Published on May 14, 2018 Updated 0 Hours ago

कर्नाटक में स्वास्थ्य क्षेत्र में उम्मीदों और जमीनी हकीत के बीच कितना फसाला है?

कर्नाटक में स्वास्थ्य: उम्मीदों और जमीनी हकीकत के बीच बड़ा फासला

कर्नाटक भारत के उन पहले राज्यों में है जहां राज्य स्वास्थ्य नीति (2004) लागू है। यह यशस्विनी (2002) एवं वाजपेयी आरोग्यश्री (2010) के साथ सरकार समर्थित स्वास्थ्य बीमा सेवाओं में भी अग्रणी रहा है। भारत के बड़े राज्यों में, कर्नाटक की केरल, दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब एवं तमिलनाडु को छोड़कर प्रति 1000 चौबीस (24) जीवित जन्मों के साथ निम्नतम शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) है। स्वास्थ्य सुविधा के साथ जन्म की दर में पिछले 10 वर्षों के दौरान उल्लेखनीय बढोतरी हुई है जो 2005 के 65 प्रतिशत से बढ़कर 2015 में 94 प्रतिशत तक पहुंच गई है। बहरहाल, कर्नाटक में मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) अभी भी अपेक्षाकृत बदतर है और 133 प्रति 100,000 जीवित जन्म का कर्नाटक का एमएमआर दक्षिणवर्ती राज्यों के बीच सर्वोच्च है। विशेषज्ञों का मानना है कि कर्नाटक अन्य कई राज्यों की तुलना में आय वितरण के लिहाज से सामाजिक एवं धार्मिक अंतरों को पाटने में सक्षम रहा है।

कर्नाटक का स्वास्थ्य नीतियों के निर्माण में एक मजबूत ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। अक्सर यह नोट किया जाता है कि निजी अस्पतालों को पंजीकृत करने एवं उनकी कार्यप्रणाली की निगरानी करने के उद्वेश्य से कर्नाटक निजी चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम 2007 को नैदानिक प्रतिष्ठान अधिनियम 2010 से पहले ही लागू कर दिया गया था, जिसकी वजह से निजी क्षेत्र नियमन पर चर्चा मुख्यधारा में आई। संशोधित कर्नाटक निजी चिकित्सा प्रतिष्ठान (संशोधन) अधिनियम 2017 पारित किया गया एवं इसपर जनवरी, 2018 में राज्यपाल की मुहर लगी।

इसके अतिरिक्त, कर्नाटक ने अपनी राज्य स्वास्थ्य नीति (2004) में भी संशोधन किया और इसे कर्नाटक समेकित सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति (2017) का नया नाम दिया। नई नीति का निर्दिश्ट लाभ ‘एक तकनीकी रूप से मजबूत राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं कानूनी ढांचे के स्थापना करना है जो स्पष्ट दीर्घकालिक दिशानिर्देश देता है और कर्नाटक के लोगों की स्वास्थ्य स्थिति में सुधार लाने में सहायता करता है।’ रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में कर्नाटक एक व्यापक योजना के तहत वर्तमान स्वास्थ्य योजनाओं के विलय के द्वारा आरोग्य भाग्य योजना के तहत 60 मिलियन से अधिक की अपनी जनसंख्या के लिए स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के जरिये सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) शुरु करने वाला भारत का पहला राज्य भी बन गया।

नीति बनाम वास्तविकता

बहरहाल, महत्वाकांक्षी प्रतीत होने वाली नीतिगत चर्चाओं के बावजूद, स्वास्थ्य एवं पोषण परिणामों के लिहाज से राज्य का वास्तविक प्रदर्शन बहुत आशाजनक नहीं रहा है।

आंकड़ों के विश्लेषण से प्रदर्शित होता है कि दावों के बावजूद, राज्य में स्वास्थ्य में वास्तविक निवेश अपेक्षाओं से काफी कम रहा है। ब्रूकिंग्स इंडिया के शोध से प्रदर्शित हुआ कि वर्तमान में जारी कई स्वास्थ्य योजनाओं के बावजूद, राज्य सरकार द्वारा कर्नाटक में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय 791 रुपये के निचले स्तर पर रहा है जबकि व्यय का स्तर पड़ोसी राज्यों-आंध्र प्रदेश में यह 1,022 रुपये, तमिलनाडु में 849 रुपये एवं केरल में 1070 रुपये रहा है। कई स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के बावजूद, राष्ट्रीय नमूना सर्वे (2014) से प्रदर्शित हुआ कि राज्य की जनसंख्या का केवल 10.5 प्रतिशत किसी भी स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत कवर्ड था। ब्रूकिंग्स इंडिया के शोध के अनुसार, व्यक्तिगत रूप से अर्थात अपनी जेब से खर्च करने वालों की संख्या 74.3 प्रतिशत थी और 14.1 प्रतिशत परिवारों को भयानक स्वास्थ्य खर्चोंं का सामना करना पड़ा।

