Author : Vivek Mishra

Published on Oct 17, 2023 Updated 0 Hours ago

हमास का हमला क्षेत्र पर सुरक्षा और राजनीति से जुड़ी नई वास्तविकताएं थोप सकता है, और चुनावी साल में बाइडेन के लिए चुनौतियां पेश कर सकता है. 

इज़रायल पर हमास के हमले से पश्चिम एशिया क्षेत्र में अमेरिका के विकल्प सीमित हुए!

पश्चिम एशिया में हिंसा का चक्र दोबारा सामने आ गया है. मुमकिन तौर पर ये इज़रायल-फिलिस्तीन के बीच दुश्मनी भरे इतिहास के सबसे गंभीर स्वरूप में पहुंच गया है. हमास के ज़बरदस्त हमले ने इलाक़े में अमेरिका के लिए योजनाबद्ध कार्रवाई के परिदृश्य को काफ़ी जटिल बना दिया है. इससे कूटनीतिक संभावनाएं और पेचीदा हो गई हैं. हाल में हुए हमले से पहले अमेरिका इस इलाक़े के देशों को रणनीतिक रियायतें देते हुए क्षेत्रीय कूटनीति को आगे बढ़ाने के लिए नए दृष्टिकोण की पड़ताल कर रहा था. हमास का हमला इलाक़े पर सुरक्षा और राजनीति से जुड़ी नई वास्तविकताएं थोप सकता है, और चुनावी साल में बाइडेन के लिए चुनौतियां खड़ी कर सकता है.  

तात्कालिक तौर पर इस क्षेत्र में अमेरिका के सामने कूटनीतिक चुनौती मुंह बाए खड़ी है. हमास के हमले ने क्षेत्रीय कूटनीति में राष्ट्रपति बाइडेन के हालिया प्रयासों से सामने आ सकने वाले प्रत्याशित फ़ायदों में अड़ंगा डाल दिया है.

कूटनीति में उथल-पुथल 

तात्कालिक तौर पर इस क्षेत्र में अमेरिका के सामने कूटनीतिक चुनौती मुंह बाए खड़ी है. हमास के हमले ने क्षेत्रीय कूटनीति में राष्ट्रपति बाइडेन के हालिया प्रयासों से सामने आ सकने वाले प्रत्याशित फ़ायदों में अड़ंगा डाल दिया है. ईरान के हिरासत में बंधक बने पांच अमेरिकी नागरिकों के बदले ईरानी तेल परिसंपत्तियों में 6 अरब अमेरिकी डॉलर की रोक हटाने को लेकर बाइडेन प्रशासन का निर्णय घरेलू मोर्चे पर सियासी खींचतान का सबब बना हुआ है. ईरान को जारी किए गए 6 अरब अमेरिकी डॉलर ने ना सिर्फ़ उसे संभावित वार्ताओं के लिए कुछ सहूलियत दी है, बल्कि उसकी संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था में भी थोड़ी जान डाल दी है. पूरे मसले को और ज़्यादा पेचीदा बनाने वाली चिंता ये है कि अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों के दौरान इस रकम के एक हिस्से का उपयोग ईरान के क्षेत्रीय प्रभाव को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है. इन चिंताओं में वित्तीय संसाधनों को हमास तक पहुंचाने की आशंका भी शामिल है, ख़ासकर तब जब हमास, इज़रायल के साथ लंबे टकराव की तैयारी कर रहा है. भले ही ईरान सरकार ने आधिकारिक तौर पर हमास के ताज़ा हमले में शामिल होने से इनकार किया है, लेकिन हमास के लिए उनका मुखर समर्थन और उसको समर्थन देने को लेकर ईरान का खुला इतिहास, संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ता है.     

घरेलू रस्साकशी

परमाणु कार्यक्रम में अंतिम उपयोग पर ठोस निगरानी के बग़ैर ईरान को रकम मुहैया कराने के बाइडेन के फ़ैसले की आलोचना को रिपब्लिकन पार्टी ने लपक लिया है. ऐसे बिना शर्त वित्तीय हस्तांतरण को रिपब्लिकन पार्टी ने ईरान को भंवर से निकालने वाली क़वायद क़रार दिया है, ख़ासतौर से तब जब ईरान आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहा है, और साझा व्यापक कार्य योजना (JCPOA) पर अमेरिका के साथ अप्रत्यक्ष बातचीत पर विचार कर रहा है.

