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दो दशकों के बाद व्यावसायिक स्वास्थ्य बीमा की रैंकिंग को लेकर रिपोर्ट कार्ड ख़राब है,व्यावसायिक स्वास्थ्य बीमा की पहुंच काफ़ी कम लोगों तक है
आबादी के मामले में दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश भारत में स्वास्थ्य पर ख़र्च दुनिया में सबसे कम में से है. यहां सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ़ 3.54 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता है. इसमें सरकारी खर्च जीडीपी का क़रीब 1.28 प्रतिशत है जो बताता है कि भारत में स्वास्थ्य देखभाल काफ़ी हद तक निजी क्षेत्र के ज़िम्मे है. ऐसे बाज़ार में स्वास्थ्य वित्त पोषण के औज़ार एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा के उपाय बन जाते हैं. ये न सिर्फ़ लोगों तक पहुंच बढ़ाते हैं बल्कि बेहतरीन स्वास्थ्य देखभाल की मांग भी उत्पन्न करते हैं और वित्तीय जोख़िम से सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं. इसलिए एक सफ़ल स्वास्थ्य बीमा बाज़ार किसी व्यक्ति के ऊपर स्वास्थ्य देखभाल पर ख़र्च का बोझ कम करता है, ऐसा नहीं होने पर परिवार के परिवार ग़रीबी में डूब जाएंगे. लेकिन भारत में स्वास्थ्य देखभाल पर ‘अपनी जेब से खर्च’ 62 प्रतिशत के उच्च स्तर पर है. इससे पता चलता है कि भारत में स्वास्थ्य बीमा उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं दे रहा है.
वर्ष 2000 में जब बीमा सेक्टर को प्राइवेट भागीदारी के लिए खोला गया था तो उस वक़्त सरकार के लिए इसकी एक बड़ी वजह स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच के लिए एक मज़बूत स्वास्थ्य बीमा बाज़ार बनाना था. निजीकरण की वजह से अस्तित्व में आए भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) को बीमा सेक्टर के विकास के साथ-साथ विनियमन की दोहरी भूमिका सौंपी गई.
लेकिन दो दशकों के बाद व्यावसायिक स्वास्थ्य बीमा की रैंकिंग को लेकर रिपोर्ट कार्ड ख़राब है. व्यावसायिक स्वास्थ्य बीमा न सिर्फ़ कम लोगों तक पहुंच की वजह से सुर्खियों में है- वित्तीय वर्ष 2020 तक सिर्फ़ 13 करोड़ 70 लाख लोगों ने स्वास्थ्य बीमा कराया था- बल्कि बाज़ार की नाकामी के लिए भी. बाज़ार की नाकामी के बढ़ते मामलों का सबूत स्वास्थ्य जोख़िम चयन (क्रीम स्किमिंग यानी कम मुनाफ़ा देने वाले ग्राहकों को सेवा नहीं देना), सतही कवरेज, ज़्यादा प्रशासनिक लागत और कम ख़र्च के अनुपात से मिलता है.
समस्या का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में विनियमन संरचना बनाने और उसे मज़बूत करने की ज़रूरत को पूरा नहीं किया जाना है. इसकी कमी की वजह से वर्तमान में देश में प्राइवेट बीमा बाज़ार के काम करने के रास्ते में बाधा आ रही है.
समस्या का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में विनियमन संरचना बनाने और उसे मज़बूत करने की ज़रूरत को पूरा नहीं किया जाना है. इसकी कमी की वजह से वर्तमान में देश में प्राइवेट बीमा बाज़ार के काम करने के रास्ते में बाधा आ रही है. ये एक वजह है जिसके कारण इलाज की बढ़ती लागत के बावजूद बेहद कम लोग स्वास्थ्य बीमा करवा रहे हैं. इसी वजह से स्वास्थ्य बीमा संकीर्ण रूप से अस्पताल में भर्ती (इन-पेशेंट केयर) होने के खर्च पर ध्यान दे रहा है जबकि उसे स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े व्यापक खर्च पर ध्यान देना चाहिए था जिनमें प्रिवेंटिव हेल्थकेयर और आउट-पेशेंट लागत (अस्पताल में भर्ती हुए बिना खर्च) शामिल हैं जो स्वास्थ्य वित्त पोषण के दीर्घकालीन तौर पर टिकाऊ होने के लिए ज़रूरी है.