स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त व्यय की कमी राज्य सरकार के आधिकारिक प्रकाशनों के विश्लेषण से भी प्रदर्शित होती है। कर्नाटक समेकित सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति (2017) से लिए ग्राफ 1 से स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है कि राज्य घरेलू उत्पाद एवं कुल व्यय के प्रतिशत के लिहाज से भी, राज्य व्यय रुक गया हे। अधिक हाल के विश्लेषणों से प्रदर्शित होता है कि 2017-18 (बजट अनुमान) के हिसाब से कर्नाटक ने चिकित्सा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण पर अपने सकल व्यय का 3.8 प्रतिशत खर्च किया जो देश के अधिकांश अन्य राज्यों की तुलना में कम है।

ऐसा प्रतीत होता है कि फंडों की लगातार कमी का चिकित्सा बुनियादी ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। सारिणी 1 में दिए गए कर्नाटक के नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण ( 2017-18) में कर्नाटक सरकार के अपने डाटा के अनुसार, पिछले सात वर्षों में अस्पतालों के बिस्तरों की संख्या में प्रति लाख आबादी उल्लेखनीय रूप से कम होकर 2010-11 के 112 से 2016-17 में 80 पर आ गई। वास्तव में, वर्तमान स्तर 1970-71 के राज्य द्वारा अर्जित स्तरों से भी नीचे हैं।

एनएफएचएस-4 के निष्कर्ष प्रदर्शित करते हैं कि राज्य में लगभग दो तिहाई (63 प्रतिशत) परिवार पक्का घर में रहते हैं और लगभग सभी (98 प्रतिशत) घरों में बिजली की सुविधा है। लगभग एक तिहाई (34 प्रतिशत) अभी भी खुले में शौच करते हैं। बहरहाल, बमुश्किल एक दशक पहले की स्थिति (53 प्रतिशत) से इसमें सुधार है। राज्य में जन्मों का नागरिक पंजीयन लगभग पूरा (95 प्रतिशत) है। बहरहाल, ऐसा पाया जाता है कि 20 से 24 वर्ष की आयु की 21 प्रतिशत महिलाएं 18 वर्ष की न्यूनतम कानूनी उम्र पूरी होने से पहले ही विवाहित हो चुकी हैं। हालांकि एक दशक पहले की 42 प्रतिशत की स्थिति के मुकाबले इसमें काफी सुधार है। 25 से 29 वर्ष की आयु के 9 प्रतिशत पुरुष 21 वर्ष की न्यूनतम कानूनी उम्र पूरी होने से पहले ही विवाहित हो चुके थे जो एक दशक पहले के 15 प्रतिशत के मुकाबले कम है। मानचित्र 1 जिलों में कम उम्र के विवाहों की स्थिति प्रदर्शित करता है-राज्य के मध्य उत्तरी हिस्से के कई जिलों एवं दक्षिण में कामराजनगर में तीन में से एक लड़की कानूनी आयु पूरी होने से पहले विवाहित हो चुकी हैं। नतीजतन कर्नाटक में 15-19 वर्ष आयु समूह की लड़कियों में 8 प्रतिशत बच्चे को जन्म दे चुकी होती हैं या पहले शिशु के लिए गर्भवती होती हैं। इसका निश्चित रूप से माता एवं शिशु के स्वास्थ्य पर भी बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है।

 कई अन्य राज्यों के विपरीत, एनएफएचएस-4 के आईएमआर अनुमान कर्नाटक में सैंपल पंजीकरण प्र्रणाली आकलनों के काफी करीब हैं। कर्नाटक में वर्ष 2014-15 का अनुमान एक वर्ष की आयु से पहले प्रति 1,000 जीवित जन्म 28 मौतों का है जो एक दशक पहले के 43 की संख्या से कम है। कानूनी उम्र से कम आयु में मां बनने वाली महिलाओं के लिए नवजात मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित जन्म 35 का है जबकि 20 से 29 वर्ष की उम्र में मां बनने वाली महिलाओं के लिए नवजात मृत्यु दर प्रति 1,000 जीवित जन्म 24 का है। आईएमआर शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक, मुसलमानों की तुलना में हिन्दुओं में अधिक और अन्य की तुलना में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों में उल्लेखनीय रूप से अधिक है।