गाज़ा में हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल के सैन्य अभियान के बीच सऊदी अरब की मुश्किलें बढ़ गई हैं, क्योंकि इस प्रक्रिया में फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद का सुन्नी सलाफ़ीवाद के साथ घालमेल हो गया है.

वैसे तो इज़रायल के लिए राजनीतिक और सैन्य समर्थन को आमतौर पर अमेरिकी संसद में दोनों दलों की व्यापक सर्वसम्मित हासिल है, लेकिन अमेरिका के राजनीतिक वामपंथियों में एक उल्लेखनीय और प्रभावशाली वर्ग मौजूद है जो इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर बेहद ‘नपा-तला’ दृष्टिकोण अपनाता है. इसमें डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रगतिशील धड़ा प्रमुख है. इस समूह में अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेज़ेंटेटिव्स के 8 सदस्यों वाले ‘स्क्वॉड’, और उल्लेखनीय रूप से इसके चार मूल सदस्यों को इज़रायल-फिलिस्तीन के बीच जारी संघर्ष में अलग नज़रिए के लिए जाना जाता है. व्यापक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी की तुलना में न्यूयॉर्क के अलेक्ज़ेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़, मिनिसोटा के इल्हान उमर, मैसाचुसेट्स के अयाना प्रेसली और मिशिगन के रशीदा तलीब के विचार अलग हैं. हक़ीक़त ये है कि इल्हान उमर और कोरी बुश को तत्काल संघर्षविराम की वक़ालत करने के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. कुछ लोगों का विचार है कि इन दोनों सांसदों का ये रुख़ इज़रायल को जवाब देने से रोकने की कोशिश है. 

क्षेत्र में झटके और उलटफेर

कई मायनों में, हमास के हमले और इज़रायल के जवाब ने मध्य पूर्व में संभावित रूप से अमेरिका की क्षेत्रीय नीति को झटका दिया है और उसमें उलटफेर कर दिया है. अमेरिकी बंधकों के बदले ईरान को 6 अरब अमेरिकी डॉलर जारी करने का बाइडेन प्रशासन का फ़ैसला उचित वक़्त पर दी गई रणनीतिक रियायत थी. इसका मक़सद ईरान को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में वापस लाने के लिए उसे अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) द्वारा संवर्धन (इनरिचमेंट) सत्यापन के बढ़े स्तर और निगरानी के लिए रज़ामंद करना था. हाल ही में ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने दावा किया था कि ईरान को IAEA के निरीक्षणों से ‘कोई दिक़्क़त नहीं’ है. भले ही उनके बयान को कुछ हद तक बनावटी क़वायद के तौर पर देखा गया हो, लेकिन JCPOA वार्ताओं की बहाली के लिए इसे सकारात्मक संकेत माना गया. 

IAEA की जांच स्वीकार करने वाले और अंतरराष्ट्रीय क़ायदों का पालन करने वाले ईरान की संभावना अमेरिका के लिए उम्मीदों भरी थी. ये क्षेत्रीय राष्ट्रों के लिए उनकी परमाणु आकांक्षाओं की माप करने वाले मॉडल के तौर पर काम कर सकता था. अहम रूप से, अमेरिका और सऊदी अरब के बीच असैन्य परमाणु सौदे को लेकर जारी वार्ताओं के संदर्भ में JCPOA में ईरान की वापसी क्षेत्रीय स्तर पर मानक स्थापित कर देती. इतना ही नहीं, ईरान पर IAEA की निगरानी से ईरान की परमाणु गतिविधियों और संवर्धन से क्षेत्रीय अस्थिरता की संभावना के बारे में इज़रायल की चिंताओं में कमी आ सकती थी. 

शायद पहले से ही इज़रायल के लिए फ्रांस, इटली, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम के मज़बूत समर्थन से पश्चिम एशियाई क्षेत्र में पश्चिम के नए सुरक्षा गठजोड़ के लिए ज़मीन तैयार होने के संकेत मिल चुके हैं.