इस संकीर्ण कवरेज के भीतर भी, और स्वास्थ्य बीमा को ज़्यादा व्यापक बनाने के लिए महत्वपूर्ण सुधार के बावजूद, स्वास्थ्य बीमा उत्पाद को जटिल बनाया जाता है. बीमा का लाभ लेने के लिए कुछ समय का इंतज़ार करवाना, इलाज में कुछ चीज़ों के लिए भुगतान नहीं करना और दूसरी वजहों से दावे को ठुकराकर स्वास्थ्य बीमा को जटिल बनाया जाता है. इस तरह स्वास्थ्य बीमा को लेकर जो जानकारी आगे फैलती है, वो बाज़ार की नाकामी की वजह बनती है. यही वजह है कि जीवन बीमा पॉलिसी के बाद स्वास्थ्य बीमा को लेकर सबसे ज़्यादा शिकायतें आती हैं. वास्तव में स्वास्थ्य बीमा को लेकर बड़ी संख्या में शिकायत दावा करते समय की जाती है. इससे पता चलता है कि बीमित व्यक्ति को पूरी तरह जानकारी नहीं दी गई है.
आंकड़े 9: पॉलिसी के प्रकार के मुताबिक शिकायत
2019-20 में कुल शिकायत | 215,205 |
पॉलिसी का प्रकार | शिकायत का हिस्सा (प्रतिशत) |
परंपरागत जीवन बीमा पॉलिसी | 63.36 |
स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी* | 1.18 |
अन्य | 1.89 |
पेंशन पॉलिसी (यूनिट लिंक्ड के अलावा) | 2.31 |
यूनिट लिंक्ड बीमा पॉलिसी | 8.03 |
स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी | 14.32 |
मोटर बीमा | 5.73 |
अन्य | 2.36 |
अग्नि बीमा | 0.44 |
फसल | 0.23 |
समुद्री कार्गो | 0.1 |
इंजीनियरिंग | 0.02 |
जहाज़ | 0.02 |
ऋण | 0.01 |
*जीवन बीमा कंपनियों द्वारा बेचा गया स्वास्थ्य बीमा | |
Source CAB FY20 |
आंकड़ा 12: स्वास्थ्य बीमा शिकायतों का ब्यौरा
2016-17 | 2017-18 | 2018-19 | 2019-20 | |
कुल शिकायतें | 26,937 | 25,516 | 25,369 | 30,825 |
प्रकार (प्रतिशत) | ||||
दावा | 53.83 | 58.67 | 64.15 | 70.55 |
पॉलिसी | 22.43 | 18.06 | 13.95 | 12.44 |
प्रीमियम | 2.58 | 4.43 | 3.92 | 2.57 |
रिफंड | 2.7 | 2.69 | 2.44 | 1.95 |
उत्पाद | 0.48 | 0.8 | 0.89 | 0.72 |
प्रस्ताव | 0.68 | 0.79 | 0.79 | 0.42 |
कवरेज | 1.43 | 0.92 | 0.78 | 0.67 |
अन्य | 15.87 | 13.65 | 13.08 | 10.69 |
CAB FY19 and FY20
बीमा ओम्बड्समैन (लोकपाल) ने भी वित्तीय वर्ष 2019 की अपना सालाना रिपोर्ट में ग़लत ढंग से बीमा बेचने, लापरवाह तरीक़े से प्रस्ताव फॉर्म भरने और नियम और शर्तों के बारे में नहीं बताने को ज़्यादातर शिकायतों की मूल वजह बताया है. जहां बीमा बिक्री के समय व्यक्तिगत चिकित्सकीय जानकारी पूरी तरह से नहीं बताने, मौजूदा बीमारियों की जांच-पड़ताल और दूसरी कंपनी से पोर्ट की गई पॉलिसी के मामले में पुराने दावे के इतिहास को लेकर लापरवाह रवैया देखा जा सकता है वहीं दावा निपटाने के समय बीमा कंपनी पूरी तरह छानबीन करती है. दावा निपटाने के बजाय पॉलिसी जारी करते समय ठीक ढंग से छानबीन होने पर ग्राहकों की शिकायत काफ़ी हद तक दूर की जा सकती है.
