Author : Satish Misra

Published on Oct 13, 2017 Updated 0 Hours ago

2014 में जब भाजपा नेतृत्व वाली राजग सरकार केंद्र में आई थी, तब इसे युवा मतदाताओं का पूरा समर्थन हासिल था।

क्या युवाओं का भाजपा से मोहभंग हो गया?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महत्वाकांक्षी युवा वर्ग को भविष्य के अच्छे दिनों का सपना दिखा कर जो ‘शानदार संवाद’ कायम किया था, अब वह टूटता दिख रहा है। इसे प्रमुख विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों के प्रशासन के हाल के फैसलों और आरएसएस-भाजपा समर्थित छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की लगातार होती हार में भी देखा जा सकता है।

इस लिहाज से सबसे ताजा घटना है, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की छात्राओं पर 23 सितंबर की रात को किया गया बल प्रयोग। यह ऐसा मौका था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी के दौरे पर थे। इसके बाद सवाल उठने लगे हैं कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को देश का युवा अब भी समर्थन कर रहा है।

यह सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पिछले चुनाव के दौरान मोदी युवाओं में खासे लोकप्रिय थे और मई 2014 में उनकी सरकार युवा मतदाताओं के समर्थन पर सवार हो कर ही सत्ता में आई थी।

उपलब्ध वीडियो फुटेज और मीडिया रिपोर्ट साफ तौर पर स्थापित करती हैं कि राज्य पुलिस ने प्रदर्शनकारी छात्राओं पर बल प्रयोग किया। ये छात्राएं विश्वविद्यालय के छात्रावास के बाहर बाइक सवार तीन पुरुषों की ओर से होस्टल में रहने वाली पहले वर्ष की छात्रा के साथ हुई छेड़खानी को ले कर विश्वविद्यालय प्रशासन का ध्यान आकर्षित करना चाह रही थीं।

जिस रात लाठी चार्ज की घटना हुई, प्रदर्शनकारी लड़कियां कुलपति से मिल कर उन्हें सुरक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी देना चाह रही थीं, लेकिन जैसे ही उन्होंने कुलपति आवास में दाखिल होने की कोशिश की, गार्ड उन्हें रोकने में जुट गए और जल्दी ही पुलिस वहां पहुंच गई और लाठी का इस्तेमाल शुरू कर दिया। इस दौरान कई छात्राओं को चोट आई।

यह दुखद घटना ना सिर्फ छात्राओं पर बल प्रयोग करने का फैसला लेने वाले विश्वविद्यालय प्रशासन और राज्य पुलिस की असंवेदनशीलता और विवेकहीनता को दर्शाती है बल्कि देश भर में युवाओं के बीच बढ़ रहे असंतोष की भी झलक देती है।

यह सिलसिला केंद्र में मोदी सरकार के गठन के कुछ महीनों के अंदर ही शुरू हो गया था। 2014 के लोक सभा चुनाव में मिले विशाल बहुमत के दंभ से भर केंद्र की सरकार ने केंद्रीय सहायता प्राप्त संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अहम पदों पर नियुक्तियों के जरिए दखल देना शुरू कर दिया। इनका दीर्घकालिक लक्ष्य था राजनीतिक कथ्य को बदलना जो उनके मुताबिक उदारवादियों और वामपंथियों के कब्जे में रहे हैं।

जिन संस्थानों पर इनकी निगाह थी, उनमें जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), हैदराबाद विश्वविद्यालय, भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी), फिल्म और टेलीवीजन संस्थान (एफटीआईआई) आदि शामिल हैं।

इस वैचारिक संघर्ष में अकादमिक संस्थानों की शांंति छिन्न-भिन्न हो गई और छात्र समुदाय राजनीतिक लाइन पर पूरी तरह बंट गया। आरएसएस और भाजपा के प्रति निष्ठा रखने वाले छात्रों ने सरकार या अकादमिक संस्थान के फैसलों को ले कर किसी भी तरह की आलोचना या असहमति को राष्ट्र-विरोधी करार देना शुरू कर दिया। सारी बहस राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्र विरोध पर ला कर सीमित कर दी गई।

तब की मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी सहित मोदी सरकार के कई मंत्री और भाजपा के कई प्रवक्ताओं ने वैचारिक संघर्ष को बहुत आक्रामक अंदाज देते हुए सहमति जताने वाले युवाओं और विरोध प्रदर्शन कर रहे छात्रों को राष्ट्र विरोधी करार दे दिया।

लगातार बढ़ती वैचारिक खाई की झलक हाल में हुए छात्र संघों के चुनाव में देखी जा सकती है। भाजपा शासित राज्यों सहित देश भर के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनावों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का प्रदर्शन काफी खराब रहा है।

देश भर के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र संघों के चुनाव में आरएसएस की छात्र इकाई का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक रहा है।

सितंबर के तीसरे सप्ताह में आए हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव के नतीजों में एबीवीपी को एक भी सीट नहीं मिली। रोहित वेमूला के अंबेडकर छात्र संघ के समर्थन से वामपंथी, दलित और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों ने एबीवीपी को यहां पटखनी दे दी।

यहां छात्र संघ में तीन दलित, दो मुस्लिम और एक आदिवासी जीते और एबीवीपी को एक भी पद हाथ नहीं आया। छात्र कार्यकर्ता और दलित स्कॉलर रोहित वेमूल ने यहां 16 जनवरी 2016 को विश्वविद्यालय पर जाति के आधार पर भेद-भाव का आरोप लगा कर आत्महत्या कर ली थी।