बहरहाल, हमास के हमले से इस इलाक़े में अमेरिकी कूटनीति को बड़ा झटका लगा है. इस हमले ने महीनों या बरसों में हुई प्रगति को संभावित रूप से पलट दिया है. अमेरिका और IAEA, दोनों के साथ ईरान का रुख़ असहयोग भरा है. इससे सऊदी अरब द्वारा इज़रायल के साथ जुड़ाव बनाने की संभावना ना के बराबर रह गई है. गाज़ा में हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल के सैन्य अभियान के बीच सऊदी अरब की मुश्किलें बढ़ गई हैं, क्योंकि इस प्रक्रिया में फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद का सुन्नी सलाफ़ीवाद के साथ घालमेल हो गया है. हमास के हमले ने फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद को फिर से जगा दिया है, जिससे अब्राहम समझौते के अपेक्षित शांतिदायक प्रभाव फीके पड़ गए हैं. इसके अलावा, फ़िलहाल इज़रायल लगातार सामने आ रही दर्दनाक घटनाओं और हमास द्वारा इज़रायलियों को बंधक बनाए जाने की वारदातों से जूझ रहा है. ऐसे समय में वार्ताओं के लिए इज़रायल के रज़ामंद होने की संभावना ना के बराबर है.  

सैन्य बलों के बदलते पैंतरे

मध्य पूर्व की घटनाओं के जवाब में अमेरिका ने इज़रायल के समर्थन में पूर्वी भूमध्यसागर में विमानवाहक युद्धपोत भेज दिया है. चूंकि अमेरिका, खाड़ी में अपने विमानवाहक पोतों की नए सिरे से तैनाती की कोशिश कर रहा है, लिहाज़ा उसके सीरिया और ईरान के ख़िलाफ़ समुद्र-आधारित प्रतिरक्षा तैयार करने की उम्मीद है. अमेरिका द्वारा झटपट की गई ऐसी कार्रवाई के नतीजतन पूर्वी भूमध्यसागर में सैन्य शक्ति के रुख़ में बदलाव आ गया है. ये क़वायद तीन व्यापक उद्देश्यों को पूरा करती है, जो अब भी पूरी तरह से ज़ाहिर नहीं हैं. सर्वप्रथम और सबसे अहम, ये अमेरिका के सबसे दृढ़ क्षेत्रीय साथी इज़रायल के भीतर ईरान, सीरिया और हमास-हिज़्बुल्लाह गठजोड़ जैसे क्षेत्रीय शत्रुओं के मुक़ाबले नया विश्वास भरता है. सैन्य बलों की तैनाती में किसी भी क़िस्म की देरी से संघर्ष के क़ाबू से बाहर होने और बढ़ जाने का ख़तरा है, जिससे इलाक़े में अस्थिरता आ सकती है. साथ ही क्षेत्रीय सामान्यीकरण की ओर कड़ी मेहनत से हासिल की गई प्रगति संकट में पड़ सकती है. दूसरे, अल्प से मध्यम कालखंड में अमेरिकी सेना की मज़बूत उपस्थिति गाज़ा में जारी इज़रायली सैन्य प्रतिक्रिया की अवधि पर भले ही असर ना डाले लेकिन उसकी क्षमता को शांत करने में रणनीतिक औज़ार की तरह काम कर सकती है. आख़िर में, राजनीतिक और सांकेतिक दृष्टिकोण से सेना के समर्थन से दिखाया गया दृढ़ रुख़ अनिवार्य हो सकता है, ख़ासतौर से तब जब हमास की क्रूरतापूर्ण हरकतों और 9/11 हमलों के बीच तुलनाएं की जाने लगी हैं. ये विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि हमास ने अमेरिकी नागरिकों को भी बंधक बना लिया है, जिससे एक निर्णायक जवाब की ज़रूरत रेखांकित होती है.