एनएफएचएस-4 के निष्कर्षों के अनुसार, कर्नाटक की 70 प्रतिशत माताएं चार या अधिक बार प्रसवपूर्व देखभाल प्राप्त करती थीं; मुस्लिम या ईसाई महिलाओं की तुलना में हिन्दू महिलाओं के चार या अधिक बार प्रसवपूर्व देखभाल प्राप्त करने की संभावना थी। बहरहाल, अलग अलग जिलों में काफी अधिक अंतर देखने में आया; उन माताओं का प्रतिशत जो चार या अधिक बार प्रसवपूर्व देखभाल प्राप्त करती थीं, चिक्काबल्लापुरा में 93 प्रतिशत था जबकि आश्चर्यजनक रूप् से बंगलुरु में यह कम-केवल 48 प्रतिशत था। फिर भी, यहां यह उल्लेखनीय है कि असमानता का यह स्तर संस्थागत प्रसव के मामले में प्रतिबिंबित नहीं हुआ-जहां राज्य का स्तर 94 प्रतिशत है, सर्वोच्च जिला औसत 99 प्रतिशत (रामनगर ) है जबकि निम्नतम जिला औसत भी 80 प्रतिशत (रायचूर) के प्रभावशाली स्तर पर है।

टीकाकरण कवरेज अभी भी राज्य के लिए चिंता का एक बड़ा कारण बना हुआ है जहां 12 से 23 महीने की आयु के बच्चों के दो तिहाई से भी कम (63 प्रतिशत) बच्चों को बचपन की छह प्रमुख बीमारियों (तपेदिक, डिप्थिेरिया,पर्टुसिस, टिटनेस, पोलियो एवं खसरा) के सभी मूलभूत टीके लगाए गए हैं। यह ज्यादा गंभीर बात है क्योंकि कर्नाटक ने 1998-99 में ही पूर्ण टीकाकरण कवरेज प्राप्त कर लिया था। दो दशकों में केवल तीन प्रतिशत बिन्दु का सुधार साबित करता है कि इस बड़े जोखिम से निपटने के प्रयास अपर्याप्त रहे हैं। मानचित्र 2 प्रदर्शित करता है कि टीकाकरण कवरेज में अलग अलग जिलों में अंतर चिंताजनक है। टीकाकरण कवरेज में 1998-99 (60 प्रतिशत) एवं 2005-2006 (55 प्रतिशत) के बीच वास्तव में कमी के इतिहास को देखते हुए, कर्नाटक के लिए अच्छा होगा कि वह टीकाकरण कवरेज में सुधार लाने की एक व्यापक कार्ययोजना बनाये।

कर्नाटक के बच्चों की पोषणिक स्थिति में बहुत सुधार लाए जाने की जरुरत है। एनएफएचएस-4 के परिणाम प्रदर्शित करते हैं कि पांच वर्ष से कम आयु के एक तिहाई से अधिक (36 प्रतिशत) बच्चों का विकास अभी भी अवरुद्ध है या वे अपनी आयु की तुलना में काफी छोटे हैं। बच्चों का लगभग समान प्रतिशत (35 प्रतिशत) कम वजन के हैं जो स्थायी और भीषण कुपोषण दोनों के ही शिकार हैं। जहां विकास अवरुद्धता एवं कम वजन दोनों के ही अनुपात में पिछले दशक के दौरान सुधार आया है, राज्य की प्रमुख पोषणिक नीतिगत चुनौती कमजोर शिशु के मुद्वे के सवाल से संबंधित है जो काफी बड़ी है और बदतर होती जा रही है। कर्नाटक के 26 प्रतिशत कमजोर हैं या अपनी लंबाई के लिहाज से बहुत पतले हैं। राज्य में कमजोर बच्चों के प्रतिशत में 2005 (18 प्रतिशत) से 2015 (26 प्रतिशत) के बीच भयावह बढोतरी होती रही है। जैसाकि मानचित्र 3 में प्रदर्शित होता है, कमजोर शिशुओं के अनुपात में अलग अलग जिलों में उल्लेखनीय अंतर हैं।

मानचित्र 4 प्रदर्शित करता है कि उत्तरी एवं मध्य कर्नाटक के कई जिलों में जहां अवरुद्ध विकास के अनुपात में सुधार आया है, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव है। इनमें से कई जिलों में विकास अवरुद्धता एवं निर्बलता काफी व्याप्त है और बहुमुखी रणनीतियों के जरिये इस पर केंद्रित रूप से ध्यान दिए जाने की जरुरत है। केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत एवं राष्ट्रीय पोषण मिशन योजनाएं राज्य के लिए स्वास्थ्य एवं पोषण सेवा प्रदायगी बढ़ाने के शानदार अवसर हैं। बहुत कुछ इस पर निर्भर करात है कि कर्नाटक की अपनी यूएचसी पहल-वर्तमान आरोग्य भाग्य योजना-किस प्रकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा मिशन (एनएचपीएम) से खुद को जोड़ती है। राज्य के विधानसभा चुनावों ने कागजी दावों से आगे बढ़कर, राज्य में स्वास्थ्य एवं पोषण नीति बहस को मुख्यधारा में लाने का एक अच्छा अवसर प्रदान किया।

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Authors

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...

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Rakesh Kumar Sinha

Rakesh Kumar Sinha

Rakesh Kumar is a Associate Fellow at ORF. He has done PGDCA (Post Graduation Diploma in Computer Application) from CMC, Delhi Centre and CIC(certificate in ...

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