयी सरकार लेकिन राजनीतिक अस्थिरता का रहा है इतिहास

अब रष्ट्रपति बदलने से क्या देश की व्यवस्था भी बदल जायेगी? ये सवाल इसलिए लाज़मी है क्यूंकि इस देश में राजनीतिक अस्थिरता का इतिहास रहा है। साल 2008 में 30 सालों की तानाशाही के ख़त्म होने के बाद जब लोकतंत्र बहाल हुआ तब से इस देश में लोकतंत्र टक्का सफ़र बड़ी कथिनयिओन से झेला है। सोलीह की जीत उम्मीद जगाती है कि लोकतंत्र का एक नया दौर शुरू होगा।

1965 में आजादी मिलने के बाद 1978 से मोमून अब्दुल गय्यूम 2008 तक राष्ट्रपति रहे और तीन बार उनके तख्तापलट की कोशिश हुई। 2008 में यहां नया संविधान बना और पहली बार राष्ट्रपति के लिए प्रत्यक्ष चुनाव हुए। इस चुनाव में पत्रकार से नेता बने मोहम्मद नशीद की जीत हुई और गयूम सत्ता से बाहर हो गए। मगर 2012 में पुलिस और सेना के एक धड़े में विद्रोह हो गया और दबाव में नशीद को इस्तीफा देना पड़ा। 30 सालों तक मालदीव के राष्ट्रपति रहे मोमून अब्दुल गयूम को भारत का क़रीबी माना जाता था और एक बार उनके तख़्तापलट की कोशिश को नाकाम करने के लिए भारत ने अपनी सेना भी भेजी थी। उनके बाद राष्ट्रपति बने मोहम्मद नशीद अमरीका और ब्रिटेन से क़रीबी रखने के पक्षधर थे मगर जब 2012 में नशीद को हटा कर अब्दुल्लाह यमीन ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया तब से भारत और मालदीव के रिश्ते बिखरने लगे और मालदीव चीन के करीब होता गया।

यमीन के सत्ता से बाहर आने से चीन मालदीव के साथ संबंधों में किसी भी तरह के संकट के लिए खुद को तैयार कर रहा है।

अब यमीन के सत्ता से बाहर आने से चीन मालदीव के साथ संबंधों में किसी भी तरह के संकट के लिए खुद को तैयार कर रहा है। अब तक न सिर्फ यमीन बल्कि भारत के दोस्त कहलाने वाले नशीद ने भी भारत और चीन दोनों को आमने सामने कर अपने फायदे का खेल खेला, जैसा भारत का दूसरा पडोसी और मित्र देश नेपाल भी करता रहा। हालांकि यामीन ने पांच सालों के दौरान चीन से रिश्ते और गाढे किया, पारंपरिक तौर हिन्द महासागर में 26 द्वीपों वाला इस देश के भारत से मज़बूत रिश्ते रहे हैं।

चीन के क़र्ज़ का फैलता जाल, क्या इस से निकल पायेगी नयी सरकार

मालदीव के निर्वासित पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने जनवरी में कहा था कि मालदीव के कुल विदेशी क़र्ज़ में चीन का हिस्सा 80 फ़ीसदी है। विपक्ष चुनाव के समय से ही ये कह रहा है कि बीजिंग द्वारा फण्ड किये हुए प्रोजेक्ट मालदीव के लिए क़र्ज़ का ऐसा जाल हैं जिसमें वो उलझता जा रहा है। ये राष्ट्रपति यामीन के दौर में हुए भ्रष्टाचार की पहचान भी है। अब इन प्रोजेक्ट्स का भविष्य क्या होगा ये सवाल है। राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद सोलीह के 58 फीसदी से ज्यादा वोटों से जीत के बाद माले और बीजिंग के रिश्ते में बदलाव तो ज़रूर आयेगा लेकिन माले फैसले लेने के लिए कितना आज़ाद होगा ये एक सवाल है। पूर्व राष्ट्रपति नशीद ने चुनाव नतीजे के बाद कहा है कि बीजिंग समर्थक यामीन की हार के बाद देश चीन के साथ हुई डील के बारे में दुबारा विचार करेगा और साथ ही भारत के साथ अपने रिश्तों को दुरुस्त करेगा। चीन ने नशीद के इस बयान पर नाराज़गी जताते हुए इसे गैर जिम्मेदाराना बयान बताया है। साथ ही कहा है कि बीजिंग मालदीव की जनता के फैसले का स्वागत करता है और साथ ही चुने गए राष्ट्रपति सोलीह को मुबारकबाद भी दी। चीन का ये रुख अब नई सरकार के साथ मेल मिलाप की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है। चीन ने उम्मीद जताई है कि नई सरकार व्यापार के लिए एक उपयुक्त माहौल बनाएगी और पिछली सरकार में शुरू की गयी नीतियां जारी रखेगी।

वैसे मालदीव चीन के प्रोजेक्ट्स का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि उसमें चीन के कितने पैसे लगे हैं। मालदीव के सामने श्रीलंका का उदहारण है। राजपक्से के शासन काल में श्री लंका के हम्बंतोता बंदरगाह के लिए मदद पर जहाँ भारत ने कई बार इंकार किया, चीन ने हर बार हामी भरी और आख़िरकार श्रीलंका का ये बंदरगाह जब तैयार हुआ तो श्री लंका इस स्थति में नहीं था की चीन का क़र्ज़ चुका सके। 2012 में यहाँ से सिर्फ ३४ जहाज़ गुज़रे। इस हालत में पिछले साल श्री लंका को हम्बंतोता बंदरगाह और आस पास की 15,000 एकड़ ज़मीन 99 साल के लिए चीन को सौंपनी पड़ी। हम्बंतोता पर क़ब्ज़ा चीन को प्रतिद्वंदी भारत से सिर्फ कुछ सौ मील की दूरी पर ले आया साथ ही एक महत्त्वपूर्ण जलमार्ग पर चीनी क़ब्ज़ा स्थापित हो गया। यानी बीजिंग की तरफ झुकाव रखने वाली सरकार को हटा कर भी श्री लंका को हम्बंतोता को चीन के हवाले करना पड़ा। कई विश्लेषकों का मानना है कि श्रीलंका में 2015 में सरकार बदली, लेकिन चीन का प्रभाव कम नहीं हुआ। ऐसे में मालदीव में सरकार बदलने से चीन बेदख़ल हो जाएगा, ऐसा कहना जल्दबाज़ी होगी। सरकार बदलने से चीन की तरफ झुकाव ज़रूर बदलेगा लेकिन किस स्तर पर चीन के क़र्ज़ का जाल उसके फण्ड किये गए प्रोजेक्ट्स के रूप में मालदीव पर फैला हुआ है इस पर निर्भर करेगा कि आने वाली सरकार प्रोजेक्ट पर दोबारा गौर कर पाएगी या नहीं।

मालदीव को भी चीन और भारत के बीच संभल कर संतुलन बनाना पड़ेगा।

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