Author : Hari Bansh Jha

Published on Oct 06, 2021 Updated 0 Hours ago

किस तरह से लंबे अरसे से नेपाली सत्ता पर काबिज शक्तिशाली सरकार को उसके अंतर-पार्टी गुटबाजी ने ही कमजोर कर दिया है.

नेपाल में कम्युनिस्ट शासन का पतन कैसे और क्यों हुआ?

2017 के आम चुनाव से पहले, नेपाल में, किसी ने सपने में भी ये नहीं सोचा था कि कम्युनिस्ट देश की सत्ता पर काबिज हो सकेंगे और उसके बाद देश में एक अपराजेय शक्ति के तौर पर उनका उदय होगा. तत्पश्चात, जब – केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में, एकीकृत मार्क्सवादी -लेनिनवादी (सीपीएन – यूएमएल), और पुष्पकमल दहल के नेतृत्व में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-माओईस्ट सेंटर (सीपीएन-एमसी) के नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी गठबंधन ने 275 सदस्यीय नेपाली सांसद की प्रतिनिधि सभा (एचओआर) के लगभग दो तिहाई (64 प्रतिशत) सीट पर जीत हासिल की, तब ये अपने आप में एक बहुत बड़ा आश्चर्य था. मई 2018 मे, इन दो प्रमुख घटकों – सीपीएन-एमसी और सीपीएन – यूएमएल- के विलय के बाद, बनी नई पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) ने इन साम्यवाद समर्थकों की शक्ति में काफी वृद्धि दर्ज की है.

साम्यवादियों ने न केवल संघीय स्तर पर अपनी सरकार बनायी, बल्कि सात में से छह राज्यों में और ग्राम पंचायत/ नगरपालिका के 753 में से ज्य़ादातर सीट पर कब्ज़ा किया. चुनाव में साम्यवादियों के इस अभूतपूर्व जीत के पश्चात, के.पी.शर्मा ओली नेपाल के एक शक्तिशाली नेता के रूप मे उभरे और उनकी ये जीत ने उन्हे प्रधानमंत्री जंग बहादुर राणा (1846-1877) और प्रधान मंत्री बी.पी.कोइराला (1950-1960) के समकक्ष ला खड़ा किया.

हालांकि, ये एक विडंबना ही है कि एनसीपी के लीडर, केपी शर्मा ओली के पास आधिकारिक तौर पर अगले पाँच वर्षों तक सरकार चलाने का अधिकार है, परंतु मात्र साढ़े तीन साल के अंदर ही, उन्होंने अपनी विश्वसनीयता खो दी. इसकी शुरुआत जुलाई माह में हुई जब, नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में, नेपाली काँग्रेस पार्टी का नेतृत्व करने वाले शेर बहादुर देउबा को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया और ओली द्वारा, इस साल के मई महीने में भंग की गई संसद को दोबारा स्थापित करने का आदेश दिया.

13 जुलाई को, संवैधानिक प्रक्रिया के तहत, शेर बहादुर देउबा ने प्रधानमंत्री के पद की शपथ ली. शपथ ग्रहण के तुरंत बाद ही, 18 जुलाई को, उन्होंने 271 सदस्यीय संसद में भी विश्वास मत हासिल कर लिया. 

13 जुलाई को, संवैधानिक प्रक्रिया के तहत, शेर बहादुर देउबा ने प्रधानमंत्री के पद की शपथ ली. शपथ ग्रहण के तुरंत बाद ही, 18 जुलाई को, उन्होंने 271 सदस्यीय संसद में भी विश्वास मत हासिल कर लिया. हालांकि, उन्हें मात्र 138 सांसदों की सहमति की ज़रूरत थी. इसके अलावा 83 सांसद ऐसे थे जिन्होंने ओली को अपना समर्थन दिया जबकि उसकी तुलना में,  कुल 165  नीतिनिर्धारकों ने उनके पक्ष में अपना मत डाला. विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया के तहत, नेपाली काँग्रेस के 61 सांसदों, सीपीएन-एमसी के 48, जनता समाजबादी पार्टी के 32, सीपीएन-यूएमएल के माधव कुमार के नेतृत्व वाले नेपाल घटक के 22 सांसद, ओली धड़े को विश्वासी 8 सांसद  और 3 स्वतंत्र सांसदों ने भी देउबा को अपना वोट दिया.

ओली की पार्टी और सत्ता पर मज़बूत पकड़

केपी ओली का अपनी पार्टी और सत्ता, केंद्र मे बनी सरकार, राज्यस्तरीय सरकार और स्थानीय व्यवस्था के भीतर बनी मजबूत पकड़, नेपाल में साम्यवादी शासन के पतन का प्रमुख कारण बना. 2018 मे प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद, ओली ने विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं को प्रधानमंत्री कार्यालय में अपने अधीन कर ली थी. हालांकि, इसके बाद प्रधानमंत्री ओली और एनसीपी के सह-अध्यक्ष पुष्पकमल दहल के बीच बारी-बारी से, ढाई-ढाई साल सरकार चलाने को लेकर बनी आम सहमति के बाद, ओली अपने किए वादे से मुकर गए.