दावे को लेकर अच्छा अनुभव नहीं होने पर ग्राहक अपनी पॉलिसी को ख़त्म (लैप्स) होने के लिए छोड़ सकते हैं. ये महत्वपूर्ण है कि पॉलिसी ख़त्म होने पर बाज़ार की नाकामी के असर का अध्ययन किया जाए लेकिन सार्वजनिक तौर पर इसके लिए कोई डाटा मौजूद नहीं है. स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी को बार-बार दोहराना, बीमा के दावे की स्वीकृति दर (कुल बीमित ग्राहकों में से दावा करने वालों का प्रतिशत), दावा निपटान दर (व्यक्तिगत और समूह में जिसको अलग-अलग किया गया है)- ये कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े हैं जिनसे किसी बीमा कंपनी के प्रदर्शन का पता चलता है लेकिन बीमा विनियामक ने सार्वजनिक रूप से प्रकाशन के जो दस्तावेज़ ज़रूरी बनाए हैं, उनमें अभी भी ग्राहकों से जुड़े ये आंकड़े नहीं हैं.
आम तौर पर दो-चार साल पर इलाज में महंगाई के मुताबिक़ बीमा कंपनियां प्रीमियम में फेरबदल करती हैं. ये सभी कारण मिलकर बीमा के रिन्यूअल के वक़्त प्रीमियम 50 प्रतिशत तक महंगा करते हैं जिसकी वजह से कई लोग प्रीमियम जमा नहीं कर पाते हैं और उनकी पॉलिसी ख़त्म हो जाती है.
क़ीमत के नज़रिए से अलग-अलग उम्र के लोगों के द्वारा पॉलिसी को लंबे समय तक जारी रखना भी महत्वपूर्ण है. व्यक्तिगत रूप से स्वास्थ्य बीमा लेने वालों के लिए दाम अभी भी विरासत में मिली गफ़लत और वितरण की ज़्यादा लागत के शिकंजे में है. व्यक्तिगत स्वास्थ्य बीमा में हमेशा से ‘उम्र के मुताबिक़ क़ीमत’ का नज़रिया अपनाया गया है जिसके तहत एक ख़ास उम्र विशेषकर ज़्यादा उम्र के पॉलिसी धारकों से अधिक प्रीमियम लिया जाता है और जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे पॉलिसी का प्रीमियम बढ़ता जाता है. इस परेशानी को बीमा कंपनियां और बढ़ाती हैं जब प्रीमियम में संशोधन किया जाता है. आम तौर पर दो-चार साल पर इलाज में महंगाई के मुताबिक़ बीमा कंपनियां प्रीमियम में फेरबदल करती हैं. ये सभी कारण मिलकर बीमा के रिन्यूअल के वक़्त प्रीमियम 50 प्रतिशत तक महंगा करते हैं जिसकी वजह से कई लोग प्रीमियम जमा नहीं कर पाते हैं और उनकी पॉलिसी ख़त्म हो जाती है. ये महत्वपूर्ण है कि बुजुर्गों को क़ीमत के झटके से बचाया जाए और साथ ही युवा लोगों को स्वास्थ्य बीमा ख़रीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए. लेकिन विनियामक के इशारे के बावजूद बीमा कंपनियों ने उन ग्राहकों के लिए अलग क़ीमत को नहीं अपनाया है जो उनके साथ लंबे वक़्त के लिए हैं.
इसके अलावा व्यक्तिगत स्वास्थ्य बीमा के मामले में ग्राहक को साथ लाने के लिए बड़ा ख़र्च, जो बीमा कंपनियों के जोख़िम प्रीमियम (बीमा की लागत) को और कम करता है, नियमित तौर पर प्रीमियम को बढ़ाना ज़रूरी बनाता है. नियमों के मुताबिक़ बीमा क्षेत्र के बिचौलियों को 15 प्रतिशत कमीशन देने की इजाज़त है. लेकिन ये एक बार का कमीशन नहीं है बल्कि बार-बार दिया जाता है और प्रीमियम बढ़ने पर कमीशन भी बढ़ जाता है. उच्च प्रशासनिक लागत भी एक वजह है जिसके कारण बीमा कंपनियां व्यक्तिगत स्वास्थ्य बीमा में कम दावे के अनुपात का फ़ायदा ग्राहकों को नहीं दे पाती हैं.