हाल में जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय में चुनावों में भी एबीवीपी को ऐसी ही करारी हार का सामना करना पड़ा है। जहां वामपंथी छात्र संगठनों ने साझा चुनाव लड़ कर जेएनयू की सभी सीटें जीत लीं, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में कांग्रेस की छात्र इकाई भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) ने दो अहम पद जीते और एबीवीपी को बाकी दो पर ही संतोष करना पड़ा।

एबीवीपी को पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में भी कोई सीट पाने में नाकामी मिली। राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में एबीवीपी और एनएसयूआई को दो-दो सीटें हाथ आई जबकि 2016 में यहां पूरी तरह एबीवीपी का ही दबदबा रहा था। उदयपुर के मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय में भी एबीवीपी और एनएसयूआई बराबरी पर रहे। अजमेर के एमडीएस विश्वविद्यालय में एनएसयूआई को तीन सीटें मिलीं और एबीवीपी को सिर्फ एक। अलबत्ता कोटा विश्वविद्यालय, महराज गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बिकानेर और जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर में जरूर एबीवीपी ने अच्छा प्रदर्शन किया और सभी सीटें जीतने में कामयाब हुई।

दूसरे विश्वविद्यालय परिसरों में भी तनाव की खबरें आ रही हैं, जो भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र और राज्य सरकारों की लोकप्रियता पर संदेह पैदा करती हैं।

युवाओं में भाजपा की लोकप्रियता घटने के कई कारण हो सकते हैं। इनमें सबसे अहम तो रोजगार की कमी है। खराब होती अर्थव्यवस्था और नोटबंदी जैसे कदमों ने युवाओं के बीच गुस्से का भाव पैदा किया है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा चुनावों में बेहतर भविष्य का जो वादा किया था अब युवा वर्ग उस पर भरोसा नहीं कर रहा। विश्वविद्यालय परिसरों में वैचारिक मतभेद के बढ़ने और उदारवादी माहौल के घटने का भी इसमें योगदान है।

सरकार का युवा वर्ग के साथ संबंध मोदी सरकार के पहले वर्ष में ही बदलना शुरू हो गया था। इसकी शुरुआत भारतीय फिल्म और टीवी संस्थान (एफटीआईआई) के छात्रों के विरोध से हुई। इन्होंने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से कलाकार से नेता बने गजेंद्र चौहान को अचानक संस्थान का चेयरमैन बना दिए जाने के विरोध में अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू की। चौहान 2004 में भाजपा में शामिल हुए थे और लोक सभा चुनाव में उन्होंने भाजपा के प्रचार में खूब पसीना बहाया था।

मोदी सरकार के पहले साल के दौरान ही सरकार और युवा पीढ़ी के बीच रिश्तों में बदलाव शुरू हो गया। यह शुरुआत भारतीय फिल्म और टेलीवीजन संस्थान (एफटीआईआई) के छात्रों की ओर से सूचना और प्रसारण मंत्रालय के खिलाफ अनिश्चितकालीन हड़ताल से शुरू हुआ। मंत्रालय ने टीवी कलाकार से राजनेता बने गजेंद्र चौहान को अचानक संस्थान का चेयरमैन नियुक्त कर दिया था।

चौहान की नियुक्ति को मोदी सरकार की उन पर की गई मेहरबानी के तौर पर देखा गया। इस प्रतिष्ठित संस्थान के चेयरमैन पद पर चौहान की नियुक्ति से छात्र निराश थे, खास कर इस वजह से कि उनकी पृष्ठभूमि दूसरे दर्जे के कलाकार से ज्यादा की नहीं थी।

सरकार भी नहीं झुकी और हड़ताल 139 दिनों तक चली। इसका युवाओं के जेहन में कोई अच्छा असर नहीं पड़ा।

अड़ियलपन और असंवेदनशीलता दुबारा जेएनयू छात्र नेताओं पर राष्ट्रद्रोह लगाने के मामले में भी देखी गई। संसद पर हमले के मामले में 2013 में फांसी चढ़ाए गए अफजल गुरू की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत विरोधी नारे लगाए जाने के आरोप में छात्र नेताओं पर मुकदमे लगा दिए गए।

भाजपा नेतृत्व वाली सरकार चाहती थी कि लोगों में यह संदेश जाए कि वह राष्ट्र विरोधियों को ले कर बहुत सख्त है। यह अपने समर्थकों के बीच यह प्रदर्शित करना चाहती थी कि यह दूसरों के मुकाबले ज्यादा राष्ट्रवादी है। वामपंथी उदारवादियों और आरएसएस के बीच जेएनयू वैचारिक रणक्षेत्र बन गया जिसमें आरएसएस वालों का दावा था कि वे ही असली राष्ट्रवादी हैं।

2014 से 16 के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में एबीवीपी, वामपंथी छात्र संगठनों और एनएसयूआई के बीच झगड़े होते रहे। 2015 में एबीवीपी ने छात्र संघ पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था। 2016 में भी इसे तीन सीटों पर कामयाबी मिली और एनएसयूआई को सिर्फ एक सीट मिली थी।

यह कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगा कि इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों और अगले साल होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और मिजोरम के चुनाव में भाजपा को राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी या नहीं। लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि युवा पीढ़ी में मोह भ्रम शुरू हो गया है। अगर युवाओं के गुस्से, चिता और दुख को सही तरीके से दूर नहीं किया गया तो मौजूदा सत्तारुढ़ गठबंधन को इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है।

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