इसलिए, एनसीपी के भीतर प्रभुत्व की लड़ाई के बीच, प्रधानमंत्री ओली को सत्ता से बाहर करने की मंशा से दहल ने पार्टी के भीतर के दूसरे प्रभावशाली नेता, माधव कुमार नेपाल के साथ एक अनौपचारिक गठबंधन तैयार कर लिया. एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर बढ़ती गुटबाज़ी और सरकार के हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार ने सरकार की छवि को बेतरह धूमिल किया. इन स्थितियों के बीच, एनसीपी के बीच असहमति तब ख़ासकर बढ़ गई जब उच्चतम न्यायालय ने मई 2018 में गठित सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-एमसी के बीच कायम गठबंधन को पूरी तरह से अमान्य घोषित कर दिया. इस घटना के बाद, कम्युनिस्ट पार्टी के दो भिन्न धड़ों ने, मसलन ओली के नेतृत्व में, सीपीएन-यूएमएल और दहल के नेतृत्व में सीपीएन-एमसी – ने अपने गठबंधन पूर्व की दो स्वतंत्र पार्टियों की स्थिति को पुनः बहाल कर लिया

एनसीपी के भीतर प्रभुत्व की लड़ाई के बीच, प्रधानमंत्री ओली को सत्ता से बाहर करने की मंशा से दहल ने पार्टी के भीतर के दूसरे प्रभावशाली नेता, माधव कुमार नेपाल के साथ एक अनौपचारिक गठबंधन तैयार कर लिया. 

फिर भी, सीपीएन-यूएमएल के बीच की आपसी गुटबाज़ी रुकी नहीं है. पार्टी के अंदर एक अन्य वरिष्ठ नेता माधव कुमार को ऐसा लगता है कि जिस तरह से उन्हें और उनके अनुयायीयों को पार्टी स्तर पर उनके पद और कद के आधार पर किनारे किया जा रहा है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि, पार्टी के अंदर उनके साथ सौतेला व्यवहार किया गया है. इसी स्थिति का फायदा उठाते हुए, प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा ने सीपीएन-यूएमएल जैसी पार्टियों को कमज़ोर बनाने का प्रयास किया. इसके लिये उन्होंने संसद में एक बिल पेश किया, जिसमें ऐसा प्रावधान किया गया कि कोई भी राजनीतिक दल अथवा गुट जिन्हें केन्द्रीय कमिटी अथवा संसदीय पार्टी के 20 प्रतिशत सदस्यों का मत प्राप्त हासिल है, वो अगर चाहे तो अलग हो सकता है.

इससे पहले, किसी भी राजनीतिक दलों को पार्टी विभाजन के लिए संसदीय दलों और केन्द्रीय कमिटी के कम से कम 40 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन चाहिए होता था. इस वजह से पहले किसी भी पार्टी का विभाजन मुश्किल होता था, परंतु इस नए अध्यादेश के लागू होने के साथ ही किसी भी पार्टी के भीतर विभाजन की प्रक्रिया और भी सरल हो गई थी. इस अध्यादेश के नियम के अनुसार, माधवकुमार नेपाल के नेतृत्व वाली गुट सीपीएन-यूएमएल ने 26 अगस्त, को 29 नीति निर्माताओं, और 55 केन्द्रीय कमिटी सदस्यों के समर्थन से – सीपीएन (एकीकृत साम्यवादी)- नाम से एक नई पार्टी का गठन किया.

इससे पहले, किसी भी राजनीतिक दलों को पार्टी विभाजन के लिए संसदीय दलों और केन्द्रीय कमिटी के कम से कम 40 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन चाहिए होता था. इस वजह से पहले किसी भी पार्टी का विभाजन मुश्किल होता था, 

अगर एनसीपी मे विभाजन नहीं हुआ होता तो, कम्युनिस्टों ने देश पर काफी लंबे वक्त तक राज किया होता, परंतु आपसी मतभेद की वजह से उन्होंने केंद्र में अपनी सत्ता गंवा दी और खुद छोटे-छोटे गुटों मे बंट गए. इन छोटे-छोटे धड़ों के नेताओं के भीतर व्याप्त अहंकार भाव, और गुटबाज़ी ही अंततः इनकी प्रमुख वजह थी, और इसके भी बाद नुकसान ये है कि, प्रशासनिक स्तर के विभिन्न महकमों में, विभिन्न स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और कोविड19 महामारी से निपट पाने में असमर्थता की वजह से आम आदमी के समक्ष उनकी साख बहुत बेतरह गिर गई. चूंकि वे गुट खुद के आपसी मतभेद निपटाने और सत्ता संघर्ष में इस बुरी तरह उलझ गए कि लोक कल्याण संबंधी विषय पर उन्होंने समुचित ध्यान ही नहीं दिया. ऐसे कुछेक विकास को देखते हुए, भविष्य में कम्युनिस्ट पार्टी और इनके गुट में और भी टूट या संबंध विच्छेद की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. कम्युनिस्ट ब्लॉक में इस तरह के विघटन की वजह से पहले तो देश के भीतर कम्युनिस्ट आंदोलन को और भी ज्य़ादा कमज़ोर बना रही है, वहीं दूसरी ओर ये वर्तमान समय में सत्तासीन नेपाली कांग्रेस के लिये ये एक अतिरिक्त फायदा साबित हो रही है, चूंकि वो आगामी चुनाव में इसका पूरा फायदा उठाने की तैयारी में है. हालांकि, ये भी सच है कि नेपाल- के भीतर काफी लंबे अरसे के बाद राजनीतिक स्थिरता सफ़लतापूर्वक कायम हो पायी है, अब राजनीतिक अस्थिरता को पुनः एक मौका देने को तत्पर है, क्यूंकि आगामी चुनाव में किसी भी राजनीतिक दलों को बहुमत प्राप्त हो सकेगी, ऐसी संभावना बहुत ही कम है.

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