स्वास्थ्य बीमा करवाने वाले लोगों की संख्या को देखें तो निजीकरण के 20 साल के बाद भी भारत में ये शुरुआती दौर में ही है. इसलिए ये महत्वपूर्ण है कि बाज़ार की नाकामी की समस्या का समाधान किया जाए. स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में सुधार के लिए दो-तरफ़ा दृष्टिकोण ज़रूरी है. सरकार की तरफ़ से ज़्यादा सहयोगपूर्ण प्रयासों की ज़रूरत है ताकि विनियामक चूक के मामले में स्वास्थ्य देखभाल के व्यापक इकोसिस्टम को दुरुस्त किया जा सके. इससे बीमा उद्योग को आरामदायक स्थिति से बाहर निकलने का विश्वास मिलेगा. लेकिन स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में भी सुधार की बहुत ज़्यादा गुंजाइश है. उदाहरण के लिए, जहां स्वास्थ्य बीमा का ज़ोर काफ़ी हद तक अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में मदद पर है लेकिन अभी भी बीमा दावे के लिए पात्रता का आधार अस्पताल में भर्ती होने का तरीक़ा है. बीमा को ‘देखभाल’ की तरफ़ ख़ुद को बदलने की ज़रूरत है, ख़ासतौर पर गंभीर बीमारियों के मामले में जहां उस बीमारी को लेकर अगर बीमा कराया गया है तो इलाज के हर तरीक़े में मदद मिलनी चाहिए.
लंबे वक़्त तक पॉलिसी को जारी रखने के लिए स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी की क़ीमत पर भी तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. इस पर भी विनियामक के हस्तक्षेप की ज़रूरत है ताकि बिचौलियों की लागत की समीक्षा की जा सके और इस उद्योग को ज़्यादा मज़बूत क़ीमत के ढांचे की ओर ले जाया जा सके.
इसलिए ये ज़रूरी है कि एक स्वास्थ्य समिति हो जो सही दवा और प्रक्रिया के सुझावों की पहचान कर सके ताकि ग़ैर-ज़रूरी इलाज से परहेज़ को सुनिश्चित किया जा सके. इसी आधार पर बीमा विनियामक ने एक स्वास्थ्य तकनीक आकलन समिति की स्थापना का प्रस्ताव रखा था लेकिन इस पर अभी तक कोई फ़ैसला नही लिया गया है. लंबे वक़्त तक पॉलिसी को जारी रखने के लिए स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी की क़ीमत पर भी तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. इस पर भी विनियामक के हस्तक्षेप की ज़रूरत है ताकि बिचौलियों की लागत की समीक्षा की जा सके और इस उद्योग को ज़्यादा मज़बूत क़ीमत के ढांचे की ओर ले जाया जा सके. एक पारदर्शी मानदंड पर भी काम करने की ज़रूरत है जो इलाज में महंगाई का सही आकलन कर सके, क़ीमत पर विनियामक निगरानी को आसान बनाए और प्रीमियम में बढ़ोतरी को पहले से निर्धारित और पारदर्शी बनाए.
सार्वजनिक जानकारी को बेहतर बनाना भी महत्वपूर्ण है और इसे लागू करना शायद सबसे आसान है. ऐसा होने पर न सिर्फ़ बाज़ार को जानकारी पहुंचेगी बल्कि इससे प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी. स्वास्थ्य बीमा के बाज़ार में सुधार की बहुत ज़्यादा गुंजाइश है और इसकी शुरुआत बीमा विनियामक से करने की ज़रूरत है. पहले से सक्रिय होकर नियम बनाने और उन्हें लागू करने के लिए इस बात की ज़रूरत बढ़ती जा रही है कि विनियामक समीक्षा करे और क्षमता बढ़ाए.
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Deepti Bhaskaran is a senior Journalist. She specialises in personal finance and looks closely at the insurance and pension space.
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