 

हिंद-प्रशांत रणनीति पर कोई आंच नहीं

खाड़ी में अमेरिकी विमानवाहक युद्धपोत की तैनाती को अमेरिका द्वारा हिंद-प्रशांत की रणनीति से ध्यान हटाने और इस क्षेत्र से चौकसी हटाकर कहीं और ले जाने के रूप में देखना एक ग़लती होगी. हक़ीक़त ये है कि पश्चिम एशियाई क्षेत्र अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति की रूपरेखा का अहम तत्व बन गया है. सर्वप्रथम, ये इस बात को रेखांकित करता है कि हिंद-प्रशांत का महाद्वीपीय परिप्रेक्ष्य अमेरिका के लिए उतना ही ज़रूरी क्यों है जितना उसका सामुद्रिक फोकस. इसके अलावा, हाल के महीनों में व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कनेक्टिविटी नेटवर्क का पश्चिम एशिया तक विस्तार हो गया है. इसमें भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEEC) और I2U2 (इज़रायल, भारत, UAE, अमेरिका) जैसी पहलों को प्रमुखता मिल रही है.

इसके अतिरिक्त, अगर चीन का प्रतिरोध करना अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का मुख्य स्तंभ है तो इस परिप्रेक्ष्य में पश्चिम एशिया की अनदेखी नहीं की जा सकती है. चीन के बढ़ते राजनयिक संपर्क और उसकी संकटग्रस्त बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को बढ़ावा देने में पश्चिम एशिया संभावित रूप से निर्णायक भूमिका निभा सकता है. काबुल में अपने राजनयिकों की तैनाती का फ़ैसला करके चीन ने तालिबान के प्रति अपनी मौन स्वीकृति का प्रदर्शन किया है. इससे अफ़ग़ानिस्तान के साथ आर्थिक जुड़ाव का रास्ता साफ़ करने की चीन की मंशा का ख़ुलासा होता है. क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिर होने के बाद तालिबान की व्यापक अंतरराष्ट्रीय मान्यता की ग़ैर-मौजूदगी में भी चीन ऐसी क़वायद को अंजाम दे सकता है. ईरान-सऊदी अरब सामान्यीकरण को बढ़ावा देने को लेकर चीन के प्रयास पश्चिम एशिया में व्यापक क्षेत्रीय मौजूदगी और प्रभाव से जुड़े उसके लक्ष्यों के दिखावे के तौर पर काम करते हैं.

एक ओर इज़रायल की ओर से गाज़ा पर हवाई हमले जारी हैं, तो दूसरी ओर अमेरिका निरंतर इज़रायल और सऊदी अरब के बीच रिश्तों को सामान्य बनाने की वक़ालत कर रहा है. दरअसल अमेरिका इस संभावना को लेकर सतर्क है कि अगर क्षेत्र में हालात और बिगड़ते हैं तो उसके कूटनीतिक प्रयास सुचारू रूप से ताक़त की ज़्यादा सशक्त नुमाइश में तब्दील हो जाएंगे. क्षेत्रीय हालात के और बिगड़ने की सूरत में इज़रायल के ‘आत्मरक्षा के अधिकार’ को मज़बूत करने के लिए अमेरिका एक नया पश्चिमी गठजोड़ भी तैयार कर सकता है. शायद पहले से ही इज़रायल के लिए फ्रांस, इटली, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम के मज़बूत समर्थन से पश्चिम एशियाई क्षेत्र में पश्चिम के नए सुरक्षा गठजोड़ के लिए ज़मीन तैयार होने के संकेत मिल चुके हैं. 

तात्कालिक तौर पर इज़रायल को समर्थन की दरकार है. अमेरिका उसका पक्का सहयोगी है और इज़रायल के प्रति राजनीतिक समर्थन की गूंज अमेरिकी संसद में हर ओर सुनाई देती है. लिहाज़ा अमेरिका उसकी ओर मज़बूत समर्थन दिखाने के लिए बाध्य है. दीर्घकाल में अमेरिकी नेतृत्व में रिश्तों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया के सैद्धांतिक और अमली तौर पर अहम बने रहने की उम्मीद है. ख़ासतौर से इसलिए क्योंकि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे अहम क्षेत्रीय किरदारों के इस इलाक़े और इससे परे हित बदलते जा रहे हैं. 


विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में रिसर्च फेलो हैं

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